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कार्यपालिका की प्रधानता

संसदीय शासन प्रणाली में विधायिका और कार्यपालिका का विलयन होता है अर्थात कार्यपालिका विधायिका( संसद) के प्रति उत्तरदाई एवं जवाबदेह होती है। संसदीय शासन प्रणाली के अंतर्गत विधायिका कार्यपालिका पर विभिन्न साधनों से नियंत्रण स्थापित करती है। विधायिका का मौलिक कर्तव्य है कि वह सरकार( कार्यपालिका) के कामों पर निरीक्षण और संतुलन रखें; विधायिका कार्यपालिका से सरकारी कामकाज का लेखा-जोखा प्राप्त करती है; क्योंकि कार्यपालिका विधायिका( लोकसभा )के प्रति उत्तरदाई होती है।

संसद( सर्वोच्च पंचायत एवं विमर्श का केंद्र) को मुक्त और चर्चा का मंच बना रहना चाहिए । लोकसभा और राज्यसभा के सभापति से आशा की जाती है कि वे सदस्यों को अनुशासित करने के बजाय संसद की गरिमा और महिमा को बनाए रखने का प्रयास करें।

संसदीय लोकतंत्र की सफलता विधायिका की प्रबलता होती है; क्योंकि विधायिका जनप्रतिनिधित्व का मंच है। बदलते परिवेश में, संविद सरकारों के निर्माण, प्रचंड बहुमत के कारण विधायिका कार्यपालिका से निर्बल होती जा रही है; जिसके उत्तरदाई कारण है।
1. विधायकों का गिरता संसदीय चरित्र/ विधाई चरित्र;
2. विधायिका में तकनीकी प्रक्रिया को आत्मसात करने में दिक्कत;
3. विधायकों का अस्थिर व्यक्तित्व;
4. राजनीतिक आभार में गिरावट ;
5.रचनात्मक विपक्ष की कमी;
6. सदनों में उपस्थिति राष्ट्रीय औसत से कम;
7. संसदीय क्षेत्रों से संबंधित समस्याओं को कम उठाना;
8. धन ,बल एवं राष्ट्रीय सोच की कमी;
9. दल- बदल का प्रभाव।

कुछ बड़े लोकप्रिय नेता तर्क देते हैं कि वह सीधे जनता के प्रति जवाबदेही एवं उत्तरदाई; लेकिन कोई भी नेता (लोकप्रिय/अलोकप्रिय ) विधायिका (लोकसभा) के प्रति उत्तरदाई होता है ।जनता सरकार को भी अपने प्रतिनिधियों के माध्यम से ही अपने राजनीतिक आभार को याद दिलाती है। लोकतांत्रिक प्रक्रिया की सुरक्षा के लिए सरकार को संसदीय अधिकारों का दुरुपयोग ना करते हुए एवं अपनी जवाबदेही दिखानी चाहिए ।इन्हीं पहलुओं के द्वारा लोकतंत्र को सफल बनाया जा सकता है।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)