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संस्कृत में छुपे हैं पर्यावरण संरक्षण के सूत्र

आज पूरे विश्व के समक्ष उठने वाली तमाम बड़ी समस्याओं में से भी सबसे बड़ी समस्या यह है कि हम पीने के लिए साफ पानी , सांस लेने के लिए साफ हवा और जीने के लिए स्वच्छ जलवायु की व्यवस्था यदि नहीं कर पा रहे हैं तो हमारा सारा विकास बेमानी है ।

हम विकास के जो भी तर्क देंगें वे जीवन से बड़े इसलिए नहीं हो सकते क्यों कि जीवन ही न होगा तो विकास किसके लिए काम आएगा ?

आज पूरी दुनिया संस्कृत भाषा एवं उसमें रचित प्राचीन साहित्य की तरफ बहुत आशा भरी नजरों से इसलिए देख रही है क्यों कि उसे विश्वास है कि प्राचीन ऋषि मुनि ऐसा एक शास्त्र नहीं रचते थे ,या ऐसा एक भी सूत्र नहीं बताते थे जो प्रकृति और जीवन के साथ खिलवाड़ कर सके ।

बल्कि ऐसे समाधान बताते थे जिससे पर्यावरण संबंधी समस्या ही खड़ी न हो ।

भारत में संस्कृत भाषा में वैदिक ,जैन एवं बौद्ध आचार्यों ने लाखों की संख्या में ग्रंथ लिखे जिसमें ज्ञान विज्ञान की शायद ही कोई शाखा हो जिस पर साहित्य उपलब्ध न हो।

संस्कृत साहित्य की सबसे बड़ी विशेषता यह रही कि वह जीवन और जीवन के विज्ञान से जुड़ा हुआ है ।

चारों वेदों में प्रकृति पूजा और उपासना का सबसे बड़ा ध्येय यही था कि हम प्रकृति का महत्व समझें उसका सम्मान करें । वेदों में जब अग्नि को जल का पुत्र *अपां गर्भ:* कहा गया तो दुनिया को समझ नहीं आया किंतु जब नदियों में बड़े बड़े बांध लगा कर प्रचुर बिजली निर्माण होने लगा तब विश्वास हुआ कि जल में भी अग्नि है ।
इसीलिए
यजुर्वेद( १९/१२) में जब यह कहा जाता है कि यज्ञ आरोग्य प्रदान करता है तब विचार जरूर करना चाहिए और अनुसंधान करना चाहिए कि यज्ञ की ऐसी कौन कौन सी विशेषताएं हैं जो जीवन को स्वस्थ रखती हैं और आहुतियों से ऐसा क्या पैदा होता है जो पर्यावरण को अनुकूल बनाता है ?

विषाक्त और प्रदूषित वायु से बचने के लिए लाक्षा, हरिद्रा, अतीस, हरितकी, मोथा,हरेनुका,इलायची,दालचीनी,तगर, कूठ और प्रियांगु आदि शुद्ध द्रव्यों को मंत्रोच्चार पूर्वक अग्नि में समर्पित किए जाएं तो उससे उत्पन्न धुंआ वायु में उपस्थित विष को नष्ट कर देता है और वही वायु स्वास्थ्य वर्धक हो जाती है ।

जैन आचार्यों ने हजारों की संख्या में संस्कृत साहित्य सभी विधाओं में रचा । उन्होंने सबसे पहले पेड़ पौधों में भी जीवन की खोज करके उन्हें हानि पहुंचाने को बहुत हिंसा माना और अनावश्यक रूप से उन्हें हानि न पहुंचे इसलिए अनर्थ दंड व्रत का प्रावधान किया और सभी को उसका पालन अनिवार्य बतलाया ।यज्ञ को अहिंसक बनाकर पुनः पवित्र करने का उपकार जैन साहित्य ने किया । मांसाहार को पर्यावरण संकट का सबसे बड़ा कारण बतलाकर उन्होंने यह बतलाने का प्रयास किया कि यह पृथ्वी मात्र मनुष्यों के लिए नहीं बनी है , ये हवा,पानी आदि संसाधन सभी जीवों के लिए हैं । त्रस और स्थावर सभी जीव हैं । सभी को जीवन जीने का हक है । उन्होंने मांसाहार को समस्त प्रकृति के असंतुलन का एक महत्त्वपूर्ण कारण माना । आरंभ से ही पानी को छान कर पीने और रात्रि भोजन नहीं करने के व्रत का प्रावधान भी पर्यावरण के अनेक घटकों को दृष्टि में रखकर ही किया गया ।

इसी प्रकार बौद्ध संस्कृत साहित्य में अहिंसा के माध्यम से मानसिक और कायिक प्रदूषण से बचने की सलाह दी गई ।
ध्वनि प्रदूषण से बचने के लिए संस्कृत व्याकरण के आचार्यों ने बहुत विचार किया और उन्होंने संवृत: और एणीकृत‌ आदि १६ प्रकार के ध्वनि प्रदूषण पर प्रकाश डाला है।

पर्यावरण के संतुलन में वृक्षों के महान् योगदान एवं भूमिका को स्वीकार करते हुए मुनियों ने बृहत् चिंतन किया है। संस्कृत पुराण में उनके महत्व एवं महात्म्य को स्वीकार करते हुए कहा गया है कि दस कुओं के बराबर एक बावड़ी होती है, दस बावड़ियों के बराबर एक तालाब, दस तालाबों के बराबर एक पुत्र है और दस पुत्रों के बराबर एक वृक्ष होता है-

*दश कूप समा वापी, दशवापी समोहद्रः।*
*दशहृद समः पुत्रो, दशपुत्रो समो द्रुमः।*
इस प्रकार वैदिक , जैन एवं बौद्ध आदि संस्कृत साहित्य में प्रकृति प्रेम और उसका संरक्षण महत्वपूर्ण है। भूमि को प्रदूषण से बचाने के लिए हरियाली को बढ़ाने की ओर संकेत किया गया है। नदियां प्रदूषण रहित हों, ऐसी उदात्त कामना की गई है। जल और वायु शुद्धि के लिए वनौषधि और यज्ञ को उपयुक्त माना है। शब्द की तारता, तीव्रता अथवा मंदता का प्रभाव पर्यावरण पर पड़ता है। संतुलित प्रयोग एवं मौन साधना तथा वाणी के संयम से किसी भी प्रकार की तीव्र ध्वनि का विस्तार रोका जा सकता है । अध्यात्म का परिपालन, भाषा और संस्कृति की सुरक्षा और तृष्णा पर अंकुश लगाकर ही पर्यावरण को बचाया जा सकता है। आज जरूरत है ऐसी तकनीक की जो प्रदूषण रहित हो। विनाश रहित प्रगति ही सही विकास है। आज पूरा विश्व पर्यावरण प्रदूषण पर चिंतन कर रहा है।

इसी अभिप्राय से आगामी ९से ११ नवंबर २०१९ तक छत्तरपुर मंदिर , नई दिल्ली में संस्कृत भाषा को मुकाम पर पहुंचाने वाली एक प्रमुख संस्था संस्कृत भारती ने विश्व सम्मेलन का आयोजन किया है जिसमें देश विदेश से लगभग १० हज़ार विद्वान् , प्रशिक्षक,वैज्ञानिक और विचारक उपस्थित होकर यह चिंतन करेंगे कि संस्कृत के माध्यम से पर्यावरण की तरह अन्य अनेक समस्यायों से कैसे निजात पाई जा सकती है । यह संस्था संस्कृत संभाषण के क्षेत्र में अद्वितीय कार्य कर रही है । आज की जो भी युवा पीढ़ी इस क्षेत्र में कुछ नया करने का जुनून रखती है वह इस सम्मेलन में सम्मिलित होकर मार्ग दर्शन प्राप्त कर सकती है । आज नहीं तो कल विश्व समाज को यह मानना ही पड़ेगा कि अपनी भाषा और साहित्य की उपेक्षा पर्यावरण जैसी अनेक बड़ी समस्याएं खड़ी करने वाली है ।अतः समय रहते हमने अपनी भाषाओं और साहित्य का सम्मान करना सीख लेना चाहिए ।हम आशा करते हैं कि आने वाली सदी प्रदूषण रहित पर्यावरण की सदी होगी।

(लेखक जैन दर्शन विभाग श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विद्यापीठ ,नई दिल्ली आचार्य एवं अध्यक्ष हैं)
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