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सुधीर चौधरी ने डीएनए को डीएनए कैसे बनाया

हिंदी न्यूज चैनल ‘जी न्यूज’ का कार्यक्रम ‘डीएनए’ दर्शकों के बीच बेहद ही लोकप्रिय है। प्राइम टाइम के इस शो को चैनल के एडिटर ‘सुधीर चौधरी’ पेश करते हैं। वैसे इस शो की खासियत भी है कि जब प्राइम टाइम पर बाकी हिंदी न्यूज चैनल एक मुद्दे पर पैनल चर्चा में व्यस्त रहते हैं, तो ऐसे में सुधीर चौधरी अपने इस शो के जरिए दिन की बड़ी खबरों से न सिर्फ दर्शकों को रूबरू कराते हैं, बल्कि हर खबर का पूरा विश्लेषण भी पेश करते हैं।खास बात ये है कि ये शो अब डेढ घंटे का है यानी रात 9 बजे से 10.30 तक। ये बड़ी चुनौती है क्योंकि इस जोनर के बाकी नए शो सिर्फ एक घंटे के होते हैं।

समाचार4मीडिया के संपादकीय प्रभारी अभिषेक मेहरोत्रा और संवाददाता विकास सक्सेना ने जब ‘डीएनए’ शो का डीएनए टेस्ट करने के लिए जी न्यूज के एडिटर और शो के एंकर सुधीर चौधरी से बात की, तो उन्होंने इसके पीछे के संघर्ष पूरी कहानी बताई कि कैसे इस शो की शुरुआत हुई, कैसे इस शो का नाम ‘डीएनए’ रखा गया और इसके पीछे काम करने वाले पूरी टीम में कितने लोग काम करते हैं और उनकी कितनी मेहनत है?

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कैसे बना ‘डीएनए’ शो?

सुधीर चौधरी ने बताया कि ‘डीएनए’ शो की शुरुआत उनके जी समूह में आने के बाद हुई। उन्होंने बताया, ‘जब मैं यहां आया तो मुझ पर बहुत अधिक दबाब था कि मैं कोई प्राइम टाइम शो करुं, क्योंकि अन्य चैनलों के कुछ एडिटर्स कुछ न कुछ प्राइम टाइम शो करते हैं, लेकिन तब मुझे यह समझ नहीं आ रहा था कि मैं क्या शो करुं?

वैसे भी मैं उन कैंप्टंस में से नहीं हूं तो फील्ड में स्टाफ उतार दें और खुद डेस्क पर जमकर बैठे रहें। उस समय डिबेट का ही दौर था, पर मुझे लगा कि डिबेट में हम कोई निष्कर्ष तक नहीं पहुंचते हैं तो एक और डिबेट शो शुरू करने से क्या फायदा होगा और रुटीन न्यूज बुलेटिन शुरू करना भी ठीक नहीं लगा, जिसमें दिन की बड़ी खबरें विश्लेषण के साथ दिखाई जाए। कई शो विश्लेषण शब्द का प्रयोग तो करते हैं, लेकिन सही मायने में विश्लेषण होता नहीं है और ये वो समय था, जब मैं पूरा देश घूम रहा था। फिर मैंने वकीलों से, दोस्तों से, अंग्रेजी बोलने वाले तथाकथित ओपिनियन मेकर्स से और आम दर्शकों से भी बात की, या यूं कहें कि साइंटिफिक तरीके से मैंने स्टडी करना शुरू किया। मैं देश के हर हिस्से में हर वर्ग चाहे स्टूडेंट हो या बुजुर्ग, महिला हो या युवती, धोबी हो या किसी भी पार्टी का अदना कार्यकर्ता, झुग्गी-चाल में रहने वाला हो या थ्रीबीएचके का मालिक। हॉकर हो या सेल्समैन, कुरियर बॉय हो या मैकेनिक, सबसे मिलकर देश की धड़कन समझनें में जुटा रहा।

उस समय चैनलों पर सबसे बड़ी समस्या ये होती थी कि वे सिर्फ बड़े शहरों के बारे में बात करते थे जैसे- दिल्ली, मुबंई, क्योंकि ये टीआरपी जोन में है और यहां की खबरों को वेटेज ज्यादा मिलती है। वैसे तो सबकुछ टीआरपी पर ही निर्भर करता है, इसलिए आपके शहर को उतनी तवज्जों नहीं मिलती, जितनी कि टीआरपी चार्ट में शामिल शहरों और राज्यों का वेटेज है, चैनलों पर दिल्ली-मुंबई की खबरें सबसे ज्यादा होती है, क्योंकि इनमें वेटेज है। तब लोगों ने मुझसे सवाल किया कि क्या हम दिल्ली-मुंबई में नहीं रहते तो हमारी कोई समस्या नहीं है। तो उस स्टडी टूर के दौरान मैं दिल्ली के अलग-अलग परिवारों से मिला, फिर मैं मेरठ गया और फिर हापुड़, क्योंकि मैं चाहता था कि अपने स्टडी टूर में एक मेट्रो सिटी को शामिल करूं, उसके बाद सैटेलाइट सिटी और फिर शहर से सटे एक गांव को। ताकि ये जान सकूं कि ये सभी लोग कैसा सोचते हैं। इसके बाद मैंने यही रणनीति महाराष्ट्र, बंगाल, मध्य प्रदेश, उड़ीसा जैसे कई राज्यों में भी अपनाई। दरअसल यह इस तरह का पहला एक्सपेरिमेंट था। इससे पहले किसी चैनल के एडिटर और उनकी टीम ने नहीं किया था।

दरअसल इस स्टडी टूर की सबसे खास बात ये थी कि जब मैं इसे कर रहा था तो हमारे चेयरमैन सुभाष चंद्रा जी ने मुझसे कहा मैं भी आपके साथ स्टडी टूर पर चलूंगा, ताकि मैं भी देख सकूं कि लोग क्या चाहते हैं। इस तरह से बहुत सारे स्टडी टूर्स में वे भी हमारे साथ थे। फिर जब हम सारा ज्ञान लेकर आए तो इसके बाद हमने इस पर काम शुरू किया और उसमें जो निकलकर सामने आया वो आज का ‘डीएनए’ में दिखाई देता है।

उन्होंने आगे कहा, ‘इस प्रोसेस के दौरान जो चीज पहले सामने निकलकर आई, वह थी कि चैनलों के लिए देश के सभी नगारिक समान नहीं है और दूसरी ये कि चैनलों पर आम लोगों के काम की खबर नहीं आती। इस दौरान लोगों ने मुझे उदाहरण देकर भी समझाया कि चैनल पर आप ये तो दिखाते हो कि एक आतंकवादी मारा गया। उसके बारे में ये तो दिखाते हो कि वो कहां से आया, उसके पास कौन से हथियार और कौन सा आरडीएक्स इस्तेमाल हुआ था, लेकिन आप आम आदमी को ये नहीं बताते थे, कि उन्हें क्या एहतियात बरतनी है।’

शो का नाम ‘डीएनए’ क्यों पड़ा?

सुधीर चौधरी ने बताया, ‘डीएनए पहले से ही हमारा एक ब्रैंड है और यह हमारे चेयरमैन सुभाष चंद्रा का आइडिया था कि शो का नाम यही हो सकता है। उन्हें ‘डेली न्यूज ऐंड एनैलेसिस’ नाम पसंद है। लेकिन जब मैं इस नाम पर स्टडी कर रहा था तो जो ‘एनैलेसिस’ यानी विश्लेषण शब्द जो है, उसके बारे में सब जगह से यही पता चल रहा था कि ‘एनैलेसिस’ यानी विश्लेषण शब्द का इस्तेमाल तो होता है, लेकिन सही मायने में विश्लेषण होता नहीं है। फिर मैंने ‘विश्लेषण’ शब्द पर काम किया और आम आदमी से उसके हिसाब से ‘विश्लेषण’ में क्या देखना चाहते हैं ये जानने की कोशिश की। ‘डीएनए’ अगर अंग्रेजी शब्द के नाम से सोचो तो यह मुश्किल लगता है, लेकिन हर व्यक्ति उसे डीएनए टेस्ट के नाम से जरूर जानते है। इसलिए हमें लगा कि हम इस शब्द का इस्तेमाल ऐसे करते हैं कि खबरों का डीएनए टेस्ट होगा। अंग्रेजी शब्द के अनुसार यह मुश्किल है लेकिन जब हम कहते हैं कि इस खबर का डीएनए टेस्ट होगा, तो निन्न वर्ग का व्यक्ति भी समझ जाता है कि आप क्या कहना चाहते हैं और इसीलिए मैं अपने शो भी यही कहता हूं कि आज हम इस खबर का डीएनए टेस्ट करेंगे, ताकि आम आदमी को भी समझ में आ जाए।

‘डीएनए’ में किन-किन खबरों को मिलती है प्राथमिकता?

डीएनए में आम आदमी से जुड़ी खबरों को प्राथमिकता दी जाती है। उदाहरण देते हुए कहा कि घर में काम करने वाली भी यह जानना चाहती थी कि मैं अपने बच्चे को वजीफा कैसे दिला सकती हूं, अपने बच्चे को स्कूल में कैसे पढ़ा सकती हूं, मुझे कैसे पता चलेगा कि सरकार ने मेरे लिए क्या योजनएं बना रखी हैं?

आज किसी भी चैनल को, किसी भी पत्रकार को जब वो प्राइम टाइम कर रहा होता है तो उसके लिए तीन-चार चीजें सबसे जरूरी होती है। पहली चीज- चैनल पर लाल पट्टी वाली ब्रेकिंग न्यूज आती रहनी चाहिए, ओबी वैन से लाइव टेलिकास्ट होना चाहिए, लाइव गेस्ट या लाइव रिपोर्टर होना चाहिए और खिड़कियों में अलग-अलग लोग होने चाहिए। लेकिन ‘डीएनए’ की खासियत है कि इस शो के बीच हम कोई भी ब्रेकिंग न्यूज नहीं चलाते, क्योंकि अन्य चैनल पर बड़ी-बड़ी लाल पट्टी में हर समय ब्रेकिंग न्यूज चलती है, लेकिन सही मायने में वह ब्रेकिंग न्यूज होती नहीं है। इसलिए ‘डीएनए’ के समय यानी 9-10.30 में न तो ब्रेकिंग न्यूज चलती है, न ही कोई इंटरव्यू होता है, न ही लाइव होता है, न ही ओबी वैन का इस्तेमाल होता है। डीएनए अधिकांश ऐसी स्टोरी भी चलती हैं जिनसे नेताओं की बाइट से कोई लेना-देना नहीं होता।

यही वजह है कि पिछले तीन सालों यानी 2014 से डीएनए हर बार (कभी-कभार नहीं भी) नंबर-1 प्राइम टाइम शो रहा है।

शुरुआती दौर में कितना मुश्किल रहा एक नया शो लाकर उसे ब्रैंड बनाना?

शुरुआत में सभी ने इसे रिजेक्ट कर दिया, यहां तक मेरी अपनी ही कंपनी में भी कई लोगों ने इसे रिजेक्ट किया। सभी ने कहा ये शो बहुत ही बोरिंग है, इसे कौन देखेगा? ये NGOs शो है। कई लोगों ने कहा कि बीबीसी पर ये शो होता तो चल जाता, लेकिन इंडिया में ये नहीं चलेगा। शुरुआती दौर में इस शो का रिस्पॉन्स भी कुछ ऐसा ही रहा। एक महीने तक कोई रिस्पॉन्स नहीं आया। 9 बजे से पहले शो ‘नॉन स्टॉप’ की रेटिंग अच्छी थी, लेकिन बाद में इस प्रोग्राम के स्पॉन्सर्स ने ‘डीएनए'(DNA) के शो के दौरान दिखाए जाने वाले विज्ञापन यह कहते हुए वापस ले लिए, कि यह धीमा शो है और रेडियो जैसा लगता है। इसके बाद मैंने इसे एक चैलेंज की तरह स्वीकार किया और हर दिन पिछले दिन से बेहतर करने की कोशिश करता हूं।बतौर एडिटर यदि मेरा शो फ्लॉप हो जाए, तो मेरे लिए ये बहुत ही खराब बात थी। उस दौरान मैंने बहुत बड़ा रिस्क लिया और ये मेरे लिए खुशी की बात है कि मेरा इस रिस्क ने पूरी मीडिया इंडस्ट्री की सोच प्राइम टाइम को लेकर बदल दी है ।

जब मैंने ये शो शुरू किया तो टीआरपी एक्सपर्ट्स ने हमें ये बताया कि आप 35 साल से ऊपर आयु वर्ग के पुरुषों पर ही फोकस करो, युवाओं और महिलाओं पर नहीं, क्योंकि वे न्यूज देखना पसंद नहीं करते। लेकिन तब मैंने सोचा कि ऐसा क्यों हैं? युवा और महिलाएं न्यूज क्यों नहीं देखती। मैंने इसे समझने की कोशिश की। फिर मैं कई महिलाओं और युवाओं से मिला और उनके मुताबिक खबरों को भी हमने ‘डीएनए’ में लेने की कोशिश की, जिसका परिणाम ये रहा कि ‘डीएनए’ अब पहला फैमिली शो बन गया है। इसकी पॉपुलैरिटी की वजह से ही इसे अब एक घंटे से बढ़ाकर डेढ़ का कर दिया गया है।

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शो की टीम में कितने सदस्य हैं और इसके पीछे उनकी कितनी मेहनत है?

इस शो के लिए मैंने एक यंग टीम तैयार की, जिनकी उम्र बहुत अधिक नहीं है और न ही उन्हें कहीं भी काम करने का अनुभव था। मेरे टीम के प्रड्यूसर सिद्धार्थ त्रिपाठी, जोकि पढ़े-लिखे हैं। एडिटोरियल समझते हैं और टेक्नोलॉजी में भी मास्टर है। उसे मैंने टीम का हेड बनाया। ये टीम चार लोगों की है। हालांकि यहां रिसर्च टीम अलग से है, फिर भी ये टीम आधी रिसर्च खुद ही करती है। सबसे बड़ी बात है हमारी रिसर्च गूगल से नहीं होती। हमारी टीम दूसरे न्यूज चैनल नहीं देखती। ऑफिस टाइम में मोबाइल से दूर रहती है। ऐसा इसलिए क्योंकि हम दूसरों के फॉरमैट या खबरों की प्रायरिटी से प्रभावित होना नहीं चाहते हैं, और हमारा ये रणनीति कितनी कामयाब है, यै डीएनए का परफॉर्मेंस खुद बयां कर रहा है।

साभार – http://samachar4media.com/ से