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श्री हरि सत्संग समिति का आयोजन- ‘द्रौपदी’ : न भूतो न भविष्यति

कुछ रचनाएँ, कुछ किरदार और कुछ पात्र और कुछ प्रस्तुतियाँ ऐसी यादगार हो जाती हैं कि प्रेक्षकों के ह्रदय पटल पर हमेशा हमेशा के लिए अपनी छाप छोड़ जाती है। फिल्मी दुनिया में एक से एक सफल फिल्मों के माध्यम से तीन पीढ़ियों की चहेती बनी हेमामालिनी ने अपनी विभिन्न शास्त्रीय प्रस्तुतियोँ के माध्यम से खुद के व्यक्तित्व को ही एक नया आयाम नहीं दिया है बल्कि पूरी भारतीय शास्त्रीय नाट्य परंपरा को एक नया क्षितिज प्रदान कर वो काम कर दिखाया है जो हजारों फिल्में भी नहीं कर पाई।

हेमामालिनी ने फिल्मी दुनिया में स्वप्न सुंदरी के रूप में अपनी विशिष्ट पहचान को 69 वर्ष की उम्र में भी कायम रखा है और दुर्गा सीता जैसी नृत्य नाटिकाओं से अपनी शास्त्रीय पहचान को भी नई ऊंचाई प्रदान की।

वनवासियों के लिए शिक्षा व सांस्कृतिक जागरण के लिए कार्यरत श्री हरि सत्संग समिति द्वारा मुंबई स्थित एशिया का सबसे बड़ा 3000 लोगों की क्षमता वाला ऑडियोरियम हेमामालिनी द्वारा प्रस्तुत द्रौपदी नृत्य नाटिका के लिए खचाखच भर जाना इस बात का सबूत था कि हेमामालिनी ने अपना एक ऐसा विशिष्ट दर्शक वर्ग तैयार किया है, जो फिल्म और टीवी की चमक-दमक से दूर विशुध्द शास्त्रीय प्रस्तुति को देखना चाहता है।

हेमामालिनी को द्रौपदी में देखना तो अपने आप में एक अद्भुत व रंजक अनुभव था, लेकिन द्रौपदी के माध्यम से देश की स्त्री शक्ति की विवशता को लेकर जो सवाल उठाए गए उससे यह नाटक मात्र एक मिथकीय आख्यान भर नहीं रह गया बल्कि कई सामाजिक सवाल खड़े कर गया।

अद्भुत कल्पनाशीलता, रंग संयोजन, प्रकाश व्यवस्था, ध्वनि संप्रेषण और भरत मुनि के नाट्य शास्त्र की विभिन्न परंपराओं को अपने में समेटे हुए द्रौपदी का ये मंचन प्रेक्षकों को हर दृश्य पर दाद देने और वाह वाह करने पर मजबूर करता रहा।

कृष्ण-द्रौपदी संवाद, कुंती द्वारा अपने पाँचों बेटों में द्रौपदी का बँटवारा करने, जुए की बाजी में दाँव पर लगी द्रौपदी द्वारा हारे हुए अपने पतियों से लेकर राजसभा में मौजूद धृतराष्ट्र और भीष्म पितामह के सामने सवाल उठाने का एक-एक दृश्य और एक- एक संवाद नाटकीय कसावट लिए हुए तो था ही, प्रेक्षकों के रोमांच को भी बढ़ा रहा था।
द्रौपदी के चीर हरण का दृश्य कल्पनाशीलता की पराकाष्ठा का प्रतीक था। दुःशासन द्वारा चीर हरण करने और कृष्ण द्वारा द्रौपदी की साड़ी की लंबाई बढ़ाते जाने वाला दृश्य निर्देशकीय कुशलता को जीवंत कर रहा था। द्रौपदी के साथ माया का काल्पनिक चरित्र द्रौपदी के व्यक्तित्व के विविध पहलुओं और उसकी मनोदशा को सामने लाने के साथ ही दर्शकों की जिज्ञासा को बढ़ाने में भी सफल रहा।

कुल मिलाकर द्रौपदी का ये शास्त्रीय मंचन हेमामालिनी के सौंदर्य, श्रम और समर्पण के साथ ही सिध्दहस्त कलाकारों के सधे हुए अभिनय का अनुपम उदाहरण था। इस प्रस्तुति ने भारतीय शास्त्रीय नृत्य और नाट्य परंपरा को एक गौरव तो प्रदान किया ही है, यह भी सिध्द किया है कि करोडों के बजट से बनने वाली और फूहड़ मनोरंजन परोसने वाली फिल्मों और टीवी पर चल रहे अश्लील फिकरे वाले कॉमेडी शो व सास बहू के झगड़ों को महिमामंडित करने वाले धारावाहिकों के मुकाबले द्रौपदी जैसी इस विशुध्द शास्त्रीय प्रस्तुति का प्रभाव कहीं बहुत गहरा और कालजयी रहेगा।

कार्यक्रम के अंत में हेमामालिनी ने जिस आत्मीयता के साथ अपने साथ जुड़े सभी कलाकारों का परिचय करवाया वह भी दर्शकों पर अपनी छाप छोड़ गया। हेमा जी ने बताया कि किस तरह ये कलाकार अपनी शास्त्रीय परंपरा के प्रति समर्पित होकर इस प्रस्तुति से जुड़े हैं और विगत की वर्षों से पूरी निष्ठा व संकल्प के साथ इस प्रस्तुति को बेहतर बनाने के लिए सामूहिक रूप से अपना योगदान दे रहे हैं।

रवींद्र जैन के मार्मिक गीत और सधे हुए संगीत के साथ कविता कृष्णमूर्ति व सुरेश वाडकर की आवाज़ ने पूरी प्रस्तुति के एक-एक दृश्य को प्रवाहमान बना दिया, दर्शक नृत्य, संगीत और गीत की त्रिवेणी में पूरे 3 घंटे खोए रहे।
अंत में हेमाजी ने इस पूरे आयोजन के सूत्रधार प्रिय बाबूजी स्वरुपचंदजी गोयल को मंच पर बुलाकर उनके प्रति अपना अहोभाव प्रकट कर दर्शकों को बताया कि इस प्रस्तुति को इस ऊँचाई तक पहुँचाने में उनका योगदान कितना महत्वपूर्ण था।