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भारत पर्यटन में सैलानियों का आकर्षण राजस्थान

राष्ट्रीय पर्यटन दिवस 25 जनवरी पर विशेष

पर्यटन के क्षेत्र में पूरब से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण तक भारत के पर्यटन क्षेत्र में खूबसूरत ऐतिहासिक इमारतें, कलात्मक मन्दिर, एक से बढ़ कर एक दुर्ग और महल, पर्वतों, झीलों, नदियों, रेगिस्तान, समुंद्र, वन्य – जीवो की प्राकृतिक सम्पदा, संस्कृति का वैविध्य, अप्रतिम गुफाएं, चित्रकला की शैलियां, अनुपम हस्तशिल्प, ऐतिहासिक और भौगोलिक स्थिति का परिदृश्य सभी कुछ सैलानियों के लिए अनंत आकर्षण लिए हैं। दुनिया के कोने – कोने से सैलानी भारत की महान संस्कृति के दर्शन करने आते हैं। भारत का विश्व पर्यटन में अपना अलग महत्व है।

भारत पर्यटन के सन्दर्भ में जब हम राजस्थान को देखते हैं तो यह देश का एक ऐसा रंग – बिरंगा a प्रांत है जो इतिहास में न केवल त्याग,बलिदान और शौर्य की कहानियों के लिये प्रसिद्ध है ,बल्कि यहाॅ की कला,संस्कृति और सम्यता ने भी इसे एक विशिष्ट पहचान प्रदान की है। विश्व की सबसे प्राचीन सिन्धु घाटी सम्यता और वैदिक सभ्यता का जन्म स्थल सप्त – सैन्धव प्रदेश का गौरवगान करने वाली सरस्वती नदी इसी के नाम से बहती है। इससे हमें इस प्रदेश की प्राचीनता का बोध होता हैै। विश्व की सर्वाधिक प्राचीन अरावली पर्वत,श्रृखलाएं कर्णवत अक्ष बनाती हुई प्रदेश के मध्यभाग में उत्तर – पूर्व से दक्षिण – पश्चिमत तक फैली हुई हैं। सैकड़ों मील दूर तक फैला हुआ मरू टीलों का साम्राज्य,प्राकृतिक सौन्दर्य की छठा बिखेरती राजस्थान की झीलें एवं वन्य प्राणी कलात्मक और भव्य राजप्रासाद, दुर्ग और हवेलियां तथा संध्या के समय एकांत में गूंजते लोकसंगीत के स्वर अनायास ही पर्यटकों का मन मोह लेते हैं।

राजस्थान प्रदेश इतिहास ,कला एवं संस्कृति की दृष्टि से राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनी विशिष्ट पहचान रखता है। अपने ऐतिहासिक,पुरातात्विक एवं स्थापत्य महत्व के दर्शनीय स्थलों के कारण राजस्थान देशी -विदेशी पर्यटकों के लिये आकर्षण का प्रमुख केन्द्र बना हुआ है। राजस्थान का इतिहास बड़ा ही गौरवशाली और महिमामयी रहा है। यहाॅ की धरती कुछ ऐसी है कि यहाॅ जन्म लेकर न केवल वीरों ने इसका गौरव बढ़ाया है बल्कि साहित्य ,संस्कृति एवं कला तीनों ही क्षेत्रों में इसकी श्री वृद्धि में अपना योगदान दिया है।

पृथ्वीराज चैहान, राणाकुम्भा, महाराणा प्रताप, दुर्गादास तथा सवाई जयसिंह आदि इसी रणभूमि की संताने हैं। भामाशाह की निःस्वार्थ सेवा, पद्मिनी के जौहर और पन्नाधाय के त्याग से कौन परिचित नहीं है। साहित्य सृजन और चिंतन परम्परा को महाकवि चंद व सूर्यमल्ल, कृष्णभक्त मीरा और संत दादू ने जीवित रखा है। राजस्थान के शौर्य का वर्णन करते हुस प्रसिद्ध इतिहासकार कर्नल जेम्स टाॅड ने कहा कि राजस्थान में ऐसा कोई राज्य नहीं जिसकी अपनी थर्मोपोली न हो और कोई ऐसा नगर नहीं जिसने अपने लियोनिडास पैदा नहीं किया हो। राजस्थान की भूमि पर ही खानवा का इतिहास प्रसिद्ध युद्ध लड़ा गया जिसने भारत के इतिहास को पलट कर रख दिया । इसी राज्य ने मालदेव,चन्द्रसेन और महाराणा प्रताप जैसे वीर दिये हैं, जिन्होंने ने सदैव मुगलों से लोहा लेकर प्रदेश की रक्षा की। मालदेव को पराजीत कर शेरशाह सूरी यह कहने को मजबूर हुआ कि खैर हुई वरना मुट्ठी भर बाजरे के लिये मैं हिन्दुस्तान की सल्तनत खो देता ।

राजस्थान आजादी से पूर्व एक भौगोलिक अभिव्यक्ति मात्र था । इसकी सीमाओं में समय-समय पर अनेक परिवर्तन हुए जिसके परिणाम स्वरूप इसका वर्तमान स्वरूप अस्तित्व में आया । अरावली पर्वत श्रृंखला ने राजस्थान को दो भागो में बांट दिया है। उत्तर-पश्चिमी राजस्थान और दक्षिण – पूर्वी राजस्थान । दोनों ही प्रदेश जलवायु, धरातल वनस्पति आदि दृष्टि से भिन्नता रखते हैं। राज्य के 61 प्रतिशत भाग पर मरूस्थल का विस्तार देखने को मिलता है। चम्बल राजस्थान की एक मात्र वर्ष भर बहने वाली नदी है। इसी नदी की उपत्यकाओं ने इसे भारत में एक समृद्धशाली प्रांत बनाया है। यदि चम्बल यहाॅ प्रवाहित नहीं हो रही होती तो राजस्थान पूरा ही सहारा की तरह मरूस्थल में बदल जाता। यहाॅ की जलवायु शुष्क है और गर्मियों में ही वर्षा होती है। वर्षा का अधिकांश भाग पूर्वी राजस्थान को प्राप्त होता है। सर्दियों में बहुत कम वर्षा होती है। वनस्पति की दृष्टि से राजस्थान में अरावली की पहाड़ियाॅ नग्न हो गई हैं।

राज्य का केवल 9.57 प्रतिशत भाग ही वनाच्छाच्दित है जबकि वन नीति के अनुसार 33.33 प्रतिशत भाग पर वन होना आवश्यक है। राजस्थान में पीली क्रांति ने राज्य को भारत में सरसों के उत्पादन में प्रथम स्थान पर ला खड़ा किया है। राजस्थान में स्थिति सांभर झील भारत में आंतरिक भागों में नमक उत्पादन का सबसे बड़ा स्त्रोत है। सूती वस्त्र उद्योग राजस्थान का सबसे प्राचीन और संगठित उद्योग है। राजस्थान भारत में खनिजों की दृष्टि से एक समृद्ध राज्य है, इसीलिये इसे खनिजों का अजायबघर कहा जाता है। पन्ना,तामड़ा आदि कीमती पत्थरों का राजस्थान भारत में एकमात्र राज्य है। चम्बल जल विद्युत परियोजना राज्य की महत्ती परियोजना है। राजस्थान पवन और सौर ऊर्जा के उत्पादन में भी देश में शीर्ष पर खड़ा है। सूरतगढ एवं कोटा में राज्य के सुपर थर्मल पावर स्टेशन स्थापित है । परिवहन के साधनों का राज्य में तेजी से जाल बिछता जा रहा है। राज्य में उत्तर -पश्चिमी रेलवे और पश्चिमी-मध्य रेलवे के दो नये जोन अस्तित्व में आ गये हैं। पैलेस ऑन व्हील जैसी शाही रेलगाड़ी देश – विदेश के पर्यटकों को राजस्थान की यात्रा आठ दिनों में पूरा करा देती है।

विदेशों में संस्कृति की गूंज
राजस्थान की कला – संस्कृति और पर्यटन की गूंज यूरोप और अमेरिका तक सुनायी पड़ती है। राजस्थानी हस्तशिल्प और जयपुर के बंधेज ने विदेशी बाजारों में धूम मचा रखी है। विदेशी बालाएं जब राजस्थानी बंधेज पहनकर सड़कों पर चलती है तो सबकी निगाहें उन पर टिकी रह जाती हैं। सांगानेर स्थित एयरकार्गो काॅम्पलैक्स राजस्थानी हस्तशिल्प को विदेशों तक पहुॅचाने के लिये दृढ संकल्प है। राजस्थान के घूमर नृत्य को पूरे प्रदेश में नृत्यों का सिरमौर होने का गौरव प्राप्त है।

यहाॅ के लोक नृत्य,लोक संगीत और लोक नाट्य ग्रामीण सांस्कृतिक परिवेश का सुनहरा संसार दर्शकों के सम्मुख उपस्थित कर देते हैं। भीलों की गवरी,कामड जाति का तेरहताली नृत्य और गुलाबो का कालबेलिया नृत्य विदेशों तक धूम मचा आया है। राजस्थान पर्यटकों के लिये स्वर्ग बना हुआ है। राजस्थान पर्यटन विकास निगम द्वारा राज्य में पर्यटन को बढ़ावा देने के लिये अनेक मेले और उत्सव आयोजित किये जाते हैं। माउन्ट आबू का ग्रीष्माउत्सव और जैसलमेर का मरू उत्सव राजस्थान की शान हैं। यहाॅ के एकांतप्रिय वातावरण में जब लोक कलाकारों के पांव थिरकते हैं, लोकसंगीत की स्वर लहरियाॅ गूंजती हैं और अलगोजा जैसे वाद्य बजते हैं तो पर्यटकों को स्वर्गिक आनंद की अनुभूति होने लगती है । अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बिल क्लिंकटन भी जब राजस्थान में आये तो वे भी यहाॅ की लोक संस्कृति में रच बस गये और उनके पांव नायला गांव की धरती पर स्वयं ही थिरकने लगे। राजस्थान आज भी सैलानियों का स्वर्ग बना हुआ है।

धर्म और आध्यात्म
अजमेर के निकट पुष्कर राज में स्थित ब्रह्माजी का मन्दिर विश्व का एकमात्र मन्दिर है जहाँ इनकी विधिवत् पूजा होती है। पाली जिले के रणकपुर में स्थित चैमुखा आदिनाथ जैन मन्दिर विश्वविख्यात है। अजमेर स्थित विश्वविख्यात सूफी सन्त ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह समूचे विश्व में इस्लामिक आस्था के प्रमुखतम केन्द्रों में है और इसका स्थान मक्का मदीना के बाद आता है। नागौर जिले में मेड़ता के निकट कुड़की गांव की राजकुमारी मीरा बाई को कृष्ण भक्ति के लिये पूरे देश में जाना जाता है। दादू पंथ के प्रवर्तक दादूदयाल की कर्मस्थली राजस्थान रहा और उनकी समाधि जयपुर के निकट नारायणा नामक स्थान पर स्थित है। भारत में प्रमुख सूफी सम्प्रदाय चिश्ती सिलसिले के प्रणेता ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती थे जिनकी अजमेर स्थित दरगाह पर भारत का मुगल बादशाह अकबर कई बार अपनी राजधानी से पैदल चलकर आया था। भारत का एकमात्र विभीषण मन्दिर कोटा के निकट कैथून कस्बे में स्थित है। कोटा नगर का दशहरा मेला पूरे भारत में राष्ट्रीय मेले के रूप में प्रसिद्ध है।

पौराणिक कथाएँ एवं किवदंतियां
लोक मान्यता है कि भगवान राम के परित्याग के बाद सीता ने अपने निर्वासित जीवन का कुछ समय बारां जिले के केलवाड़ा में स्थित वाल्मिकी आश्रम में व्यतीत किया था। यहाँ स्थित सीताकुंड का सम्बन्ध सीता से जोड़ा जाता है। पौराणिक कथाओं से पता चलता है कि आबू पर्वत पर भगवान रामचन्द्रजी के गुरू वशिष्ठ का आश्रम था। यह भी किवदंती है कि कोटा के जंगलों में भगवान परशुराम ने तपस्या की थी। एक किवदंती के अनुसार जिला टौंक के बीसलपुर में स्थित शिव मन्दिर में रावण ने अपने दस शीष भगवान महादेव पर अर्पित किये थे। पौराणिक ग्रन्थों के अनुसार जयपुर के निकट आधुनिक बैराठ महाभारतकालीन मत्स्य जनपद की राजधानी था जहाँ पाण्डवों ने अज्ञातवास का एक वर्ष व्यतीत किया था। किवदंतियों के अनुसार अलवर के निकट पाण्डुपोल का निर्माण भीम की गदा से हुआ था तथा यहाँ पाण्डवों ने कुछ समय व्यतीत किया था। सांख्य दर्शन के प्रणेता कपिल मुनि का आश्रम बीकानेर जिले में कोलायत झील के किनारे स्थित है।

पर्यटक स्थल
सवाई माधोपुर के रणथम्भौर का बाघ अभयारण्य समूचे विश्व के सैलानियों में लोकप्रिय है। पूर्व का पेरिस और विश्व में पिंकसिटी के रूप में विख्यात जयपुर विश्व के प्रमुख पर्यटक स्थलों में से एक है। यहाँ का हवामहल विदेशी सैलानियों में बहुत लोकप्रिय है। जोधपुर का छीतर महल विश्व का सबसे बड़ा रिहायशी महल है जिसमें 300 से भी अधिक रहने के कमरे हैं। चित्तौड़गढ़ का किला विश्व के विशालतम पहाड़ी दुगों में से एक है। पूर्व के वेनिस और झीलों की नगरी उदयपुर विश्व में पर्यटकों के आकर्षण का प्रमुख केन्द्र है। यहाँ का लेक पैलेस अन्तर्राष्ट्रीय सैलानियों के सर्वाधिक लोकप्रिय होटलों में से एक है। भरतपुर का केवलादेव पक्षी अभयारण्य वर्ड हैरिटेज साइट के रूप में मान्य एवं विश्वविख्यात है जहाँ साईबेरियन क्रेन्स शीतकालीन प्रवास के लिये आते हैं।

पुष्कर का पशुमेला विदेशी सैलानियों में सर्वाधिक लोकप्रिय है। जयपुर जिले की सांभर झील के पारिस्थतिकी तंत्र (ईको सिस्टम) को भी वर्ल्ड हैरिटेज साइट के रूप में मान्यता दी गई है। शेखावाटी क्षेत्र के भित्ति चित्र श्रेष्ठता व बहुलता के कारण विश्व भर में ओपन आर्ट गैलरी के रूप में प्रसिद्ध हैं। राजस्थान की शाही रेलगाड़ी “पैलेस ऑन व्हील्स” और भाप से चालित “फेरीक्वीन एक्सप्रेस” विदेशी सैलानियों में सर्वाधिक लोकप्रिय हैं। जयपुर का हाथी उत्सव, बीकानेर का ऊँट उत्सव व जैसलमेर का मरू उत्सव पर्यटकों में बहुत लोकप्रिय है। राजस्थान का घूमर नृत्य, चकरी नृत्य, अग्नि नृत्य, चरी नृत्य, गवरी नृत्य देश भर में विख्यात है। राजस्थान के लोकवाद्य रावण हत्था, मोरचंग, भपंग, खड़ताल, अलगोजा आदि राष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्ध हैं। राजस्थान के राजपूत शासकों की छतरियां स्थापत्य की दृष्टि से पूरे देश में प्रसिद्ध हैं। बून्दी व टोंक जिलों की बावड़ियां पूरे देश में प्रसिद्ध हैं। लोकदेवताओं में सर्पाें के लोकदेवता तेजाजी, ऊँटों के लोकदेवता पाबूजी, व पिछड़ी जातियों के रामदेवजी राजस्थान के पड़ौसी राज्यों में भी लोकप्रिय हैं।

वन और वन्य जीव-
राजस्थान में मिलने वाले गोड़ावण, चैसिंघा और उड़न गिलहरी विश्व विख्यात हैं। जैसलमेर स्थित “आंकल वुड फोसिल्स पार्क” विश्व के प्राचीनतम जीवाश्म को संरक्षित किये हुए है। रेगिस्तान का जहाज कहलाने वाले पशु ऊँट की विश्व की श्रेष्ठतम नस्लें राजस्थान में मिलती हैं। जोधपुर जिले के खेजड़ली गाँव में अमृतादेवी के नेतृत्व में 363 व्यक्तियों ने खेजड़ी वृक्षों को कटने से बचाने के लिये अपने प्राण न्यौछावर किये थे। इस घटना को विश्व का सर्वप्रथम वृक्ष बचाओं चिपको आन्दोलन माना जाता है। इस घटना की स्मृति में यहाँ विश्व का एकमात्र वार्षिक वृक्ष मेला आयोजित किया जाता है।

ऐतिहासिक स्वरूप
राजस्थान के प्राचीन इतिहास पर दृष्टि डालें तो विदित होता है कि प्रस्तुत नामकरण से पूर्व राजस्थान प्रदेश के विभिन्न भाग भिन्न -भिन्न नामों से जाने जाते थे। जैसलमेर क्षेत्र को प्राचीन समय में मांड प्रदेश के नाम से जाना जाता था । आज भी यहाॅ का मांड गायन पूरे राजस्थान में प्रसिद्ध हैं। जोधपुर का प्राचीन नाम मरू या मरू प्रदेश के रूप में ऋग्वेद, महाभारत, वृहद संहिता आदि प्राचीन ग्रन्थों, रूद्रदामन के जूनागढ़ शिलालेख तथा पाल अभिलेखों में मिलता है। उस समय मरू प्रदेश के अन्तर्गत जैसलमेर,बीकानेर ,बाड़मेर आदि का रेगिस्तानी क्षेत्र शामिल था । मरू प्रदेश की भाषा मरू भाषा के रूप में जानी गई जिसका सर्वप्रथम उल्लेख 8वीं 9वीं शताब्दी में उद्योतन सूरी रचित कुवलयमाला में मिलता है। जोधपुर को मारवाड़ प्रदेश के नाम से भी जाना जाता है। आज भी जोधपुर की भाषा मारवाड़ी भाषा कहलाती हैै।

मरू के बाद जांगल क्षेत्र का नाम आता है। महाभारत में प्रयुक्त कुरू जांगल एवं मद्र जांगल के उल्लेख से प्रतीत होता है कि जांगल के अन्तर्गत केवल राजस्थान का उत्तरार्द्ध भाग ही नहीं बल्कि पंजाब का दक्षिण – पूर्वी भाग भी सम्मलित था । राजस्थानी इतिहास व साहित्य ग्रन्थों में जांगल का प्रचुर उल्लेख मिलता है। जांगल प्रदेश के अन्तर्गत वर्तमान के बीकानेर और जोधपुर शामिल थे । इसकी राजधानी अहि छत्रपुर थी जिसे वर्तमान में नागौर के नाम से जाना जाता है। इसी जांगल प्रदेश के अधिपति होने के कारण बीकानेर के राजा को जांगल का बादशाह के नाम से जाना जाता था । राजस्थान का पूर्वी भाग (वर्तमान जयपुर,दौसा,अलवर,तथा भरतपुर का कुछ भाग)मत्स्य प्रदेश कहलाता था । इसका उल्लेख सर्वप्रथम हमें ऋग्वेद में मिलता है, जिसमें मत्स्य निवासियों को सुदास का शत्रु कहा गया है।

महाभारत में मत्स्य राज्य की राजधानी विराट नगर (आधुनिक बैराठ – जिला जयपुर )बताई गई है। जिसमें बताया गया है कि मत्स्य राज्य पांड़वों का प्रबल पक्षधर था । उनके अज्ञातवास के अनेक प्रसंग इस भू-भाग से जुडे़ हुए हैं। मत्स्य प्रदेश से जुड़ा हुआ साल्व प्रदेश था जिसका समीकरण प्रसिद्ध पुरात्ववेत्ता जनरल कनिंघम ने अलवर से किया है। वर्तमान जयपुर तथा उसका समीपवर्ती प्रदेश ढूंढाड़ के नाम से प्रसिद्ध रहा है। इसीलिये आज भी इस प्रदेश की भाषा ढूढ़ाडी कहलाती है। शूरसेन जनपद के अन्तर्गत मथुरा सहित अलवर,भरतपुर,धौलपुर व करौली का सीमावर्ती क्षेत्र सम्मिलित था । रणथम्भौर के प्रसिद्ध चैहान शासक राव हम्मीर का मंत्री रणमल शूरवंशीय क्षत्रिय था ।

इसी प्रकार राजस्थान का दक्षिणी भू-भाग शिवि मेदपाट,बागड़,प्राग्वाट आदि नामों से जाना जाता था । उदयपुर का सबसे प्राचीन नाम शिवि मिलता हैं। शिवि जनपद चितौड़ का समीपवर्ती क्षेत्र था । इसकी राजधानी मध्यमिका थी जिसे आजकल नगर के नाम से जाना जाता है। नगरी चितौड़ से लगभग 7 मील उत्तर पूर्व में स्थित एक प्राचीन गांव हैं। यहाॅ उपलब्ध मुद्राओं पर अंकित मज्झिमनिकाय शिवि जनपदस्य से इसकी पुष्टि होती है। उदयपुर को ही बाद में मेवाड़ के नाम से जाना गया । मेदपाट मेवाड़ का ही पुराना नाम था ।

मेवाड़ के गुहिल राजवंश की स्थापना से पहले यहाॅ संभवतया मेरों या मेेदों का शासन था इसिलिये इसका प्राचीन नाम मेदपाट था । मेदपाट को ही प्राग्वाट भी कहा जाता था । जैसा कि जय सिंह कलचूरि के अभिलेखों में मेवाड़ के राजाआंे को प्राग्वाट नरेश लिखा होने से ज्ञापित होता है। राजस्थान के दक्षिणी – पश्चिमी भू-भाग जिसमें सिवाणा और जालौर क्षेत्र शामिल हंै को गुर्जर अथवा गुजरत्रा नाम से जाना जाता था । इसकी प्राचीन राजधानी भीनमाल थी जैसा कि प्रसि़द्ध चीनी यात्री हेनसांग के यात्रा विवरण से संकेत मिलता है। डूंगरपुर – बांसवाड़ा क्षेत्र को पहले बांगड़ प्रदेश के नाम से जाना जाता था ।

आज भी प्रदेश की भाषा बागड़ी भाषा के नाम से प्रसिद्ध है। चैहान नरेशों के राज्य शाकम्भरी (सांभर)एवं अजमेर को पूर्व में सपादलक्ष के नाम जाना जाता था। इसी प्रकार राजस्थान के विविध भू- भागों के लिये और अनेक नाम समय – समय पर प्रचलित रहे हंै। उदाहरण के लिये खींची चैहानों द्वारा अधिकृत होने के कारण गागरोन और उसका समीवर्ती क्षेत्र खींचींवाडा़ ,झालाओं द्वारा शासित झालावाड़ रावशेखा के वंशजों द्वारा अधिकृत प्रदेश शेखावटी, तंवर क्षत्रियों के अधीन नीमका थाना तथा कोटपूतली का निकटवर्ती प्रदेश तोरावाटी या तंवर वाटी कहलाया । इसके अलावा मेव बाहुल्य प्रदेश मेवात (वर्तमान के अलवर और भरतपुर जिले),मेरों की अधिकता के कारण अजमेर और उसका निकटवर्ती प्रदेश मेरवाड़ा प्रदेश कहलाया ।

आदिवासी भीलों की अधिकता के कारण भीलवाड़ा को यह नाम प्राप्त हुआ । कई नाम ऐसे हैं जो प्राचीन काल में प्रचलित रहे हैं और आज भी लोक व्यवहार में प्रचलन में हैं जैसे कोटा- बूंदी ,झालावाड़,बांरा का क्षेत्र आज भी हाड़ौती के नाम से प्रचलित है। इसी प्रकार चितौड़ को पूर्व में खिज्रराबाद ,धौलपुर को कोठी तथा करौली को गोपालपाल आदि नाम से जाना जाता था। इस प्रकार राजस्थान के भौगोलिक क्षेत्र या अंचल को प्राचीन संदर्भ के अनुसार विविध नामों से पहचाना गया है। राजस्थान का वर्तमान स्वरूप 1 नवम्बर 1956 को राज्य पुनर्गठन अधिनियम 1956 के अन्तर्गत अस्तित्व में आया है। भारत में रियासतों के एकीकरण का महान कार्य तत्कालीन गृहमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल के हाथों से सम्पन्न हुआ ।

जब भारत आजाद हुआ उस समय राजपूताना में 19 रियासतें और 3 ठिकाने (निमराना,लावा,और कुशलगढ़)शामिल थे तथा अजमेर -मेरवाड़ा केन्द्र शासित प्रदेश था । सात चरणो में इन सभी प्रशासनिक इकाईयों का राजस्थान में विलय हुआ।

( लेखक पर्यटन विषय के विशेषज्ञ एवं स्वतंत्र पत्रकार हैं)

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