Tuesday, April 23, 2024
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टोक्यो ओलंपिक में महिला हॉकी की कप्तान रानी रामपाल ने दी अपनी गुरु दक्षिणा

सोमवार का दिन भारतीय महिला हॉकी टीम के लिए बहुत खास रहा। टोक्यो ओलंपिक में टीम ने क्वार्टर फाइनल में ऑस्ट्रेलिया को 1-0 से मात देकर इतिहास रच दिया। इस जीत के साथ भारतीय महिला हॉकी टीम सेमीफाइनल में पहुंच गई। ओलंपिक इतिहास में यह पहली बार हुआ है जब भारत की महिला हॉकी टीम सेमीफाइनल में पहुंची। अब सेमीफाइनल में भारत का मुकाबला अर्जेंटीना से होगा। इस जीत की सूत्रधार बेशक अमृतसर की गुरजीत कौर बनीं लेकिन टीम को इस सफलता तक पहुंचाने में कप्तान रानी रामपाल का अहम योगदान रहा।

टीम की कप्तान रानी रामपाल को भरोसा है कि सेमीफाइनल में उनकी टीम अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करेगी। शाहबाद, ‘हरियाणा’ के गरीब परिवार में जन्मी रानी के पास उस वक्त हॉकी किट और जूते खरीदने के पैसे भी नहीं थे, जब उनके पिता तांगा चलाते थे। फास्ट फॉरवर्ड प्लेयर रानी रामपाल ने जिंदगी की दुश्वारियों को हराकर सफलता का झंडा बुलंद किया है। हरियाणा में शाहाबाद की बेटी रानी रामपाल के संघर्ष की कहानी उनके पिता की मेहनत के साथ शुरू हुई थी। शाहाबाद कस्बा के माजरी मोहल्ले की रानी के पिता तांगा चलाया करते थे और अक्सर महिला हॉकी खिलाड़ियों को आते-जाते देखते थे। बस यहीं से पिता के दिल में बेटी को खिलाड़ी बनाने की चाह जाग उठी और वह 6 वर्षीय बेटी को एसजीएनपी स्कूल के हॉकी मैदान में कोच बलदेव सिंह के पास छोड़ जाए। जहां से रानी की हॉकी की स्वर्णिम शुरुआत हुई।

रानी की प्रतिभा देखकर कोच सरदार बलदेव सिंह उसके लिए द्रोणाचार्य बन गए। उन्होंने रानी को अपनी ‘शाहबाद हॉकी अकादमी’ में न केवल हॉकी खेलना सिखाया, बल्कि उसे हॉकी किट और जूते भी मुहैया कराए। चंडीगढ़ में ट्रेनिंग के दौरान कोच बलदेव सिंह ने अपने घर पर ही उसके ठहरने का इंतजाम किया था। खास बात है कि उस दौरान बलदेव सिंह की पत्नी ने ‘रानी’ की डाइट की जिम्मेदारी उठाई थी। उसके बाद रानी रामपाल ने पीछे मुड़कर नहीं देखा।

रानी के पिता का नाम रामपाल है। उसने महज छह साल की आयु में हॉकी खेलना शुरू कर दिया। उस वक्त परिवार की आर्थिक हालत ठीक नहीं थी तो अनेक दिक्कतें आ गईं। आसपास के सामाजिक परिवेश की बाधा से भी जूझना था। पिता रामपाल जानते थे कि वे केवल रानी का सपना पूरा करते हैं तो परिवार के बाकी सदस्य सड़क पर आ जाएंगे। इसके बावजूद उन्होंने अपने सामर्थ्य से बाहर जाकर प्रयास किया। अकादमी में रानी देखती कि उसके पास न तो हॉकी स्टिक है और न ही जूते और ट्रैक सूट हैं। कोच बलदेव सिंह ने रानी की प्रतिभा को पहचान लिया था। वे द्रोणाचार्य की भूमिका में आ गए। हालांकि बाद में भारत सरकार ने उन्हें ‘द्रोणाचार्य’ अवार्ड से भी नवाजा था। रानी रामपाल ने कहा था, कोच बलदेव सिंह ने मेरा बहुत सहयोग किया है। उस दौर में मुझे समाज के साथ भी जूझना पड़ रहा था। हॉकी खिलाड़ी की ड्रेस को लेकर तरह तरह की बातें सुनने को मिलती थीं। कोच ने कहा, चिंता मत करो, अब तुम्हें केवल आगे जाना है, वही सोचो। देश के लिए खेलना है।

रानी ने अपने पिता को भरोसा दिलाया था कि उसे एक मौका दिया जाए। पिता रामपाल ने पूछा, सामान पर कितना खर्च आएगा। रानी ने बताया तो रामपाल ने साफ कह दिया कि ये हमारी हैसियत से बाहर है। जब किसी तरह किट एवं दूसरे सामान का जुगाड़ हुआ तो रानी ने दोबारा अपने पिता से पूछा। अब आप मुझे खेलने की आज्ञा प्रदान करें। मैं आपसे एक अवसर मांग रही हूं। अगर आपको कहीं ये लगे कि मैंने गलत निर्णय ले लिया है तो मैं नहीं खेलूंगी। रामपाल ने हां कह दिया। इसके बाद रानी अपने कोच से मिली। वहीं से रानी की उड़ान शुरू हो गई। रानी ने मीडिया के साथ बातचीत में एक बार कहा था, कि कोच बलदेव सिंह मेरे लिए बहुत अहमियत रखते हैं। जैसे किसी व्यक्ति के जीवन में चंद लोग अहम होते हैं, ऐसे ही मेरे लिए कोच साहब हैं। रानी को एक के बाद एक सफलता मिलती चली गई। भारतीय हॉकी टीम की कप्तान रानी कहती हैं कि लोगों को हॉकी के बारे में अपनी सोच बदलनी होगी। हालांकि बदलाव आया है, पहले के मुकाबले अब हॉकी की बात होने लगी है, लेकिन वह काफी नहीं है। दूसरे खेलों को जितना सम्मान मिलता है, उतना हॉकी को भी दिया जाए।

साभार- https://www.amarujala.com/ से

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