Friday, March 29, 2024
spot_img
Homeपुस्तक चर्चारक्तिम तांडवः कश्मीर की रक्तरंजित वेदना के मुखर स्वर

रक्तिम तांडवः कश्मीर की रक्तरंजित वेदना के मुखर स्वर

कश्मीर में आतंकवाद के दंश ने कश्मीरी जनमानस में जिस पीड़ा और विषाक्तता का संचार किया है,उससे उपजी ह्रदय-विदारक वेदना तथा उसकी व्यथा-कथा को साहित्य में ढालने के सफल प्रयास पिछले लगभग तीन दशकों के बीच हुए हैं। कई कविता-संग्रह, कहानी-संकलन,औपन्यासिक कृतियां आदि सामने आए हैं, जो कश्मीर में हुई आतंकी बर्बरता और उससे जनित कश्मीरी पंडितों/हिन्दुओं के विस्थापन की विवशताओं को बड़े ही मर्मस्पर्शी अंदाज में व्याख्यायित करते हैं।कश्मीर के इन निर्वासित किन्तु जुझारू रचनाकारों में सर्वश्री शशिशेखर तोषखानी,चन्द्रकान्ता,क्षमा कौल, रतनलाल शांत,अग्निशेखर,महाराजकृष्ण संतोषी,प्यारे हताश,अवतार कृष्ण राज़दान, ब्रजनाथ ‘बेताब’ , महाराज शाह, अशोक हांडू आदि उल्लेखनीय हैं। इसी श्रृंखला में पिछले दिनों एक नाम और जुड़ गया और वह नाम है कश्मीर के चर्चित कवि श्री भूपेन्द्रसिंह रैना का। इनका “रक्तिम तांडव” कविता-संग्रह कश्मीरी पंडितों की विस्थापन की त्रासदी को केद्र में रखकर लिखा गया एक हृदयस्पर्शी कविता-संग्रह है।

दरअसल, कश्मीर का ‘विस्थापन साहित्य’ कट्टर,क्रूर और गैर-राष्ट्रवादी ताकतों की राष्ट्रवादी ताकतों के साथ सीधी-सीधी जंग का प्रतिफलन है। बर्बर बहु-संख्याबल के सामने मासूम अल्पसंख्या-बल को झुकना पड़ा जिसके कारण ‘पंडित समुदाय’ भारी संख्या में कश्मीर घाटी से विस्थापित हुआ और पिछले लगभग तीन दशकों से अपनी अस्मिता और इज्जत की रक्षा के लिए संघर्षरत है।1990 में हुए कश्मीरी पंडितों के घाटी से विस्थापन की कथा, मानवीय यातना और अधिकार-हनन की त्रासद गाथा है। यह दुर्योग अपनी तमाम विडंबनाओं और विसंगतियों के साथ आज हर चिन्तक, बुद्धिजीवी और जनहित के लिए प्रतिबद्ध रचनाकार के लिए चिन्ता और चुनौती का विषय बना हुआ है।

कश्मीर में आतंकवाद के दंश ने कश्मीरी जनमानस को जो पीड़ा पहुंचायी है, उससे उपजी हृदय-विदारक वेदना तथा उसकी व्यथा-कथा को साहित्य में ढालने के सफल प्रयास पिछले लगभग ढाई-तीन दशकों के बीच हुए हैं और अब भी हो रहे हैं। ऎसी रचनाओं को पढ़कर भाव और शिल्प के स्तर पर मर्म को छूने वाली जिन अनुभूतियों से साक्षात्कार होता है, वे कश्मीरी साहित्य के साथ-साथ भारतीय/हिंदी साहित्य की भी बहुमूल्य निधि हैं।

भूपेन्द्रसिंह जी ने पंजाबी में ज़्यादा लिखा है। पंजाबी के वे प्रतिष्ठित लेखक हैं। पंजाबी में इनके सात उपन्यास,दो नाटक और एक काव्य-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं।

भूपेन्द्रसिंह जी के हिंदी में लिखे “रक्तिम तांडव” के प्रथम भाग में लगभग चालीस कविताएँ आकलित हैं जो मुख्यतः पंडितों के कश्मीर से उनके दर्दनाक विस्थापन की त्रासदी पर केन्द्रित हैं और दूसरे भाग में कवि के स्फुट भावोद्गारों से समाविष्ट बीस से ऊपर कविताएँ संकलित हैं। जैसा कि कहा गया है पंडितों के विस्थापन को लेकर जो साहित्य अब तक सामने आया है,चाहे वह कश्मीरी में हो या अंग्रेजी में या फिर हिंदी में, वह प्रधानतः कश्मीर से निर्वासित कश्मीरी पंडित रचनाकारों द्वारा रचित है।इधर,पहली बार सिक्ख-धर्म से जुड़े रचनाकार बारामूला(कश्मीर)वासी श्री भूपेन्द्रसिंह रैना जी द्वारा रचित “रक्तिम तांडव” एक ऐसा काव्य-संग्रह है जो यह रेखांकित करता है कि कश्मीर में प्रायः सभी जातियों/धर्मों के लोग जिहाद/आतंकवाद से जनित विभीषिका से प्रभावित हुए हैं। चाहे वे पंडित/हिन्दू हों या सिक्ख या फिर किसी अन्य फिरके के।

“रक्तिम तांडव” काव्य-संग्रह की प्राम्भिक पंक्तियाँ बड़ी सारगर्भित और संदेशपरक हैं।कवि के रचनाकर्म के उद्देश्य की ओर प्रतीकात्मक तरीके से इंगित करती हैं:

प्रयत्नशील हूँ कुंठा बांटने को

अपनी मातृभूमि की,

अपने समाज की,

उस रक्त की जो व्यर्थ बहा

गलियों में,खलिहानों में।

भूपेन्द्रसिंह जी की अधिकाँश कविताएँ उनकी आकुलता एवं आक्रोश को बड़ी कलात्मकता के साथ रूपायित करती हैं। भोगी हुई पीडा के प्रतिक्रिया-स्वरूप भूपेन्द्र की विस्थापन से जुड़ी त्रासद स्थितियों को समझने-देखने की क्षमता उनकी अद्भुत मनस्विता का सुंदर परिचय देती हैं। जेहाद की विभीषिका से “कश्मीरियत” को तार-तार होते उनका कोमल मन यों उद्वेलित हो उठता है। वे कहते हैं:

जहाँ बोये थे ‘कश्मीरियत’ के बीज

उग आये कीकर,

पडौसी पडौसी नहीं रहा,मित्र मित्र नहीं रहा

किसी हमदर्द का कोई चरित्र नहीं रहा।(स्वर्ग)

19 जनवरी 1990 का दिन कश्मीरी पंडितों के वर्तमान इतिहास-खंड में काले अक्षरों में लिखा जायेगा। यह वह दिन है जब पाक-समर्थित जिहादियों द्वारा कश्यप-भूमि की संतानों (कश्मीरी पंडितों) को अपनी धरती से बड़ी बेरहमी से बेदखल कर दिया गया था और धरती के स्वर्ग में रहने वाला यह शांतिप्रिय समुदाय दर-दर की ठोकरें खाने पर मजबूर हुआ था। यह वही काली तारीख है जब लाखों कश्मीरी पंडितों को अपनी जन्मभूमि, कर्मभूमि, अपने घर आदि हमेशा के लिए छोड़ कर अपने ही देश में शरणार्थी बनना पड़ा था।कवि भूपेन्द्रसिंह ने इस मंज़र का भावपूर्ण मन से यों वर्णन किया है:

वह काली रात,स्याह रात

जब मस्जिदों से निकली आवाजें,

पंडितो,यह धरती छोड़ दो,या मुसलमान बन जाओ,

अपनी औरतों को यहाँ छोड़ दो और गुलाम हो जाओ,

यह मुल्क हमारा है,काफिरों से उसे पाक करना है

अल्लाह को न मानने वालों से साफ़ करना है।(निष्कासन की चेतावनी)

विस्थापन की त्रासदी ने कवि के मन-मस्तिष्क को बहुत गहरे तक आक्रांत कर दिया है।उसकी यह पीड़ा उसके रोम-रोम में समाई हुई है। घर-परिवार की
सुखद स्मृतियों से लेकर आतंकवाद की आग तक की सारी क्रूर स्थितियां कवि की एक-एक पंक्ति में उभर-उभर कर सामने आती हैं। आतंकी विभीषिका से जनित स्थितियों का कवि द्वारा किया गया वर्णन और उससे पैदा हुई घरबार से बिछुड़ने की पीड़ा कवि के मन को यों आहत करती है:

बहुत कठिन था घर त्यागना

पाँव बाँध रहा था पूर्वजों का आंगना,

घर की हर दीवार रो रही थी

झरोके सिसकियाँ ले रहे थे

आत्मा बेबस हो रही थी। (जेहाद)

भावस्थितियों की विविधता भूपेन्द्र जी की कविताओं में विपुल मात्रा में देखने को मिलती है। कहीं बेबसी है तो कहीं कर्मोत्साह है। कहीं दैन्य है तो कहीं आक्रोश
है। कहीं चीख है तो कहीं मूक संगीत है।कुल मिलाकर कवि की हृदय-तन्त्री से निकले हुए हर भाव का समायोजन संग्रह की कविताओं में बडी कुशलता और
सटीकता से हुआ है। कश्मीरी पंडितों के पलायन को कवि विश्वास और आशा का हनन कहकर यों चीख उठता है:

यह पलायन था

आशा और विश्वास का।

अपनेपन के अहसास का।

यह पलायन था कश्मीरियत का

सदियों से पनपे रिश्तों का

संस्कृति का, इतिहास का।

नस-नस में बसी

वितस्ता की सभ्यता का,

नुंदऋषि के भरोसे का।

बाबा ऋषि के उल्लास का।

यह पलायन था,

ललेश्वरी के गीत का

सदियों से रूह में बसे

सूफ़ी संगीत का। (पलायन)

सरल और सुबोध शैली का इस्तेमाल करना भूपेन्द्र जी की कविताओं की खास पहचान है। वह पाठक को झिंझोडती ही नहीं, उसे बहुत-कुछ सोचने पर मजबूर भी करती है-

हर बार शासक ने

लाया है नया तूफान।

हर बार कश्यप ऋषि के

गोत्र का हुआ है अपमान।

धर्म परिवर्तन करते-करते

बहुसंख्यक से अल्पसंख्यक हो गए।

स्वर्णिम गाथा के क्षण

अवशेषों में कही खो गए।(गणपतियार)

कुल मिलाकर भूपेन्द्रसिंह जी के कविता-संग्रह “रक्तिम तांडव” में संकलित कविताएं कवि के मन से निकले ऐसे उद्गार हैं जो उनके भोगे हुए यथार्थ से
साक्षात्कार कराते हैं और इसके लिए वे परिस्थितियों को नहीं अपितु एक विशेष समुदाय में बढ़ते धार्मिक उन्माद और व्यवस्था की बद-इन्तजामी को दोषी ठहराते हैं। फिर भी इस सारी अव्यवस्था और त्रासदी के बीच कवि ने हिम्मत नहीं हारी है। उसका मन आशा की किरन से भास्वरित है और यही इस काव्य-संग्रह की खूबी भी है।वह कहता है:

वन, पर्वत, नदियां, नाले

और कश्मीर की सारी धरती पर

अधिग्रहण था हिंदुओं की शक्ति का

भद्रकाली, क्षीरभवानी, मट्टन

और अमरनाथ की शिव-गुफा

प्रत्यक्ष प्रमाण हैं पंडितों की भक्ति का।

भला

कौन इन जड़ों से पंडितों को तोड़ सकता है?

कौन घर लौटने के कदमों को मोड़ सकता है? (इतिहास के पन्ने)

प्रेषक

(डॉ. शिबन कृष्ण रैणा)

MA(HINDI&ENGLISH)PhD

Former Fellow,IIAS,Rashtrapati Nivas,Shimla

Ex-Member,Hindi Salahkar Samiti,Ministry of Law & Justice

(Govt. of India)

SENIOR FELLOW,MINISTRY OF CULTURE

(GOVT.OF INDIA)

2/537 Aravali Vihar(Alwar)

Rajasthan 301001

Contact Nos; +919414216124, 01442360124 and +918209074186

Email: [email protected],

shibenraina.blogspot.com

image_print

एक निवेदन

ये साईट भारतीय जीवन मूल्यों और संस्कृति को समर्पित है। हिंदी के विद्वान लेखक अपने शोधपूर्ण लेखों से इसे समृध्द करते हैं। जिन विषयों पर देश का मैन लाईन मीडिया मौन रहता है, हम उन मुद्दों को देश के सामने लाते हैं। इस साईट के संचालन में हमारा कोई आर्थिक व कारोबारी आधार नहीं है। ये साईट भारतीयता की सोच रखने वाले स्नेही जनों के सहयोग से चल रही है। यदि आप अपनी ओर से कोई सहयोग देना चाहें तो आपका स्वागत है। आपका छोटा सा सहयोग भी हमें इस साईट को और समृध्द करने और भारतीय जीवन मूल्यों को प्रचारित-प्रसारित करने के लिए प्रेरित करेगा।

RELATED ARTICLES
- Advertisment -spot_img

लोकप्रिय

उपभोक्ता मंच

- Advertisment -spot_img

वार त्यौहार