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आरक्षण जाति की राजनीति होती जा रही है

भारतीय राजनीति में आरक्षण की उपादेयता समाज के निचले तबके को सामाजिक और आर्थिक रुप से उन्नयन के लिए दी गई थी । वर्तमान राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में आरक्षण का उपादेयता जाति आधारित एवं सत्ता लोलुप राजनीतिक व्यक्तित्व के राजनीतिक महत्वाकांक्षा का विषय हो चुका है इसका संबंध अभावग्रस्त व्यक्तियों( अनुसूचित जनजाति, अनुसूचित जाति ,अति पिछड़े वर्ग आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग एवं महिलाओं के )उत्थान के लिए होना चाहिए ,लेकिन वर्तमान परिप्रेक्ष्य में जातीय समीकरण और वोट बैंक की राजनीति को भावनात्मक रूप से संतुलित करने का औजार बनता जा रहा है ।इसके प्रमाण विभिन्न जगहों पर स्पष्ट रुप से दिखाई दे रहा है:-

1. वर्तमान में आरक्षण के विस्तार में जाति की राजनीति एवं वोट बैंक की राजनीति स्पष्ट रूप से तथ्य आधारित दिखाई दे रही है। पिछले साल सर्वोच्च न्यायालय का संविधान पीठ ने महाराष्ट्र में एक ऐसा कानून पाया है जो मराठों को लाभ पहुंचाने के लिए बनाया गया था। मैं व्यक्तिगत स्तर पर ऐसे व्यक्तियों को जानता हूं जो मलाईदार पद को सुशोभित कर रहे हैं ,लेकिन आरक्षण के लाभ के लिए व्याकुल है ।

आरक्षण की संवैधानिक सीमा 49.5 %(50%)निर्धारित है। लेकिन राज्य के उपमुख्यमंत्री ने अपने राजनैतिक महत्वाकांक्षा, लोकप्रियता (झूठी )के लिए आरक्षण प्रतिशत को आगे ले जाने का नारा दिया ।यही हाल राजस्थान एवं झारखंड में है ।विधायिका जनप्रतिनिधियों का आधार होती है एवं जन भावनाओं को जनमत का माध्यम होती है। व्यावहारिक स्तर पर कहे तो संविधान के आदर्श मूल्यों, तात्विक भाव को लागू करने वाली संस्था होती है। विधायिका जन भावनाओं का सम्मान करती है एवं उनके अनुरूप कानून निर्माण का कार्य करती है।

2. जाति आधारित, जातीय अनुपात में आरक्षण दिए जाने की मांग जोर पकड़ रही है। बिहार और राजस्थान में जाति आधारित आरक्षण की मांग जोरों पर है ;क्योंकि इन राज्यों में गरीबी ,बेरोजगारी और नागरिक सचेतना बहुत ही न्यूनतम स्तर पर है। इन अवयव के आधिक्य के कारण भोली-भाली जनता के दिमाग को मनोवैज्ञानिक आधार पर बदल दिया जाता है, जिससे नेताजी इनको आरक्षण के मुद्दे को जाति आधारित बदलने में कामयाब हो जाते हैं।

3. माननीय न्यायालयों से अपेक्षा एवं आशा की जाती है कि इस संबंध में संवैधानिक सीमाओं का पालन करवाने का दबाव डालें ।चुकी सरकार विधायिका ,कार्यपालिका एवं न्यायपालिका से मिलकर बनती है, इन तीनों अंगों में संतुलन लोकतंत्र के मजबूती एवं संतुलन के सिद्धांत के लिए आवश्यक होता है। जब तीनों अंग अपने कार्य को अपने शक्ति को लोक कल्याणकारी भावनाओं के अनुरूप प्रयोग करती है, तो व्यक्ति की स्वतंत्रता सुरक्षित और संरक्षित रहता है।

4. स्थानीय निकाय चुनाव में आरक्षण को दाव- पेच की राजनीति बना दी गई है। माननीय न्यायालय को इस पर संवैधानिक कार्यवाही करने की आशा की जाती है ।आरक्षण को हथियार बनाकरके लड़े जाने वाले चुनावों से स्पष्ट संकेत है कि यह जाति की राजनीति को साधन बना कर राजनीतिक पद (साध्य) प्राप्त करने की महत्वाकांक्षा है। अभावग्रस्त वर्ग( किसान व श्रमिक) के कल्याण को साध्य बनाकर चीन ने अपना उत्थान किया एवं आज वैश्विक महाशक्ति बनता जा रहा है, वहीं भारत के नेता जी( कुछ दल ) पथभ्रष्ट होकर अपने भारतीयता के पहचान को ही सवाल खड़े करते जा रहे हैं ।ऐसी ओछी राजनीति, संकुचित सोच भारत को विकसित राष्ट्र के सपने को कैसे साकार कर सकता है?

(डॉक्टर सुधाकर कुमार मिश्रा राजनीतिक विश्लेषक हैं।)