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संधीजी जैन मंदिरः बहुमूल्य प्रतिमाओं का अनुपम खजाना

सांगानेर में बने संधीजी जैन मंदिर के तलघर में हैं बहुमूल्य प्रतिमाएं संग्रहित हैं और खजुराहो शैली के शिखर वाले मंदिर में आदिनाथ भगवान की भव्य एवं कलात्मक प्राचीन प्रतिमा है। सांगानेर में संघीजी के मंदिर के साथ-साथ 8 अन्य मंदिर प्राचीन जैन मंदिर जैन समुदाय की निधि हैं। संघीजी का जैन मंदिर लाल पत्थर से निर्मित है। मंदिर अत्यन्त कलात्मक कारीगरी का एक बेहतरीन नमूना है, जो माउंट आबू के देलवाड़ा जैन मंदिर के सदृश्य प्रतीत होता है। दीवारों पर की गई नक्काशी की जटिलताएं और कई खंडों की अटूट ज्यामिति रचनाएं अचमभित करती हैं। दोनों मंदिरों की मूर्तियां समान रूप से शानदार हैं। इतिहासकारों के अनुसार, मंदिर 10वीं शताब्दी ईस्वी के आसपास पूरा हुआ था और निर्विवाद रूप से जैन मूल्यों और परंपराओं का प्रतिनिधित्व करने वाले सबसे सुंदर वास्तुशिल्प चमत्कारों में से एक है।

मन्दिर के एक द्वार पर सम्वत् 1011 अंकित किया हुआ है। बताया जाता है कि मन्दिर जी में दो गुफाऐं थी, जिन्हें वर्तमान में तलघर में बदल दिया गया है। प्रथम तल पर अतिप्राचीन प्रतिमाएं विराजमान है तथा द्धितीय तल पर चौबीसी का निर्माण किया हुआ है। चौबीसी पर उन्नत शिखर बने हुये हैं। द्धितीय तल पर पाण्डुशिला का निर्माण किया हुआ है। मन्दिर की बाहरी दीवार पर भक्तामर स्त्रोत 48 श्लोको के शिलालेख बनाये गये है। मन्दिर के अन्दर की दीवार पर शिलालेख है, जिस पर मन्दिर के इतिहास के बारें में जानकारी मिलती है। मंदिर के मध्य भीतरी भाग में प्राचीन छोटा मंदिर बना है। इस पवित्र मंदिर में 7 भूमिगत बनाए गए हैं। बताया जाता है कि केवल एक बालयति दिगम्बर संत यहां गया और भूगर्भ से प्रतिमा को सीमित समय के लिए बाहर लाया। यह मंदिर उस समय प्रकाश में आया, जब मुनि सुधासागर जी ने 1999 अपने पांच लाख जैन शिष्यों के साथ भूगर्भ के फर्शों को देखा, तो आश्चर्य चकित हो गए। जयपुर से 12 कि.मी. दूर टोंक मार्ग पर सांगानेर एवं पदमपुरा में उत्कृष्ट नक्काशीदार जैन मंदिर दर्शनीय हैं।

इतिहास से ज्ञात होता है कि सांगानेर कभी धनधान्य की दृष्टि से वैभवशाली था। इसका प्राचीन नाम संग्रामपुर भी ग्रंथों में मिलता है। सांगानेर के पास चम्पावती , चाकसू , तथकगढ एवं आम्रगढ़ के राज्य थे , जिन्हें सांगानेर की समृद्धि , वैभव एवं उन्नति होने से ईर्ष्या थी । इन राजाओं ने मिलकर स्वर्गपुरी की उपमा को प्राप्त इस नगर को तहस नहस कर दिया। परन्तु वे मन्दिर को क्षति नहीं पहुंचा सके। उन्होंने अपने भाव परिवर्तित करके आदिनाथ बाबा के दर्शन का भाव प्रकट किया तथा मंदिर में प्रवेश कर आदिनाथ बाबा को माथा टेका तथा क्षमा याचना करके संकल्प लिया कि इस मंदिर का सरंक्षण करेंगे तथा बचे हुए जैन श्रावकों को उन राजाओं ने अभयदान भी दिया। ऐतिहासिक परंपरा के अनुसार जहां संघी जी का मंदिर है वहां एक विशाल बावड़ी थी। उसके किनारे पर एक अति प्राचीन जीर्ण शीर्ण जिन चैत्यालय था जो तल्ले वाले मंदिर के नाम से प्रसिद्ध था , जिसके तलघर बावड़ी के अंदर थे।

आठवीं शताब्दी के अंतिम चरण में बैसाख शुक्ला तीज के दिन आकस्मिक रूप से नगर की पश्चिम दिशा से अलौकिक सजा हुआ विशाल गजरथ चलता हुआ आया, उसे विशाल हाथी खींच रहे थे। रथ पर कोई महावत नही था। अनेक स्थानों पर जनता एवं पहरेदारों द्वारा रोके जाने पर भी वह नहीं रुका। तेज़ गति से चलकर इस बावड़ी के किनारे , चैत्यालय के पास आकर वह स्वतः ही रुक गया। यह रथ कहां से कैसे आया इसकी जानकारी किसी को नही मिल पाई रथ रुकते ही हजारों नगरवासी एकत्रित हो गए। सेठ भगवानदास संघीजी की हवेली भी इसी बावड़ी के पास ही थी , वे रथ के पास आये तो देखा कि ये तो दिगम्बर जैन प्रतिमा है । तुरंत शुद्ध वस्त्र पहनकर साष्टांग नमस्कार किया , प्रतिमा को रथ से उतारकर बावड़ी किनारे प्राचीन मंदिर जी मे विराजमान किया । जैसे ही प्रतिमा को रथ से उतारा वैसे ही रथ अदृश्य हो गया।

जिस समय प्रतिमा को मंदिर में विराजमान किया उस समय आकाशवाणी हुई थी कि यह प्रतिमा चतुर्थकालीन है, इसकी स्थापना के लिए इसी प्राचीन मंदिर पर एक नया भव्य मंदिर निर्माण किया जाए । तदनुसार सेठ भगवानदास जी ने इस प्राचीन तल्ले वाले मंदिर को नवीन मंदिर में परिवर्तित करने की घोषणा कर दी तथा कारीगरों को बुलाकर प्राचीन मंदिर को नया रूप देने की योजना बनाई और कार्य प्रारंभ हुआ । हजारों साल की ऐतिहासिकता का साक्षी यह भूगर्भ स्थित जिनालय है । इसमें से अभी तक जितनी प्रतिमाएं निकाली गई हैं उनमें किसी पर भी प्रशस्ति नही है। मात्रा एक प्रतिमा पर संवत 7 उत्कीर्ण है। जो कुछ भी रहा हो , इसके इतिहास के गर्भ से अभी तक प्रसूत नही हुई , जनश्रुति का विषय जरूर बना रहा ।

परम पूज्य आचार्य शांतिसागर महाराज का संघ सहित यहां सन 1933 की मंगसिर बदी तेरस को पदार्पण हुआ। आचार्य शांतिसागर जी महाराज ने आदिनाथ बाबा के दर्शन कर अलौकिक शांति का अनुभव किया तथा कहा कि यह चतुर्थकालीन महा अतिशयकारी प्रतिमा है। आप लोग इस मंदिर का जीर्णोद्धार करो, पूजन पाठ कर जीवन को धन्य बनाओ। एक दिन सांगानेर के किसी वृद्ध ने महाराज से कहा कि पूर्वजों के मुताबिक, महाराज इस मंदिर के नीचे कोई तलघर हैं तथा उनमें रत्नमयी जिन प्रतिमाएं हैं। ऐसा हमारी पूर्वज कहा करते थे। आकस्मिक रूप से उसी रात्री को ब्रह्म मुर्हूत में यक्ष ने महाराज को स्वप्न दिया । प्रातःकाल उठकर महाराज ने कहा कि आप लोगों द्वारा कही गयी जनश्रुति झूठी नही है , मुझे स्वप्न में भूगर्भ स्थित जिनालय के दर्शन हुए हैं । तदनुसार महाराज ने पूजा वाले कमरे में गुफाद्वार पर कुछ दिन तक जाप किया । मंगसिर सऊदी दशमी को प्रातःकाल 7:30 बजे गुफा में अकेले ही प्रवेश किया। करीब 20 से 25 मिनट बाद महाराज श्री सम्पूर्ण चैत्यालय को लेकर गुफा द्वार पर आ गए। बड़ी तादाद में बाहर मंडप में जन समूह एकत्रित था सैकड़ों कलशों से अभिषेक हुआ। उस समय आचार्य शांतिसागर जी महाराज ने अपनी उपदेश में कहा कि यह मंदिर सात मंजिला है । पांच मंजिला नीचे है और दो मंजिला ऊपर है । अंतिम दो तल्लों में कोई नहीं जा सकता है ।

मध्य की पांच मंजिल में यह अलौकिक रत्नमयी चैत्यालय विराजमान है। उस समय जनता ने पहली बार इसके दर्शन किये थे। करीब 38 साल बाद जून सन 1971 में आचार्य देशभूषण जी महाराज ने इस चैत्यालय को तीन दिन के लिए निकाला। सन 1987 में आचार्य विमलसागर जी महाराज ने तथा 10 मई सन 1992 ई को आचार्य कुंथुसागर जी महाराज ने इस भव्य एवं अलौकिक चैत्यालय के जनता को दर्शन कराए। इसके बाद इस युग के महातपस्वी संत शिरोमणि आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के परम शिष्य , तीर्थ क्षेत्र उद्धारक , आद्यात्मिक संत मुनि पुंगव श्री सुधासागर जी महाराज ससंघ का पदार्पण सांगानेर में हुआ। मुनि श्री वास्तुशास्त्र के ज्ञाता थे। अतः इस संघी जी के मंदिर के वास्तु दोष हटाकर जीर्णोद्धार की प्रेरणा दी। मुनि श्री के बताए अनुसार वास्तुदोष हटने के बाद तो यह क्षेत्र दिन दूना रात चौगुना लोगों की श्रद्धा का केंद्र बनता गया।

सांगानेर का यह प्रसिद्ध जैन तीर्थ सप्ताह के सभी दिन दर्शनों के लिए खुला रहता है। ठहरने के लिए धर्मशाला एवं भोजन व्यवस्था उपलब्ध है। सांगानेर ब्लाक प्रिंटिंग वस्त्रों के लिए पहचान बनाता है। सांगानेर जयपुर बस स्टैंड से 15 किमी.,जयपुर रेलवे स्टेशन से 13 किमी.और करीबी रेलवे स्टेशन दुर्गापुरा रेलवे स्टेशन दूरी 5 किमी. दूरी पर है। सम्पूर्ण जयपुर से लो फ्लोर लोकल बस, ऑटो,टैक्सी उपलब्ध रहती हैं। सांगानेर में ही हवाई अड्डा है जहां से यह मात्र 2.5 किमी. की दूरी पर यह मन्दिर है।

(लेखक राजस्थान के सेवा निवृत्त जनसंपर्क अधिकारी हैं और पर्यटन व ऐतिहासिक विषयों पर शोधपूर्ण लेख लिखते हैं)