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मध्य प्रदेश में बना दुनिया का सबसे ऊंचा जैन मंदिर

मध्‍य प्रदेश (Madhya Pradesh) के दमोह जिले (Damoh District) के कुण्डलपुर में जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर भगवान आदिनाथ (Bhagwan Aadinath) का दुनिया का सबसे उंचे मंदिर का बन चुका है। कुण्डलपुर में बन रहे इस जैन मंदिर (Jain Mandir) का निमार्ण कार्य पिछले 17 सालों से चल रहा है। बताया जा रहा है कि मध्य प्रदेश के कुण्डलपुर में बने दुनिया के सबसे ऊंचे मंदिर को बनाने में एक हजार करोड़ से ज्यादा की लागत लगी है। इस मंदिर में 12 लाख घन मीटर पत्थरों का उपयोग किया जा चुका है।

मंदिर में प्रत्येक खंड में 108 मूर्तियों की स्थापना की गई है। मंदिर के तीनों खंड में 324 मूर्तियां स्थापित की गई है। इसमें हर खंड पर 108 मूर्तियां विराजेंगी। ऐसे में मूर्तियों की ऊंचाई 27, 36, 45, 54 और 63 इंच तक है। इसके अलावा 45 फीट का गर्भ गृह भी बनाया गया है जिसमें 8 मंडप और सीढिय़ों का निर्माण किया गया है। वहीं, मंदिर निर्माण का काम गुजरात और राजस्थान से आए 250 से ज्यादा कारीगरों ने किया है। हालांकि मंदिर के चारों तरफ की बाउंड्री पर 240 पत्थरों पर जैन धर्म का इतिहास को दिखाया गया है। साथ ही जैन धर्म के 24 तीर्थंकरों का परिचय और आचार्य श्री के संबंध में जानकारी दर्शाई गई है।

इस मंदिर की परिकल्पना साल 1993 में की गई थी। वहीं, तीन खंडों में 288 प्रतिमाएं विराजमान होंगी, जिनमें 12 मूलनायक भगवान होंगे। इसके हर एक खंड पर चार चौबीसी होंगी। फिलहाल जिनालय का निर्माण जैसलमेर के पीले पत्थरों से किया जाएगा, इसके चारों दिशाओं में हाथी की मूर्तियां इस तरह लगाई जाएंगी, जिससे प्रतीत होगा कि मंदिर उनकी पीठ पर रखा हुआ है। वहीं, जैन समाज का दावा है कि यह दुनिया का अब तक का सबसे ऊंचा जैन मंदिर होगा। यह एक एकड़ क्षेत्रफल में बनेगा।

इस मंदिर को बनाने में एक हजार करोड़ से ज्यादा की लागत आई है।

इस मंदिर में करीब एक हजार साल पुरानी भगवान आदिनाथ की प्रतिमा स्थापित है। मंदिर का पुननिर्माण भूकंप से पुराना मंदिर टूट जाने के बाद किया गया है। यह मंदिर 500 फीट ऊंची पहाड़ी पर बना है, जिसका शिखर 189 फीट ऊंचा है। दुनिया में अब तक इतना ऊंचा जैन मंदिर नहीं बना है।

इस मंदिर में 12 लाख घन मीटर पत्थरों का उपयोग किया जा चुका है। बात करें इस मंदिर की डिजाइन की तो इसकी डिजाइन सोमपुरा बंधुओं ने तैयार की है। खास बात यहा है कि इन पत्थरों को सीमेंट और लोहे का इस्तेमाल किए बिना जोड़ा गया है। राजस्थान के तीन प्रकार के पत्थरों से नागर शैली में बड़े बाबा भगवान आदिनाथ के मंदिर का निर्माण किया गया है। इस मंदिर में मुख्य शिखर की ऊंचाई 180 फीट, गुड मंडप 99 फीट, नृत्य मंडप, रंग मंडप ग्राभ गृह 67 फीट ऊंचा है।

मुख्य मंदिर के सामने सहस्त्रकूट में 1008 मूर्तियां स्थापित होगी। इसी तरह त्रिकाल चौबीसी, वर्तमान चौबीसी, पूर्व चौबीसी और भविष्य चौबीसी में मूर्ति स्थापित हो रही है। इसी प्रकार 724 प्रतिमाएं पद्मासन 220 प्रतिमाएं खड्गासन में पत्थरों पर भी उकेरी गई हैं।

500 फीट ऊंची पहाड़ी पर बन रहे इस मंदिर का शिखर 189 फीट ऊंचा है। कहा जा रहा है की दुनिया में अब तक नागर शैली में इतनी ऊंचाई वाला मंदिर नहीं है। मंदिर की ड्राइंग डिजाइन अक्षरधाम मंदिर की डिजाइन बनाने वाले सोमपुरा बंधुओं ने तैयार की है। मंदिर की खासियत है कि इसमें लोहा, सरिया और सीमेंट का उपयोग नहीं किया गया है। इसे गुजरात और राजस्थान के लाल-पीले पत्थरों से तराशा गया है। एक पत्थर को दूसरे पत्थर से जोडऩे के लिए भी खास तकनीक का इस्तेमाल किया गया है।

जैसलमेर के मूल सागर पत्थरों से बनाए गए गुण मंडप में देवी-देवताओं व नृत्यांगना आदि की मूर्तियों को बड़े ही शानदार तरीके से उकेरा गया है। जो देखने में बहुत दर्शनीय लग रही हैं। इस नक्काशी को देखने वाले भी लोग कारीगरों की प्रशंसा करने से खुद को रोक नहीं पाते हैं। मंदिर निर्माण में लगे सभी पत्थरों पर शानदार नक्काशी इसकी सुंदरता और भव्यता को और बढ़ाती हैं।

प्राचीन स्थान कुंडलपुर को सिद्धक्षेत्र के नाम से भी जाना जाता है। यहां 63 मंदिर हैं जो 5वीं, 6वीं शताब्दी के बताए जाते हैं। क्षेत्र को 2,500 साल पुराना बताया जाता है। कुण्डलपुर सिद्ध क्षेत्र अंतिम श्रुत केवली श्रीधर केवली की मोक्ष स्थली है। यहां 1,500 साल पुरानी पद्मासन श्री 1008 आदिनाथ भगवान की प्रतिमा है, जिन्हें बड़ेबाबा कहते हैं।

भगवान महावीर के 500 शिष्य हुए हैं। जिनमें इंद्रभूति गौतम के भट्टारक ने भ्रमण किया था। भट्टारक सुरेंद्र कीर्ति ने कुंडलगिरी क्षेत्र से भगवान आदिनाथ की प्रतिमा खोजी थी। तब से यह माना जा रहा है कि भगवान महावीर का समवशरण 6वीं शताब्दी ईसा पूर्व कुंडलपुर आया था। इस इलाके की पहाडियां कुंडली आकार में होने के कारण पहले इसका नाम कुंडलगिरी था। बाद में धीरे-धीरे इसका नामकरण कुंडलपुर पड़ गया, जो अब सबसे बड़ा तीर्थ क्षेत्र है। यह क्षेत्र 2500 साल पुराना बताया जाता है।

वैसे तो कुंडलपुर में विराजित भगवान आदिनाथ की 15 फीट ऊंची विशाल प्रतिमा की खोज करने वाले के रूप में भट्टारक सुरेंद्र कीर्ति का नाम आता है, लेकिन एक किवदंती यह भी है कि पटेरा गांव में एक व्यापारी प्रतिदिन सामान बेचने के लिए पहाड़ी के दूसरी ओर जाता था। रास्ते में उसे प्रतिदिन एक पत्थर से ठोकर लगती थी, एक दिन उसने मन बनाया कि वह उस पत्थर को हटा देगा, लेकिन उसी रात उसे स्वप्न आया कि वह पत्थर नहीं तीर्थकर मूर्ति है। स्वप्न में उससे मूर्ति की प्रतिष्ठा कराने के लिए कहा गया, लेकिन शर्त थी कि वह पीछे मुड़कर नहीं देखेगा। उसने दूसरे दिन वैसा ही किया। बैलगाड़ी पर मूर्ति सरलता से आ गई, जैसे ही आगे बढ़ा उसे संगीत और वाद्य, ध्वनियां सुनाई दीं। जिस पर उत्साहित होकर उसने पीछे मुड़कर देख लिया और मूर्ति वहीं स्थापित हो गई।




जीवन में रामत्व  

श्रीराम को सनातन धर्म में विष्णु का अवतार माना गया है। लोग उनको भगवान और आराध्य मान कर पूजार्चन करते हैं। लेकीन जब हम राम के सम्पूर्ण जीवन का अवलोकन करते हैं तो पाते हैं कि राम केवल पूजा के विषय नहीं हैं वह अनुकरणीय हैं हर स्थिति काल में जीवन को दिशा प्रदान करने वाले प्रेरणा पुंज हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि राम ने स्वयं को एक राजा और भगवान के अवतार के रूप में नहीं अपितु जननायक के रूप में स्थापित किया। हम उनके संपूर्ण जीवन में देखते हैं कि कैसे उन्होने कठिन स्थितियों में भी मर्यादा के नूतन आयाम स्थापित किए। राजकुल में जन्म लेने के बाद भी राम ने अपना जीवन राजसी वैभव में नहीं बिताया। उनका बाल्यकाल आश्रम में व्यतीत हुआ, गुरुकुल में वह राजकुमारों की भांति नहीं अपितु समान्य बालकों की भांति अपने और आश्रम के सारे कार्य करते थे। जब वह युवा हुए और राज्याभिषेक का समय आया तो उन्हे पिता के वचन के लिए वनगमन करना पड़ा। राम का जीवन मानवीय संबंधों के मार्गदर्शन में प्रेरणा देता आया है जिसके कारण वह लोक चेतना और परम्परा में सदैव जीवंत रहते हैं।

जो लोक में व्याप्त है वह कालजयी है,वही सर्वमान्य है ,वही अनुकरणीय है, वही वंदनीय है। लोक परंपरा में भी हम पाते हैं कि जन्मोत्सव, विवाह, हवन, कीर्तन, मांगलिक अयोजन आदि में महिलाएं जो मंगल गीत गाती हैं। उसमें भी राम का नाम और उनका संबंध मूल्य ही समाहित है। ऐसे मर्यादा पुरुषोत्तम राम जो लोक के मन में हैं जो जन-जन के  हृदय में बसते हैं। देखें तो राम ही त्यौहार हैं, उल्लास हैं उत्सव हैं, भक्ति हैं,शक्ति हैं, पूजा हैं, ज्ञान हैं, प्रेरणा हैं और जीवन के प्रकाश स्तम्भ हैं। राम केवल जन जन की भावना नहीं या सनातन धर्म को मानने वालों की आस्था का केंद्र नहीं बल्कि भगवान राम तो जीवन जीने का तरीका है। फिर चाहे वह संबंध मूल्यों को निभाना हो धर्म के मार्ग पर चलना हो या फिर अपने दिए हुए वचन को पूर्ण करने के साथ कर्त्तव्य निर्वहन हो।

राम सिर्फ कहने में ही मर्यादा पुरुषोत्तम नहीं है बल्कि हर मायने में वह एक उत्तम और आदर्श पुरुष है वह जीवन के मार्ग को प्रशस्त करने वाले प्रकाश हैं। राम के जीवन आदर्शों को अनुकूल स्थिति में अपने आचरण में लाना जीवन को सरल और सहज बनाता है। राम का जीवन आदर्श, नैतिकता और व्यवहार का उच्चतम मापदंड है जो हर स्थिती में प्रासंगिक हैं। गुरु-शिष्य, राजा-प्रजा, स्वामी-सेवक, पिता-पुत्र ,पति-पत्नी, भाई-भाई, मित्र-मित्र के आदर्शों के साथ धर्म नीति, राजनीतिक, अर्थनीति के साथ सत्य, त्याग, सेवा, प्रेम, क्षमा, शौर्य, परोपकार, दान आदि मूल्यों का सुंदर, समन्वित आदर्श रूप राम के संपूर्ण जीवन में समय समय पर देखने को मिलता है। राम के जीवन के पुरुषोत्तम होने की विशेषताओं का संदर्भ रामायण में अनेक स्थानों पर देखने को मिलता है जिसका जीवन में अनुकरण करने पर समरसता पूर्ण समन्वित और खुशहाल व्यक्तित्व का निर्माण होता है। राम का जीवन इतना अदभुत और विशाल है कि उनके जीवन के प्रसंगों को बार-बार देखने और सुनने से भी मन नहीं भरता।

आज ज्ञान, विज्ञान, तकनीकी ने कितनी भी प्रगति करली हो लेकिन जब व्यक्ति भावनात्मक रूप से खुद को कमजोर पाता है तब वह श्रीराम के जीवन आदर्शों में ही समाधान ढूंढ़ने का प्रयास करता है। राम तो प्रभु का अवतार थे लेकिन जब उन्होंने भी मानव शरीर में धरती पर जन्म लिया तब उन्हे भी सामाजिक, पारिवारिक, सांसारिक बहुत सारी समस्याओं का सामना करना पड़ा, लेकिन राम ने हर स्थिति में स्थित प्रज्ञ होकर कभी मर्यादा का उलंघन नहीं किया उनके जीवन में यह विशेष और अनुकरणीय है। राम का जीवन हर मानव के हृदय में मन मस्तिष्क में इसलिए बसा हुआ है क्योंकि उनकी कथाएं लोक में व्याप्त हैं।

हजारों वर्षों से रामकथा का जतन एवं संवर्धन कलाओं के माध्यम से, गीतों के माध्यम से, मंचन के माध्यम से आम जनमानस के बीच होता रहा है। देखा जाए तो लोक संस्कृति के विभिन्न प्रकारों में रामायण प्रदर्शित होता है जिसमें अपनी भिन्न-भिन्न परंपराएं, अपनी विशिष्ठ वेशभूषा, भाषा के साथ जन जीवन के कई आयाम देखने को मिलते हैं। जिससे जनमानस अपने आप को समृद्ध करता आया है। लोकमंगल की भावना में भी राम के जीवन की अनंत कहानियों द्वारा बच्चों में मूल्यों को रोपित करने की परम्परा चली आरही हैं। राम के नाम के सहारे अनंत गीतों, कहानियों, मनोभावो की जनमानस भावाभिव्यक्ति करता आया है। राम केवल लोगों की भावनाओं में समाए हुए देव नहीं है जिनके प्रति सिर्फ आस्था रखकर पूजा किया जाय बल्कि राम सही मायने में उत्तम पुरुष हैं जो हमें जीवन जीना सिखाते हैं। राम का चरित्र, आदर्श, धर्म पालन, नैतिकता और मानवीय संबंधों के मार्गदर्शन हमें सदैव प्रेरणा प्रदान करता आया है,इसीलिए जनजीवन हर आयाम में हर कलाओं में राम के जीवन को उनके आदर्शों को प्रकट करता रहा है। हम देखे तो राम का जीवन ही ऐसा है जो जनमानस से रिश्ता जोड़कर रखता है।

श्रीराम के लिए समाज के सभी वर्ग समान थे, उनके लिए कोई छोटा या बड़ा नहीं था जैसा हम उनके जीवन में पाते हैं कि निषाद राज, केवट, शबरी माता, जटायु बानर सेना इसके उदाहरण हैं। उनके राज्य में सभी वर्गों में समानता और समान अवसर प्राप्त थे सभी को अपने विचार अभिव्यक्त की स्वतंत्रता प्राप्त थी। राम ने समाज के प्रत्येक वर्ग को आपस में जोड़कर रखने का संदेश दिया उन्होंने प्रेम ,भाईचारे का संदेश दिया। राम का व्यक्तित्व ऐसा था जहां प्रेम और विश्वास में भिलनी माता शबरी अपने राम के लिए चख कर मीठे बेर एकत्र करती थीं इस आस में की भक्ति और प्रेम के भूखे उनके राजा राम एक दिन उनकी कुटिया में अवश्य आयेंगे। राम प्रेम के जूठे बेर ग्रहण कर ऐसे नैतिकता के सुकृत संदेश प्रेषित करते हैं जो लोक चेतना में आज भी जीवंत होकर व्यक्ति को नर से नारायण बनने की प्रेरणा देते हैं।

श्रीराम का जीवन सामाजिक चेतना, समृद्धि ,सद्गुण और सहानुभुति के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरणा स्रोत है। राम को पिता के वचन के लिए वैभवशाली जीवन त्याग करने में एक क्षण नहीं लगा। आज के युग में अपने छोटे से अधिकार को लोग त्यागना नहीं चाहते लेकिन राम ने समाज, परिवार में पुत्र और भाई के रूप में एक आदर्श प्रस्तुत किया। राज्य छोटे भाई को सौंप कर राम ने भरत से न ही कभी ईर्ष्या की ओर न ही द्वेष बल्कि हमेशा भरत के प्रति प्रेम रखा और उन्हें राज संभालने के लिए प्रेरणा देते रहे। राम का व्यक्तित्व इतना विराट था कि उनमें संपूर्ण प्राणियों के लिए स्नेह और सम्मान का भाव था। राम मनुष्य से ही नहीं पशु, पक्षियों और प्राकृति के प्रति भी स्नेह और लगाव रखते थे। कुछ प्रसंगो द्वारा हमें यह ज्ञात होता है कि माता सीता का हरण होने के बाद राम पशु पक्षियों और प्रकृति से भी संवाद कर रहे हैं और माता सीता के बारे में पूछ रहे हैं, राम सेतु निर्माण में गिलहरी से संबंधित एक अत्यंत रोचक प्रसंग है, ऐसे अनगिनत प्रसंग हमे राम के जीवन से जुड़े हुए दिखाई और सुनाई पड़ते हैं जो समरसता, स्नेह और प्रेम के पर्याय  हैं।

राम लोकनायक थे बानरो की छोटी सी सेना पर अटूट प्रेम, श्रद्धा और विश्वास के बल पर ही राम ने लंका पर विजय प्राप्त की जो असत्य पर सत्य की जीत का राम के जीवन से मानव जाति को सबसे बड़ा संदेश है। राम को अपनी जन्मभूमि से बहुत प्रेम था लंका विजय के बाद राम ने कहा

अपि स्वर्णमयी लंका न में लक्ष्मण रोचते।
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।।
अर्थात लंका स्वर्ण से निर्मित है,फिर भी मुझे इसमें कोई रुचि नहीं है, जननी और जन्मभूमि तो स्वर्ग से भी बढ़कर है।

राज कुल में पैदा होने के बाद भी राम ने कभी राजसी वैभव का सुख भोग नहीं किया ,वनवास की समय अवधि में अनेकों कष्ट का सामना किया। वह चाहते तो चक्रवर्ती राजा की तरह स्वतंत्र निर्णय ले सकते थे परंतु उन्होंने लोकनायक के रूप में आदर्श स्थापित किया। उनके राज्य में सबको अपनी बात कहने का अधिकार था। जब प्रजा के एक व्यक्ती ने माता सीता  पर प्रश्न चिन्ह लगाया और माता सीता  एक बार पुनः वनवास के लिए प्रस्थान कर गईं तब राम ने भी राजसी जीवन त्याग दिया और वनवासी की भांति जीवन व्यतीत करने लगे। एक राजा के रूप में भी राम ने स्वयं को लोकनायक ही सिद्ध किया और उसी रूप में  प्रजा की देखभाल कि और उनके मनोभाव अनुसार कार्य किया।

वर्तमान में युवा और बच्चों को राम के जीवन से सीख लेनी चाहिए कि हमें स्वयं के जीवन, दूसरों के जीवन एवं समाज के लिए अच्छा करने के लिए नियम, धैर्य और अनुशासन के सदमार्ग का चयन करना चहिए है। आज युवाओं और बच्चों में धैर्य की कमी है, क्षणिक परिवर्तन से वह चिंता में आ जाते हैं, मनवांछित कार्य न होने पर कुंठा और तनाव का शिकार होजाते हैं यदि हम राम के जीवन से सीखें तो पाएंगे कि राम का राज्याभिषेक होने वाला था और जब पिता के वचन के लिए उन्हें वनवास जाना पड़ा उस स्थिति में भी वह स्थिति प्रज्ञ रहे। इससे आजकी पीढ़ी को सीख लेना चाहिए कि कैसे जीवन में आने वाली चुनौतियों का सामना धैर्य के साथ करें।

आज बहुत सारी सामाजिक, नैतिक, मानसिक समस्याओं से युवा और बच्चे भी ग्रसित हैं ऐसे में आवश्यकता है कि वह राम के जीवन आदर्शों को अपने जीवन में उतारें। आज जहां कई देश अपना क्षेत्रीय विस्तार करना चाहते है, पिता-पुत्र, भाई-भाई में संपत्ति को लेकर बंटवारे हो रहे हैं ,आपसी तनाव बढ़ रहे हैं वहीं जब मर्यादा पुरूषोत्तम राम के आदर्शों को देखते हैं जहां राम लंका पर विजय प्राप्त करने के बाद रावण के भाई विभीषण को राजा बना कर राज लौटा देते हैं हम ऐसी भारत भूमि के हिस्सा हैं। राम का जीवन आम जनमानस के समक्ष ऐसे आदर्श के छाप, संदेश और उदाहरण से भरा हुआ है जिससे ज्ञात होता है कि राम सिर्फ पूजनीय नहीं होने चाहिए, जीवन में हमें रामत्व को धारण करते हुए धर्म के पथ का अनुगामी होना चाहीए। धर्म वही है जो सत्य के मार्ग का अनुसरण करते हुए उचित अनुचित का ध्यान रखकर अपने कर्तव्यों का मर्यादा के साथ  निर्वहन करें जिसका राम ने अपने संपूर्ण जीवन में निर्वाह किया।

आज जब 500 वर्षों बाद रामलला भव्य, दिव्य, नव्य मंदिर में विराजमान हुए हैं ऐसे में हर व्यक्ति जो राम में आस्था रखता है और राम उसके प्रेरणा के प्रतीक हैं उसे अपने जीवन में रामराज की परिकल्पना और मर्यादा पुरुषोत्तम राम के जीवनआदर्शों का पालन करना चहिए। रामराज की स्थापना से आशय किसी धर्म ,जाति या फिर विशेष समुदाय के राज करने से नहीं है बल्कि इसका आशय सबको एक सूत्र में पिरोकर ऐसे राज की स्थापना करना है जहां हर और प्रेम, शांति, सुख, भाईचारा स्थापित हो। श्री राम को भगवान के रूप में पूजते हुए यदि हम उनके आदर्शों को जीवन में उतार लें तो सही मायने में यही राम की भक्ति और पूजा होगी। राम जहां संबंध मूल्य, समरसता,और आदर्श के पर्याय थे वही वह वचन निभाने धर्म पालन करने से लेकर शत्रु से भी सीखने का भाव रखने वाले, जात-पात से ऊपर उठकर समाज को सीख देने वाले उत्तम पुरुष थे।

बच्चों को राम के जीवन से राम के आदर्शों से प्रेरणा दें जिससे वो भारतीय होने पर गर्व कर सकें और विश्व बंधुत्व का भाव रखकर अपने जीवन में रामत्व के मानवीय गुणों को धारण करे। रामत्व की प्राणप्रतिष्ठा अपने मन रूपी मंदिर और जीवन में करें साथ ही राम के जीवन मूल्यों को स्वयं के जीवन में जीकर प्रमाणित करें, यही श्री राम की सच्ची पूजा और यही जीवन में रामत्व के भाव की प्रमाणिकता होगी।

(लेखिका बेसिक शिक्षा परिषद  उत्तर प्रदेश में शिक्षिका हैं)




दहेज

दहेज़ की वेदी पर,
स्वाहा हो गया बहुत कुछ ,,
कभी पिता की कमाई
कभी भाई के अरमान सारे,,,,

सोचती रहती मां बेटी के लिए
हर एक दिन जो बीतता
दे कर हर सुख सुविधा
शायद खरीद लूं खुशियां,,,,

भूल जाती है जाने क्यू वो
वो भी तो लाई थी दान
फ़िर कहा गई उसके हिस्से
की सारी खुशियां, सारे अरमान,,,,

बेटियां कोई बेकार सामान नही
बाप,भाई की कमर तोड़े
ऐसा कोई ब्याज का दाम नहीं
बंद कर दो समझना बोझ इसको
यह घर की शान है, कबाड़ नहीं,,,,,

जब वक्त और पैसा दोनो बराबर
बेटा और बेटी की परवरिश बराबर
फिर शादी में खर्चा भी हो बराबर
यह होगा तब ही समाज होगा बराबर ,,,,,

रेणु सिंह राधे, कोटा (राजस्थान)




21 दिवसीय चंदन यात्राः10 मई (आगामी अक्षय तृतीया) से

श्री जगन्नाथपुरी धाम (ओड़िशा) में भगवान जगन्नाथ की विजय प्रतिमा मदनमोहन एवं अन्य देव-देवियों आदि की 21दिवसीय बाहरी चंदनयात्रा इस वर्ष 10 मई अर्थात् आगामी अक्षय तृतीया से पुरी के चंदन तालाब में अनुष्ठित होगी।चंदन तालाब को नरेन्द्र तालाब भी कहा जाता है। इस यात्रा के अलौकिक आयोजन की परम्परा लगभग एक हजार वर्ष पुराना और अत्यंत गौरवशाली परम्परा है जिसे देखने के लिए प्रतिवर्ष लाखों श्रद्धालु जगन्नाथ भक्त पुरी धाम में लगभग एक महीने तक रहकर उसका अलौकिक आनंद लेते हैं।

 चंदन तालाब को पूरी तरह से स्वच्छ तथा उसके आसपास की जगह को साफ-सूथराकर उसे बिजलीबत्ती की रोशनी से आलोकित कर दिया जाता है जैसे रात को दिन में बदल दिया गया हो। जैसाकि सर्वविदित है कि भगवान जगन्नाथ भोजन प्रिय देव हैं जो प्रतिदिन 56 प्रकार के भोग ग्रहण करते हैं। वे वस्त्र प्रिय कलियुग के एकमात्र पूर्ण दारुब्रह्म देव हैं जो प्रतिदिन अपनी रुचि के अनुसार वस्त्र परिवर्तन करते हैं।ठीक उसी प्रकार वे जल प्रिय देव भी हैं और उसी का प्रत्यक्ष  प्रमाण है उनकी 21 दिवसीय बाहरी चंदनयात्रा जो अक्षय तृतीया के दिन से चंदन तालाब में अनुष्ठित होती है। भगवान जगन्नाथ एक साधारण मानव की तरह ही मानव शरीर के सुख-दुख का अनुभव करते हैं। वे वैशाख-जेठ मास की भीषण गर्मी से परेशान होकर चंदन तालाब में कुल 21 दिनों तक शीतलता हेतु चंदन का लेप लगाकर मलमलकर स्नान करते हैं।नौका विहार करते हैं और कुछ देर तालाब के बीचोंबीच निर्मित चंदन घर में अपराह्न से लेकर मध्यरात्रि तक विश्राम करके प्रतिदिन अपने श्रीमंदिर लौट आते हैं।
श्रीमंदिर प्रशासन से प्राप्त जानकारी के अनुसार आगामी 10 मई,अर्थात् अक्षय तृतीया के दिन से श्रीमंदिर की समस्त रीति-नीति के तहत जातभोग संपन्न कर अपराह्न बेला में भगवान जगन्नाथ की विजय प्रतिमा मदनमोहन, रामकृष्ण, बलराम, पंच पाण्डव, लोकनाथ, मार्कण्डेय, नीलकण्ठ, कपालमोचन, जम्बेश्वर लक्ष्मी, सरस्वती आदि को अलौकिक शोभायात्रा के मध्य पुरी नगर परिक्रमा कराकर चंदन तालाब लाया जाता है।आगामी 10 मई से अर्थात् अक्षय तृतीया के दिन से भगवान जगन्नाथ की विजय प्रतिमा मदनमोहन, रामकृष्ण, लक्ष्मी, सरस्वती आदि को स्वतंत्र पालकी में आरुढ कराकर श्रीजगन्नाथ मंदिर की 22 सीढियों पर लाया जाएगा जहां पर पहले से ही प्रतीक्षारत होंगे पांच पाण्डव लोकनाथ, नीलकण्ठ, मार्कण्डेय, कपालमोचन तथा जम्बेश्वर आदि जिन्हें अतिमोहक शोभायात्रा के मध्य लगातार 21 दिनों तक चंदन तालाब लाया जाएगा।
शोभायात्रा अलौकिक होती है जिसमें प्रतिदिन 21 दिनों तक आगे-आगे परम्परागत बनाटी कौशल प्रदर्शन, तलवार चालन, पाईक नृत्य और भजन-संकीर्तन के मध्य देव प्रतिमाओं को चंदन तालाब लाया जाता है जहां पर पहले से ही गजदंत आकार की नौकाएं एकसाथ जोडकर तथा हंस के आकार की तैयार कर तथा पूरी तरह से सजाकर रखी रहतीं हैं। पूरे 21 दिनों तक देवों को  उन नौकाओं में आरुढ कराकर चंदन तालाब के एक छोर से दूसरे छोर तक नौका विहार कराया जाता है। चंदन तालाब के मध्य अवस्थित चंदनघर ले जाकर उन्हें चंदन का लेप लगाकर सुवासित जल से उन्हें पवित्र स्नान कराया जाता है। गौरतलब है कि कुल लगभग तीन एकड में फैले चंदन तालाब को बिजली की रोशनी से अति सुंदर तरीके से आलोकित किया जाता है जिसके देश-विदेश के हजारों जगन्नाथ भक्त दर्शनकर अपने सनातनी जीवन को प्रतिवर्ष सार्थक करते हैं।

(लेखक  ओडिशा की  साहित्यिक व सांस्कृतिक गतिविधियों पर नियमित लेखन करते हैं वे राष्ट्रपति से पुरस्स्कृत हैं और भुवनेश्वर में रहते हैं)



‘तारक मेहता का उल्टा चश्मा’ में रोशन सिंह सोढ़ी का किरदार निभाने वाले गुरु चरण सिंह का आठवें दिन भी कोई सुराग नहीं

लोकप्रिय टीवी शो ‘तारक मेहता का उल्टा चश्मा’ में 50 वर्षीय रोशन सिंह सोढ़ी का किरदार निभाने वाले गुरु चरण सिंह लापता हो गए हैं। गुरु चरण सिंह दिल्ली हवाई अड्डे से अचानक से लापता हो गए और पिछले 7 दिन से उनका कोई सुराग उनके परिवार वालों को नहीं मिल रहा है।

इस मामले में अब उनके पिता ने एफआईआर दर्ज करवाई है। गुरु चरण सिंह दिल्ली हवाई अड्डे से मुंबई के लिए निकलने वाले थे लेकिन उनके पिता के द्वारा यह बताया गया है कि न तो वह मुंबई पहुंचे हैं और न ही वह लौट करके घर आए हैं। शुरुआती इन्वेस्टिगेशन में पता चला है कि एक्टर जल्द ही शादी करने वाले थे।

वह फ्लाइट लेने के लिए हवाई अड्डे पहुंचे और उसके बाद उनका फोन बंद हो गया। गुरु चरण सिंह के अचानक गायब होने की खबर ने सोशल मीडिया यूजर्स को हैरान कर दिया है। सब लोग उनकी सलामती की दुआ कर रहे हैं। इसके अलावा पुलिस ने भी इस मामले में अपनी जांच शुरू कर दी है।

पुलिस हवाई अड्डे के आसपास के सीसीटीवी कैमरे की फुटेज को देख रही है और फिलहाल पुलिस के पास ऐसी कोई जानकारी नहीं है कि गुरु चरण सिंह लापता कहां से हुए थे? आपको बता दें कि ‘तारक मेहता का उल्टा चश्मा’ टीवी का एक बहुत पॉपुलर शो है जिसमें गुरु चरण सिंह का किरदार ‘रोशन सिंह सोढ़ी’ दर्शकों के द्वारा बहुत पसंद किया जाता है।




कहानी पाकीज़ा के बनने की

पाकीजा आज भी हिंदी फिल्म इतिहास की कल्ट क्लासिक मानी जाती है। कमाल अमरोही की ज़िद का अंदाज़ा आप इस बात से ही लगा सकते हैं कि उन्होंने अपनी फ़िल्म के एक गाने में ताजमहल के सामने जैसे फव्वारे लगे हैं, ठीक वैसे ही फिल्म के सेट पर लगवाये। यहाँ तक कि उन्होंने फव्वारों के लिए ओरिजिनल गुलाब जल का इस्तेमाल किया ताकि एक्सप्रेसंश एकदम सटीक आये। उस फव्वारे के सामने ही मीना कुमारी का डांस सीक्वेंस फिल्माया गया था।

हर सीन परफेक्ट बनाने के लिये पानी की तरह पैसे बहाने वाले कमाल अमरोही ने बेहद चुनिंदा फिल्मों के लिए काम किया है। एक बेहतरीन राइटर के तौर पे दर्जनों फ़िल्में लिखने वाले कमाल ने पहली फ़िल्म महल डायरेक्ट की थी जिसने कामयाबी के झण्डे गाड़ दिये थे और इंडस्ट्री को मधुबाला जैसी ख़ूबसूरत ऐक्ट्रेस और लता मंगेशकर जैसी सुरीली सिंगर को पहचान दिलाने का काम किया था।

‘महल’ फिल्म की कामयाबी के बाद कमाल अमरोही ने कमाल पिक्चर्स और कमालिस्तान स्टूडियो की स्थापना की। पाकीज़ा साल 1972 में रिलीज हुई थी लेकिन इस फ़िल्म को बनाने में उन्हें करीब 14 साल लग गए थे।
बात कमाल अमरोही के ज़िद की करें तो इसके लिये यह उदाहरण ही काफी होगा जो उनकी ज़िद के साथ-साथ उनके परफेक्शन को भी दर्शाता है।

कमाल अमरोही के बेटे ताजदार अमरोही ने अपने एक इंटरव्यू में बताया था कि फिल्म के अंतिम सीन में मीना कुमारी की डोली उसी कोठे से उठती है, जिसे फिल्म के शुरुआत में ‘इन्हीं लोगों ने ले लीना दुपट्टा मेरा…’ गाने के दौरान दिखाया गया था। उसी कोठे से एक लड़की उस जाती हुई बारात को खामोशी से देखती नज़र आती है। यह सीन शूट कर लिया गया लेकिन एडिटिंग के वक्त इस शॉट को निकाल दिया गया। क्योंकि कमाल अमरोही चाहते थे कि इस सीन में वही लड़की रहे जो फ़िल्म के शुरुआती सीन में थी। उन्होंने कहा “यह फिल्म का सबसे अहम शॉट है। असल में तो यही मेरी ‘पाकीज़ा’ है।” उस वक़्त लोगों ने उनसे कहा- “मगर आपकी इस सोच को समझेगा कौन?” इस पर उन्होंने कहा था- “कोई न समझे, लेकिन अगर किसी एक के भी समझ में आ गई तो मेरी मेहनत सफल हो जाएगी।”

अमरोही जब ‘पाकीज़ा’ बना रहे थे तो उनके पैसे ख़त्म हो गये तब मीना कुमारी ने अपनी सारी जमापूंजी देकर कमाल को फिल्म आगे बढ़ाने में मदद की, फिर भी ‘पाकीज़ा’ का निर्माण बीच में ही रुक गया लेकिन सालों बाद सुनील दत्त’ और नर्गिस ने इसकी शूटिंग दोबारा शुरू करवाई। बहरहाल कई सालों के उतार चढ़ाव के बाद 4 फरवरी, 1972 को ‘पाकीज़ा’ पर्दे पर आई। ताज्जुब की बात कि शुरुआत में फिल्म को फ्लाप मान लिया गया था, यहां तक कि समीक्षकों को भी यह फिल्म कुछ खास पसंद नहीं आई लेकिन धीरे-धीरे फिल्म की लोकप्रियता रफ्तार पकड़ने लगी और वह उस साल की सबसे सफल फिल्म साबित हुई।

अफसोस की बात थी कि फिल्म रिलीज होने के कुछ ही हफ्ते बाद 31 मार्च 1972 को मीना कुमारी की मृत्यु हो गयी। मीना कुमारी की मौत के 10 सालों बाद उन्होंने दोबारा फिल्म इंडस्ट्री की ओर रुख़ किया और फिल्म ‘रजिया सुल्तान’ का डायरेक्शन किया। हालांकि ‘रजिया सुल्तान’ बॉक्स ऑफिस पर तो हिट नहीं हो पाई किन्तु इस फिल्म में कमाल के डायरेक्शन की ख़ूब तारीफ हुई। कमाल अमरोही अंतिम मुगल नाम से भी एक फिल्म बनाना चाहते थे, लेकिन यह ख्वाब पूरा होने से पहले ही कमाल अमरोही दुनिया को अलविदा कह गए।

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स्मिता पाटिल: एक प्रतिभा शाली अभिनेत्री जो 31 साल की उम्र में संसार से चली गई…

स्मिता पाटिल का जन्म 17 अक्तूबर, 1955 को हुआ था। वो मराठी माध्यम के स्कूलों मे पढ़ी थीं, अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद वो बंबई दूरदर्शन पर मराठी में समाचार पढ़ने लगी थीं।

इसकी भी एक कहानी है। मैथिली राव स्मिता पाटिल की जीवनी ‘स्मिता पाटिल अ ब्रीफ़ इनकैनडिसेंस’ में लिखती हैं, ‘स्मिता की एक दोस्त ज्योत्सना किरपेकर बंबई दूरदर्शन पर समाचार पढ़ा करती थीं। उनके पति दीपक किरपेकर एक फ़ोटोग्राफ़र थे, वो अक्सर स्मिता की तस्वीरें खींचा करते थे।

एक बार वो उनकी तस्वीरें लेकर ज्योत्स्ना से मिलने दूरदर्शन केंद्र गए। गेट में घुसने से पहले वो उन तस्वीरों को ज़मीन पर रखकर व्यवस्थित कर रहे थे।

जब दीपक ने स्मिता को इस बारे में बताया तो वो दूरदर्शन जाने के लिए तैयार नहीं हुईं। दीपक के बहुत मनाने पर वो उनके स्कूटर के पीछे बैठकर दूरदर्शन गईं। वहाँ ऑडिशन में जब उनसे अपनी पसंद की कोई चीज़ सुनाने के लिए कहा गया तो उन्होंने बाँग्लादेश का राष्ट्र गान ‘आमार शोनार बाँगला’ सुनाया।”

”उन्हें चुन लिया गया और वो बंबई दूरदर्शन पर मराठी में समाचार पढ़ने लगीं। उस ज़माने में ब्लैक एंड वाइट टेलिविजन हुआ करता था।”

”स्मिता की बड़ी बिंदी, लंबी गर्दन और बैठी हुई आवाज़ ने सबका ध्यान अपनी ओर आकृष्ट किया। उस दिनों स्मिता के पास हैंडलूम साड़ियों का बेहतरीन संग्रह हुआ करता था।”

”दिलचस्प बात ये थी कि वो समाचार पढ़ने से कुछ मिनटों पहले अपनी जींस पर ही साड़ी बांध लेती थीं।’ बहुत से लोग जो मराठी बोलना नहीं जानते थे, शाम को दूरदर्शन का मराठी का समाचार सुना करते थे ताकि वो शब्दों का सही उच्चारण करना सीख सकें।”

”श्याम बेनेगल ने पहली बार स्मिता को टेलिविजन पर ही देखा था और उनके मन में उन्हें अपनी फ़िल्म में लेने की बात आई थी।”

”मनोज कुमार और देवानंद भी उन्हें अपनी फ़िल्म में लेना चाहते थे। देवानंद ने बाद में उन्हें अपनी फ़िल्म ‘आनंद और आनंद’ में लिया भी। विनोद खन्ना स्मिता पाटिल से इतने प्रभावित थे कि बंबई में कहीं भी हों वो उनका समाचार सुनने के लिए नियम से अपने घर पहुँच जाते थे।”

स्मिता पाटिल ने अपने फ़िल्मी करियर की शुरुआत अरुण कोपकर की एक डिप्लोमा फ़िल्म से की थी। उन दिनों श्याम बेनेगल अपनी फ़िल्म ‘निशांत’ के लिए एक नए चेहरे की तलाश में थे।

उनके साउंड रिकॉर्डिस्ट हितेंदर घोष ने उसने स्मिता पाटिल की सिफ़ारिश की।

बेनेगल ने स्मिता का ऑडिशन लिया। उन्हें चुन लिया गया लेकिन बेनेगल ने उन्हें सबसे पहले अपनी फ़िल्म ‘चरणदास चोर’ में ‘प्रिंसेस’ का रोल दिया।

छत्तीसगढ़ मे ‘चरणदास चोर’ की शूटिंग के दौरान बेनेगल को स्मिता की असली प्रतिभा का पता चला। उन्होंने उन्हें ‘निशांत’ में रोल देने का फ़ैसला किया।

स्मिता के अभिनय की ख़ासियत थी किसी भी रोल में अपने आपको पूरी तरह से ढ़ाल लेना। राजकोट के पास ‘मंथन’ की शूटिंग के दौरान वो गाँव की औरतों के साथ उन्हीं के कपड़े पहने बैठी हुई थीं।

तभी वहाँ कालेज के कुछ छात्र फ़िल्म की शूटिंग देखने आए। उन्होंने पूछा कि फ़िल्म की हीरोइन कहाँ है?

जब किसी ने गांव की महिलाओं के पास बैठी हुई स्मिता पाटिल की तरफ़ इशारा किया तो उन्हें अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हुआ कि किसी फ़िल्म की हीरोइन इतनी सहजता से गाँव वालों के साथ कैसे बैठ सकती है।

स्मिता पाटिल ने भूमिका, मंथन, अर्थ, मंडी, गमन और निशांत जैसी कई समानाँतर फ़िल्में तो की हीं, बड़े बजट की फ़ार्मूला फ़िल्मों जैसे ‘शक्ति’और ‘नमक हलाल’ में भी उन्होंने अपना हाथ आज़माया।

मंथन फ़िल्म में उन्होंने गाँव की एक महिला की भूमिका निभाई जो पहले तो मिल्क कोऑपरेटिव का विरोध करती है लेकिन फिर उसका हिस्सा हो जाती है।

‘भूमिका’ फ़िल्म में उन्होंने बाग़ी मराठी अभिनेत्री हंसा वाडकर का रोल निभाया जिसके लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला।

केतन मेहता की मराठी फ़िल्म ‘भवनी भवाई’ में उन्होंने मुखर जनजातीय महिला की भूमिका निभाई। जब्बार पटेल की मराठी फ़िल्म ‘अंबरथा’ में जिसे बाद में ‘सुबह’ नाम से हिंदी में भी बनाया गया स्मिता ने एक ऐसी महिला का रोल किया जो अपने पति के दूसरी स्त्री के साथ संबंधों का पता चलने पर उसका घर छोड़ देती है।

स्मिता पाटिल को अपने सह भिनेता राज बब्बर से प्यार हो गया। वो शादीशुदा थे और दो बच्चों के बाप थे। स्मिता पर राज और नादिरा बब्बर का घर तोड़ने का आरोप लगा।

अंग्रेज़ी पत्रिका ‘फ़ेमिना’ की संपादक विमला पाटील ने स्मिता को खुला पत्र लिख कर राज बब्बर से अपने संबंधों को ख़त्म करने के लिए कहा। यहाँ तक कि स्मिता को बहुत चाहने वाली उनकी माँ विद्या भी बब्बर के साथ उनके संबंधों के ख़िलाफ़ थीं लेकिन स्मिता ने उनकी भी एक न सुनी।

दोनों ने कलकत्ता (अब कोलकाता) के एक मंदिर में विवाह कर लिया और इस शादी को उनके बेटे प्रतीक के पैदा होने तक बाहरी दुनिया से गुप्त रखा। उनके दोस्तों ने सवाल किया कि बुद्धिजीवी स्मिता पाटिल ने पहले से शादीशुदा राज बब्बर से संबंध बनाने के बारे में कैसे सोचा?

कुमकुम चड्ढ़ा लिखती हैं, ‘मैंने भी एक बार झिझकते हुए ये सवाल स्मिता पाटिल से पूछा था। उनका कहना था मैं बब्बर की संवेदनशीलता के कारण उनकी तरफ़ आकृष्ट हुई थी। ये एक ऐसा गुण हैं फ़िल्मी लोगों में तो बिल्कुल नहीं पाया जाता है।’

28 नवंबर, 1986 को उनके बेटे प्रतीक का जन्म हुआ। उसके बाद वो घर आ गईं। उनको बुख़ार रहने लगा और उनकी तबियत बिगड़ती चली गई। वो दोबारा अस्पताल जाने के लिए तैयार नहीं थीं। उस समय राज बब्बर एक चैरिटी शो ‘होप 86’ करने में व्यस्त थे। आख़िरकार दो व्यक्तियों ने जिसमें उनके पति भी शामिल थे उनको सीढ़ियों से ज़बरदस्ती उतारकर जसलोक अस्पताल में भर्ती कराया। लेकिन तब तक देर हो चुकी थी।

उनकी बहन का मानना था कि बेटे को जन्म देने के बाद उनका स्वास्थ्य गिरता चला गया। उनको वायरल इंफ़ेक्शन हो गया। कुछ ने कहा वो मेनेंजाइटिस की चपेट में आ गईं। एक एक कर उनके सभी अंगों ने काम करना बंद कर दिया और 13 दिसंबर, 1986 को स्मिता पाटिल ने दम तोड़ दिया। उस समय उनकी उम्र मात्र 31 वर्ष थी।

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पुस्तकों की दुनिया की खुशबू से सराबोर काव्य गोष्ठी

समरस संस्थान द्वारा ऑनलाइन काव्य गोष्ठी का आयोजन
पुस्तकें हमारी सच्ची मित्र हैं विषय पर समरस संस्थान साहित्य सृजन भारत, गांधी नगर के निर्देशन में हाल ही में पुस्तक दिवस पट कोटा में ऑनलाइन काव्य गोष्ठी का आयोजन किया गया।

राष्ट्रीय मीडिया प्रभारी डॉ. प्रभात कुमार सिंघल ने बताया कि संस्थापक एवं संयोजक मुकेश कुमार व्यास ‘स्नेहिल’ संगोष्ठी से जुड़े। संगोष्ठी की अध्यक्षता राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ.शशि जैन ने की। साधना शर्मा के द्वारा सरस्वती वंदना से कार्यक्रम की शुरुआत हुई।

राधा तिवारी “मेरी नैया लगा दो पर अरे बाबा बाबा” डॉ. शशी जैन ने “मेरे साथी मेरे हमदम मेरी हमनवाज तुम हो” तथा मुकेश कुमार व्यास स्नेहिल “गहनों से भी ज्यादा कीमती है पुस्तकें, अंतरण को उज्जवल करती है पुस्तकें” मुक्तक सुन कर सबको मंत्रमुग्ध कर दिया। रीता गुप्ता जी ने “अपनी पुस्तकों से टूटा नाता मैंने जोड़ लिया” कविता सुनाई। अर्चना शर्मा ने “मुझ पर तुम बेशक लिख सकते हो एक किताब” और “जिंदगी खुली किताब है अच्छा है खुली रहे हरदम, इस बहाने से लोग पढ़ेंगे तो सही” सुना कर गदगद कर दिया।

शिवरतन जी ने “मैं तो एक खुली किताब हूं जिसने मुझे पढ़ना चाहा वह मेरा अपना ही है” और रजनी शर्मा ने चीरकर सीना दिखाया हृदय में सिया राम शोभित” हनुमान जी का भजन से सबको मंत्र मुक्त कर दिया। राजेश मित्तल “शाख पर अब न फूल आएंगे अब न तुझको गले लगाएंगे” मुक्तक सुनाया।

डॉ. सुशीला जोशी “मेरी सखी है मेरी किताब अच्छे बुरे का ज्ञान करती मेरी किताब,” ललिता सोनी “जीवन जीने की कला सिखाती है पुस्तक जिंदगी का सबसे अच्छा दोस्त है पुस्तक”, आनंद जैन अकेला “इंसा का सच्चा साथ निभाती है पुस्तक कभी बेटी कभी बहू सी बन जाती है पुस्तक”, राजेंद्र कुमार जैन “सबसे अच्छी मित्र है पुस्तक हर सुख दुख में साथ है पुस्तक”, डॉ ममता पचौरी “आंखों से बहता नीर लगी लक्ष्मण को शक्ति आज, देर करो न हनुमान” बहुत सुंदर भजन सुनाया। कामिनी व्यास रावल “जन्म उत्सव की बेला आई ढोल नगाड़े संग बजी शहनाई”। दशरथ दबंग “किताबें हैं जरूरी पर किताबों की कदर तो हो दीवारे आईने सजे कोई रहगुजर तो हो” और साधना शर्मा “सुबह-सुबह दस्तक दे आऊं” अखबार के ऊपर बहुत सुंदर कविता सुनाई।

कार्यक्रम का संचालन बृजसुंदर सोनी भीलवाड़ा ने किया गया । अंत में मध्य प्रदेश प्रांतीय अध्यक्ष आनंद जैन ‘अकेला’ द्वारा काव्य गोष्ठी में उपस्थित सभी साहित्यकारों का आभार प्रदर्शित किया गया।




संस्कृत कर्मकांड की ही नहीं रोजगार की भी भाषा है

सागर।अधिकतर भारतीय विद्वान संस्कृत को सभी भाषाओं की जननी मानते हैं. हालांकि, आम जीवन में अब संस्कृत का न तो इतना प्रभाव है और न ही यह आज की पीढ़ी में उतनी लोकप्रिय. लेकिन, वर्तमान दौर में करियर बनाने के लिहाज से इस भाषा की पढ़ाई करने वाले युवाओं के लिए रोजगार के काफी अवसर हैं. संस्कृत से पढ़ाई करने वाले विद्यार्थी कर्मकांड, भागवत कथाएं, मांगलिक कार्य, ज्योतिष आदि विषयों का अध्ययन कर आय अर्जित कर सकते हैं. इसके अलावा सरकारी नौकरियों में भी काफी अवसर हैं.

धर्मगुरु, शिक्षक और प्रोफेसर बन सकते हैं
अगर संस्कृत में शास्त्री या आचार्य तक की पढ़ाई विद्यार्थी ने कर ली है तो वह आर्मी में धर्मगुरु बन सकता है. स्कूलों में वर्ग एक, दो, तीन का शिक्षक बन सकता है और अच्छा ज्ञान प्राप्त कर ले तो कॉलेज में प्रोफेसर भी बन सकता है. चिकित्सा के क्षेत्र में जाना चाहते हैं तो आयुर्वेद की तरफ बढ़ सकते हैं, जिसमें चरक संहिता, सुश्रुत संहिता, बागभट्ट जैसे विषयों का अध्ययन कर सकते हैं. इसके अलावा वास्तु ज्योतिष शास्त्र, योग, वैदिक गणित, वेद विज्ञान, इतिहास, 18 पुराण के अध्ययन से अलग-अलग क्षेत्र में जाने की अपार संभावनाएं हैं. शास्त्री की पढ़ाई करने के बाद जिस तरह से अभ्यर्थी ग्रेजुएशन करने के बाद कोई भी एसएससी, एमपीपीएससी या अन्य कंपटीशन एग्जाम दे पाते हैं, उसी तरह शास्त्री के अभ्यर्थी भी एग्जाम देने के पात्र होते हैं.

भविष्य में बहुत सी संभावनाएं
सागर के धर्मश्री में स्थित 125 साल पुराने संस्कृत स्कूल में भी छठवीं से लेकर 12वीं तक की वेद पाठों के अध्ययन के साथ संस्कृत की पढाई कराई जाती है. महाविद्यालय के प्राचार्य पंडित उमाकांत गौतम बताते हैं कि संस्कृत में संपूर्ण ज्ञान है, यह नितांत सत्य है. जो संस्कृत पढ़ना चाहते हैं उनके लिए प्राचीन संस्कृत विद्यालय सागर के साथ मध्य प्रदेश में भी अलग-अलग जगह पर खुले हुए हैं.

वास्तु के क्षेत्र में काम
संस्कृत की पढ़ाई करने वाले बच्चों के लिए भविष्य में बहुत सी संभावनाएं हैं. यदि बच्चा वास्तु शास्त्र का सम्यक अध्ययन कर लेता है तो वह भूखंडों में जो आवास स्थल बनाए जाते हैं, उन पर काम कर सकता है. यह विज्ञान की कला है और इसके लिए संस्कृत पढ़ना आवश्यक है. किस प्रकार के वृक्ष हम अपने घर के बाजू से लगाए किस तरह के वृक्ष न लगाएं, किस दिशा के लिए क्या नियम हैं. यह वास्तु ज्ञान से जाना जाता है.

साभार https://hindi.news18.com/ से




परिवेश और संदर्भों को मुखर करते सुमन लता शर्मा के सृजन स्वर

तुम शीत का उच्छवास हो ,तुम धमनियों का ताप हो
तुम ठिठुरती जिंदगी का हर्ष और उल्लास हो
हो विरह में अगन तुम, प्रेम में आह्लाद हो
ऋतुराज तुम मधुमास हो,संजीवनी अहसास हो
“ऋतुराज”काव्य सृजन में रचनाकार की कल्पना का दरिया बह निकला है। इसका ललित रूप शब्दों में अभिव्यक्त हो उठा है। प्रकृति के अंग-अंग के उल्लास को मणिमाला के मोती की तरह पिरो दिया है। अभिव्यक्ति की सुंदरता अत्यंत मोहक बन पड़ी है। रचना को आगे बढ़ाते हुए लिखती हैं….
तरुवर लता और वल्लरी, बैठे तुम्हारी आस में
नव पात का ओढ़ें  वसन,जब तुम खड़े हो साथ में
हर शाख मद में मस्त हो, झूमे तुम्हारे प्यार में ऋतुराज तुम मधुमास हो,संजीवनी अहसास हो
ओढ़े चुनरिया पीत की ,ज्यों हो शगुन की ताक में
कहीं  दिखती है ये मही, ठाडी खड़ी सी राहमें
सभी के मन मचल रही,फागुनी बयार हो ऋतुराज तुम मधुमास हो ,संजीवनी अहसास हो
प्रकृति सौंदर्य के साथ – साथ स्त्री और बच्चों से संबंधित विषमताओं पर ध्यान आकर्षित कर क्षमताओं से अवगत करवाने के मुख्य ध्येय को लेकर गद्य पद्य दोनों विधाओं में सृजन करने वाली सुमन लता शर्मा ऐसी रचनाकार हैं जो प्रेरक और वर्णात्मक शैली में लिखती हैं। परिस्थिति जन्य विचलन से उठी भाव तरंगों को रचना रूपी सरिता के तट तक पहुंचाती हैं। समाज के किसी दृश्य से उपजे झकझोरने वाले भावों को उजागर करने और समाधान की राह दिखाने की इनकी शैलीगत रचनाओं में सकारात्मकता और दिशा बोध प्रमुख तत्व हैं।
हिंदी और राजस्थानी भाषाओं पर इनका समान अधिकार है। गद्य विधा में कहानी, लघुकथा एवं पत्र लेखन तथा पद्य विधा में कविता ,दोहे एवं गीत लिखना इनकी पसंदीदा विधाएं है। प्रसिद्ध कहानीकार और उपन्यासकार शिवानी से प्रेरित हैं इन्हीं कहानियां। बच्चों की क्षमताऐं, समस्याऐं,प्रकृति ,नारी की विभिन्न भूमिकाऐं, माँ, स्तुति, प्रेम, सामाजिक विषमताएं इनके सृजन के मुख्य विषय हैं, साथ ही लघुकथा ,गीत ,कविताएं स्वयं की सोच और चिंतन के अनुसार भी लिखती हैं। दोनों ही विधाओं की रचनाएं राष्ट्रीय एवं राज्य स्तरीय प्रतियोगिताओं में चयनित होना इनके सृजन का प्रभावी पक्ष है।
लेखन का बीजारोपण बचपन में मिले पारिवारिक साहित्यिक माहोल से ही हो गया था। पिता स्व. गौरी शंकर कमलेश राजस्थानी भाषा के रचनाकार थे। कवियों का घर पर आना-जाना, चर्चा, परिचर्चा, गोष्ठियां, इत्यादि देखते-सुनते बचपन बीता। घर में पुस्तकों और पत्र-पत्रिकाओं का अंबार रहता था। इसी से  पढ़ने  और लिखने  शौक पैदा हुआ । युवावस्था से ही अपने मन  के भाव कच्चे-पक्के से कागज पर उतरने लगी। इनकी माता राजस्थानी भाषा की लेखिका स्व. कमला कमलेश से इन्हें मार्गदर्शन मिला।  राजकीय सेवा से सेवानिवृत्ति के उपरांत 2017 से इनके लेखन में गति आ गई और पूर्णरूप से सक्रिय हो कर सृजन में लग गई ।
पद्य विधा में लिखे इनके “माया मोह” विषयक दोहों की बानगी देखिए की माया मोह को कितनी प्रभावी अभिव्यक्ति देते हुए आध्यात्म की ओर ले गई हैं…………
धन यौवन  संपन्नता,माया के ही रूप
मुग्ध मनुज को मोहती,कनक कुरंगम धूप ।
माया जग की जेवड़ी,बाँधा सब संसार
प्रभु सुमिरन से काटिये,होवें भव से पार ।
माया मन की नर्तकी,मैं मेरा ही बोल
पर संवेदनहीन मनुज ,मरे चाम का ढोल ।
माया इनकी जामिनी, काम क्रोध मद लोभ
तृषित मन की मरीचिका, परिणति होवे क्षोभ।
मोह ग्रस्त ज्ञानी बने, रागी को बेैराग
माया रक्षक भवाटवी, मीठा बोले काग ।
माया ऐसी रूपसी, तृषा तृप्त ना होय
सरिता से सागर भरे ,पुनि पुनि चाहे तोय।
इनके काव्य सृजन के ख़ज़ाने से ” नयन संवाद” विषयक रचना में  प्रेम की मूक अभिव्यक्ति की कितनी सुंदर संयोजना की है यह रचनाकार की कल्पना को दर्शाती हैं………
 भाव उन्मुक्त हुए ,आँखों से निकल पड़े,
नयनों से नयनो के संवाद हो चले ।
भाव उन्मुक्त हुए ।
होठों पर बंधन था, तटबंध तोड़ चले,
नयनों के पहरों में, नयनों से निकल पड़े।
भाव उन्मुक्त हुए ।
नयनो ने बाँच डाली, प्रीत पाती नयनों में ,
मुखड़े को रक्तिम कर,अनुरागी हो चले ।
भाव उन्मुक्त हुए ।
नयनों से पहुँची जब, नेह धार हृदय में,
सिहरन के साथ-साथ,रोम रोम बोल उठे।
भाव उन्मुक्त हुए ।
अधर स्वयं निशब्द रहे,धड़कन में बोल उठे,
मुखरित हो मौन ने , प्रेम गीत छेड़ दिए।
भाव उन्मुक्त हुए ।
वायु की सर सर से, सरगम के बोल उठे,
नयनों में सपनों के, इंद्रधनुष डोल उठे।
भाव उन्मुक्त हुए,आँखों से निकल पड़े,
नयनों से नयनो के, संवाद हो चले।
गद्य विधा में कहानियां, लघु कथाएं और पाती ( पत्र ) लेखन में प्रवीण रचनाकार ने पाती  परिवार द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर आयोजित की गई पत्र लेखन प्रतियोगिता में पत्र चयन के पश्चात ‘ माँ की पाती बेटी के नाम’ ‘ यादों के गलियारे से’ ‘गौरैया की पुकार’ इत्यादि पुस्तकों में पत्र प्रकाशित हुए। इस दिशा में ये निरंतर सक्रिय हैं।
इनकी संवेदनाओं पर आधारित एक कहानी “संस्कारों के बंधन “का सार देखिए ….
माननीय मूल्यों  का जो रोपण मोहन की गरीब माँ ने  मोहन में किया है वही उसकी पूँजी है, जिसे वह कभी खोना नहीं चाहता। परेशानियों , दुखों और अभावों में बड़ा हुआ मेधावी मोहन अपनी मेहनत और गुरुजनों की विशेष कृपा के सहारे डॉक्टर बन जाता है, किंतु माँ की मृत्यु के कारण अकेला रह जाता है। एक अमीर माता-पिता कोअकेला डाॅक्टर लड़काअपनी इकलौती बेटी के लिए उसे सुयोग्य वर दिखता है। यह सोचकर कि उसे अपने स्तर और जीवन शैली के अनुरूप ढाल लेंगे, विवाह कर देते हैं। यहीं से डॉक्टर मोहन के जीवन में परेशानियां शुरू होती हैं । नई जीवन शैली उसे माँ की शिक्षाओं के साथ समझौते को मजबूर करती है। जिसे वह स्वीकार नहीं कर पाता।
पति-पत्नी दोनों अपने-अपने अनुसार जीने लगते हैं। पति-पत्नी के बीच दूरी बढ़ती जाती है। एक पुत्र ‘मुकुल’ हुआ। डॉक्टर मोहन अपनी माँ से प्राप्त गुणों की पूँजी से उसे समृद्ध करना चाहते हैं।इसलिए पत्नी के द्वारा होने वाले अपमान सहकर भी उसी घर में रहते हैं ,लेकिन अंतत:  समझ जाते हैं कि वह इसमें असफल रहे हैं। माँ की शह से मुकुल माँ की जीवन शैली अपना लेता है। एक उम्मीद जो उन्हें उस घर में रोके हुए थी, टूट जाती है।वह बिना किसी को बताए ,चुपचाप घर छोड़कर वृंदावन में आकर चैरिटेबल अस्पताल में सेवाएं देने लगते हैं। कहानी में मोड़़ तब आता है जब लगभग पाँच वर्ष बाद उनका मित्र ‘मुरली’वृंदावन यात्रा पर जाकर बीमार होता है और उनके अस्पताल में इलाज हेतु पहुंँचता है।
वह बताता है कि डॉक्टर मोहन की पत्नी सुरभि को पक्षाघात हुआ है। बेटे ने प्रेम विवाह कर लिया है। सुरभि घर में उपेक्षित, दुखी और अपमानित है।डॉ. मोहन निर्लिप्तता से सुन कर ,अविचलित ही रहते हैं। लेकिन जब मुरली कहता है कि “सप्तपदी के दौरान तुमने जो वचन सुरभि भाभी को दिए थे क्या वे झूठे थे? क्या तुमने जीवन भर दुख सुख में साथ निभाने का वचन नहीं दिया था?” डॉ. मोहन के संस्कारों के बंधन इतनी मजबूत हैं कि वे सब कटुता भूल अपनी पत्नी का साथ देने हेतु तैयार हो जाते हैं।
इनकी ज्वलंत समस्या “समलैंगिकता ” को आधार बना कर लिखी गई एक लघु कथा की बानगी देखिए जो समलैंगिक संबंधों की कानूनन अवैधता (धारा 377)समाप्ति पर लिखी है । इसमें एक बेरोजगार,आवारा पुत्र जिसकी शादी नहीं हो पा रही थी,अपनी माँ को इस बात की जानकारी देते हुए खुशी जाहिर करता है और अपने पुरुष मित्र को ही घर मे रखने   की स्वीकृति चाहता है।  माँ अपनी लाठी की फटकार से उसे नैतिकता का पाठ पढाती है…… । ये अब तक करीब 80 लघु कथाएं, 30 कहानियां और डेढ़ सौ कविताओं का सृजन कर चुकी हैं।
परिचय :
सुमन लता शर्मा की रचनाओं का विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं और ऑन लाइन मंचों पर रचनाओं का प्रकाशन और प्रसारण होता रहा है। साहित्य सृजन के साथ-साथ आप समाज सेवा कार्यों से भी जुड़ी हैं। ये शिक्षा विभाग से सेवा निवृत प्रधानाचार्य हैं। वर्तमान में स्वाध्याय और लेखन में सक्रिय हैं।
संपर्क :
सुमन लता शर्मा
महात्मा गांधी हॉस्पिटल
आजाद पार्क के सामने कोटा देवली रोड.
बूंदी -323001(राजस्थान )
मोबाइल : 94140 00102