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एक नये जीवन की शुरुआत हो

आज दुनियाभर में जीवनशैली चर्चा का विषय बनी हुई है और इस पर ध्यान भी दिया जा रहा है। हाल ही में अनेक देशों की यात्रा के दौरान मैंने लाइफ स्टाइल पर बड़ी-बड़ी काॅन्फ्रेंस और सेमिनार में भाग लिया। इनदिनों मैं फिर अमेरिका की एक माह की यात्रा पर हूं, मेरे सामने यही प्रश्न प्रमुखता से लाया जाता है कि जीवनशैली को संतुलित कैसे किया जा सकता है। समूची दुनिया के लोग असंतुलित जीवनशैली को लेकर परेशान है और भारत की ओर देख रहे हैं कि कोई समाधान वहां से मिले। अन्तर्राष्ट्रीय योग दिवस से ऐसा महसूस किया गया है कि योग जीवन को संतुलित करने का सशक्त माध्यम है। मैंने देखा कि डाॅक्टर और स्वास्थ्य पर शोध करने वाले वैज्ञानिक यह निष्कर्ष दे रहे हैं कि आज बीमारियां इसलिए बढ़ रही हैं, क्योंकि जीवनशैली ठीक नहीं है। स्वास्थ्य को जीवनशैली के साथ जोड़कर देखा जा रहा है।

घरों का ढ़ांचा, शिक्षा स्वरूप, राजनीति की समझ, संबंधों का आकार, जीवन की गुणवत्ता, कार्यों की प्राथमिकता, समाज से जुड़ाव के प्रकार, खानपान- यानी जीवन का हर आयाम बीमार है। चिकित्सा की आवश्यकता है, व्यक्ति को भी और समाज को भी। एक नये मन के निर्माण की जरूरत है, एक नयी जीवनशैली को अवतरित करना होगा। सदाचार और भ्रष्टाचार की विचारणा करने वाले कह रहे हैं कि भ्रष्टाचार की समस्या इसलिए सर्वव्यापी बन रही है, क्योंकि जीवनशैली ठीक नहीं है।

जन्म और मरण मनुष्य जीवन की स्वाभाविक प्रक्रिया है। श्वास के साथ जीवन की यात्रा शुरू होती है और श्वास के साथ ही जीवन की समाप्ति हो जाती है। जीवन जीना एक बात है और उत्तम जीवन जीना बिल्कुल दूसरी बात है। एक अनपढ़ और अज्ञानी आदमी भी जीता है और पढ़ा-लिखा ज्ञानी आदमी भी जीता है। पापी भी जीता है, पुण्यात्मा भी जीता है लेकिन इनके जीवन में पर्याप्त अंतर देखा जा सकता है। जहां तक जीवन के उद्देश्य की बात है, वह एक नहीं अनेक हो सकते हैं। एक-एक दिन का उद्देश्य हो सकता है। किन्तु समग्रता से देखें तो एक वाक्य में कह सकते हैं जीवन का उद्देश्य है विकास करना।

फिर प्रश्न हो सकता है-विकास किस दिशा में? क्या शरीर की दिशा में? यह तो कोई विकास नहीं हुआ। लोगों का मोटापा देखकर तो लगता है कि शरीर का विकास तो बहुत हो रहा है, जो स्वयं में एक बीमारी बन रहा है, एक बड़ी समस्या खड़ी कर रहा है। मानसिक विकास भी महत्वपूर्ण है, किन्तु यह भी एकांगी नहीं होना चाहिए। जितना भी वैज्ञानिक विकास हुआ है, वह मानसिक विकास और तेज बुद्धि की ही देन है, किन्तु मानसिक विकास ने समस्याएं भी बहुत खड़ी की हैं।

जीवन की धूप-छांह और आंख मिचैनी के यथार्थ को हम समझें। इस परिवर्तनशील जगत की वास्तविकता को समझें और स्वयं को उसके लिए मानसिक रूप से तैयार करें। धर्म और अध्यात्म की चेतना से जन-जन को जोड़ना होगा, उन्हें भविष्य के अनावश्यक बोझ से स्वयं को मुक्त करना होगा। जब जिंदगी सही चल रही होती है तो हर चीज आसान लगती है। वहीं थोड़ी सी गड़बड़ होने पर हर चीज कठिन। या तो सब सही या सब गलत। संतुलन बनाना हमारे लिए मुश्किल होता है। लेखक जेम्स बराज कहते हैं, ‘आज में जिएं। याद रखें कि वक्त कैसा भी हो, बीत जाता है। अपनी खुशी और गम दोनों में खुद पर काबू रखें।’

असल में विकास हमें अपनी भीतरी शक्तियों का करना होगा। आध्यात्मिक शक्तियों का विकास करना होगा। भीतर निहित प्राणशक्ति का विकास होगा तो शरीर को भी ऊर्जा मिलेगी। हम स्वस्थ होकर जी सकेंगे। रोग-प्रतिरोधक शक्ति का विकास हो गया तो हम पूर्ण स्वस्थ जीवन जी सकेंगे। जीवन में व्यस्त रहना अच्छी बात है, लेकिन अस्तव्यस्त नहीं। व्यक्ति अगर स्वयं को समझ नहीं रहा है या अपने बारे में नहीं सोच रहा है अथवा वह अपनी क्षमताओं व सीमाओं से अवगत नहीं है। वैसे कार्य कर रहा है जिनसे बेहतर करने की सामथ्र्य उसके अंदर है तो यह जीवन की एक बड़ी विडम्बनापूर्ण स्थिति है। हर व्यक्ति इसका शिकार है। कहा जा सकता है कि हर व्यक्ति केवल सांसारिक चीजों की ओर आकृष्ट है। वह निजी हितों और स्वार्थों में दौड़ रहा है। अपने लाभ के लिए जायज-नाजायज कार्य कर रहा है। इस तरीके से जीवन जीने वाले भ्रमित हैं। ऐसे भ्रम, जीवन में एक बार प्रविष्ट होने के बाद पिछा नहीं छोड़ता। अंतिम सांस तक वे मनुष्य को घेरे रहते हैं। एक तरह से वे जीवन की तमाम सरसता को ही लील लेते हैं।

जीवन में धूप-छांह, हर्ष-विषाद, उतार-चढ़ाव का क्रम चलता रहता है। जीवन की विषम स्थितियों में समस्याओं एवं झंझावतों को झेलने में वही समर्थ होता है, जिसकी जड़ें गहरी हैं। हर आदमी को यह चिंतन करना है कि जड़ मजबूत कैसे हो? केवल पत्तों पर, फूलों पर इतराएं नहीं। ऊपर की ऊंचाई ही नहीं, नीचे की गहराई भी अपेक्षित है। लेकिन प्रकृति का नियम कुछ ऐसा है कि कुछ आंखों के सामने आता है और बहुत कुछ आंखों से ओझल रहता है। फूल, पत्ते और फल तो दिखाई देते हैं, जड़ दिखाई नहीं देती। जो दिखाई देता है, उसकी तो पूछ-परख होती है, जो दिखाई नहीं देता, छिपा रहता है, उसके कोई पूछता भी नहीं।

जो व्यक्ति वर्तमान में नहीं जीता है, बल्कि आने वाले भविष्य में अधिक जीता है, भविष्य को देखता है, वह अनावश्यक ही संकटों से और आपदाओं, विपदाओ से घिरा रहता है। इसलिये वर्तमान में जीना अनेक समस्याओं का समाधान है। आगे-पीछे, अच्छा-बुरा, कम ज्यादा.. ऐसे कई शब्द हैं, जो हमें चैन से बैठने नहीं देते, वर्तमान में जीने नहीं देते। इन शब्दों को जितना तवज्जो देते हैं, उतना ही दूसरों के बनाए जाल में उलझते जाते हैं। जबकि सच यह है कि हर व्यक्ति की अपनी क्षमताएं होती हैं और अपने हालात। ना ही हम अपने हालात से भाग सकते हैं और ना ही मुंह मोड़ सकते हैं। ऐसे हालात में जीवनशैली को संतुलित कैसे किया जा सकता है? दूसरों से आगे निकलने की होड़ बनी ही रहती है। पीछे रह जाने का दुख सालता रहता है और इस तरह आगे बढ़ने या फिर से वापसी की हमारी कोशिश कई उम्मीदों का बोझ साथ लिए चलती है। हमारी यात्रा में बोझ जितना ज्यादा होता है, चाल उतनी ही धीमी हो जाती है। लियॉन ब्राउन ने कहा है कि जिस दिन आप भविष्य की चिंता करना बंद कर देंगे, वह आपके नए जीवन का पहला दिन होगा। व्याकुलता आपको चक्रों में फंसा देती है, खुद पर भरोसा रखें और आजाद हो जाएं।

जीवन में कुछ लोग आते हैं और कुछ लोग बिछुड़ जाते हैं। कुछ प्रेम में पड़ते हैं और कुछ प्रेम की राह छोड़ देते हैं। कुछ लोगों को उपहार मिलते हैं तो कुछ लोगों को नई चुनौतियों का सामना करने को मिलता है। कोई दिन बेहतर जाता है तो कोई बेहद खराब। पर हर दिन नई शुरुआत करनी चाहिए- नई सोच, नई ऊर्जा, नए विचारों, नए लक्ष्यों और नए संकल्पों के साथ। बीते अनुभव से सीख लें और आगे बढ़ जाएं। तभी जीवनशैली की विसंगतियों को दूर किया जा सकेगा। तभी जीवन जीने लायक बन सकेगा।

प्रेषक- आचार्य लोकेश आश्रम,
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