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रामनवमी महिमा

चैत्र माह के प्रारंभ होते ही सृष्टि में नई ऊर्जा का संचार होता है, पेड़ो और पोधों में नई कोंपले आने लगती हैं। वातावरण में अनेक परिवर्तन देखने को मिलते हैं, प्रकृति नए रूप और नए रंग में निखरने लगती है। जल प्रलय से सृष्टि को बचाने हेतु महा विष्णु जी ने इसी माह में प्रथम अवतार लेकर वैवस्वत मनु जी की नौका को जल के विशाल सागर से बाहर निकाला था। इन्हीं प्रथम अवतार मत्स्यावतार श्री विष्णु जी ने महाराज मनु जी से सृष्टि का नए रूप में निर्माण करने को कहा। इसी चैत्र माह की शुक्ल प्रतिपदा से सृष्टि की रचना आरंभ हुई, जिसे सनातन धर्म को मानने वाले नव वर्ष के रूप में मनाते हैं।प्रभु आज्ञा का प्रीतिपूर्वक पालन करते हुए महाराज मनु ने इकहत्तर चतुर्युग पर्यंत पृथ्वी पर राज किया। भवन में रहते रहते ही उन्हें वृद्धावस्था ने घेर लिया, उनके मन में बड़ी पीड़ा हुई कि हरी भक्ति बिना ही जीवन व्यतीत हो गया।

होइ न बिषय बिराग, भवन बसत भा चौथपन।
हृदयँ बहुत दु:ख लाग, जनम गयउ हरिभगति बिनु॥

इस प्रकार से विचार कर महाराज मनु ने अपना राज पुत्र उत्तानपाद को दे दिया और स्वयं सहगामिनी देवी शतरूपा जी के साथ हरी भक्ति का विचार कर वन की ओर प्रस्थान किया। वनों में नैमिषारण्य वन की महिमा हर वेद पुराण आदि ने की है, जहाँ के तीर्थ और सिद्ध साधक विख्यात हैं। देवी शतरूपा सहित महाराज मनु भी हर्षित हृदय से इसी वन में आये।

तीरथ वर नैमिष विख्याता। अति पुनीत साधक सिधि दाता।

गोमती तट के निकट पहुँच मनु दम्पति ने निर्मल जल में स्नान किया। उनके आगमन का समाचार सुन ऋषि मुनि और सिद्ध समाज के साधक उनसे मिलने आये। ऋषि मुनियों ने उन्हें आदरपूर्वक नैमिषारण्य के सभी तीर्थ करवाये और उन तीर्थों की महिमा का वर्णन भी कह सुनाया।

अनेक वर्षों तक वन में रहकर मनु दम्पत्ति ने कठोर तप किया, उनके तप से प्रसन्न हो ब्रह्मा, विष्णु एवं शिव जी ने आकर उनसे वर मांगने को कहा, पर मनु महाराज के मन में उन निर्गुण, अखंड और अनादि देव के दर्शन करने की अभिलासा थी। जिनकी वेदों पुराणों में नेति नेति कहकर व्याख्या की गयी है और जिनके अंश से ब्रह्मा, विष्णु और शिवजी जन्म लेते रहते हैं।

नेति नेति जेहि बेद निरूपा। निजानंद निरुपाधि अनूपा॥
संभु बिरंचि बिष्नु भगवाना। उपजहिं जासु अंस तें नाना॥

दस सहस्त्र वर्षों के अपार तप को देख प्रभु साकेतविहारी, जो वर्षाकालीन मेघों के समान श्याम श्रीविग्रह हैं और जिनकी शोभा का वर्णन श्री गोस्वामी तुलसीदास जी ने श्री मानस में किया हैं, वे प्रभु श्री अनादि, अनंत प्रकट हुए और मनु दम्पति को दर्शन देकर वर मांगने को कहा। मनु दम्पति ने उन देव की बारंबार पूजा कर, प्रभु से ये वर माँगा “ प्रभु, हम आपके समान पुत्र चाहते हैं” । प्रभु ने कहा मै अपने समान कहाँ जाकर खोजूँ, इसलिए मैं स्वयं ही तुम्हारे पुत्र रूप में जन्म लूँगा।

दानि सिरोमनि कृपानिधि, नाथ कहउँ सतिभाव।
चाहउँ तुम्हहि समान सुत, प्रभु सन कवन दुराव॥

देखि प्रीति सुनि बचन अमोले। एवमस्तु करुनानिधि बोले॥
आपु सरिस खोजौं कहँ जाई। नृप तव तनय होब मैं आई॥

अनेक वर्ष बीतने पर सरयू नदी के तट पर बसे कोशल जनपद की अयोध्या नगरी में चक्रवर्ती राजा दशरथ हुए। वे इक्ष्वाकु कुल के अतिरथी वीर थे। एक समय पुत्र प्राप्ति की इच्छा से अश्वमेघ यज्ञ करने का विचार उनके मन में हुआ, और उन्होंने सुमंत जी से कहा’ “तुम हमारे सब गुरुओं और श्रेष्ठ पुरोहितों को शीघ्र बुला लाओ।“

सब पुरोहितों के आने पर महाराज दशरथ ने उनसे अपने विचार कहे, जिसकी सभी पुरोहितों ने प्रशंसा की और इसे शुभ विचार बताया। वशिष्ठ आदि पुरोहितों ने महाराज से कहा, “आप सरयू तट पर यज्ञ मंडप बनवाइये और यज्ञ सामग्री एकत्रित कर अश्वमेघ का अश्व छोडिये, इससे आपके पुत्र प्राप्ति का मनोरथ अवश्य ही पूरा होगा।

ब्राह्मणों के जाने के बाद सुमंत जी ने महाराज से एक कथा कह सुनाई जो सनत्कुमार जी ने ऋषियों से कही थी और जिसे सुमंत जी ने ऋषियों के संपर्क से सुन रखी थी। किसी समय अंग देश के राजा रोमपाद के यहाँ दुर्भिक्ष पड़ेगा। उस समय वे कश्यप मुनि के पोत्र और ऋषि विभंडक के पुत्र ऋषि श्रुंग जी को अपने देश बुला कर उनसे अपनी पुत्री शांता का विवाह कर देंगे। उन ऋषि के प्रताप से उस नगर में वर्षा होने लगेगी और जल्द ही दुर्भिक्ष भी जाता रहेगा।

इस प्रकार से कहकर सुमंत जी ने महाराज दशरथ से कहा, “ महाराज वे ऋषि श्रुंग अपनी अर्धांगिनी देवी शांता के साथ उसी नगर में सुखपूर्वक रहते हैं।“ सनत्कुमार के कथनानुसार उन्हीं ऋषि श्रुंग को बुलवाकर यदि आप यज्ञ करेंगे और उस यज्ञ में उन्हें ऋत्विज बनाएंगे तो आपके चार प्रतापी पुत्र होंगे।

वंशप्रतिष्ठानकराः सर्वलोकेषु विश्रुताः ||
एवं स देवप्रवरः पूर्वं कथितवान्कथाम् |
सनत्कुमारो भगवान्पुरा देवयुगे प्रभुः |

वे पुत्र वंश बढ़ाने वाले और सारे संसार में विख्यात होंगे। इस प्रकार सनत्कुमार जी ने ये कथा बहुत पूर्व अर्थात इस चतुर्युगी के प्रथम सतयुग में कही थी।

सुमंत जी द्वारा सुनी कथा को महाराज दशरथ ने अपने गुरु महर्षि वशिष्ठ जी से कही, और उनकी आज्ञा प्राप्त कर वे अंग देश को चले। अंगदेश के महाराज रोमपाद और अयोध्या सम्राट महाराज दशरथ मित्र थे, इससे महाराज रोमपाद जी ने अपने जमाता और पुत्री शांता को महाराज दशरथ के साथ भेजना स्वीकार कर लिया।

वसंत ऋतू के आगमन पर पुत्र प्राप्ति के लिए प्रतापी महाराज ने यज्ञ करने की इच्छा की, गुरु वशिष्ठ जी से मिलकर उन्होंने इस यज्ञ का भार संभालने का आग्रह किया। यज्ञ विधिपूर्वक और बिना किसी विघ्न के पूर्ण हो सके इसलिए महर्षि वशिष्ठ जी का ही उसे संभालना उचित होगा ऐसा महाराज दशरथ जानते थे।

महाराज दशरथ के आग्रह करने पर गुरु वशिष्ठ जी ने यज्ञ कार्य का भार अपने ऊपर स्वीकार कर लिया। उन्होंने श्रेष्ठ धर्मात्मा ब्राह्मणों को, स्थापत्य कला के जानकारों को, कारीगरों को और शिल्पकारों को बुलाकर यज्ञ के लिए कार्य करना आरंभ किया। सभी मेहमानों के ठहरने और भोजन करने की उत्तम व्यवस्था की गयी।

महर्षि वशिष्ठ जी ने सभी को ऐसी आज्ञा दी,

सर्वे वर्णा यथा पूजां प्राप्नुवन्ति सुसत्कृताः |
न चावज्ञा प्रयोक्तव्या कामक्रोधवशादपि ||

ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए, जिससे सभी वर्ण के लोग भलीभांति सत्कृत हो सम्मान प्राप्त करें। काम और क्रोध के वशीभूत होकर भी किसी का अनादर नहीं किया जाये। जो शिल्पी मनुष्य यज्ञकर्म की आवश्यक तैयारी में लगे हों, उनका तो बड़े-छोटे का खयाल रखकर विशेषरूप से समादर करना चाहिए। जो सेवक सेवाकार्य से जुड़े हैं उनके भोजन और श्रम का यथा योग्य खयाल रखा जाए, जिससे वे सब प्रीतिपूर्वक मन लगा कर कार्य कर सकें।

जिस समय महाराज दशरथ के यहाँ यज्ञ कार्य की तैयारीयाँ चल रहीं थी, उस समय रावण के आतंक से यक्ष, गंदर्भ, देवता सब त्राहि त्राहि पुकार रहे थे। अधर्म के भार से बोझिल हो पृथ्वी गौ का रूप धारण कर देवताओं सहित ब्रह्मा जी के पास गयीं। देवताओं ने ब्रह्मा जी से प्राथना करते हुए कहा, प्रभो! आपने प्रसन्न होकर उस दुष्टात्मा रावण को जो वर दिया है, उससे वह उद्दंड हो ऋषियों, यक्षों, गन्धर्वो, ब्राह्मणों को पीड़ा देता है और उनका अपमान करता है।

ऋषीन् यक्षान् सगन्धर्वानसुरान् ब्राह्मणांस्तथा |
अतिक्रामति दुर्धर्षो वरदानेन मोहितः ||

देवताओं की पुकार सुन ब्रह्मा जी ने विचार कर कहा कि वर मांगते समय रावण मनुष्यों को तुच्छ समझता था। वर में उस दुरात्मा रावण ने माँगा था कि वह गन्धर्व,यक्ष, देवता तथा राक्षसों के हाथ से न मारा जाये। मैंने भी ‘तथास्तु’ कह उसकी प्राथना स्वीकार कर ली थी। मनुष्यों को तुच्छ समझ उनके प्रति अवहेलना होने के कारण उनसे अवध्य होने का वरदान उसने नहीं माँगा। इसलिए अब मनुष्य के हाथ से ही उसका वध होगा।

नाकीर्तयदवज्ञानात्तद्रक्षो मानुषांस्तदा |
तस्मात् स मानुषाद्वध्यो मृत्युर्नान्योऽस्य विद्यते ||

ब्रह्मा जी की यह बात सुनकर सभी देवता प्रसन्न हुए, और उनसे उस मनुष्य के बारे में पूछने लगे, जो पृथ्वी का भार कम करने में सहायक होगा अथवा जिसके द्वारा रावण का वध होगा। तब ब्रह्मा जी ने देवताओं और गौ रूप में आयीं देवी पृथ्वी जी से कहा, आप सब मेरे साथ प्रेम पूर्वक प्रभु जी का स्मरण करें, जिसके हृदय में जैसी भक्ति होती है प्रभु उसी रीती से वहाँ सदैव प्रकट रहते हैं। वे ही प्रभु भुभारहारी जिनकी भक्ति शिवजी और विष्णु जी भी करते हैं, हमारी सहायता कर सकेंगे।

हरि ब्यापक सर्बत्र समाना। प्रेम तें प्रगट होहिं मैं जाना॥
देस काल दिसि बिदिसिहु माहीं। कहहु सो कहाँ जहाँ प्रभु नाहीं॥

देवताओं और पृथ्वी को भयभीत जानकर तथा ब्रह्मा जी के प्रेमपूर्ण वचन सुनकर श्री सकेताधिपति प्रकट हुए और कहा

जनि डरपहु मुनि सिद्ध सुरेसा। तुम्हहि लागि धरिहउँ नर बेसा॥
अंसन्ह सहित मनुज अवतारा। लेहउँ दिनकर बंस उदारा॥

हे देवताओं! मत डरो, तुम्हारे लिए ही मैं नरवेश धारण करूँगा और सूर्य वंश में अपने अंशो सहित जन्म लूँगा। सतयुग में मैंने महाराज मनु और देवी शतरूपा को वचन दिया है कि मैं पृथ्वी पर उनके पुत्र रूप में जन्म लूँगा। वे ही महाराज मनु और देवी शतरूपा इस समय पृथ्वी पर महाराज दशरथ और देवी कौसल्या के रूप में मेरे अवतार लेने की प्रतीक्षा कर रहे हैं।

मैं पृथ्वी पर अपने तीनों अंशों ब्रह्मा जी, विष्णु जी एवं शंकर जी के साथ अथवा अपने तीनों अंशो बैकुण्ठ, क्षीरसागर और श्वेत्द्वीप निवासी विष्णुओं के साथ अवतार लूँगा। मुझ राम की सेवा के लिए क्षीरसागर विहारी विष्णु भरत, बैकुण्ठ विहारी विष्णु लक्ष्मण और श्वेत्द्वीप विहारी विष्णु शत्रुघ्न के रूप में जन्म लेंगे।

हे देवताओं! मेरे अवतार लेने का समय अब आ गया है इसलिए भयभीत होने की आवश्यकता नहीं है, मैं पृथ्वी का सब भार हर लूँगा। तुम निर्भय हो जाओ।

हरिहउँ सकल भूमि गरुआई। निर्भय होहु देव समुदाई॥

उधर अयोध्या नगरी में सरयू नदी के तट पर यज्ञ मंडप में सोलह ऋत्विजों ने अश्वमेघ यज्ञ प्रारंभ कर दिया। यज्ञ पूर्ण होने पर राजा दशरथ ने ऋत्विजों को उचित दान दक्षिणा देकर संतुष्ट किया और उन्हें सम्मान सहित विदा किया। अश्वमेघ यज्ञ का पुण्यफल प्राप्त कर महाराज दशरथ मन में अत्यंत प्रसन्न हुए। सभी ब्राह्मणों के जानेपर महाराज दशरथ ने ऋषि श्रुंग से कहा, हे सुव्रत! अब आप मेरे कुल की वृद्धि के लिए उपाय कीजिये।

ततोऽब्रवीदृष्यशृंगं राजा दशरथस्तदा |
कुलस्य वर्धनं त्वं तु कर्तुमर्हसि सुव्रत ||

महाराज दशरथ से तब ऋषि श्रुंग ने कहा, हे राजन! मैं तुम्हारे लिए अथर्ववेद में वर्णित पुत्रेष्टि यज्ञ करूँगा, जिससे पुत्र प्राप्ति की तुम्हारी इच्छा पूर्ण होगी। यह कह पुत्र प्राप्ति के लिए, उन्होंने पुत्रेष्टि यज्ञ प्रारंभ किया, और विधिवत मंत्र पढ़ कर आहुति देने लगे। इस यज्ञ के अग्निकुंड से उस समय लाल वस्त्र धारण किये हुए एक पुरुष प्रकट हुआ, जिसके हाथ में स्वर्ण की परात थी जो चाँदी के ढक्कन से ढकी हुई थी।

ततो वै यजमानस्य पावकादतुलप्रभम् |
प्रादुर्भूतं महद्भूतं महावीर्यं महाबलम् ||

अग्निकुंड से प्रकट हुए पुरुष ने महाराज दशरथ की ओर देख कर कहा – महाराज ! मैं प्रजापति के पास से आया हूँ, आपकी पूजा से प्रसन्न होकर उन्होंने मुझे ये पदार्थ आपको देने को कहा है। हे नरशार्दूल! यह देवताओं की बनाई हुई खीर है, जो संतान की देने वाली तथा धन और ऐश्वर्य को बढ़ाने वाली है, इसे आप लीजिये।

वह खीर लेकर महाराज दशरथ रनवास आये और उस खीर का आधा भाग रानी कौशल्या को दे दिया। फिर बचे हुए आधे का आधा रानी सुमित्रा को दिया। उन दोनों को देने के बाद जितनी खीर बची उसका आधा भाग देवी कैकेयी को दिया, उस अम्रुतोपम खीर का बचा हुआ आँठवा भाग कुछ सोचकर फिर सुमित्रा जी को दे दिया।

कैकेय्यै चावशिष्टार्धं ददौ पुत्रार्थकारणात् |
प्रददौ चावशिष्टार्धं पायसस्यामृतोपमम् ||
अनुचिन्त्य सुमित्रायै पुनरेव महीपतिः |
एवं तासां ददौ राजा भार्याणां पायसं पृथक् ||

तबहिं रायँ प्रिय नारि बोलाईं। कौसल्यादि तहाँ चलि आईं॥
अर्ध भाग कौसल्यहि दीन्हा। उभय भाग आधे कर कीन्हा॥

कैकेई कहँ नृप सो दयऊ। रह्यो सो उभय भाग पुनि भयऊ॥
कौसल्या कैकेई हाथ धरि। दीन्ह सुमित्रहि मन प्रसन्न करि॥

यज्ञ-समाप्ति के पश्चात् जब छः ऋतुएँ बीत गयीं, तब बारहवें मास में चैत्र के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को पुनर्वसु नक्षत्र एवं कर्क लग्न में कौसल्या देवी ने दिव्य लक्षणों से युक्त, सर्वलोक वन्दित जगदीश्वर श्री राम को जन्म दिया। उस समय (सूर्य, मंगल, शनि, गुरु और शुक्र) पांच ग्रह अपने अपने उच्च स्थान में विधमान थे तथा लग्न में चन्द्रमा के साथ बृहस्पति विराजमान थे।

नौमी तिथि मधु मास पुनीता। सुकल पच्छ अभिजित हरिप्रीता॥
मध्यदिवस अति सीत न घामा। पावन काल लोक बिश्रामा॥

वे विष्णु स्वरुप हविष्य या खीर के आधे भाग से प्रकट हुए थे। तदन्तर कैकेयी से सत्य पराक्रमी भरत का जन्म हुआ, जो साक्षात् भगवान विष्णु के (स्वरुप खीर के) चतुर्थांश भाग से प्रकट हुए। सुमित्रा के गर्भ से लक्ष्मण और शत्रुघ्न उत्पन्न हुए, ये दोनों विष्णु जी के अष्टमांश थे और सब प्रकार के अस्त्र शस्त्र चलाने की विद्या में कुशल शूरवीर थे।

प्रभु प्राकट्य के अवसर पर श्री अयोध्या पूरी के आकाश में गन्धर्व मधुर गीत गा रहे थे, देवता आकाश से प्रसन्न मन से सुमनवृष्टि कर रहे थे। अयोध्या पूरी में उत्सव की तैयारियां हो रही हैं, अवध पूरी के लोग गीत गा कर उत्सव मना रहे हैं।

भए प्रगट कृपाला दीनदयाला कौसल्या हितकारी।
हरषित महतारी मुनि मन हारी अद्भुत रूप बिचारी॥
लोचन अभिरामा तनु घनस्यामा निज आयुध भुजचारी।
भूषन बनमाला नयन बिसाला सोभासिंधु खरारी॥

चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को प्रभु ने पृथ्वी का भार हरने और प्रजाजन के कष्ट निवारण के लिए पृथ्वी पर अवतरण लिया। प्रति वर्ष इस तिथि पर भारत के परम्परा वादी प्रभु प्राकट्य का उत्सव मनाते हैं। चैत्र मास के शुक्ल पक्ष में रामायण कथा का पारायण एवं श्रवण का महात्मय श्री नारद जी ने श्री सनत्कुमार जी से कहा है। जिसे सनत्कुमार जी ने ऋषियों को बताया और ऋषियों ने उसका स्कन्द पुराण में विधिपूर्वक वर्णन किया है।

सन्दर्भ :-

श्री रामचरितमानस भावार्थबोधिनी हिंदी टीका, श्री तुलसीपीठ संस्करण – स्वामी रामभद्राचार्य जी महाराज
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण (सचित्र, केवल भाषा) – गीताप्रेस गोरखपुर
श्रीमद्वाल्मीकी रामायण (हिन्दीभाषा अनुवाद सहित) – चतुर्वेदी द्वारकाप्रसाद शर्मा
श्री रामचरितमानस (हिंदी अनुवाद) – हनुमानप्रसाद पोद्दार – गीताप्रेस गोरखपुर

साभार- https://www.indictoday.com/bharatiya-languages/hindi/ से