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उभरते हिंदू योध्दा कपिल मिश्रा के पुरुषार्थ को नमन

उदयपुर में कन्हैयालाल जी की नृशंस ने हिंदू समाज को झकझोरा है। कोई आश्चर्य नहीं कि भाई कपिल के पहल पर 12 हजार से अधिक लोगों ने मात्र 24 घंटे के भीतर सवा करोड़ रुपये से अधिक एकत्र कर दिए। इस उपक्रम के लिए कपिल भाई को बहुत बहुत साधुवाद।

हम लोगों को इस्लामी कट्टरवाद और देशविरोधी शक्तियों के साथ कई मोर्चों पर युद्ध करना है। हम निश्चित रूप से रणभूमि में है। देखते ही देखते है अफगानिस्तान, पाकिस्तान और कश्मीर घाटी हिंदू-बौद्ध संस्कृति के प्रतीकों और ध्वजावाहकों से मुक्त हो गए। खंडित भारत के ऊपर भी यह खतरा सदियों से सतत मंडरा रहा है।

इस रण में एक महत्वपूर्ण मुद्दा विचारों का भी है। निश्चित ही जिन हाथों ने कन्हैयालाल जी का ‘सर तन से जुदा’ किया, वह दोषी तो है ही, परंतु हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि उन बेखौफ जिहादियों को इस जघन्य अपराध करने की प्रेरणा ‘काफिर-कुफ्र’ अवधारणा से मिली है। यह केवल भारत के लिए ही नहीं, अपितु शेष विश्व के लिए भी एक बड़ा और गंभीर खतरा है।

इस पृष्ठभूमि में हम लोगों की भूमिका और भी महत्वपूर्ण हो जाती है। देश में ‘लोकतंत्र’, ‘मानवाधिकार’, ‘संविधान’, ‘सेकुलर’ और ‘व्यक्तिगत स्वतंत्रता’ का मुखौटा पहना एक उद्योग सक्रिय है, जो उदयपुर जैसी घटनाओं को प्रेरित करने वाली पटकथा दशकों से लिख रहा है।

मेरा आपसे आग्रह है कि ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ में कंट्रीब्यूटिंग एडिटर भानु प्रताप मेहता के आलेखों को समय निकालकर अवश्य पढ़े। उनके लेख बहुत ही शालीन और तर्कसंगत तरीके से उस ‘इको-सिस्टम’ की रचना करने में सहायता करते है, जिसके गर्भ से उदयपुर जैसी बीभत्स घटनाओं का जन्म होता है।

मेरा निवेदन है कि हम इस फोरम पर उन लोगों की चर्चा करें, जो इस जहरीले चिंतन को बढ़ावा देते है, साथ ही तर्क-कुतर्कों और तथ्यों के माध्यम से उसका बचाव भी करते है। इस संदर्भ दैनिक जागरण के संपादकीय पृष्ठ पर कल (29.06.2022) राजीव सचान जी का लेख “नंबी नारायण की व्यथा-कथा भी जानिए” के साथ आज के संस्करण में प्रकाशित रविशंकर प्रसाद जी का आलेख “दुष्प्रचार भरे अभियान का अंत” और अवधेश कुमार द्वारा लेखबद्ध “जिहादी सोच का दमन करना जरुरी” कॉलम अत्यंत पठनीय और विचारणीय है।

आज के अधिकांश समाचारपत्रों में मदरसों को लेकर केरल के राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान का वक्तव्य भी प्रकाशित हुआ है। उसे भी जरूर पढ़ें। मेरी वर्षों से धारणा रही है कि मदरसे दीनी तालीम तो दे सकते है, परंतु वे नियमित पाठशालाओं का स्थान नहीं ले सकते। सरकारें (केंद्र और राज्य सहित) मदरसों का वित्तपोषण करती है, जिसपर चर्चा होनी चाहिए। इस संदर्भ में हम लोगों का जो स्टैंड है, वह स्पष्ट होना चाहिए।

हम तर्क और तथ्यों के आधार पर लिखने की आदत डाले और उस भाषा का उपयोग करें, जिससे न केवल हमारे विचार साथी प्रभावित हो, बल्कि तटस्थ वर्ग को भी विश्वासप्रद लगे।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं व राष्ट्रवादी विषयों पर लिखते हैं)