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संस्कृत साहित्य और जीवन दर्शन

संस्कृत-साहित्य में सूक्ति प्रसिद्ध है:
उपमा कालिदासस्य भारवेरर्थगौरवम्।
दण्डिनः पदलालित्यं माघे सन्ति त्रयो गुणाः।।
—- अर्थात् उपमा कालिदास की सुविख्यात है, भारवि अपने अर्थगौरव के लिए लब्ध प्रतिष्ठ हैं, दण्डी के पास पदलालित्य की सम्पदा है, लेकिन माघ के पास तीनों गुण हैं।

आयुर्वेद भी त्रिदोष का सिद्धान्त व्याख्यायित करता है: कफ, पित्त और वात के एक-एकाधिक कोप से रोग उत्पन्न होते हैं। ये तीनों सभी के भीतर हैं, लेकिन जब बिगड़ जाएं, तो अपने अनुसार रोग उत्पन्न कर दें।

माघ का महीना वसन्त का मौसम लाता है। वसन्त केवल मनुष्य के लिए नहीं, वसन्त समस्त प्रकृति के लिए होता है। सभी अच्छों के लिए, सभी बुरों के लिए भी। वसन्त में मस्ती है, अल्हड़पन है, नियम-भंजन है। वसन्त में इसी कारण स्वास्थ्य ही आनन्दित नहीं होता, रोग भी प्रसन्न हो जाते हैं। माघ में गुण ही नहीं खिलते, दोष भी प्रकट हो उठते हैं। ऐसी ढ़ेरों संक्रामक-असंक्रामक बीमारियां हैं, जिनके रोगी माघ-वसन्त के इस समय में अधिक देखने को मिलते हैं। अलग-अलग अंग अगर इस ऋतु में खिलते हैं, तो रोगों के कारण मुरझा भी जाते हैं।

कालिदास और कोई नहीं आमाशय-आँतों से निर्मित पाचन-तंत्र है। वह कालि का दास है: कालि वही पित्त है, जिसे यकृत (लीवर) बनाता है। यकृत को कालिक भी कहा गया है। जो कालि को उत्पन्न कर सके, वही कालिक है। हरे-भूरे रंग का यह द्रव यकृत से निकलता है, तभी भोजन का पाचन सुचारु होता है। कालिक के नीचे दबा यह आमाशय-स्वरूप कालिदास अपने भीतर उपमा का गुण लिये है। मा के कई अर्थों में नापने (मापने) का भाव भी है, मना करने का भी। जो मना करना जानता हो भोजन को और उसे माप सकता हो, वही उपमा-सम्पन्न है। इसीलिए स्वास्थ्य-काव्य का कालिदास उपमा-सम्पन्न है: यों ही कहावत नहीं बनी कि पेट बड़ा ईमानदार है!

भारवि में भार है, फिर उनके पास अर्थगौरव न होगा भला! जिसमें अर्थ अधिक है, उसके पास वजन (भार) भी अधिक है। वह मेदुर है, मोटा है, उसी में कफ का प्राधान्य है। वही अर्थ-गुरुता दोनों को गुण-दोष-रूप में धारण करेगा और कर सकता है। उसी के चेहरे पर पीली कान्ति होगी: रवि की भा उसके मुखमण्डल से ही तो फूटेगी!

दण्डी के पास विकलांगता का सहायक दण्ड है। वे डण्डे की सहायता से चलना सिखाते हैं, उनमें पदलालित्य प्रदर्शित करता आचार्यत्व है। पद (पैरों) का लालित्य उसी के पास है, जिसका वात कुपित नहीं। वही चल सकता है, दौड़ सकता है, कूद सकता है। पदलालित्य बिगड़ते ही साहित्य ही नहीं, स्वास्थ्य भी विकलांग भला न हो जाएगा!

माघ में सजने का भाव है, चलने का भाव है, कुछ आरम्भ करने का भाव है। लेकिन यह ठगना और कलंकित करना भी जानता है। इस ऋतु में स्वास्थ्य बन सकता है, बिगड़ भी सकता है। बहुत सर्दी और बहुत गर्मी के बीच का समय सबको सुहाता है: रोगकारी को, रोगपीड़ित को और रोगनाशक को भी!

इस माघ के नाम में नक्षत्र मघा की संज्ञा छिपी है। माघ वह जिसकी पूर्णिमा को चन्द्रमा मघा से संचरण करे। मघा क्या है? एक तारा-समूह! पाँच तारों को लिए हुए एक आकृति भवन-जैसी! भवन कौन? शरीर! पाँच बाण किसके? काम के! काम केवल प्रेम का ही संचार नहीं करता, समस्त इच्छाओं-कामनाओं का करता है! सभी चाहतें काम हैं, जो हृदयरूपी इस नक्षत्र में रहती हैं! कोई आश्चर्य नहीं कि इस नक्षत्र का स्थान भी सिंह राशि का हृदय है: लीक को छोड़कर चलने वाले शायर, सिंह, सपूत ही तो सर्वाधिक काम-सम्पन्न होते हैं!

इसलिए माघ में चलिए, पर भटकिए नहीं। कालिदास के स्वास्थ्य पर ध्यान दीजिए, भारवि का अर्थ-गौरव सन्तुलित रखिए, दण्डी के पदलालित्य को बनाए रखिए!

स्वास्थ्य का साहित्य उठाइए, सेहत की सरगम बजाइए। माघ में हैं, तो माघ बनिए।

मघा अघा है: सिंह राशि के अंतर्गत आने वाले सवा दो नक्षत्रों में पहले मघा, फिर पूर्वा फाल्गुनी और फिर उत्तरा फाल्गुनी का प्रारम्भिक चतुर्थांश आते हैं। तो सिंह का मुख है मघा! सिंह की नाक से उसके गर्दन की अयाल तक है मघा। अघा है मघा।

सिंह घास नहीं खाता। उसे चाहिए मांस! और जबसे जीवहत्या पाप है का कथित आदर्शवाक्य चल निकला है तब से सिंह को अपनी उदरपूर्ति हेतु किया जाने वाला प्रत्येक प्रयत्न पाप घोषित है। अतः सिंह का मुख, उसके दाँत, उसकी जिह्वा, उसका कण्ठ, उसकी मूँछ का बाल, उसके गर्दन की अयाल, सब पापी हैं, और इस कारण, अघा है मघा!

अब सिंह या तो भूखा मरे, या जगत की परिभाषा में जिसे पाप कहा जाता है वैसा पाप करे! किन्तु वैदिक काल से ही सिंह का यह मुख, यह मघा बड़े ही महत्व का नक्षत्र रहा। ऋग्वेद दशम मण्डल के पचासीवें सूक्त में तेरहवीं ऋचा है –

सूर्याया वहतुः प्रागात्सविता यमवासृजत्।
अघासु हन्यन्ते गावोऽर्जुन्योः पर्युह्यते॥१३॥

अर्थात– सूर्य ने अपनी पुत्री सूर्य्य के विवाह में जो कन्याधन दिया, वह आगे चला। उसे ढ़ोने वाली गाड़ियों के बैलों को मघा नक्षत्र में मारना पड़ता है। दोनों फाल्गुनी नक्षत्रों में रथ वेग से आगे बढ़ता है।

ऋचा में शब्द आया है अर्जुन्योः!
गावोऽर्जुन्योः
अर्थात्
गावो अर्जुन्योः

अब अर्जुन का एक नाम फाल्गुनी भी है, क्योंकि उसका जन्म फाल्गुनी नक्षत्र में हुआ था। और फाल्गुनी नक्षत्र हेतु ऋग्वेद दशम मण्डल के एक सूक्त की एक ऋचा अर्जुन शब्द का प्रयोग करती है। पूर्वा एवं उत्तरा के लिए एक साथ – अर्जुन्योः – प्रथमा विभक्ति द्विवचन।

वैदिक काल में वर्ष प्रारम्भ वर्षा से होता था। यह बड़े-बड़े तीसमार खाँ, बल्कि साठमार खाँ, स्थापित करने का प्रयास करते रहे हैं, क्योंकि शब्द वर्ष और वर्षा बर्मीज ट्विन्स से लगते हैं।

किन्तु किसी ने नहीं सोचा कि वैदिक काल में मासों के नाम जिस क्रम में प्रारम्भ होते थे उनमें प्रथम नाम तपः था और तब वह माघ मास का नाम हुआ करता था, क्योंकि महीनों के वैदिक नामकरण में इसी क्रम में जब मधु और माधव का नाम आता है तब स्पष्ट हो जाता है कि फाल्गुन मधुमास नहीं है।

फाल्गुन तो तप के बाद तप को तीव्रता देने का मास #तपस्य है, माघ में तप की परिभाषा जानने के पश्चात वास्तविक तपस्या का मास है।

फाल्गुन, लोकभाषा में फागुन, बौराने का मास है, बौर-आने का मास है, किन्तु इस बौराते परिवेश में स्वयं को तपस्या के चरम पर ले जाने का मास है, और इसी कारण वैदिक मनीषियों ने इस फाल्गुन मास को तपस्य नाम दिया था।

आपको यदि समझने में असुविधा हो रही हो तो प्राचीन वैदिक काल के मासों के नाम का अर्वाचीन मास नामों से सामंजस्य-सन्दर्भ प्रस्तुत करता हूँ।

तपः (माघ),
तपस्य (फाल्गुन),
मधु (चैत्र),
माधव (वैशाख),
शुक्र (ज्येष्ठ),
शुचि (आषाढ),
नभः (श्रावण),
नभस्य (भाद्र),
इष (आश्विन),
उर्ज (कार्तिक),
सहः (मार्गशीर्ष)
और
सहस्य (पाैष)

माघ! जब पूर्णिमा के दिन चन्द्रमा मघा नक्षत्र में हो तो उस मास को माघ कहते हैं। और पूर्णिमा को चन्द्रमा जिस नक्षत्र में हो, वे नक्षत्र चन्द्रमा के मित्र नक्षत्र हैं।

क्या यह नैसर्गिक है? नही! सिद्धान्तों को बनाने, उन पर विमर्श करने अथवा उनके खण्डन या उनके मण्डन का कार्य हम करते हैं – हम मनुष्य!

सारे सिद्धान्त हमने बनाये हैं। यह और बात है कि सिद्धान्त हमने प्रकृति के अन्वीक्षण के आधार पर बानाए हैं। जो होता है, वह हमने जान लिया, लिख दिया, तो वे सिद्धान्त हो गए, किन्तु अगर हम नहीं लिखते तो जो होता है क्या वह नहीं होता? हम नहीं लिखते तो क्या वारिद बरसते नहीं? क्या पुष्प खिलते नहीं? क्या भू-कम्प नहीं होते? उल्कायें नहीं गिरतीं? धरा सूर्य की परिक्रमा बन्द कर देती? सूर्य्य का अहर्निश चमकना रुक जाता?

हम नहीं भी लिखते, तब भी यह सब होता! और ऐसी और भी जिन सबका उल्लेख करना सम्भव नहीं, वे घटनायें भी होतीं! होती ही होतीं!!

पछुआ हवायें चलने लगी हैं। और आज की परिस्थितियों में वे बहुत भली भी लग रहीं हैं। किन्तु तपस्य मास की ये पश्चिमी हवायें मधु तथा माधव मास में उष्ण एवं ऊष्णतर होंगी और शुक्र मास में उष्णतम भी! आज की ठंडी मनभावन भाती सी हवा कल लू बनेगी, यह ध्यान में रहे!

मघा अघा है। शीतल और भली लगती पछुआ हवायें आने वाले दिनों में गर्म होंगी,
इतनी गर्म, कि सहन न की जा सकें!

✍🏻 संकलित: साभार भारतीय धरोहर