Friday, March 29, 2024
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Homeधर्म-दर्शनपूर्वजों के ऋण से उऋण होने और श्रध्दा का पर्व है श्राध्द

पूर्वजों के ऋण से उऋण होने और श्रध्दा का पर्व है श्राध्द

मेरे वे पितर जो प्रेतरूप हैं, तिलयुक्त जौं के पिण्डों से तृप्त हों। साथ ही सृष्टि में हर वस्तु ब्रह्मा से लेकर तिनके तक, चर हो या अचर, मेरे द्वारा दिये जल से तृप्त हों।’ – वायु पुराण

हिंदू पंचांग (कैलेंडर) में आश्विन मास के संपूर्ण कृष्णपक्ष में पितरों को संतुष्ट करने के लिए समर्पित किया गया है। इसी कारण इसे ‘पितृपक्ष’ कहा जाता है। भारतीय काल-गणना के अनुसार, इस समय सूर्य कन्या राशि में होता है। इसलिए ‘कन्या’ राशि में सूर्य की स्थिति में पड़ने वाले पितृपक्ष को जनसाधारण में ‘कनागत’ के नाम से भी जाना जाता है। भारत में 5 सितंबर से पितृ पक्ष की शुरूआत होगी. हिन्दू कैलेंडर के अनुसार इस बार पितृ पक्ष की अवधि 15 दिनों तक रहेगी, इस दौरान ज्यादातर हिन्दू अपने पितरों को श्रद्धाजंलि देते हैं. जिसमें मुख्य रूप से अपने पितरों को याद करते हुए खाना अर्पित किया जाता है. पितृ पक्ष को श्राद्ध और कनागत भी कहा जाता है जो अक्सर भद्रापद महीने में अनंत चतुर्दशी के बाद आते हैं.वसु, रुद्र और आदित्य श्राद्ध के देवता माने जाते हैं।

इस वर्ष श्राध्द के दिन

पितृपक्ष पखवाड़ा
1 सितंबर : पूर्णिमा, 9.45 के बाद
2 सितंबर : प्रतिपदा श्राद्ध, सुबह 11 बजे के बाद
3 सितंबर : प्रतिपदा श्राद्ध, पूरा दिन
4 सितंबर : दूसरा श्राद्ध, पूरा दिन
5 सितंबर : तीसरा श्राद्ध, पूरा दिन
6 सितंबर : चौथा श्राद्ध, पूरा दिन
7 सितंबर : पांचवां श्राद्ध, पूरा दिन
8 सितंबर : छठा श्राद्ध, पूरा दिन
9 सितंबर : सातवां श्राद्ध, पूरा दिन
10 सितंबर : आठवां श्राद्ध, पूरा दिन
11 सितंबर : नौवां श्राद्ध, पूरा दिन
12 सितंबर : दसवां श्राद्ध, पूरा दिन
13 सितंबर : ग्यारहवां श्राद्ध, पूरा दिन
14 सितंबर : बारहवां श्राद्ध, पूरा दिन
15 सितंबर : तेरहवां श्राद्ध, पूरा दिन
16 सितंबर : चौदहवां श्राद्ध, पूरा दिन
17 सितंबर : अमावस्या, पूरा दिन

आमतौर पर बड़े बेटे या परिवार के बड़े पुरूष सदस्य द्वारा ही श्राद्ध का अनुष्ठान किया जाता है. श्राद्ध करते वक्त तीन चीजों का हमेशा ख्याल रखें- जिसमें धार्मिकता, चिड़चिड़ापन और गुस्सा शामिल हैं. पूर्वजों की आत्मा की शांति के लिए की जा रही प्रार्थना के बीच कुछ भी अशुभ नहीं होना चाहिए. दो ब्राह्मणों को भोजन, नए कपड़े, फल, मिठाई सहित दक्षिणा दान करनी चाहिए, ऐसा माना जाता है कि उन्हें जो कुछ दिया गया है वो हमारे पूर्वजों तक पहुंचता है. ब्राह्मणों को दान देने के बाद गरीबों को खाना खिलाना भी जरूरी है ऐसा कहा जाता है जितना दान दोंगे वह उतना आपके पूर्वजों तक पहुंचता है. इसके अलावा श्राद्ध करना इसलिए भी महत्वपूर्ण माना है इससे आपको अपने पूर्वजों का आशीर्वाद मिलता है जिससे आपके घर में खुशहाली रहती है.

शास्त्रों में आश्विन मास कृष्ण पक्ष प्रतिपदा से अमावस्या तक की सब तिथियाँ श्राध्द पक्ष में शामिल की गई हैं। कभी-कभी किसी एक तिथि का क्षय होने से दो श्राध्द एक दिन भी आ जाते हैं। आनादिकाल में आश्विन मास के श्राध्द पक्ष में भाद्रपद मास की पूर्णिमा का दिन श्राध्द शामिल नहीं था। चूंकि माह के एक पक्ष में अमावस्या व दूसरे पक्ष में पूर्णिमाआती है। इसलिए आश्विन मास कृष्ण पक्ष के पहले की भाद्रपद की पूर्णिमा को श्राध्द पक्ष में जोड़ा गया है। इसके पीछे भावना यह है कि जिन पूर्वजों का निधन पूर्णिमा को हुआ है। उनका श्राध्द कब किया जाए। सर्वपितृ अमावस्या में सभी पितरों के श्राध्द की व्यवस्था है। इसलिए भाद्रपद मास की पूर्णिमा को भी श्राध्द पक्ष में शामिल कर लिया गया।

शास्त्रों में पितृपक्ष में पूर्वजों की आत्मिक तृप्ति के लिए श्राद्ध और तर्पण की बात कही गई है। पितरों की संतुष्टि के लिए उनके निमित्त श्रद्धापूर्वक किया जाने वाला कार्य ‘श्राद्ध’ कहलाता है। श्राद्ध और तर्पण वंशज द्वारा पूर्वजों की दी गई श्रद्धांजलि है। हमें किसी भी स्थिति में अपने इस आध्यात्मिक कर्तव्य से विमुख नहीं होना चाहिए। पितृपक्ष को हमें पूर्वजों के स्मृति-पर्व के रूप में मनाना चाहिए। पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने का इससे अच्छा और कोई अवसर नहीं हो सकता। यह हमारा दायित्व भी है और धर्म भी। विष्णुपुराण में कहा गया है कि श्राद्ध और तर्पण से तृप्त होकर पितृगण श्राद्ध करने वालों की सभी कामनाओं को पूर्ण कर देते है। व्यक्ति को अपनी साम‌र्थ्य के अनुसार श्राद्ध-कर्म अवश्य करना चाहिए। यदि कोई आदमी ब्राह्मणों को भोजन कराने में असमर्थ है, तो वह यथाशक्ति कच्चा अनाज, सब्जी, फल आदि दे सकता है।

हर व्यक्ति के तीन पूर्वज पिता, दादा और परदादा क्रम से वसु, रुद्र और आदित्य के समान माने जाते हैं। श्राद्ध के वक़्त वे ही अन्य सभी पूर्वजों के प्रतिनिधि माने जाते हैं। ऐसा माना जाता है कि वे श्राद्ध कराने वालों के शरीर में प्रवेश करके और ठीक ढ़ग से रीति-रिवाजों के अनुसार कराये गये श्राद्ध-कर्म से तृप्त होकर वे अपने वंशधर को सपरिवार सुख- समृध्दि और स्वास्थ्य का आर्शीवाद देते हैं। श्राद्ध-कर्म में उच्चारित मन्त्रों और आहुतियों को वे अन्य सभी पितरों तक ले जाते हैं।

शास्त्रों के अनुसार श्राध्द का अधिकार केवल पुत्र को ही हो सकता हैं। पुत्र की कामना के पीछे यह परंपरा भी एक वजह रही है। पुत्र के अभाव में विधवा स्त्री को अपने पति का श्राध्द करने का अधिकार दिया गया है। पुत्री के पुत्र यानी नाती को भी श्राध्द करने योग्य माना गया है। व्यावहारिक कठिनाइयों को देखते हुए गोत्र भाई या किसी भी सगोत्री को श्राध्द का अधिकार दिया गया है। श्राध्द करने की प्रथा पूर्वजों की पूजा का ही एक विशिष्ट रूप है और दिवंगत प्रियजनों की आत्मा की शांति हेतु ही श्राध्द व तर्पण किया जाता है।

जिसकी आर्थिक स्थिति कमजोर है, वह चारा और घास लाकर गौ को खिला सकता है। यदि किसी के लिए यह भी संभव न हो, तो वह केवल आठ तिलों से जलांजलि दे दें। जिस व्यक्ति के लिए यह भी मुश्किल हो, तो वे सूर्यनारायण के सामने हाथ उठाकर निवेदन करे- ‘मेरे पास श्राद्ध करने के लिए न तो पैसा है और न ही कोई सामग्री। मैं आपको साक्षी मानकर अपने पितरों को नमस्कार करता हूँ , वे मेरी इस प्रार्थना से ही तृप्त हो जाएँ।’

श्राध्द की शास्त्रीय मान्यता

मार्कण्डेय पुराण में कहा गया है कि
पितृनिःश्वास विध्वस्तं सप्तजन्मार्जित धनम्।
त्रिजन्म प्रभवं देवो निःश्वासो हन्त्यसंशयम्।।
यतस्ते विमुखायान्ति निःस्वस्य गृहमेधिनः।
तस्मादिष्टश्च पूर्तश्च धर्मो दावपिनश्यतः।।

पितरों के असंतुष्ट हो जाने से सात जन्मों का पुण्य नष्ट हो जाता है और देवताओं के रुष्ट हो जाने से तीन जन्मों का पुण्य नष्ट हो जाता है। देवता और पितर जिससे रुष्ट हो जाते हैं उसके यज्ञ और पूर्त दोनों धर्मो का नाश हो जाता है।

अपि स्यात्सकुलेस्माकं यो नो दघाद्ज्जलांजलिम्।
नदीषु बहुतोयाषु शीतलाषु विशेषतः।
अपि स्यात्सकुलेस्माकं यः श्राध्दनित्यमाचरेत्।।
पयोमूलफलैर्भक्ष्यैस्तिल तोयेन वा पुनः।।

पितृगण कहते है कि क्या हमारे वंश में कोई ऐसा भाग्यशाली जन्म लेगा, जो शीतल जल वाली नदी के जल से हमें जलांजलि देकर तथा दुग्ध, मूल, फल, खाघान सहित तिल मिश्रित जल से श्राध्द कर्म करेगा।

याज्ञवल्क्यस्मृति में श्राद्ध-कर्म को लेकर कहा गया है कि श्राद्धकर्ता पितरों के आशीर्वाद से धन-धान्य, सुख-समृद्धि, संतान और स्वर्ग प्राप्त करता है। मत्स्यपुराण और वायुपुराण में श्राद्ध के विधान और इसके पर विस्तार से चर्चा की गई है। विष्णुधर्मोत्तरपुराण में पितृगण को देवताओं से भी अधिक दयालु और कृपालु बताया गया है। पितृपक्ष में श्राद्ध और तर्पण पाकर वे वर्ष भर तृप्त बने रहते है। जिस घर में पूर्वजों का श्राद्ध होता है, वह घर पितरों द्वारा सदैव सुरक्षित रहता है। शास्त्रों के अनुसार, पितृपक्ष में श्राद्ध न किए जाने पर पितर अतृप्त होकर कुपित हो जाते है, जिसके फलस्वरूप व्यक्ति को अनेक दुख और कष्ट भोगना पड़ता है।

धर्मग्रंथों में कहा गया है कि मृतक के लिए किए गए श्राद्ध का सूक्ष्मांश उस तक अवश्य पहुँचता है, चाहे वह किसी भी लोक में, किसी भी योनि में क्यों न हों। गरुड़पुराण में परलोक का जितना विस्तृत और सूक्ष्म वर्णन है, उतना विश्व के किसी अन्य ग्रंथ में नहीं है। ‘अथर्ववेद’ और ‘शतपथ ब्राह्मण’ में भी पितृलोक का स्पष्ट उल्लेख है।

पितृ पक्ष का महत्व
हिंदू धर्म में पितृ पक्ष का विशेष महत्व माना जाता है. हिंदू धर्म में मृत्यु के बाद मृत व्यक्ति का श्राद्ध किया जाना बेहत जरूरी माना जाता है. माना जाता है कि यदि श्राद्ध न किया जाए तो मरने वाले व्यक्ति की आत्मा को मुक्ति नहीं मिलती है. वहीं ये भी कहा जाता है कि पितृ पक्ष के दौरान पितरों का श्राद्ध करने से वो प्रसन्न हो जाते हैं और उनकी आत्मा को शांति मिलती है. ये भी माना जाता है कि पितृ पक्ष में यमराज पितरो को अपने परिजनों से मिलने के लिए मुक्त कर देते हैं. इस दौरान अगर पितरों का श्राद्ध न किया जाए तो उनकी आत्मा दुखी व नाराज हो जाती है.

पितृ पक्ष में किस दिन करें श्राद्ध
दरअसल, दिवंगत परिजन की मृत्यु की तिथि में ही श्राद्ध किया जाता है. उदाहरण के तौर पर यदि आपके किसी परिजन की मृत्यु प्रतिपदा के दिन हुई है तो प्रतिपदा के दिन ही उनका श्राद्ध किया जाना चाहिए. आमतौर पर इसी तरह से पितृ पक्ष में श्राद्ध की तिथियों का चयन किया जाता है:
– जिन परिजनों की अकाल मृत्यु या फिर किसी दुर्घटना या आत्महत्या का मामला है तो उनका श्राद्ध चतुर्दशी के दिन किया जाता है.
– दिवंगत पिता का श्राद्ध अष्टमी और मां का श्राद्ध नवमी के दिन किया जाता है.
– जिन पितरों के मरने की तिथि न मालूम हो, उनका श्राद्ध अमावस्या के दिन करना चाहिए.
– यदि कोई महिला सुहागिन मृत्यु को प्राप्त हुई तो उनका श्राद्ध नवमी को करना चाहिए.
– सन्यासी का श्राद्ध द्वादशी के दिन किया जाता है.

श्राद्ध के नियम
– पितृ पक्ष के दौरान हर दिन तर्पण किया जाना चाहिए. पानी में दूध, जौ, चावल और गंगाजल डालकर तर्पण किया जाता है.
– इस दौरान पिंड दान भी करना चाहिए. श्राद्ध कर्म में पके हुए चावल, दूध और तिल को मिलाकर पिंड बनाए जाते हैं. पिंड को शरीर के प्रतीक के रूप में देखा जाता है.
– पितृ पक्ष में कोई भी शुभ कार्य, विशेष पूजा-पाठ और अनुष्ठान नहीं करना चाहिए. हालांकि, देवताओं की नित्य पूजा को बंद नहीं करना चाहिए.
– श्राद्ध के दौरान पाना खाने, तेल लगाने और संभोग की मनाही है.
– इस दौरान रंगीन फूलों का भी इस्तेमाल नहीं किया जाता है.
– पितृ पक्ष में चना, मसूर, बैंगन, हींग, शलजम, मांस, लहसुन, प्याज और काला नमक भी नहीं खाया जाता है.
– इस दौरान नए वस्त्र, नया भवन, गहने या कीमती सामान को खरीदने से भी कई लोग परहेज करते हैं.
श्राद्ध कैसे करें?
– श्राद्ध की तिथि का चयन ऊपर दी गई जानकारी के मुताबिक करें.
– श्राद्ध करने के लिए आप अपने पुरोहित को बुला सकते हैं.
– श्राद्ध के दिन अच्छा खाना या फिर पितरों की पसंद का खाना बनाएं.
– खाने में लहसुन और प्याज का इस्तेमाल न करें.
– मान्यता के मुताबिक श्राद्ध के दिन स्मरण करने से पितर घर आते हैं और भोजन पाकर तृप्त हो जाते हैं.
– श्राद्ध के दिन पांच तरह की बलि बताई गई है: गौ (गाय) बलि, श्वान (कुत्ता) बलि, काक (कौवा) बलि, देवादि बलि, पिपीलिका (चींटी) बलि.
– बता दें, यहां बलि का मतलब किसी पशु या जीव की हत्या नहीं है बल्कि श्राद्ध के दिन इन सभी जानवरों को खाना खिलाया जाता है.
– तर्पण और पिंड दान के बाद पुरोहित या किसी ब्राह्मण को भोजन कराएं और दक्षिणा दें.
– ब्राह्मण को सीधा या सीदा भी दिया जाता है. सीधा में चावल, दाल, चीनी, नमक, मसाले, कच्ची सब्जियां, तेल और मौसमी फल शामिल है.
– ब्राह्मण भोज के बाद पितरों को धन्यवाद दें और जाने-अनजाने में हुई भूल के लिए माफी मांगे.
– इसके बाद अपने पूरे परिवार के साथ बैठ कर भोजन करें.

श्राध्द का समय

श्राध्द की प्रक्रिया पूरी करने के समय को शास्त्रों में कुतकाल कहा गया है। इसकी अवधि प्रायः दिन के 1 बजे से अपरान्ह 4 बजे तक की होती है। श्राध्द कर्म करने के लिए सर्वप्रथम अपने घर के द्वार को धोकर और लीपकर शुरु करना चाहिये। फिर ब्राह्मण को आमंत्रित कर उसकेअंदर अपने पुरखों का भाव स्मरण कर उसको सम्मानपूर्वक बोजन कराएँ।

श्राध्द के प्रारम्भ में और अंत में तीन-तीन बार निम्न श्लोक का उच्चारण करें।

देवताभ्य पितृभ्यश्च महायोगिभ्य एव च।
नमः स्वाहायै स्यधायै नित्मेव नमो नमः।।

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