Wednesday, April 24, 2024
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पंचायती राज की चुनौतियां

1950 के दशक में सुप्रसिद्ध साहित्यकार फणीश्वर नाथ रेणु ने ‘पंचलाइट’ नामक कहानी लिखे थे। तत्कालीन ग्रामीण समाज के संदर्भ में स्थापित यह कहानी एक ऐसे युग को दर्शाती है, जिसमें अधिकांश भारतवर्ष में बिजली नहीं थी। अधिकांश ग्रामीण घरों में प्रकाश के लिए ढिबरी या छोटा दीपक जलाया जाता था। कहानी का सार यह है कि ग्रामीणों को दरकिनार करके विकास नहीं हो सकता है।

भारत के मूल संविधान के भाग चार (4) में पंचायती राज व्यवस्था को एक नीति-निर्देशक सिद्धांत के रूप में समाहित किया गया था। भारत के संविधान के अनुच्छेद 40 में कहा गया है कि राज्य ग्राम पंचायतों के गठन करने के लिए प्रयास करेगी और उन्हें ऐसे अधिकार और सत्ता प्रदान करेगा जो कि उनके द्वारा स्वशासन की इकाइयों के रूप में कार्य करने की योग्य बनाने के लिए अति आवश्यक हो।

संविधान का निर्माण करने वाले पंचायती राज व्यवस्था की आवश्यकता एवं सार्थकता के विषय में एकमत नहीं थे और उन्होंने गांधीवादियों की पंचायती राज की मांग को गंभीरता से नहीं लिए। संभवत यही कारण था कि पंचायती राज व्यवस्था का उल्लेख नीति-निर्देशक सिद्धांतों के रूप में किया गया जो न्याय योग्य नहीं है। इसके परिणाम स्वरुप पंचायती राज व्यवस्था को स्थापित करने के लिए नागरिकों द्वारा सरकार को बाध्य नहीं किया जा सकता है और पंचायतों को स्थापित करना राज्यों का स्व विवेक का मामला बना रहा था।

ब्रिटिश उपनिवेशवादी व्यवस्था में सत्ता केंद्रित थी जो भारत सरकार अधिनियम, 1935 में पूरी तरह  व्यक्त थी। इसी व्यवस्था के अंतर्गत कांग्रेस ने 1937 का चुनाव लड़ा था और तत्कालीन कांग्रेस के नेता इसी व्यवस्था के हिमायती थे। भारत के संविधान के अनुच्छेद 40 के अंतर्गत ग्राम पंचायत का उल्लेख किया गया था।

इस पर शासन के तीसरे स्तर/मूल स्तर पर विकेंद्रीकरण की मांग उठने लगा था। 1957 में बलवंत राय मेहता समिति ने एक त्रिस्तरीय पंचायती राज व्यवस्था का प्रतिवेदन किया, जिसे कार्य, कर्मचारियों और कार्य पूंजी आवंटित किया जाए; लेकिन इसके सुखदाई प्रतिफलित होने के लिए जनता, सरकार एवं नागरिक समाज को 35 वर्षों तक प्रतीक्षा करनी पड़ी जब 1992 में संविधान के 73वें संशोधन द्वारा पंचायत को संघीय ढांचे के तृतीय स्तर के रूप में स्वीकार किया गया था, संविधान के संरचनात्मक ढांचे में एक मौलिक उलट-फेर करना पड़ा जिससे अधिक से अधिक लोग लोकतांत्रिक प्रक्रिया में सम्मिलित हो सके।

पंचायती राज प्रक्रिया के तीन प्रमुख अवयव हैं; राजनीतिक वैधता, सत्ता का विकेंद्रीकरण और संसाधनों का विकेंद्रीकरण। राजनीतिक वैधता का आशय है कि इस प्रक्रिया के लिए नीचे से जनता मांग कर रही है जो इसे संपन्न कराने की राजनीतिक शक्ति देती है। जनता के बिना मांग का राजनीतिक शक्ति को हस्तांतरित कर दिया जाए तो यह शक्ति उतनी प्रभावी नहीं होती है। अतः जनता की मांग और शक्ति पर सत्ता हस्तांतरण अधिक प्रभावी होती है, पर उसके लिए उसे उस स्तर पर लोकतंत्र का संस्थात्मक स्वरूप होना जरूरी है जिसके माध्यम से जनता अपनी इच्छा और मांग को व्यक्त कर सके। जनता की यह मांग ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, सामाजिक और आर्थिक कारकों पर निर्भर करती है।

लोकतांत्रिक इतिहास में शासन में जन सहभागिता कम रही है; इसलिए महात्मा गांधी जी के पंचायती राज मॉडल के लिए कोई जन चेतन या जन समर्थन नहीं रहा है; हालांकि देश में एक केंद्रीकृत लोकतंत्र मौजूद था, लेकिन समाज के वंचित वर्ग के लोग पंचायती राज के लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं में स्वतंत्रता पूर्वक ढंग से हिस्सा ना ले सके। स्वतंत्रता के पश्चात उनका आर्थिक विकास का लाभ नहीं मिल सका था।

भारत में लोक चेतना जमीनी स्तर पर सुशासन के लिए एक जन आंदोलन और जन चेतना को जन्म दिया था, इसी का सुखद परिणाम 1992 का 73 वा संविधान संशोधन था, जिसमें पंचायती राज को संवैधानिक मान्यता प्रदान किया गया था। ग्राम पंचायत पंचायती ढांचे में सबसे निचले स्तर पर मौजूद है। इसका उद्देश्य ग्रामीण आबादी को एक ऐसे अवसर मुहैया कराना है जिससे वह ग्राम सभा  स्तर से स्थानीय स्तर पर शासन प्रणाली में अपनी सहभागिता सुनिश्चित कर सकें।

ये ग्राम सभाएं लोगों के लिए प्रत्यक्ष मंच मुहैया कराती हैं, जहां ग्राम पंचायत के मतदाता शामिल होते हैं और उन्हें ग्रामीण कार्य, कार्यक्रम और परियोजनाओं की सीधे तौर पर निगरानी और ग्राम पंचायत की जवाब देही और उत्तरदायित्व सुनिश्चित करने का अधिकार होता है।

73वें संविधान संशोधन ने पंचायती राज संस्थाओं को विस्तृत अधिकार और वित्तीय संसाधन दिए, लेकिन इन संस्थाओं ने पहले से चली आ रही केंद्रित व्यवस्थाओं के अंतर विरोध को नहीं स्पर्श किया था। अधिकतर स्थानों पर जनता की कोई जन चेतन नहीं थी जो तत्कालीन राज्य सरकारों से पंचायत के लिए सत्ता और संसाधनों के लिए प्रभावी मांग कर सकें।

भारतीय संघवाद का वित्तीय स्वरूप ऐसा है कि राज्य सरकार ने खुद ही संसाधनों का रोना रोती रहती हैं; और इसलिए अपने सीमित संसाधनों को पंचायती राज संस्थाओं से सहयोग करने से कतराते हैं, क्योंकि संघवाद के अंतर्गत राज्यों को वित्तीय स्वतंत्रता प्राप्त नहीं है और केंद्र द्वारा आवंटित राशियों पर भी अपना नियंत्रण चाहती हैं। भारत संघ शक्तियों का वितरण है; लेकिन शक्तियों का पद सोपानिक हस्तांतरण अति कमजोर प्रक्रिया में हैं।

73वें संविधान संशोधन के प्रावधानों के अंतर्गत पंचायती राज संस्थाओं को हस्तांतरित अधिकारों के क्रियान्वयन की प्रक्रिया को ऊर्जित करने के लिए 2004 में एक नवीन मंत्रालय का गठन किया गया। इस मंत्रालय ने पंचायती राज के संबंध में अनेक कदम उठाए हैं तथा राज्यों को प्रोत्साहन एवं चेतावनी की मिश्रित शैली द्वारा पंचायत को शक्तिशाली होने का प्रयास किया है। इस हेतु मंत्रालय वर्ष में दो मूल्यांकन करता है। पंचायत की स्थिति का प्रतिवेदन और पंचायत के सशक्तिकरण हेतु हस्तांतरण सूचकांक रिपोर्ट।

इस तरह पंचायत के सशक्तिकरण के लिए जन सहभागिता होना आवश्यक है।पंचायत को राज्य सरकार शक्तिशाली हेतु कैसे शक्तियों का हस्तांतरण कर सके?

सवाल यह है कि राज्य और पंचायत के राजनीतिक हितों में सामंजस्य से कैसे बैठाया जाए? इन सामंजस के पीछे प्रमुख कारण वितीय है।केंद्र सरकार द्वारा राज्य सरकारों में पंचायती राज संस्थाओं के साथ मध्यस्थ करके दोनों के बीच संतुलन स्थापित किया जाए, जिससे पंचायती राज संस्थाएं अति मजबूत स्थिति में हो सके।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं।)

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नासै रोग हरे सब पीरा, जपत निरंतर हनुमत बीरा

बात उन दिनों की है जब मेरा तबादला किसी दूरदराज़ स्थान पर हुआ था। घर-परिवार और परिजनों से दूरी असहनीय होती जा रही थी। सरकारी तंत्र ऐसा था कि खूब गुहार लगाने के बाद भी सुनवाई नहीं हो रही थी।तब मुझे किसी हितैषी ने सलाह दी कि मैं हनुमान-चालीसा का कुछ दिनों तक नियमित पाठ करूँ। बजरंगबली ने चाहा तो मेरा तबादला वापस अपने स्थान पर ही जायेगा। अत्यधिक परेशानी और कठिनाई में घिरा व्यक्ति कुछ भी करने को तैयार हो जाता है।

मैं उसी दिन हनुमान चालीसा की एक सुन्दर प्रति कहीं से खरीद लाया और नित्य दो बार सुबह-शाम हनुमान चालीसा का मनोयोगपूर्वक पाठ करने लगा।

मेरे आश्चर्य की सीमा तब नहीं रही जब कुछ ही दिनों में बजरंगबली ने मेरी पुकार सुन ली और मेरे पास सरकारी आदेश आ गए कि मेरा स्थानांतरण मेरे चाहे गए स्थान पर हो गया है।तभी से बजरंगबली हनुमान पर मेरी आस्था और भक्ति का भाव दृढतर होता चला गया।

कहा जाता है कि हनुमानजी की महिमा और भक्तों के प्रति उनका परोपकारी स्वभाव के कारण ही श्री तुलसीदास जी ने संकट मोचन हनुमान जी को प्रसन्न करने के लिए श्री हनुमान चालीसा की रचना की। भक्तों में मान्यता है कि इस चालीसा का नियमित रूप से पाठ करना ना सिर्फ सरल और आसान है, बल्कि इसके कई अद्भुत लाभ भी हैं।हनुमान चालीसा में हनुमान जी को अष्ट सिद्धि और नवनिधि के दाता कहा गया है। इसका अर्थ है कि जो नियमित रूप से हनुमान चालीसा का पाठ करता है, हनुमानजी उसको आठ सिद्धियां और नौ निधियों से संपन्न होने का आशीष प्रदान करते हैं।हनुमानजी स्वयं ‘विद्यावान गुणी अति चातुर/बुद्धिमान’ हैं। जो लोग भक्ति-भाव से हनुमान-चालीसा का पाठ करते हैं उनमें हनुमानजी इन गुणों का संचार करते हैं।

विश्वास किया जाता है कि मानव-जीवन का अंतिम लक्ष्य मुक्ति यानी शरीर त्यागने के बाद परमधाम की प्राप्ति माना जाता है। हनुमान चालीसा में लिखा है ‘अन्त काल रघुबर पुर जाई। जहाँ जन्म हरि–भक्त कहाई। और देवता चित्त न धरई। हनुमत सेई सर्व सुख करई।

अर्थात जो व्यक्ति हनुमानजी का ध्यान करता है, उनकी पूजा करता है और नियमित रूप से हनुमान चालीसा का पाठ करता है, उसका सर्वोच्च स्थान का मार्ग आसान हो जाता है।

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ईद पर प्रदर्शित हु़ई दोनों फिल्में मैदान और बड़े मियाँ छोटे मियाँ सुपर फ्लॉप

अजय देवगन की फिल्म ‘मैदान’ ने दूसरे सप्ताह में सात करोड़ से भी अधिक की कमाई की लेकिन सोमवार, 22 अप्रैल को फिल्म ने सिर्फ 80 लख रुपये कमाए हैं। ईद के मौके पर रिलीज हु़ई ये फिल्म बुरी तरह फ्लॉप रही। हालांकि बड़े मियां छोटे मियां भी फ्लॉप हो चुकी है।

शुक्रवार शनिवार और रविवार को मिलाकर फिल्म ने 7 करोड़ से भी अधिक की कमाई की लेकिन सोमवार यानी की 22 अप्रैल को फिल्म ने सिर्फ 80 लख रुपये कमाए हैं और फिल्म ‘मैदान’ का घरेलू बॉक्स ऑफिस कलेक्शन सिर्फ 36 करोड रुपए ही हो पाया है। यानी कि इस फिल्म को भी फ्लॉप माना जा सकता है।

आपको बता दें, अजय देवगन की फिल्म मैदान एक स्पोर्ट्स ड्रामा फिल्म है, जिसमें भारतीय फुटबॉल टीम की उस यात्रा को दिखाया गया है जहां उन्होंने एशियाई गेम्स में जीत हासिल की थी। फिल्म का निर्देशन अमित शर्मा ने किया है। इसके अलावा साउथ की अभिनेत्री प्रियामणि भी इस फिल्म में अहम किरदार में नजर आई हैं। ‘मैदान’ फुटबॉल के कोच सैयद अब्दुल रहीम के जीवन पर आधारित है।

अक्षय कुमार और टाइगर श्रॉफ की फिल्म ‘बड़े मियां छोटे मियां’ ईद के मौके पर ही रिलीज हुई थी। दर्शकों ने इसे बुरी तरह नकार दिया है और यह फिल्म सुपर फ्लॉप के तमगे की ओर बढ़ रही है। ईद की छुट्टी पर रिलीज़ होने के बाद भी फिल्म का पहले दिन का कलेक्शन सिर्फ 16 करोड़ था और 9 दिन के बाद बॉक्स ऑफिस पर 60 करोड़ के लिए भी तरस गई है।

अली अब्बास जफर के निर्देशन में बनी इस मूवी को पांच भाषाओं में रिलीज किया गया। फिल्म में कई स्टार्स भी एक साथ नजर आए, लेकिन किसी भी चीज का फायदा फिल्म की कमाई को नहीं होता नजर आ रहा है। पहले हफ्ते में ही इस मूवी को 50 करोड़ के पास पहुंचने में हालत खराब हो गई।

‘बड़े मियां छोटे मियां’ फिल्म ने शुक्रवार को सिर्फ 1.50 करोड़ रुपये का बिजनेस किया है और इसे मिलाकर अभी तक इस फिल्म की कमाई सिर्फ 51.40 करोड़ रुपये हुई है। ऐसे में फिल्म के निर्माताओं को बड़ा नुकसान उठाना पड़ा है

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मानवता के कल्याण के लिए समर्पित था महावीर स्वामी का विचार

हमारे देश में अनेक ऐसे संत ज्ञानी महापुरुष हुए हैं जिन्होंने न केवल भारत वरन पूरे विश्व में अपने ज्ञान का प्रकाश फैलाया है महावीर स्वामी उनमें से एक थे। जैन अनुश्रुतियों और परंपराओं के अनुसार जैन धर्म की उत्पत्ति और विकास में 24 तीर्थंकर सम्मिलित हैं इनमें से 22 तीर्थंकरों की ऐतिहासिकता स्पष्ट और प्रमाण रहित है। अंतिम दो तीर्थंकर पार्श्वनाथ (23वें) एवं महावीर स्वामी (24वें) एवं अन्तिम तीर्थकर की ऐतिहासिकता को जैन धर्म के ग्रंथों में प्रमाणित किया गया है।

महावीर स्वामी जैन धर्म के 24 वें और अन्तिम तीर्थंकर थे। जैन धर्म की स्थापना का श्रेय इन्हें ही दिया जाता है क्योंकि इस धर्म के सुधार तथा व्यापक प्रचार प्रसार इनके समय में ही हुआ था। महावीर स्वामी का जन्म करीब ढाई हजार वर्ष पहले ईसा से 540 वर्ष पूर्व वैशाली गणराज्य के कुंड ग्राम में ज्ञागृत वंशी क्षत्रिय परिवार में हुआ था। इनके पिता सिद्धार्थ कुंड ग्राम की क्षत्रिय कुल के प्रधान तथा माता त्रिशला लक्ष्मी नरेश चेटक की बहन थी। इनका जन्म तीसरी संतान एवं वर्द्धमान के रूप में चैत्र शुक्ल तेरस को हुआ।

वर्द्धमान को वीर, अतिवीर और समंती भी कहा जाता था। वर्द्धमान को लोग श्रेयांश और यशस्वी भी कहते थे। इनके बड़े भाई का नाम नंदीवर्धन एवं बहन का नाम सुदर्शना था। वर्द्धमान का बचपन राजमहल में राजसी सुखसुविधा में बीता वो बड़े निर्भीक और साहसी थे। जब यह आठ वर्ष के हुए तो उन्हे पढ़ने, शिक्षा लेने, शस्त्र शिक्षा लेने के लिए शिल्प शाला में भेजा गया। वर्द्धमान का विवाह यशोदा नामक राजकान्या से हुआ इनकी अंवद्धा नाम की बेटी भी थी, कालांतर में जिसका विवाह जमालि से हुआ जो इनके शिष्य भी थे। 30 वर्ष की आयु में वर्द्धमान ने संसार से विरक्त होकर राज वैभव त्याग दिया और सन्यास धारण कर आत्म ज्ञान और कल्याण के पथ पर निकल गए। वर्षों की कठिन तपस्या के बाद उन्हें कैवल्य (ज्ञान) प्राप्त हुआ इसी कारण इन्हें केवलिन भी कहा जाता है। जिसके पश्चात उन्होंने संवत शरण में ज्ञान प्रसारित किया।

अपनी सभी इंद्रियों पर विजय पाने के कारण वे “जिन” अर्थात विजेता कहलाए और इसी कारण उनके अनुयाई जैन कहलाते हैं। अपनी साधना में अडिग रहने तथा पराक्रम दिखाने के कारण इन्हें महावीर नाम से संबोधित कर महावीर स्वामी बना दिया गया। 72 वर्ष की आयु में इन्हें पावापुरी में मोक्ष की प्राप्ति हुई। इस दौरान महावीर स्वामी के कई अनुयाई बने जिसमें उस समय के प्रमुख राजा बिंबिसार कुदिक और चेतन भी शामिल थे।

जैन धर्म को मानने वाले प्रमुख राजा थे उदायिन, चंद्रगुप्त मौर्य, कलिंग का शासक खारवेल, राष्ट्रकूट शासक अमोघ वर्ष, चंदेल शासक इत्यादि। महावीर स्वामी के उपदेशों उनके द्वारा प्रतिपादित सिद्धांतों, विधानों का जनमानस पर बड़ा व्यापक प्रभाव पड़ा उनके समय में उत्तरी भारत में तो इस धर्म के प्रचार प्रसार हेतु कई केदो की भी स्थापना की गई सामान्य जनों के अतिरिक्त बिंबिसार तथा उनके पुत्र अजातशत्रु जैसे राजा भी महावीर स्वामी के उपदेशों से प्रभावित हुए। जैन समाज द्वारा महावीर स्वामी के जन्मदिवस को महावीर जयंती तथा उनके मोक्ष दिवस को दीपावली के रूप में धूमधाम से मनाया जाता है।

जैन ग्रंथों के अनुसार समय-समय पर जैन धर्म के प्रवर्तन के लिए तीर्थंकरों का जन्म होता है। जो सभी जीवो को वास्तविक आत्मिक सुख व शांति प्राप्ति का उपाय बताते हैं। तीर्थंकरों की संख्या 24 ही कही गई है जिसमे महावीर वर्तमान पीढ़ी के 24 वें और अंतिम तीर्थंकर थे। हिंसा, पशु, बलि जात-पात का भेदभाव जिस युग में बढ़ गया उसी युग में महावीर स्वामी का जन्म हुआ। उन्होंने दुनिया को सत्य ,अहिंसा का पाठ पढ़ाया। तीर्थंकर महावीर स्वामी ने अहिंसा को सबसे उच्चतम नैतिक गुण बताया। उन्होंने दुनिया को जैन धर्म के पंचशील सिद्धांत बताएं जो अहिंसा, सत्य, अपरिग्रह, असतेय और ब्रह्मचर्य हैं।

उन्होंने अनेकांतवाद, स्यादवाद और अपरिग्रह जैसे अद्भुत सिद्धांत दिए। महावीर के सर्वोदय तीर्थ में जाति की सीमाएं नहीं थी। महावीर स्वामी का आत्म धर्म जगत की प्रत्येक आत्मा के लिए समान था। दुनिया की सभी आत्मा एक सी है इसलिए हम दूसरों के प्रति वही विचार एवं व्यवहार रखें जो हमें स्वयं को पसंद हो यही महावीर स्वामी का जियो और जीने दो का सिद्धांत था।

जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर महावीर स्वामी अहिंसा के प्रतिमान, प्रतीक थे। उनका जीवन त्याग और तपस्या से ओतप्रोत था। उन्हें एक लंगोटी तक का परिग्रह नहीं था। उन्हें हिंसा, पशु बलि, जाती, पद के भेदभाव से घृणा थी। महावीर स्वामी के माता-पिता जैन धर्म के 23वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ जो महावीर से 250 वर्ष पूर्व हुए थे उनके अनुयाई थे। महावीर स्वामी ने चातुर्याम धर्म में ब्रह्मचर्य जोड़कर पांच महाव्रत रूपी धर्म चलाया। यह सबसे प्रेम का व्यवहार करते थे उन्हें इस बात का अनुभव हो गया था कि इंद्रियों का सुख विषय वासनाओं का सुख दूसरों को दुख पहुंचा करके ही पाया जा सकता है इसलिए वह इंद्रिय सुख को महत्व नहीं देते थे।

महावीर जी की 28 वर्ष की उम्र में उनके माता-पिता का देहांत हो गया जेष्ठ बंधु नंदीवर्धन के अनुरोध पर वे दो बरस तक घर पर रहे बाद में 30 वर्ष की उम्र में वर्धमान ने श्रावणी दीक्षा लेकर वह श्रवण बन गए उनके शरीर पर परिग्रह के नाम पर एक लंगोटी भी नहीं रही अधिकांश समय वे ध्यान में ही मगन रहते, हाथ में ही भोजन कर लेते, गृहस्थों से कोई चीज नहीं मांगते थे। धीरे-धीरे उन्होंने पूर्ण आत्म साधना प्राप्त कर ली।

महावीर स्वामी ने 12 वर्ष तक मौन साधना, तपस्या की और तरह-तरह की कष्ट झेले अंत में उन्हें कैवल्य (ज्ञान) प्राप्त हुआ। कैवल्य ज्ञान प्राप्त होने के बाद महावीर ने जन कल्याण के लिए उपदेश देना शुरू किया। वह अर्धमगधी भाषा में भी उपदेश करने लगे ताकि जनता उसे भली-भांति समझ सके। महावीर ने अपने प्रवचनों में अहिंसा, सत्य, असते, ब्रह्मचर्य और परिग्रह पर सबसे अधिक जोर दिया। त्याग और संयम प्रेम और करुणा सील और सदाचार ही उनके प्रवचनों का सार था।

महावीर स्वामी ने श्रमण और श्रमणी, श्रावक और श्राविका सबको लेकर चतुर्विद् संघ की स्थापना की उन्होंने कहा जो जिस अधिकार का हो वह उसी वर्ग में आकर सम्यकतत्त्व पाने के लिए आगे बढ़े। जीवन का लक्ष्य शांति पाना है। धीरे-धीरे देश के भिन्न-भिन्न भागों में घूम कर महावीर स्वामी ने अपना पवित्र संदेश फैलाया, महावीर स्वामी ने 72 वर्ष की अवस्था में ईसा पूर्व 527 में पावापुरी (बिहार) में कार्तिक (अश्वनी) कृष्ण अमावस्या को निर्वाण प्राप्त किया। इनके निवार्ण दिवस पर जैन धर्म के अनुयाई घर-घर दीपक जला कर दीपावली मनाते है।

जैन धर्म का कोई संस्थापक नहीं है बल्कि जैन धर्म 24 तीर्थंकरों के जीवन और शिक्षा पर आधारित धर्म है। तीर्थंकर यानी वह आत्माएं जो मानवीय पीड़ा और हिंसा से परे इस सांसारिक जीवन को पार कर आध्यात्मिक मुक्ति के क्षेत्र में पहुंच गई हैं। सभी जैनियों के लिए 24 वें तीर्थंकर महावीर स्वामी जैन धर्म में खास महत्व रखते हैं। महावीर इन आध्यात्मिक तपस्वियों में से अंतिम तीर्थंकर थे लेकिन जहां औरों की ऐतिहासिकता अनिश्चित है वही महावीर के बारे में पक्के तौर पर कहा जा सकता है कि उन्होंने इस धरती पर जन्म लिया। अहिंसा के इस उपदेश का जन्म क्षत्रिय जाति में हुआ वह गौतम बुद्ध के समकालीन थे। महावीर के अनुयायियों के लिए मुक्ति का मार्ग त्याग और बलिदान ही है लेकिन इसमें जीवात्माओं की बली शामिल नहीं है।

कुछ बौद्ध ग्रंथों में महावीर का उल्लेख है लेकिन आज हम इसके बारे में जो कुछ भी जानते हैं उसका आधार जैन ग्रंथ है। प्रचारआत्मक कल्पसूत्र यह ग्रंथ महावीर के सदियों बाद लिखा गया है। इससे पहले लिखे गए आचरंगसूत्र हैं इस ग्रंथ में महावीर को भ्रमण करने वाले एकांकी साधु के रूप में दिखाया गया है। कहा जाता है कि महावीर ने 30 वर्ष की उम्र में भ्रमण करना शुरू किया और वह 42 साल की उम्र तक भ्रमण करते रहे।

ज्ञान की खोज में गृह त्याग कर महावीर ने अपनी यात्रा की शुरुआत एक भयानक पीड़ा दायक संकल्प से की थी। कल्पसूत्र में अशोक वृक्ष के नीचे घटित उस क्षण का वर्णन है। वहां उन्होंने अपने अलंकार, मालाएं और सुंदर वस्त्र ,वस्तुओं को त्याग दिया। आकाश में चंद्रमा और ग्रह नक्षत्र के शुभ संयोग की बेला में उन्होंने ढाई दिन के निर्जल उपवास के बाद दिव्य वस्त्र धारण कर लिए। वह उस समय बिल्कुल अकेले थे। अपने केस लूंछित कर अर्थात तोड़कर, अपना घर छोड़कर वह सन्यासी हो गए थे। जैन खुद अपनी मुट्ठियों से अपने बाल का लुंचन करते हैं। महावीर और जैन परंपरा की शिक्षाएं 20वीं सदी के भारत में तब राजनीतिक रूप से औरभी महत्वपूर्ण हो गई थी जब महात्मा गांधी ने इतिहास के शक्तिशाली ब्रिटिश राज को हटाने के लिए अहिंसा का प्रयोग किया। गांधी जी ने जैन धर्म के सभी जीवित प्राणियों के प्रति सम्मान की भावना का बेहद आदर करते थे।

महावीर के पवित्र उपदेश संपूर्ण भारत में विशेषकर पश्चिमी भारत के गुजरात, राजस्थान में और दक्षिण भारत में अधिक संख्या में लोगों ने जैन धर्म अपनाया। कर्नाटक के श्रावण बेलगोला में आपको सबसे प्रसिद्ध जैन तीर्थ मिलेगा एक विशालकाय प्रतिमा जो एक पर्वत की चोटी को काटकर गढी गई है बाहुबली। जैन परंपरा के अनुसार बाहुबली या गोमट पहले तीर्थंकर के पुत्र थे।

17 मीटर ऊंची और 8 मीटर चौड़ी यह प्रतिमा एक चट्टान से बनी है जो विश्व की सबसे विशाल मानव निर्मित प्रतिमा है। जैन प्रतिमाओं में सहज रूप से तप की अंतिम अवस्था को दर्शाता है। कठोर जैन निरामिष भोजन में न केवल मांस और अंडों का सेवन निषेध है बल्कि कंद मूल भी वर्जित है शायद इसीलिए कि उन्हें उखाड़ने से जमीन के अंदर आसपास के पौधों और छोटे जीव जंतुओं को कष्ट पहुंचता है। जैन समुदाय आज अपनी व्यावहारिक कुशलता और व्यावसायिक नैतिकता के लिए जाना जाता है। आज वह देश के सबसे धनी अल्पसंख्यक समुदाय में से एक है।

जैन धर्म द्वारा ही सर्वप्रथम वर्ण व्यवस्था की जटिलता और कर्मकांड की बुराइयों को रोकने के लिए महावीर स्वामी द्वारा सकारात्मक प्रयास किए गए। संस्कृत के स्थान पर आम जन की भाषा प्रकृति में उपदेश दिए जैन धार्मिक ग्रंथ अर्धमगधी भाषा में लिखे गए। जैन धर्म द्वारा प्राकृत भाषा के प्रयोग के कारण इस भाषा का विकास हुआ तथा साहित्य समृद्धि हुआ । जैन परंपरा के अनुसार हर्यक वंशी उदयन जैन धर्म का अनुयाई था। चंद्रगुप्त मौर्य भी जैन धर्म को मानते थे। उन्होने भद्रबाहु के साथ दक्षिण में श्रावण बेलगोला, वर्तमान कर्नाटक में प्रवास किया तथा जैन निर्वाण विधि संलेखना द्वारा प्राण त्याग किया। पहले सादी में उज्जैन और मथुरा जैन धर्म के प्रमुख केंद्र थे।

महावीर स्वामी के अहिंसा पर अत्यधिक बल देने के कारण उनके अनुयाई कृषि तथा युद्ध में संलग्न न होकर व्यापार एवं वाणिज्य को महत्व देते थे। जिससे व्यापार एवं वाणिज्य की उन्नति हुई तथा नगरों की संपन्नता बढी। महावीर स्वामी के सीधे एवं सरल उपदेशों ने सामान्य जन मानस को आकर्षित किया तथा उत्तर वैदिक कालीन कर्मकांडीय जटिल विचारधारा के सम्मुख जैन धर्म के रूप में जीवन यापन का सीधा-साधा मार्ग प्रस्तुत किया।

महावीर स्वामी के उपदेश हमें जीवो पर दया करने की शिक्षा देते हैं उन्होंने मानव समाज को एक ऐसा मार्ग बताया जो सत्य और अहिंसा पर आधारित है और जिस पर चलकर मनुष्य आज भी बिना किसी को कष्ट दिए हुए मोक्ष की प्राप्ति कर सकता है।

(लेखिका उत्तर प्रदेश-बेसिक शिक्षा परिषद में शिक्षिका हैं।)

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पिताजी और उँगलियों के निशान 

पिताजी बूढ़े हो गए थे और चलते समय दीवार का सहारा लेते थे। परिणामस्वरूप दीवारें उस स्थान पर बदरंग हो जाती जहां-जहाँ वे उसे छूते थे और उनकी उंगलियों के निशान दीवारों पर छप जाते थे।मेरी पत्नी गंदी दीखने वाली दीवारों के बारे में अक्सर मुझ से शिकायत करती रहती।

एक दिन पिताजी को सिरदर्द था, इसलिए उन्होंने अपने सिर पर तेल की मालिश कराई थी और फलस्वरूप दीवार थामते समय उस  पर तेल के गहरे धब्बे पड़ गए थे।
मेरी पत्नी यह देखकर मुझ पर चिल्लायी और मैं भी अपने पिता पर क्रोधित हुआ और उन्हें  ताकीद की कि आगे से वे चलते समय दीवार को न छुआँ करें और न ही उसका सहारा लिया करें।
पिताजी ने अब चलते समय दीवार का सहारा लेना बंद कर दिया और एक दिन वे धड़ाम से नीचे गिर पड़े। अब वे बिस्तर पर ही पड़े रहने लगे और थोड़े समय बाद हमें छोड़कर चले गए।मारे पश्चाताप के मेरा दिल तङप उठा और मुझे लगा कि मैं अपने को कभी माफ़ नहीं कर सकूँगा, कभी नहीं।
कुछ समय बाद हम ने अपने घर का रंग-रोगन  कराने की सोची। जब पेंटर लोग आए तो मेरा बेटा, जो अपने दादा से बहुत प्यार करता था, ने रंगसाज़ों को अपने दादा के उंगलियों के निशानों को मिटाने और उन क्षेत्रों पर पेंट करने से रोका।
पेंटर बालक की बात मान गए। उन्होंने उसे आश्वासन दिया कि वे उसके दादाजी यानी मेरे पिताजी के उंगलियों/हाथों के निशान नहीं हटाएंगे, बल्कि इन निशानों के आसपास एक खूबसूरत गोल घेरा बनाएंगे और एक अनूठा डिजाइन तैयार करेंगे।
इस बीच पेंट का ख़त्म हुआ मगर वे निशान हमारे घर का एक हिस्सा बन गए। हमारे घर आने वाला हर व्यक्ति हमारे इस अनूठे डिजाइन की प्रशंसा करने लगा।
समय के साथ-साथ मैं भी बूढ़ा हो गया।अब मुझे चलते समय दीवार का सहारा लेने की जरूरत पड़ने लगी थी। एक दिन चलते समय, मुझे अपने पिता से कही गई बातें याद आईं और मैंने बिना सहारे चलने की कोशिश की। मेरे बेटे ने यह देखा और तुरंत मेरे पास आया और मुझसे दीवार का सहारा लेने को कहा और चिंता जताई कि मैं सहारे के बिना गिर जाऊंगा। मैंने महसूस किया कि मेरा बेटा मेरा सहारा बन गया था।
मेरी बिटिया तुरंत आगे आई और प्यार से मुझसे कहा कि मैं चलने के लिए उसके कंधे का सहारा लूं। मैं रोने लगा। अगर मैंने भी अपने पिता के लिए ऐसा किया होता तो वे और लंबे समय तक जीवित रह सकते थे, मैं सोचने लगा।मेरी बिटिया मुझे साथ लेकर गई और सोफे पर बिठा दिया।फिर  मुझे अपनी ड्राइंग बुक दिखाने लगी ।
उसकी टीचर ने उसकी ड्राइंग की प्रशंसा की थी और उत्कृष्ट रिमार्क दिया था।स्केच मेरे पिता के दीवार पर हाथों के निशानों का था।
उसकी टिप्पणी थी – “काश! हर बच्चा बुजुर्गों से इसी तरह प्यार करे”।
मैं अपने कमरे में वापस आया और खूब रोया, अपने पिता से क्षमा मांगी, जो अब इस दुनिया में नहीं थे।
हम भी समय के साथ बूढ़े हो जाएंगे । आइए, हम अपने बुजुर्गों की देखभाल करें और अपने बच्चों को भी यही सिखाएं।
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पृथ्वी दिवस और वेद

भूमि को वेद में माता कहा गया है “माता भूमि: पुत्रो अहं पृथिव्या: -अथर्व० १२/१/१२”, “उपहूता पृथिवी माता -यजु० २/१०”। वेद कहता है-
यस्यामाप: परिचरा: समानीरहोरात्रे अप्रमादं क्षरन्ति।
सा नो भूमिर्भूरिधारा पयो दुहामथो उक्षतु वर्चसा।। -अथर्व० १२/१/९
जिस भूमि की सेवा करनेवाली नदियां दिन-रात समान रूप से बिना प्रमाद के बहती रहती हैं वह भूरिधारा भूमिरुप गौ माता हमें अपना जलधार-रूप दूध सदा देती रहें।
भूमि की हिंसा न करें

वेद मनुष्य को प्रेरित करते हुए कहता है “पृथिवीं यच्छ पृथिवीं दृंह, पृथिवीं मा हिंसी: अर्थात् तू उत्कृष्ट खाद आदि के द्वारा भूमि को पोषक तत्त्व प्रदान कर, भूमि को दृढ़ कर, भूमि की हिंसा मत कर”। भूमि की हिंसा करने का अभिप्राय है उसके पोषक तत्वों को लगातार फसलों द्वारा इतना अधिक खींच लेना कि फिर वह उपजाऊ न रहे। भूमि पोषकतत्त्वविहीन न हो जाये एतदर्थ एक ही भूमि में बार-बार एक ही फसल को न लगाकर विभिन्न फसलों को अदल-बदलकर लगाना, उचित विधि से पुष्टिकर खाद देना आदि उपाय हैं। आजकल कई रासायनिक खाद ऐसे चल पड़े हैं, जो भूमि की उपजाऊ-शक्ति को चूस लेते हैं या भूमि की मिट्टी को दूषित कर देते हैं।

भूमि में या भूतल की मिट्टी में यदि कोई कमी आ जाये तो उस कमी को पूर्ण किये जाने की ओर भी वेद ने ध्यान दिलाया है –
“यत्त ऊनं तत्त आ पूरयाति प्रजापति: प्रथमजा ऋतस्य अर्थात् प्रजापति राजा विभिन्न उपायों द्वारा उस कमी को पूरा करे -अथर्व० १२/१/६१”।
यजुर्वेद के एक मन्त्र में कहा गया है
“सं ते वायुर्मातरिश्वा दधातु उत्तानाया हृदयं यद् विकस्तम् अर्थात् उत्तान लेटी हुई भूमि का हृदय यदि क्षतिग्रस्त हो गया है तो मातरिश्वा वायु उसमें पुनः शक्ति-संधान कर दे -यजु० ११/३९”।
मातरिश्वा वायु का अर्थ है अंतरिक्षसंचारी पवन, जो जल, तेज आदि अन्य प्राकृतिक तत्त्वों का भी उपलक्षक है। परन्तु यदि जल, वायु आदि ही प्रदूषित हो गए हों तो उनसे भूमि की क्षति-पूर्ति कैसे हो सकेगी?

#EarthDay
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कचरा प्रबंधन में नई पहल

नेक्सस से प्रशिक्षित स्टार्ट-अप आकरी तकनीक के बूते घरों से कचरा संग्रहण के कार्य को व्यवस्थित करने और छंटाई किए गए कचरे को रीसाइक्लिंग नेटवर्क के साथ जोड़ रहा है। सी. चंद्रशेखर ने कचरा प्रबंधन के क्षेत्र में उतरने का फैसला तब किया जब केरल में कोच्चि के उनके घर पर एक स्क्रैप लेने वाले ने जूते और थर्मोकोल जैसी वस्तुओं को यह कहते हुए लेने से इनकार कर दिया कि बाजार में इनका कोई रीसाइक्लिंग मूल्य नहीं है। स्क्रैप लेने वाले ने बताया कि ऐसे वस्तुएं कचरे के रूप में फेंक दी जाती हैं।

चंद्रशेखर कहते हैं, ‘‘मैंने रीसाइक्लिंग के बारे में जानने के लिए एक साल तक स्क्रैप यार्ड में अंशकालिक काम करना शुरू किया। रीसाइक्लिंग प्रक्रिया को समझने और उद्योग में प्रचलित अस्पष्ट मूल्य निर्धारण और वजन करने के गलत तरीकों के देखने के बाद मैंने इस क्षेत्र में सकारात्मक बदलाव लाने का फैसला किया।’’

चंद्रशेखर ने आकरी नाम से एक स्टार्ट-अप शुरू किया, मलयालम में जिसका मतलब है ‘‘कबाड़’’और साथ ही उन्होंने एक मोबाइल एप भी विकसित किया। दो कर्मचारियों और एक वाहन के साथ उन्होंने 2019 में स्क्रैप एकत्र करना शुरू किया। एक साल के भीतर वह राज्य सरकार की इकाई क्लीन केरल कंपनी लिमिटेड और सीमेंट उद्योग के साथ साझेदारी में कार्य करने लगे। वह बताते हैं, ‘‘फिर हमने बिजनेस-टू-बिजनेस (बी2बी) और बिजनेस-टू-कंज्यूमर (बी2सी) क्षेत्रों में कदम बढ़ाया। सभी को एप में सहजता के साथ एकीकृत कर लिया गया।’’

अपशिष्ट प्रबंधन सेवाओं के लिए आकरी केरल में घर-घर में जाना जाने लगा है। आकरी अमेरिकी दूतावास नई दिल्ली के नेक्सस स्टार्ट-अप हब में 19 वें समूह का हिस्सा था। केरल में इसका ग्राहक आधार एक लाख से अधिक है और इसमें नगर पालिकाएं, वाणिज्यिक प्रतिष्ठान और आवासीय समुदाय शामिल हैं। आकरी अब दूसरे राज्यों में अपनी सेवाओं का विस्तार करने की योजना बना रहा है।

प्रस्तुत हैं चंद्रशेखर के साथ साक्षात्कार के मुख्य अंश :

शुभारंभ के बाद से आपके स्टार्ट–अप का विकास किस तरह से हुआ?
आकरी का विकास उल्लेखनीय रहा है। शुरुआत के एक साल के भीतर हमारा ग्राहक आधार 100 से बढ़कर 5000 हो गया। 2021 में हमने एप को विकसित किया और रीजनल जोन्स की स्थापना की और इसके साथ ही एक इन-हाउस टेक्नोलॉजिकल विंग और कॉल सेंटर की स्थापना की। एक साल बाद, हमने आईओएस एप लॉंच किया और तीन जिलों तक विस्तार किया और फिर बायोमेडिकल अपशिष्ट प्रबंधन के लिए केरल एनवायरो इंफ्रास्ट्रक्चर लिमिटेड (केईआईएल) के साथ सहभागिता की। हमने सदस्यता, ऑनलाइन भुगतान और बहुभाषी विकल्प की सुविधाएं अपने एप से जोड़ कर इसे और अधिक यूज़र फ्रेंडली बनाया है। 2023 तक हमारी टीम बढ़कर 47 सदस्यों की हो गई। सस्टेनेबिलिटी को प्राथमिकता देते हुए हम सीएनजी और बिजली के वाहनों का उपयोग करते हैं।

अपशिष्ट प्रबंधन के लिए प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल करने का विचार कैसे आया?
प्रौद्योगिकी को शामिल करने का विचार पर्यावर्णीय चिंताओं, तकनीकी प्रगति, बाजार के अवसरों, व्यक्तिगत अनुभवों और कुछ अलग प्रभाव डालने की इच्छाओं के संयोजन से पैदा हुआ। हमारा मानना है कि, अपशिष्ट प्रबंधन में मोबाइल एप जैसी तकनीकों का उपयोग वास्तविक जीवन की समस्याओं का सुविधाजनक और कुशल समाधान उपलब्ध करा सकता है।

बायोमेडिकल कचरे के सुरक्षित और पर्यावरण–अनुकूल निपटान में आकरी की भूमिका के बारे में बताइए।
हम घरों से कई तरह के बायोमेडिकल अपशिष्ट एकत्र करते हैं जिनमें पेशाब बैग, डायपर, सैनिटरी नैपकिन, मियाद बीत चुकी दवाएं और लैब से निकला कचरा शामिल हैं। हमने इस कचरे के वैज्ञानिक प्रसंस्करण के लिए केईआईएल के साथ मिलकर काम किया। हम पीले बार कोडेड बैग का उपयोग करते हैं जो 2016 के बायोमेडिकल अपशिष्ट प्रबंधन के नियमों का सख्ती से पालन करते हैं। इसके अलावा, हम कम खर्च में बायोमेडिकल कचरे के निपटान के लिए एक रिसॉर्स मैंनेजमेंट कंपनी रे सस्टेनेबिल्टी के सहयोग से अपना खुद का निपटान संयंत्र लगाने की प्रक्रिया में हैं।

आकरी को अपशिष्ट प्रबंधन के क्षेत्र में किन चुनौतियों से जूझना पड़ा और उसे किस तरह के अवसर मिले?
जहां तक चुनौतियों की बात है तो प्लास्टिक कचरे की जटिल प्रकृति, उसे ढंग से अलग करने में परेशानी और उसकी काफी ज्यादा मात्रा है। हम संग्रह और रीसाइक्लिंग को ढंग से व्यवस्थित करने के लिए आकरी एप का उपयोग करके इन चुनौतियों से निपटते हैं। ई-कचरे की रीसाइक्लिंग और फिर से उसके इस्तेमाल को बढ़ावा देने के मकसद से एक्सटेंडेट प्रोड्यूसर रिस्पॉंसबिलिटी (ईपीआर) की शुरुआत से भी इस काम में मदद मिली है।

नेक्सस स्टार्ट–अप हब में प्रशिक्षण से आपनेक्या खास बातें सीखीं?
नेक्सस ने हमें नेटवर्किंग, विशेषज्ञता तक पहुंच और प्रेरणा देने में सहायता की। साथी उद्यमियों और परामर्शदाताओं से मिलने और कार्यक्रम का हिस्सा बनने से सहयोग के द्वार खुल गए। प्रशिक्षण सत्रों में अक्सर विशेषज्ञ शामिल होते थे, जो उद्यमिता के विभिन्न पहलुओं जैसे व्यवसाय विकास, मार्केटिंग और पैसों के बंदोबस्त के बारे में एक नजरिया सामने रखते थे।

ग्राहकों का भरोसा आप पर बना रहे, इसके लिए आप क्या करते हैं?
ग्राहक टोल-फ्री नंबरों, ईमेल और ऑनलाइन पोर्टल के माध्यम से हमसे जुड़ सकते हैं और हम तुरंत उसका जवाब देते हैं। हम नियमित फीडबैक के आधार पर अपनी रणनीतियां तैयार करते हैं। हमारी ठोस प्रक्रियाएं, सुविधाजनक सेवाएं और लगातार सक्रियता हमारी विश्वसनीयता बढ़ाने में मददगार है। तकनीकी रूप से हम परिचालन दक्षता के लिए रूट ऑप्टमाइजेशन, आईओटी सक्षम कचरे के डिब्बे और ग्राहक प्रबंधन प्लेटफॉर्म जैसे समाधान अपनाते हैं।

आपकी आगामी परियोजनाएं क्या हैं, और अपशिष्ट प्रबंधन के भविष्य को आकार देने में आपकी भूमिका क्या होने जा रही है?
कोच्चि में एक स्मार्ट बिन सुविधा का शुभारंभ अस्थायी आबादी की जरूरतों को पूरा करेगा और सुरक्षित अपशिष्ट निपटान सुनिश्चित करेगा। भविष्य को देखते हुए आकरी का लक्ष्य अपनी बायोमेडिकल कचरा संग्रहण सेवाओं को पूरे केरल और उसके बाहर तक विस्तारित करने का है।

साभार- spanmag.com/hi/

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रीमा राय सिंह के काव्य संग्रह ‘अक्षर तूलिका’ पर परिचर्चा

मुंबई, चित्रनगरी संवाद मंच मुंबई के साहित्यिक परिचर्चा में वरिष्ठ कथाकार सूरज प्रकाश, निर्देशक राजशेखर व्यास और गीतकार देवमणि पांडेय की उपस्थिति में कवयित्री रीमा राय सिंह के काव्य संग्रह ‘अक्षर तूलिका’ पर परिचर्चा हुई। पहले सत्र में सृजन संवाद कार्यक्रम में साहित्य और सिनेमा के रिश्तों पर महत्वपूर्ण चर्चा हुई और अंत में कुछ चुनिंदा कवियों का काव्यपाठ भी हुआ।

गोरेगांव पश्चिम के केशव गोरे हाल में रविवार की शाम हुए साप्ताहिक प्रोग्राम में अपनी कविताओं का जिक्र करते हुए रीमा राय ने कहा, “जीवन में जब मौन प्रस्फुटित होता है तो शब्द का आकार लेता है और वे शब्द जब भावों के मोतियों के रूप में संकलित होतें है तब कविता का जन्म होता है। ‘अक्षरतूलिका’ ऐसे भावों को समेटती विविध प्रकार की कविताओं का वह संकलन है जिसे मैंने अपने दैनिक जीवन में महसूस किया।”

रीमा राय ने कहा, “एक स्त्री के रूप में घर और घर से बाहर होने वाली घटनाओं और उस पर विविध प्रकार प्रतिक्रियाएं एक रचनाकार के रूप में जाने अनजाने मुझे भी आंदोलित करती रहती हैं जिसे मैंने मानवीय सम्वेदनाओं के आधार पर एक भावनात्मक स्वरुप प्रदान करने का एक प्रयास किया है। इस किताब की कविताएँ उन मनोभाओं पर आधारित है जिन्होनें मेरे अपने जीवन और मेरे आस-पास की होने वाली परिस्थितियों के आधार पर मुझे लिखने के लिए प्रेरित किया।”

अक्षर तूलिका की कविताएं छंद मुक्त और सरल भाषा में हैं। पाठक इनमें मौजूद वेदनाओं, संवेदनाओं, खामोशियों और रुसवाइयों जैसे भावों से रूबरू हो सकते हैं। किताब में सूरज प्रकाश, डॉ प्रमोद कुश ’तन्हा’ और डॉ रोशनी किरण की टिप्पणियां हैं। इस परिचर्चा में डॉ वर्षा महेश, डॉ पूजा अलापुरिया, सविता दत्त और राजीव मिश्र ने हिस्सा लिया। इस मौके पर रीमा राय सिंह ने अपने कविता संग्रह की कुछ कविताओं का पाठ भी किया, जिसे बौद्धिक वर्ग के श्रोताओं ने खूब सराहा।

पहले सत्र में चित्रनगरी संवाद मंच मुम्बई के सृजन संवाद कार्यक्रम में साहित्य और सिनेमा के रिश्तों पर महत्वपूर्ण चर्चा हुई। कार्यक्रम में प्रस्तावना पेश करते हुए कथाकार सूरज प्रकाश ने चर्चा के लिए कुछ मुद्दे सामने रखे। उन्होंने कहा कि साहित्य को सिनेमा में तब्दील करते समय क्या चुनौतियां आती हैं इस पर विचार की ज़रूरत है। साहित्य पर आधारित फ़िल्म की सफलता और असफलता के मानदंड क्या हैं? एक ही कथाकार मन्नू भंडारी की कहानी पर ‘रजनीगंधा’ फ़िल्म कामयाब होती है और उन्हीं की कथा ‘आपका बंटी’ पर आधारित फ़िल्म क्यों फ्लाप हो जाती है, इस पर चर्चा की आवश्यकता है।

सुप्रसिद्ध लेखक संपादक, निर्माता निर्देशक एवं दूरदर्शन के अतिरिक्त महानिदेशक राजशेखर व्यास ने कहा कि जब कोई साहित्यकार अपनी कृति फ़िल्म निर्माण के लिए किसी फ़िल्मकार को देता है तो उसे भूल जाना चाहिए कि इस पर मेरा कोई हक़ है। जब साहित्य पर फ़िल्म बनती है तो उस पर निर्देशक का अधिकार हो जाता है। सिनेमा निर्देशक का माध्यम है। इसलिए निर्देशक सिनेमाई ज़रूरत के अनुसार साहित्यिक कृति में मनचाहा बदलाव कर सकता है।

श्री व्यास ने अपने पिता पद्मभूषण सूर्यनारायण व्यास को याद करते हुए कहा कि उन्होंने सम्राट विक्रमादित्य और कवि कालिदास पर फ़िल्मों का निर्माण किया था और दोनों फ़िल्में कामयाब हुई थीं। सिने जगत में साहित्यकारों का आवागमन काफ़ी पुराना है। सन् 1924 में यानी मूक फ़िल्मों के ज़माने में पांडेय बेचन शर्मा उग्र मुंबई आ गए थे। उन्होंने यहां के फ़िल्मी माहौल पर संस्मरण भी लिखा। व्यास जी ने उग्र जी का रोचक संस्मरण पढ़कर सुनाया।

इस सृजन सम्वाद में फ़िल्म, गोदान, और ‘तीसरी क़सम’ से लेकर ‘शतरंज के खिलाड़ी’ तक पर बढ़िया चर्चा हुई। ‘धरोहर’ के अंतर्गत अभिनेता शैलेंद्र गौड़ ने प्रख्यात कवि राजेश जोशी की कविता ‘बच्चे काम पर जा रहे हैं’ का पाठ असरदार ढंग से किया। प्रतापगढ़ से पधारे वरिष्ठ कवि राजमूर्ति सौरभ का परिचय राजेश ऋतुपर्ण ने दिया। सौरभ ने अपनी चुनिंदा ग़ज़लें, दोहे और गीत सुनाए। उनकी रचनाओं को भरपूर सराहा गया। श्रोताओं की फरमाइश पर उन्होंने अवधी भाषा में भी काव्य पाठ किया। शायर नवीन जोशी नवा और कवि राजेश ऋतुपर्ण ने काव्य पाठ के सिलसिले को आगे बढ़ाया।

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अर्जुन रामपाल शामिल होंगे क्राई गाला में

हर साल की तरह इस बार भी क्राई गाला २०२४ का आयोजन होने जा रहा है। बच्चों के सुखी, स्वस्थ और शिक्षित जीवन के अधिकारों को सुनिश्चित करने के लिए CRY, चाइल्ड राइट्स एंड यू संस्था बनी है इसकी अमेरिका इकाई का यह 20वां वर्ष है। चिंतन और उत्सव की एक शाम के लिए हमारे साथ जुड़ें क्योंकि हम अपने समर्थकों के समुदाय के प्रति अपना आभार व्यक्त करना चाहते हैं तथा अपनी उपलब्धियों को साझा करना चाहते हैं,और बे एरिया, सैन डिएगो और सिएटल में हमारे CRY रात्रिभोज में अपने लक्ष्यों के बारे में बात करना चाहते हैं।

इस कार्यक्रम में सेलिब्रिटी अतिथि अर्जुन रामपाल, प्रोजेक्ट पार्टनर डॉ. रोली सिंह, सीआरवाई इंडिया की सीईओ पूजा मारवाहा समेत अन्य लोग शामिल होंगे। इस में सामानों की नीलामी, रात्रिभोज, दाता प्रशंसा और प्रतिज्ञा सत्र, बॉलीवुड संगीत और नृत्य शामिल होंगे। एक ऑनलाइन नीलामी में भारतीय कलाकारों मुरली नागापुझा, पूजा क्षत्रिय, प्रकाश देशमुख, मोहन नाइक द्वारा दान की गई पेंटिंग, कैप्टन सौरव गांगुली द्वारा हस्ताक्षरित एक क्रिकेट बल्ला, अनीता डोंगरे, अनामिका खन्ना, गौरव गुप्ता द्वारा डिजाइनर पोशाकें और इशर्या द्वारा डिज़ाइन आभूषण, जनजाति आम्रपाली आभूषण सुहानी पिट्टी, के द्वारा, शीतल ज़वेरी आभूषण और बहुत कुछ।

यह कार्यक्रम अमेरिका में ३ जगहों पर होने वाला है। San Diego: April 26 – The Heights Golf Club: https://www.cryamerica.org/sd-gala-2024/,Seattle: April 27 – W Bellevue: https://www.cryamerica.org/seattle-uphaar-2024/,Bay Area: April 28 – Villa Ragusa: https://www.cryamerica.org/bay-area-gala-2024/

आपका अटूट समर्थन खुशहाल बचपन बनाने के हमारे मिशन के पीछे प्रेरक शक्ति रहा है। CRY गाला से मिलने वाली धनराशि को हजारों वंचित बच्चों को जीने, सीखने, बढ़ने और खेलने के उनके बुनियादी अधिकार सुनिश्चित करने के लिए उपयोग किया जायेगा। आइए मिलकर इस 20 साल की यात्रा को आपके साथ मिल कर, बच्चों की नियति को आकार देने की हमारी साझा प्रतिबद्धता का प्रमाण बने।

अर्जुन राम पाल ने हिन्दी मीडिया से बात करते हुए बताया कि क्राय अपना कार्य बहुत कुशलता से करती है। उन्होंने आगे कहा कि क्राय के जितने कार्यर्कता है वो बहुत अच्छे लोग है। क्राय बच्चों की सुरक्षा, पढ़ाई और रहने की व्यवस्था का ध्यान रखती है। मेरे पास लिपिका और डीना का फ़ोन आया और बोला की अभी क्राय अमेरिका के २० साल हो रहे हैं आप क्यों नहीं ज्वाइन करते हैं। मुझे २ मिनट भी नहीं लगे हाँ कहने में। जो भी मेरी शूटिंग थी उसको इस तरह से मैनेज कर लिया और २ हफ्ते निकाल लिए। मैं अमेरिका आ रहा हूँ आप सभी का पैसा निकलवाने।

ये तो थी अर्जुन रामपाल जी की बात अब मैं यहाँ ये बताती चलूँ कि CRY, चाइल्ड राइट्स एंड यू, अमेरिका (CRY अमेरिका) एक 501c3 गैर-लाभकारी संस्था है जो एक न्यायपूर्ण दुनिया के अपने दृष्टिकोण से प्रेरित है यह संस्था ,सभी बच्चों कोअपनी पूरी क्षमता से विकसित होने और अपने सपनों को साकार करने के समान अवसर मिले इस बात का ध्यान रखती है और उनकी सहायता करती हैं। 35,334 से अधिक दानदाताओं और 2,000 स्वयंसेवकों के सहयोग से, CRY अमेरिका ने भारत और अमेरिका में 111 परियोजनाओं के समर्थन के माध्यम से 5,027 गांवों और झुग्गियों में रहने वाले 796,919 बच्चों के जीवन को प्रभावित किया है।

अधिक जानकारी के लिए: पर्सी प्रेसवाला से 714-512-6499 पर संपर्क करें या https://www.cryamerica.org/ पर जाएँ या [email protected] पर लिख सकते हैं।

(रचना श्रीवास्तव अमेरिका में रहतीं हैं और वहां होने वाली गतिविधियों पर लगातार लिखती हैं।)

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लुंबिनी परिक्षेत्र के प्रमुख बौद्ध मठ,मन्दिर और स्मारक

शाक्य गणराज्य की राजधानी कपिलवस्तु के निकट उत्तर प्रदेश के ककरहवा नामक ग्राम से 14 मील और नेपाल-भारत सीमा से कुछ दूर पर नेपाल के अन्दर रुमिनोदेई नामक ग्राम ही लुम्बनीग्राम है, जो गौतम बुद्ध के जन्म स्थान के रूप में जगत प्रसिद्ध है। शाक्य राजकुमार सिद्धार्थ गौतम, जो बुद्ध के नाम से प्रसिद्ध हैं, का जन्म 623 ईसा पूर्व में बैसाख की पूर्णिमा के दिन लुम्बिनी में हुआ था। भगवान बुद्ध के पिता, राजा शुद्धोदन, शाक्य वंश के शासक थे, जिनकी राजधानी कपिलवस्तु में थी। उनकी माता रानी मायादेवी (महामाया) ने अपने पैतृक घर की यात्रा के दौरान उन्हें जन्म दिया था। लुंबिनी में चीन, ताइवान, थाईलैंड, जापान, श्रीलंका, म्यांमार, जर्मनी, फ्रांस, कम्बोडिया, कोरिया, मनांग, वियतनाम, जर्मनी का ग्रेट ड्रिगुंग लोटस स्तूप,थ्रांगु वज्र विद्या मठ, और अन्य देशों के लगभग दो दर्जन मठ मंदिर और अन्य स्मारक हैं। पास ही में कपिलवस्तु क्षेत्र की वास्तविक राजधानी तिलौरा – कोट, बुद्ध का ननिहाल कोल राजधानी देवदह और करकुच्छंद नामक पूर्व बुद्ध का स्तूप गोटीहवा नामक पुरातात्विक साइट भी दर्शनीय है। यह परिक्षेत्र कुल लगभग चौसठ धार्मिक, ऐतिहासिक और पुरातात्विक स्थलो से यह अपनी आभा बिखेर रहा हैं।

प्राचीन बुद्ध के समय के मनुष्य की एकाग्रता इतनी होती थी कि उन्हें किसी का अवलंबन का सहारा नही लेना पड़ता था। वे बिना मूर्ति के ही भगवान् का ध्यान कर लेते थे। किन्तु बाद में उसकी शक्ति कम होने लगी। उसका ध्यान भटकने लगा तो मूर्ति का अवलंबन लेकर ध्यान और पूजा का प्रचलन बौद्घ और जैन धर्म में शुरू हो गया।भगवान बुद्ध का जन्म 623 ईसापूर्व हुआ था। जबकि भारत में भगवान की मूर्तियां पहली शताब्दी में पहली वार कनिष्क ने ही वनवाई थी।

लुम्बिनी में सबसे प्राचीन बौद्ध मंदिरों में से एक, जो यूनेस्को की विश्व धरोहर स्थल भी है, माया देवी मंदिर सबसे प्रसिद्ध मंदिरों में से एक है जिसे गौतम बुद्ध के जन्मस्थान के रूप में जाना जाता है। यह मंदिर लुंबिनी विकास क्षेत्र नामक पार्क मैदान के बीच में स्थित है, इसका निरंतर विकास इसे एक अवश्य देखने योग्य आकर्षण बनाता है। माया देवी मंदिर, पुष्करिणी नामक पवित्र तालाब और एक पवित्र उद्यान के ठीक बगल में स्थित है। यह मंदिर उस स्थान को चिह्नित करता है जहां माया देवी ने गौतम बुद्ध को जन्म दिया था और इस स्थान के पुरातात्विक अवशेष लगभग तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व अशोक के समय के हैं।

हिमालय की तलहटी में बसा लुम्बिनी नेपाल के सीमावर्ती क्षेत्र में है। लुंबिनी की लंबाई 4.8 किमी (3 मील) और चौड़ाई 1.6 किमी (1 मील) है। लुंबिनी परिसर को तीन क्षेत्रों में विभाजित किया गया है:

1.पवित्र उद्यान
पवित्र उद्यान लुम्बिनी क्षेत्र का केंद्र बना हुआ है और इसमें बुद्ध का जन्मस्थान और पुरातात्विक और आध्यात्मिक महत्व के अन्य स्मारक जैसे मायादेवी मंदिर, अशोक स्तंभ, मार्कर स्टोन, नैटिविटी मूर्तिकला, पुस्कारिनी पवित्र तालाब और अन्य संरचनात्मक खंडहर शामिल हैं।

लुम्बिनी विकास न्यास ने एक महायोजना तैयार की है जिसके तहत इसे विश्वस्तरीय पर्यटन स्थल बनाने की योजना है। इस महायोजना का प्रभाव पूरे शहर में दिखाई पड़ता है। यह योजना इस परिसर को एक नहर द्वारा मध्य से दो भागों में बांटती है, जिसके एक ओर मायादेवी का मंदिर है तो दूसरी ओर एक विशाल श्वेत रंग का विश्वशांति शिवालय देखा जा सकता है। इस नहर के पश्चिम में महायान बोद्ध देशों से सम्बंधित मंदिर स्थित है, जैसे कोरिया, चीन, जर्मनी, कनाडा, ऑस्ट्रिया, वियतनाम, लद्धाख और बेशक नेपाल। पूर्व की ओर थेरवाद बोद्ध धर्म का पालन करने वालों से सम्बंधित मंदिर स्थित हैं, जैसे थाईलैंड, म्यांमार, कम्बोडिया, भारत का महाबोध समाज, कोलकता, नेपाल का गौतमी जनाना मठ। इन दोनों के मध्य वज्रयान बोध धर्म की भी झलक मिलती है। दोनों ओर के संगठनों के अपने भिन्न भिन्न ध्यान केंद्र हैं जहाँ पूर्वनिर्धारित कर ध्यान का अभ्यास किया जा सकता है।

2. मठ क्षेत्र
बौद्ध स्तूपों और विहारों का 1 वर्ग मील के क्षेत्र में फैले मठ क्षेत्र को दो क्षेत्रों में विभाजित किया गया है: पूर्वी मठ क्षेत्र जो बौद्ध धर्म के थेरवाद स्कूल का प्रतिनिधित्व करता है और पश्चिमी मठ क्षेत्र जो बौद्ध धर्म के महायान और वज्रयान स्कूल का प्रतिनिधित्व करता है, जिसके दोनों ओर उनके संबंधित मठ हैं। एक लंबा पैदल पथ और नहर। मठ स्थल को एक पवित्र तीर्थ स्थल के रूप में चिह्नित करते हुए, कई देशों ने अपने अद्वितीय ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक डिजाइनों के साथ मठ क्षेत्र में बौद्ध स्तूप और मठ स्थापित किए हैं।

लुंबिनी मठ स्थल एक जटिल आवास है जिसमें गौतम बुद्ध के जीवन के बारे में जानकारी देने, बौद्ध धर्म के महत्व, इसके प्रचार-प्रसार, विकास और विश्वास प्रणाली को समझने में मदद करने के लिए विभिन्न मंदिर और मठ बनाए गए हैं जो सामंजस्यपूर्ण संघों को बनाए रखने में मदद करने के लिए एक सामान्य स्ट्रिंग के रूप में कार्य करता है। मठ स्थल को एक जल नहर द्वारा दो खंडों में विभाजित किया गया है जिसका उपयोग अक्सर पर्यटक मोटर नौकाओं पर घूमने के लिए करते हैं। पूर्व की ओर वाले भाग को पूर्वी मठ क्षेत्र कहा जाता है, जहां थेरवाद बौद्ध धर्म प्रचलित है, और पश्चिम की ओर वाले क्षेत्र को पश्चिम मठ क्षेत्र कहा जाता है, जहां वज्रयान और महायान प्रमुख हैं। एक बार अंदर जाने के बाद, व्यक्ति केवल संस्कृति, परंपराओं और बौद्ध धर्म के इतिहास के संपर्क में रहता है।

3 .सांस्कृतिक केंद्र और न्यू लुंबिनी गांव
सांस्कृतिक केंद्र और न्यू लुंबिनी गांव में लुंबिनी संग्रहालय, लुंबिनी अंतर्राष्ट्रीय अनुसंधान संस्थान, जापान का विश्व शांति पैगोडा, लुंबिनी क्रेन अभयारण्य और अन्य प्रशासनिक कार्यालय शामिल हैं।

4. भारत सरकार का बौद्ध मठ प्रस्तावित
भगवान बुद्ध के जन्मस्थली लुम्बिनी में भारत सरकार एक अरब रुपए की लागत से बौद्ध मठ का निर्माण कराएगी। 16 मई 2022 को लुम्बिनी दौरे पर पीएम मोदी इसका शिलान्यास किए हैं। भारत लुंबिनी मठ क्षेत्र में 14 अन्य देशों में शामिल हो जाएगा, क्योंकि प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने नेपाल में बौद्ध धर्म के लिए एक अंतरराष्ट्रीय केंद्र की आधारशिला रखी है। यह बौद्ध मठ लुम्बिनी में बने अन्य देश के मठ की तुलना में सबसे बड़ा व सबसे अधिक लागत वाला होगा। भारत सरकार के अधीन संस्था अंतर्राष्ट्रीय बौद्ध परिसंघ इस मठ का निर्माण करा रहा है। परिसंघ ने लुम्बिनी विकास कोष से जमीन ली है। जिस मठ का शिलान्यास हुआ है उस मठ मे बुद्ध का मंदिर, बौद्ध गुरुओं के ठहरे की व्यवस्था, चिकित्सा, ध्यान हाल का निर्माण हो रहा है।

6 अगस्त 2023 को नेपाल में बौद्ध भिक्षुओं के विशेष मंत्रोच्चारण के साथ भूमि पूजन महोत्सव के बाद लुंबिनी में भारतीय अंतर्राष्ट्रीय बौद्ध संस्कृति और विरासत केंद्र के निर्माण का शुभारंभ हुआ। 1.60 अरब रुपये की लागत से बनने वाला हेरिटेज सेंटर कमल के आकार का होने की उम्मीद है। इसे जीरो-नेट तकनीक में बनाया जाएगा और करीब-करीब वर्ष में पूरा किया जाएगा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और नेपाल के प्रधान मंत्री शेर बहादुर देउबा ने 2022 में मोदी की लुंबिनी यात्रा के दौरान संयुक्त रूप से इसकी रैली निकाली थी।भारत और नेपाल की सांस्कृतिक विरासतें साझा की जा रही हैं, और अंतरराष्ट्रीय मानकों पर एक मठ का निर्माण किया जा रहा है।

5. लुंबिनी संग्रहालय
लुंबिनी संग्रहालय मौर्य और कुशान काल की कलाकृतियों को प्रदर्शित करता है। संग्रहालय में लुम्बिनी को चित्रित करने वाली दुनिया भर से धार्मिक पांडुलिपियों, धातु मूर्तियों और टिकटें हैं। लुंबिनी इंटरनेशनल रिसर्च इंस्टीट्यूट लुंबिनी संग्रहालय के सामने स्थित है, सामान्य रूप से बौद्ध धर्म और धर्म के अध्ययन के लिए अनुसंधान सुविधाएं प्रदान करता है। इस संग्रहालय की वास्तुकला में ताइवान का प्रभाव नजर आएगा। यहां लगभग 12000 कलाकृतियों को प्रदर्शित किया गया है। यहां प्राचीन सिक्के, पांडुलिपियां, टिकटें, टेराकोटा मूर्तियां देखने को मिलेंगी। यह संग्रहालय 1970 के दशक में बनाया गया था और अब इसे ताइवान के वास्तुकार क्रिस याओ और उनकी टीम द्वारा फिर से तैयार किया गया है।

6. माया देवी का पावन मन्दिर
मायादेवी मंदिर इस क्षेत्र का सबसे महत्वपूर्ण और पवित्र स्थल है –यह वह वास्तविक स्थान है जहां भगवान बुद्ध का जन्म कपिलवस्तु के राजा शुद्धोधन की पत्नी रानी मायादेवी के घर हुआ था। यह जगह बहुत शांतिपूर्ण है और लोग आम तौर पर वहां ध्यान करते हैं। हाल ही में हुई खुदाई के नतीजों से पता चला है कि मंदिर का यह ढांचा मायादेवी मंदिर के भीतर बना था। यह सम्राट अशोक के इस क्षेत्र में पहुंचने से पहले की घटना है। माना जाता था कि लुम्बिनी और यह मंदिर सम्राट अशोक के कार्यकाल में तीसरी शताब्दी में बनाया गया था। इस खुदाई मिशन में शामिल अनुसंधानकर्ताओं ने सम्राट अशोक के समय से पहले के एक मंदिर का पता लगाया है जो कि ईंट से बना हुआ था।

7. बौद्धों और हिंदुओं दोनों के लिए पवित्र स्थल
बौद्धों और हिंदुओं दोनों के लिए पवित्र मायादेवी मंदिर, माना जाता है कि इसे पांचवीं शताब्दी के मंदिर के ऊपर बनाया गया था, जो संभवतः अशोक के मंदिर के ऊपर बनाया गया था। मंदिर में बुद्ध के जन्म की एक पत्थर की आधार-राहत है। एक छोटे शिवालय जैसी संरचना में संरक्षित, यह छवि भगवान की मां मायादेवी को अपने दाहिने हाथ से साल के पेड़ की एक शाखा को पकड़कर सहारा देती हुई दिखाई देती है। नवजात बुद्ध को अंडाकार प्रभामंडल वाले कमल के मंच पर सीधे खड़े देखा जाता है। पवित्र पुष्करिणी कुंड महादेवी मंदिर के दक्षिण में स्थित है जहाँ मायादेवी ने भावी बुद्ध को जन्म देने से पहले स्नान किया था। यहीं पर सिद्धार्थ को पहला औपचारिक शुद्धिकरण स्नान भी कराया गया था। सनातन हिंदू बुद्ध को हिंदू भगवान विष्णु का 10वां अवतार मानते हैं और बैसाख (अप्रैल-मई) की पूर्णिमा के दिन हजारों नेपाली हिंदू भक्त माया देवी से प्रार्थना करने के लिए यहां आते हैं, जिन्हें स्थानीय लोग रूपा देवी “लुम्बिनी की देवी माँ” कहते हैं।

8. माया देवी का वर्तमान मंदिर
साइट पर पुरातात्विक अवशेष पहले तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व अशोक द्वारा निर्मित ईंट की इमारतों के थे। छठी शताब्दी ईसा पूर्व का लकड़ी का मंदिर 2013 में खोजा गया था। 1992 में की गई खुदाई से कम से कम 2200 साल पुराने खंडहरों का पता चला, जिसमें एक ईंट के चबूतरे पर एक स्मारक पत्थर भी शामिल था, जो तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व में सम्राट अशोक द्वारा रखे गए पत्थर के विवरण से मेल खाता था। इस स्थल पर एक भव्य स्मारक बनाने की योजना है, लेकिन अभी एक मजबूत ईंट मंडप मंदिर के खंडहरों की सुरक्षा करता है। आप ऊंचे बोर्ड वॉक पर खंडहरों के चारों ओर घूम सकते हैं। तीर्थयात्रियों के लिए केंद्र बिंदु बुद्ध के जन्म की एक बलुआ पत्थर की नक्काशी है, जिसे 14 वीं शताब्दी में मल्ल राजा, रिपु मल्ला द्वारा यहां छोड़ा गया था, जब माया देवी को हिंदू मातृ देवी के अवतार के रूप में पूजा जाता था। सदियों से चली आ रही पूजा के कारण यह नक्काशी लगभग सपाट हो गई है, लेकिन अब माया देवी की आकृति को देखा जा सकता है। जो एक पेड़ की शाखा को पकड़ रही है और बुद्ध को जन्म दे रही है, जबकि इंद्र और ब्रह्मा देख रहे हैं। इसके ठीक नीचे बुलेटप्रूफ शीशे के अंदर एक मार्कर पत्थर लगा हुआ है, जो उस स्थान को इंगित करता है जहां बुद्ध का जन्म हुआ था। प्राचीन माया देवी मंदिर का निर्माण सम्राट अशोक की लुम्बिनी यात्रा के दौरान लगभग 249 ईसा पूर्व में किया गया था, जिसमें मार्कर पत्थर और जन्म मूर्तिकला की सुरक्षा के लिए पकी हुई ईंटों का उपयोग किया गया था। आसपास की मिट्टी से पोस्टहोल संरेखण की रेडियोकार्बन डेटिंग से संकेत मिलता है कि पवित्र स्थान था पहली बार छठी शताब्दी ईसा पूर्व में माया देवी मंदिर के भीतर चित्रित किया गया था।

9. जन्मस्थान का गर्भगृह
लुंबिनी (और संपूर्ण बौद्ध जगत का) का सबसे महत्वपूर्ण और पवित्र स्थान वह पत्थर की पटिया है जो सटीक स्थान बताती है जहां बुद्ध का जन्म हुआ था। यह गर्भगृह के अंदर गहराई में स्थित है और प्रसिद्ध मायादेवी मंदिर के पुराने स्थल पर खंडहरों की तीन परतों के नीचे की गई बहुत कठिन और श्रमसाध्य खुदाई के बाद पाया गया है।

10. मायादेवी का पवित्र तालाब लुंबिनी
मायादेवी तालाब, माया देवी मंदिर परिसर के अंदर स्थित, वह जगह है जहां बुद्ध की मां उसे जन्म देने से पहले स्नान करती थीं। यह भी माना जाता है कि सिद्धार्थ गौतम का पहला स्नान भी यहां हुआ था। माया देवी मंदिर के ठीक सामने स्थित, माया देवी तालाब एक चौकोर आकार की संरचना है जिसमें जल स्तर तक चढ़ने के लिए चारों ओर सीढ़ियाँ हैं। इसे पुष्करिणी के नाम से भी जाना जाता है, यह वह जगह है जहां गौतम बुद्ध की मां – माया देवी – स्नान करती थीं। दरअसल भगवान बुद्ध का प्रथम स्नान इसी तालाब में हुआ था। तालाब के एक तरफ हरे-भरे झाड़ियों से घिरा ऊंचे पेड़ों वाला एक अच्छी तरह से रखा हुआ बगीचा है और दूसरी तरफ प्राचीन खंडहर हैं जो तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व के हैं। माना जाता है कि ये खंडहर ईंट के मंडपों से संरक्षित प्राचीन मंदिरों और स्तूपों के अवशेष है। यहां माया देवी ने बुद्ध को जन्म देने से पहले स्नान किया था। मैदान के चारों ओर दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व से लेकर 9वीं शताब्दी ईस्वी तक के कई ईंट स्तूपों और मठों की खंडहर नींवें बिखरी हुई हैं।

11. बोधि वृक्ष
लुम्बिनी में बोधि वृक्ष शांत माया देवी तालाब के तट पर मंदिर के ठीक बगल में माया देवी मंदिर परिसर में स्थित है। इस पेड़ के नीचे ही भगवान बुद्ध ने ज्ञान प्राप्त किया था। इस पेड़ को बहुत पवित्र माना जाता है। गौतम बुद्ध ने इस वृक्ष के नीचे ध्यान करके क्रोध, भ्रम, भोग और विलासिता से भरे अपने जीवन से मुक्ति प्राप्त की थी। इस पेड़ के करीब जाकर आपको अहसास होगा कि जीवन में भौतिक सुख के अलावा और भी बहुत कुछ है। यह पेड़ एक सदियों पुराना पीपल का पेड़ या फिकस रिलिजियोसा है जो रंग-बिरंगे प्रार्थना झंडों से सुसज्जित है, स्थानीय लोगों का मानना है कि रंग-बिरंगे प्रार्थना झंडों को बांधते समय मांगी गई इच्छाएं अक्सर पूरी होती हैं।

12. अशोक स्‍तंभ
यूं तो दुनिया में कई अशोक स्‍तंभ हैं, लेकिन लुम्बिनी में बना अशोक स्‍तंभ सबसे प्रसिद्ध है। तीसरी शताब्दी में बनी यह प्राचीन संरचना माया देवी मंदिर के परिसर के अंदर स्थित है। कहते हैं कि राजा अशोक ने भगवान बुद्ध को श्रद्धांजलि देने के लिए इस स्तंभ का निर्माण करवाया था। इसकी ऊंचाई 6 मीटर है, इसलिए आप इसे दूर से ही देख पाएंगे। अगर आप लुंबिनी गए हैं, तो आपको अशोक स्‍तंभ को देखने जरूर जाना चाहिए।

13. विश्व शांति (जापान का) पगोडा लुंबिनी
जापान शांति स्तूप, जिसे विश्व शांति पैगोडा के नाम से भी जाना जाता है, 21वीं सदी का प्रारंभिक स्मारक है – शांति का प्रतीक और लुंबिनी में एक प्रसिद्ध पर्यटक आकर्षण।

मुख्य परिसर के बाहर स्थित, संरचना पारंपरिक पगोडा शैली की वास्तुकला के साथ एक शानदार स्तूप है। जापानी बौद्ध द्वारा 1 मिलियन अमेरिकी डॉलर की लागत से निर्मित, यह स्मारक सुनहरे बुद्ध की मूर्ति के साथ सफेद रंग में रंगा गया है। राजसी संरचना के केंद्र में एक गुंबद है जिस तक पहुंचने के लिए दो सीढ़ियों में से एक पर चढ़कर पहुंचा जा सकता है। दूसरे स्तर पर, गुंबद को घेरने वाला एक गलियारा है।

14. ताइवान का संग्रहालय लुंबिनी
पवित्र उद्यान क्षेत्र के यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल के अंदर स्थित, लुंबिनी संग्रहालय में धार्मिक पांडुलिपियों, धातु की मूर्तियां, टेरा कोटा, मौर्य और खुसना राजवंश के सिक्के और लुंबिनी को चित्रित करने वाले दुनिया भर के टिकटों सहित लगभग 12000 कलाकृतियां प्रदर्शित हैं।

15. रॉयल थाई बौद्ध मठ लुंबिनी
लुंबिनी में रॉयल थाई मठ बौद्ध प्रथाओं को समर्पित एक भव्य और आश्चर्यजनक वाट-शैली (थाई मठ शैली) मठ है। चमचमाती इमारत सफेद संगमरमर से बनी है और पास में ही नीली छत वाला ध्यान केंद्र उत्कृष्ट स्थापत्य शैली का उदाहरण है। मंदिर की दीवार पर सुंदर डिजाइन और नक्काशी इस जगह को अवश्य देखने लायक बनाती है।

16. धर्म स्वामी महाराजा बुद्ध विहार, लुंबिनी
धर्म स्वामी महाराजा बुद्ध विहार शाक्यपा संप्रदाय से संबंधित एक बौद्ध गोम्पा है। इसकी स्थापना महामहिम चोग्या त्रिचेन रिनपोछे ने की थी। इस स्थल की असीम शांति इसे ध्यान और शांत आत्मनिरीक्षण के लिए एक आदर्श स्थान बनाती है। मठ में रहने वाले 600 भिक्षुओं द्वारा प्रतिदिन तारा पूजा की जाती है।

17. श्रीलंकाई मठ, लुंबिनी
श्रीलंका मंदिर के रूप में भी जाना जाने वाला यह मठ एक सुंदर श्रीलंकाई बौद्ध प्रतिष्ठान है जो गौतम बुद्ध के जीवन और क्षेत्र में इसके महत्व के बारे में जानकारी देता है। ये उत्सव, कार्यक्रम और त्यौहार लुंबिनी के एक प्राचीन मठ में मनाए जाने वाले उत्सवों से थोड़े अलग लग सकते हैं। यह गौतम बुद्ध के जीवन की एक झलक भी प्रदान करता है और पूरे समय में इसके विकास पर जोर देता है।

यह मठ श्रीलंका को समर्पित एक थेरवाद बौद्ध प्रतिष्ठान है। यह लुंबिनी के पूर्वी मठ क्षेत्र में स्थित एक आकर्षक मठ है, जिसके शीर्ष पर एक पारंपरिक शिवालय के साथ एक गोलाकार ऊंचा मंच है। शिवालय के नीचे, भगवान बुद्ध की एक सुंदर सुनहरी मूर्ति है जो ध्यान मुद्रा में बैठी हुई दिखाई देती है। इस व्यवस्था में एक मार्ग है जो संरचना को घेरता है और परिक्रमा के लिए एक क्षेत्र प्रदान करता है। यह स्थल बेहद अच्छी तरह से बनाए रखा गया है और इतना शांतिपूर्ण है कि पर्यटक एक पल के लिए एकांत में बैठ सकते है

18. कम्बोडियन मठ, लुंबिनी
लुम्बिनी में सबसे आकर्षक पर्यटक स्‍थल है कंबोडिया मठ है। इस जगह की वास्तुकला कंबोडिया में अंगकोर वाट के जैसी है। इस संरचना के भीतर आपको कई रंगों में ड्रेगन, सांपों और फूलों की सुंदर नक्काशी देखने को मिलेगी। इस मंदिर के अंदर हरे रंग के सापों की नक्काशी बनी हुई है। इन सापों की लंबाई 50 मीटर से ज्‍यादा बताई जाती है। इस मठ में जाकर, कंबोडियन बौद्ध धर्म की एक झलक देखने को मिलेगी। कंबोडियन मठ रंगीन कल्पना और आध्यात्मिक शक्तियों का मिश्रण है जो इसे क्षेत्र के सबसे आकर्षक मंदिरों में से एक बनाता है। प्रसिद्ध अंगकोर वाट से मेल खाते वास्तुशिल्प डिजाइन में निर्मित, आकर्षक मठ एक चौकोर रेलिंग से घिरा हुआ है, प्रत्येक में चार 50 मीटर हरे सांप हैं। बड़े परिसर की बाहरी दीवार सुंदर और जटिल डिजाइनों से ढकी हुई है।

19. म्यांमार बर्मी स्वर्ण मंदिर, लुंबिनी
लुंबिनी में म्यांमार स्वर्ण मंदिर शहर की सबसे पुरानी संरचना है। बर्मी वास्तुकला शैली में निर्मित यह मंदिर भगवान बुद्ध को समर्पित है। बागान के मंदिरों की तर्ज पर बनाया गया मक्के के भुट्टे के आकार का प्रभावशाली शिखर पूरी संरचना को एक राजसी रूप देता है। इमारत के अंदर तीन प्रार्थना कक्ष और एक लोकमणि पुला पगोडा हैं।

20. चीन मंदिर, लुंबिनी
झोंग हुआ चीनी बौद्ध मठ, जिसे चीन मंदिर के नाम से जाना जाता है, लुंबिनी में एक सुंदर बौद्ध मठ है। यह प्रभावशाली संरचना पगोडा-शैली की वास्तुकला में बनाई गई है और चीन के प्रसिद्ध निषिद्ध शहर की तरह दिखती है। जैसे ही कोई प्रवेश करता है, पूरी तरह से सुसज्जित आंतरिक आंगन दिल को शांति और आनंद से भर देता है।

21. कोरियाई मंदिर, लुंबिनी
डे सुंग शाक्य सा, जिसे कोरियाई मंदिर के नाम से जाना जाता है, लुंबिनी में एक बौद्ध मठ है। यह प्रभावशाली संरचना कोरियाई वास्तुकला शैली में बनाई गई है और इसकी छत पर रंगीन भित्ति चित्र हैं।भिक्षुओं और तीर्थ यात्रियों से भरे प्रांगण में ध्यान करना एक शांतिपूर्ण और ताज़ा अनुभव है।

22. मनांग समाज स्तूप, लुंबिनी
उत्तरी नेपाल में मनांग के बौद्धों द्वारा बनाया गया एक चोर्टेन, मनांग समाज स्तूप नेपाल के सबसे पुराने स्तूपों में से एक माना जाता है, जो 600 ईसा पूर्व में गौतम बुद्ध के जन्म के समय का है। इस इमारत के मध्य में एक सुनहरी बुद्ध प्रतिमा है और यह रंगीन भित्तिचित्रों से घिरी हुई है। वर्तमान में, इस आकर्षण का मानना है कि यह जल्द ही नवीकरण के अधीन हो जाएगा।

23. वियतनाम फ़ैट क्वोक तू मंदिर, लुंबिनी
वियतनाम के लुंबिनी में स्थित फाट क्वोक तू मंदिर उन कुछ आकर्षणों में से एक है जो वियतनाम और नेपाल के बीच संबंधों का प्रतिनिधित्व करता है। गौतम बुद्ध की तीर्थयात्रा के हिस्से के रूप में कई लोग इस मंदिर में आते हैं। कृत्रिम पहाड़ों और एक भव्य छत से घिरा इसका अग्रभाग है।

24. ग्रेट ड्रिगुंग लोटस स्तूप, लुंबिनी
ग्रेट ड्रिगुंग लोटस स्तूप लुंबिनी में धार्मिक रूप से सबसे महत्वपूर्ण स्तूपों में से एक है और इसका निर्माण जर्मन तारा फाउंडेशन द्वारा किया गया था। इमारत में एक खोखला मुकुट है जो आंशिक रूप से कांच से ढका हुआ है जिससे अंदर बुद्ध की मूर्ति का पता चलता है। इस इमारत का ऐतिहासिक महत्व सदियों पुराना है जब इस इमारत का निर्माण रिनपोचेस की देखरेख और मार्गदर्शन में हुआ था। लुम्बिनी में यह स्तूप निश्चित रूप से देखने लायक है। स्तूप की गुंबददार छत बौद्ध भित्ति चित्रों से ढकी हुई है। सोना, लकड़ी और नक्काशी बुद्ध की मान्यताओं और शिक्षाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं जो शांति और अहिंसा का संदेश फैलाते हैं।

25. थ्रांगु वज्र विद्या मठ, लुंबिनी
थ्रांगु वज्र विद्या मठ लुम्बिनी में एक मठ है जो थ्रांगु रिनपोछे को समर्पित है। वह शांति, ज्ञान और एकता पर अपने सिद्धांतों का निर्माण करते हुए बुद्ध की शिक्षाओं में विश्वास करते थे। बहुत कम उम्र से, थ्रांगु रिनपोछे ने बौद्ध अध्ययन के लिए संस्थानों की स्थापना शुरू कर दी थी। आज, इस मठ में कई छात्र हैं जो महत्वाकांक्षी भिक्षु हैं।मठ में कई कार्यक्रम भी होते हैं जहां नियमित आधार पर सेमिनार, भाषण और समारोह आयोजित किए जाते हैं। उन्होंने यहां कई संस्थान भी स्थापित किए हैं जो इंग्लैंड, अमेरिका और कनाडा जैसे विभिन्न देशों में स्थित हैं। थरांगु वज्र विद्या मठ, थरागु रिनपोछे का एक स्मारक है और लुंबिनी में एक बड़ा आकर्षण है।

26. विश्व शांति पैगोडा
पीस पैगोडा शांति को प्रेरित करने वाला एक स्मारक है जिसे सभी जातियों और पंथ के लोगों को एकजुट करने तथा विश्व शांति की उनकी खोज में मदद के लिए डिजाइन किया गया है। इसे निप्पोनज़न पीस पैगोडा भी कहा जाता है। इसे लगभग दस लाख अमेरिकी डॉलर की लागत से जापानी बौद्धों द्वारा डिजाइन और निर्मित किया गया था। पैगोडा लुंबिनी मास्टर प्लान की केंद्रीय धुरी पर शुरुआती बिंदु के रूप में कार्य करता है, दूसरा छोर मायादेवी मंदिर है। शिवालय से मंदिर की दूरी लगभग 3.2 किमी है। स्तूप की सीढ़ियाँ तीन अलग-अलग स्तरों तक ले जाती हैं। स्तूप को सफेद किया गया है और फर्श पर पत्थर लगाया गया है। इसमें बुद्ध की चार बड़ी सुनहरी मूर्तियाँ हैं जो चार दिशाओं की ओर मुख किये हुए हैं।स्तूप के आधार के पास एक जापानी भिक्षु (उनाताका नवतामे) की कब्र है, जिसे भारत के लुटेरों ने पास ही गोली मार दी थी। स्तूप के उत्तर का क्षेत्र मुख्य रूप से सारस क्रेन के पक्षियों के आवास के लिए भी संरक्षित है।

(लेखक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, आगरा मंडल, आगरा में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद से सेवामुक्त हुए हैं। वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के बस्ती नगर में निवास करते हुए समसामयिक विषयों,साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति और अध्यात्म पर अपना विचार व्यक्त करते रहते हैं लेखक को अभी हाल ही में इस पावन स्थल को देखने का अवसर मिला था।)

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