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वरिष्ठ फिल्म समीक्षक

दो टूक : रिश्तों की कोई तय परिभाषा नहीं होती. वो कब क्या सूरत अखितियार करेंगे कुछ नहीं कहा जा सकता.  लेकिन  इतना तय है कि अगर उन्हें संभलकर जिया जाए तो फिर उनकी परिभाषा ही नहीं बदलती बल्कि हमारे जीने का सलीका भी बदल जाता है।  हाँ ये अलग बात कि उसके बाद उनकी जो नयी परिभाषा बनती हैं वो किसी नयी दुनिया का ही विस्तार करती हैं।  निर्देशक सुजित सरकार की अमिताभ बच्चन, दीपिका पादुकोण, इरफान खान, मौसमी चटर्जी, जिशु सेनगुप्ता और रघुवीर यादव के अभिनय वाली उनकी नयी फिल्म पीकू भी कुछ ऐसे ही रिश्तों की दुनिया की बात करती है.

कहानी : फिल्म की कहानी दिल्ली के चितरंजन पार्क में रहने वाले भास्कर बनर्जी (अमिताभ बच्चन) और उनकी बेटी पीकू  दीपीका पादुकोन की है.  लेकिन पेट की कब्ज से परेशान पिता और बेटी का यह रिश्ता अपनी तरह से अजीब रिश्ता है. आपस में उनकी नोकझोंक इस रिश्ते की नयी नयी कहानियों के चेहरों को समाने लाती है .दिल्ली में एक लंबा अरसा गुजार चुके भास्कर अब कोलकत्ता वापिस जाना चाहते हैं . लेकिन हवाई और  रेल सफर से परहेज करने वाले भास्कर और पीकू जब सडके के रास्ते टैक्सी सर्विस के मालिक राणा चैधरी (इरफान खान) के साथ सफर करते हैं तो उनकी दुनिया की बदल जाती है. सफर में रिश्तों की जिस नयी दुनिया का विस्तार होता है पीकू उसी रोचक और मानवीयता भरे सफर की कहानी है.

गीत संगीत : फिल्म में मनोज यादव और अनुपम रॉय के लिखे गीत हैं और संगीत भी अनुपम रॉय का है.  फिल्म में प्रत्यक्ष रूप से कोई गीत नहीं है.  सभी गीत पाश्र्व में हैं. लेकिन कहानी और पटकथा में चरित्रों लम्हे गुजर गए  और तेरी  मेरी कहानी जैसे गीत मन को छूते हैं.  

अभिनय : फिल्म के केंद्र में अमिताभ बच्चन हैं लेकिन उनकी भूमिका की धूरी पूरी तरह से दीपिका के उप्पर टिकी है. अमिताभ बच्चन हर फिल्म में अब प्रायोगिक  भूमिकाओं में दिखाई देते हैं.  बंगला भाषी और कब्ज से परेशान चिड़चिड़े  बुजुर्ग  की भूमिका में उन्होंने नए प्रतीक बिम्ब रचे हैं.  एक वृद्ध, जिद्दी, झक्की, आलोचनावादी भास्कर बैनर्जी के किरदार में अमिताभ बच्चन ने प्राण फूंक दिए हैं. उनके बंगाली उच्चारण सुनने लायक हैं. पर फिल्म की सबसे बड़ी उपलब्धि हैं दीपिका पादुकोण. भाषा और चरित्र के हिसाब से चेनई एक्सप्रेस के बाद उन्होंने एक बार फिर से अपनी अभिनय प्रतिभा का परिचय दिया है.  इरफान खान अपनी भूमिका को अलग तेवर और व्याख्या के साथ जीते हैं तो उनके बारे  में ज्यादा क्या कहुँ.. बुघन की लगभग खामोश भूमिका में बालेंदु सिंह बालु ध्यान खींचते हैं.
निर्देशन : फिल्म के निर्देशक शुजीत सरकार के साथ फिल्म की लेखिका जूही चतुर्वेदी की फिल्म में विशेष  भूमिका है जिन्होंने शूजीत सरकार की निर्देशकीय कल्पना के साथ बाप-बेटी के  रिश्ते को गजब का संतुलन और रोचकता दी है.   वैसे भी शूजीत सरकार अपने चरित्रों को दृश्यों के साथ  स्वाभाविकता के साथ बरतते हैं.  जिस से  दिल्ली में बसे एक बंगाली परिवार के सांस्कृतिक और भावनात्माक जुड़ाव के साथ उन्होंने पीकू नाम के चरित्र को पहले एक बेटी और एक बेटी  और फिर प्रगतिवादी युवती से जोड़ दिया है. यही फिल्म की ख़ास बात भी है.  

फिल्म क्यों देखें : बाप बेटी के रिश्ते की साधारण से कहानी को अहम बनकर पेश किया गया है. 
फिल्म क्यों ना देखें : ऐसा मैं नहीं कहूँगा.