Thursday, March 28, 2024
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सामाजिक समरसता दिवस की प्रासंगिकता

सामाजिक व्यवस्था और सुख की साधना को बनाए रखने की प्राचीनतम व्यवस्था वर्ण व्यवस्था गुण व कर्म पर आधारित थी।समय व्यतीत होने के पश्चात यह वर्ण व्यवस्था जाति – प्रथा में बदल गई जो कि जन्म पर आधारित थी। दुर्भाग्यवश जाति व्यवस्था चुनावी लाभ प्राप्त करने की दृष्टि से हिंदू समाज की एकता को खंडित करने के लिए ध्रुवीकरण का एक हथियार बन कर रह गई थी ।समकालीन समय में जाति एक राजनैतिक हथियार बन गई है। जाति आधारित अन्यायों,शोषक मानसिकता एवं अभिजन संस्कृति को मिटाने के प्रयास को” सामाजिक समरसता” कहते हैं।

सामाजिक समरसता का मौलिक आशय जाति – विहीन समाज /जाति- विहीन राज्य ,इस प्रत्यय की प्राप्ति तभी हो सकती है ,जब हम भारतवासी धर्म ,जाति, पंथ एवं रंग के भाव को आत्मीय स्तर पर निषिद्ध करें।

भारत का संविधान ,जो नागरिकों का संरक्षक कहा जाता है ,नागरिक समाज की सर्वोच्च विधि है एवं नागरिक समाज की आत्मा भी कही जाती है ।संविधान जाति व्यवस्था (अस्पृश्यता )का विलोपन करता है एवं इसका किसी भी आधार पर आचरण न्यायोचित नहीं मानता है बल्कि इसको नागरिक अपराध की श्रेणी में रखता है एवं इसके लिए कठोर दंड की व्यवस्था करता है।

संसार भर में प्रत्येक सामाजिक संरचना में अपने कार्य को सुचारू रूप से संपादित करने के लिए अनुकूल व्यवस्था की स्थापना होती है ।कुछ व्यक्ति अपने आत्मीय रुचि के आधार पर सेना ,राजनीति व प्रशासन में जाते हैं ।कुछ व्यक्ति कृषि और व्यवसाय करते हैं, कुछ शिक्षा और उच्चतर आध्यात्मिक लक्ष्यों को पाने में जुटे रहते हैं ।यही व्यवस्थाएं सभी समाजों में पाई जाती है।

भारतीय सामाजिक संरचना का आधार कभी भी जन्म नहीं रहा है ,अपितु यह व्यक्ति के गुण ,कर्म और स्वभाव पर आधारित रही है। वैदिक साहित्य में वर्ण परिवर्तन के कई उदाहरण मिलते हैं ।बाल्मीकि जो कि प्राचीन भारत के एक महान ऋषि व विद्वान और अध्येता थे, का जन्म गैर – ब्राह्मण परिवार में हुआ था ।इस व्यवस्था में बुराई /दोष का अभ्युदय तब हुआ जब इसका निर्धारण आनुवंशिक( जन्म गत उत्तराधिकार )आधार पर होने लगा ,जब इससे कुछ लोगों को सत्ता ,विशेषाधिकार व प्रभुत्व प्राप्त होने लगा और एक बड़े वर्ग के व्यक्तियों के मूलभूत अधिकारों का हनन एवं शोषण होने लगा है। यही व्यवस्था आगे चलकर 3000 जातियों एवं 25 000 उप जातियों में विभाजित हुई है ।

मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय के अधिष्ठाता /डीन आचार्य आनंद पालीवाल ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि “वेदों में शूद्र सहित सभी वर्णों के लिए आदर/ सम्मान का भाव दिखाई देता है। वेदों में जाति के लिए कोई शब्द नहीं है”।

अंग्रेजी में जाति के निकटतम शब्द कास्ट(caste)है ।ऑक्सफोर्ड शब्दकोश के अनुसार इस कास्ट शब्द की उत्पत्ति पुर्तगाली शब्द ‘ casta’ से हुई है ,जिसका अर्थ है प्रजाति ,वंशावली, कुल या नस्ल। इस शब्द के लिए भारतीय भाषाओं में निकटतम शब्द अभाव के कारण वर्ण या जाति का प्रयोग हुआ है ।

हमारे देश में महापुरुषों के प्रति देखने की दृष्टि है, उसको बदलने की जरूरत है ।नजर नहीं नजरिया बदलने की जरूरत है। उन्होंने क्या बोला ?क्या लिखा? हम यही देखते हैं ।जमीनी धरातल पर ,कार्य के स्तर पर हमको इसको देखने की आवश्यकता है कि वह व्यक्ति कैसा था ?उसके जीवन में त्याग किस मात्रा में थी ?उसके जीवन में निस्वार्थ का प्रत्यय है कि नहीं ।वह प्रसिद्ध पुरुष बनने के लिए कार्य करता है, राष्ट्र के लोगों के दुःख को पूंजी बनाकर आगे बढ़ता है ,मानवीय समाज से दुख,पीड़ा ,शोषण व अत्याचार के उन्मूलन के लिए कार्य करता है ।वास्तविक रूप में वही संत है।

इन बिंदुओं की वैज्ञानिक कसौटी पर परखने पर एक ही व्यक्तिव दिखाई देता है वह है डॉक्टर बाबासाहेब आंबेडकर ।बाबासाहेब आंबेडकर जी ने देश हित के लिए काम किया ,दुख को समाज से दूर करने के लिए काम किया है ,समाज के दलित वर्ग की सेवा को ही ईश्वर सेवा माना ।समाज के दलित वर्ग की सेवा को ही आनंद मानते थे।

ऐसे महापुरुषों का अनुयाई बनना महान आदर्श है।उनके जीवन की विरासत को आगे चलाने का संकल्प ही सामाजिक समरसता है ।अपने कार्य और व्यवहार में महापुरुष का नाम लगाने के लिए सर्वोत्तम शील चाहिए ,प्रमाणिकता चाहिए ,समर्पण चाहिए और कठोर परिश्रम की प्रवृत्ति चाहिए ।बाबा साहब आंबेडकर देश के प्रति, देश के प्रत्येक घटक के प्रति हमारे वास्तविक मार्गदर्शक हैं ।सामाजिक समरसता के विषय में बाबा साहब के तुल्य ही सावरकर जी का भी योगदान है।उन्होंने रत्नागिरी में सामाजिक समरसता के लिए काम किया और उनका कहना था कि “जात नाम की व्यवस्था ध्वस्त किए बिना समाज का सेवा नहीं हो सकता है” भारत के दलित समस्या और दलित कल्याण के लिए बाबा साहब आंबेडकर और सावरकर जी का अतुलनीय योगदान हैं। गुरु गोलवलकर जी का कहना था कि सामाजिक समरसता की प्रासंगिकता पर स्वामी विवेकानंद जी के बातों का वास्तविक निहितार्थ यही है कि आदि शंकराचार्य की प्रतिज्ञा और महात्मा बुद्ध के करुणा, इनको संगम में रखने वाला कोई व्यक्ति भारत में होना चाहिए। तभी समाज को समाजसेवी दिशा एवं ऊर्जा मिलेगी ।मुझको लगता है कि डॉक्टर बाबासाहेब आंबेडकर के रूप में यह संगम हमको प्राप्त हुआ है।

डॉक्टर अंबेडकर का कहना था कि हिंदू धर्म में सुधार के लिए 40 साल प्रयास किए। प्रयास करने के बाद भी जब उनके ध्यान में यह आया कि इनके जागने में बहुत देर है ।अभी नहीं जागे तो फिर वही आशंका प्रकट की थी” विषमता से ग्रस्त लोगों के विस्फोट से अपनी लोकसत्ता टूट जाएगी”। इसके पश्चात बाबा साहब ने अपने दीक्षा परिवर्तन करके समाज को आईना दिखाया ।यही समाज सेवा की भावना है। वह दलितों के मसीहा नहीं बल्कि समरसता के योजक थे,विषमता उन्मूलन के बड़े हिमायती थे ,उनके आत्मा में पूरे देश का विचार था, पूरे राष्ट्र का विचार था और इस देश से उनका चिंतन बहुत मूल्य गामी और सामाजिक समरसता के लिए महत्वपूर्ण एवं प्रासंगिक था। बाबा साहब में सेवा ,सामयिक विषयों को परखने की क्षमता ,समर्पण एवं त्याग की भावना पूरी तरह शाश्वत थी।

(डॉक्टर सुधाकर कुमार मिश्रा ,राजनीतिक विश्लेषक हैं।)

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