Wednesday, April 24, 2024
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श्रीनिवास रामानुजम और गणित की पढ़ाई

प्रख्यात गणितज्ञ रामानुजम पर आधारित फिल्म को देखते हुए रामानुजम के साथ-साथ गणित, शिक्षण और अर्थशास्त्र आदि को लेकर आए ख्यालों को प्रकट कर रहे हैं अजित बालकृष्णन

हाल ही में जब मैं मुंबई के एक सिनेमा हाल से बाहर निकला तो मेरी आंखों में आंसू थे। मैंने वहां ‘द मैन हू सॉ इनफिनिटी’ नामक फिल्म देखी। यह फिल्म स्वाध्यायी गणितज्ञ श्रीनिवासन रामानुजम की कहानी पर आधारित है। मद्रास (अब चेन्नई) के रहने वाले रामानुजम मद्रास पोर्ट ट्रस्ट में क्लर्क थे। उनको सन 1914 में ट्रिनिटी कॉलेज कैंब्रिज में एडवांस मैथेमेटिक्स में शोध के लिए निमंत्रित किया गया। पांच साल बाद खराब स्वास्थ्य के कारण उनको भारत लौटना पड़ा और तपेदिक रोग के कारण उनका निधन हो गया। मैं वहां खड़ा रहा और अपनी आंखों में अचानक आ गए आंसुओं की वजह तलाश करता रहा। क्या ये आंसू इसलिए थे क्योंकि रामानुजम के मरते वक्त उनकी उम्र महज 32 साल थी। या फिर उनकी बीमारी और मौत की वजह से। जैसा कि फिल्म में दिखाया गया कि शाकाहारी रामानुजम उस देश में कुपोषण के शिकार हो गए जहां उस वक्त आलू के चिप्स तक पशुओं से बनने वाली वसा में तले जाते थे।

रामानुजम की कहानी ने मुझे दुखी क्यों किया और मैं आंसुओं में क्यों भीग गया इसकी वजह मेरे पास कई तरह के विचारों के रूप में आई। मेरे दुख की पहली वजह यह थी कि आज भी यानी रामानुजम के एक सदी बाद भी हमारे देश में शैक्षणिक और वैज्ञानिक कार्यों की मान्यता पश्चिम के प्रमाणन की मोहताज है। रामानुजम के समय यह काम ब्रिटिश विश्वविद्यालय करते थे और हमारे समय में अमेरिकी विश्वविद्यालय करते हैं। मेरे दुख की दूसरी वजह यह थी कि न केवल फिल्म में बल्कि जीवन के तमाम अन्य क्षेत्रों में गणित को लेकर एक किस्म के भय और विस्मय का माहौल निर्मित किया जाता है। गणितीय सक्षमता को ही जीवन की सबसे बड़ी क्षमता के रूप में पेश किया जाता है। मेरे दुख की आखिरी वजह यह थी कि मुझे अहसास हो गया कि रामानुजम की कहानी को हमेशा किस तरह पेश किया जाता रहा है। कहा जाता है कि वह स्वाध्यायी थे मानो कोई दैवीय कृपा थी उन पर। उनकी पढ़ाई में शिक्षकों और किताबों का कोई योगदान नहीं था।

अब जरा रामानुजम के स्वाध्यायी होने के संबंध में थोड़ी बात करते हैं। सच यह था कि रामानुजम कुछ वैसे ही थे जैसे आजकल के कॉलेज की पढ़ाई अधूरी छोड़ देने वाले बच्चे होते हैं। स्कूली स्तर पर गणित की पढ़ाई का अच्छा खासा आधार तैयार करने के बाद उन्होंने कुंभकोणम (सन 1854 में स्थापित) में सरकारी कॉलेज में दाखिला लिया। वहां से पढ़ाई अधूरी छोड़कर वह मद्रास के पचैयप्पा कॉलेज (सन 1842 में स्थापित) आ गए। लेकिन वह यहां से भी निकल गए। दूसरे शब्दों में कहें तो रामानुजम एक ऐसे माहौल में थे जहां गणित का अध्यापन फलफूल रहा था। उस वक्त रामानुजम ने जिन दोनों कॉलेजों में दाखिला लिया था वे तब से 50 साल पहले से अस्तित्व में थे। ऐसे में संदेह नहीं किया जा सकता है कि देश के उन इलाकों में गणित पढ़ाई जाती थी। मेरी मां की छोटी बहन ने सन 1950 में मद्रास विश्वविद्यालय में गणित का स्वर्णपदक हासिल किया था तो सेलम में मेरे नाना-नानी के घर कई दिनों तक इसका जश्न चलता रहा। हम बच्चों को भी कई सप्ताह तक घर में बनी आइसक्रीम खाने को मिली थी।

इतना ही नहीं जिस वक्त रामानुजम का जन्म हुआ। उस वक्त तक गणित के शिक्षण के तमाम औपचारिक तरीके भारत में कम से कम एक हजार साल से प्रचलन में थे। ऐलजब्रा यानी बीजगणित को गणितीय विचार का मूल माना जाता है। आठवीं सदी ईस्वी में अल किताब अल मुख्तार, फैसाब अल जब्र वाएल मुकाबला नामक पुस्तक की बदौलत गणित का ज्ञान पश्चिम तक पहुंचा। यह किताब बगदाद के शिक्षक और लेखक मुहम्मद इब्र मासा अल ख्वाजाअरिज्म ने लिखी थी जिसका शाब्दिक अर्थ है आकलन की किताब। एलगॉरिदम शब्द अल ख्वाजाअरिज्म का जबकि ऐलजब्रा अलजाबरा का अंग्रेजी रूप है। अल ख्वाजाअरिज्म की लिखी पुस्तक ऑन द कैलकुलेशन विद हिंदू न्यूमेरल्स को लैटिन में अलगोरिद्मी डी न्यूमेरो इंडोरम के नाम से अनुवाद किया गया। यहीं से गणित पश्चिम पहुंची।

मेरे दुख की अंतिम वजह थी आधुनिक जीवन में और फिल्म में गणित को लेकर दिखाया गया सम्मोहन। वर्ष 2008 के बाद से पूरी दुनिया जिस आर्थिक मंदी से जूझ रही है, जिसने अनेक देशों की हालत खस्ता कर दी है और कई लाख लोगोंं के रोजगार छीन लिए। इसके लिए सीधे तौर पर मॉर्गेज समर्थित प्रतिभूतियों और ऋण दायित्वों को जिम्मेदार माना जा सकता है। तमाम तार्किक नीति निर्माताओं तक ने इनकी भंगुरता पर विचार नहीं किया। उनकी गणितीय जटिलता ने तार्किकता को ध्वस्त कर दिया और बॉन्ड और प्रतिभूति विक्रेताओं को दुनिया भर में अरबों डॉलर मूल्य का माल बेचने का मौका मिला।

आधुनिक अर्थशास्त्री भी कई बार अपने सामान्य अनुमानों को जटिल गणितीय आवरण में लपेट देते हैं ताकि वे अधिक विश्वसनीय नजर आएं। अमेरिका के वर्जीनिया स्थित जेम्स मेडिसन विश्वविद्यालय में दर्शन के सहायक प्राध्यापक एल जे लेविनोविट्ज इसे एक नया खगोल विज्ञान करार देते हुए कहते हैं कि अर्थशास्त्रियों ने गणितीय मॉडलों को इस प्रकार तब्दील करके अर्थशास्त्र को उच्च भुगतान वाले छद्म विज्ञान में बदल दिया है। वह न्यू यॉर्क विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्री पॉल रोमर को उद्घृत करते हैं कि कैसे वृहद अर्थव्यवस्था एक सच्चे विज्ञान के रूप में आगे बढऩे से वंचित है और अर्थशास्त्रियों के बीच मौजूदा बहस उसी तरह निरर्थक है जिस तरह 16वीं सदी की वह बहस की धरती की धुरी पृथ्वी है या सूर्य। रोमर कहते हैं कि गणित अर्थशास्त्रियों को अपने विचार स्पष्टï करने में मदद कर सकती है। लेकिन इसके नकारात्मक पहलू भी हैं। यह उन लोगों के लिए बड़ी बाधा उत्पन्न कर देती है जो पेशेवर संवाद में शामिल होना चाहते हैं। इसके अलावा किसी के काम की लगातार निगरानी मुश्किल काम है।

अगर रामानुजम हमारे वक्त में होते तो उनका व्यक्तित्व भी किसी दरिद्र गणित शिक्षक से बहुत अलग होता। आज की दुनिया में सबसे अधिक वेतन डाटा विज्ञानियों का ही है। साथ ही सबसे अधिक मूल्यांकन उन स्टार्टअप का ही होता है जिनका कारोबारी मॉडल गणितीय रुझान पर आधारित है। शायद आज रामानुजम किसी अरबों डॉलर की स्टार्टअप या बहुत बड़े हेज फंड के मुखिया होते।

साभार- http://hindi.business-standard.com/ से

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