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स्वदेशी का अर्थ देशज होना हैं

हमारी लोक समझ हमें सिखाती हैं जो देशज है,स्थानीय हैं ,वे देशी है।इस तरह लोक मान्यता अनुसार स्वदेशी का अर्थ विदेशी नहीं होना न होकर, देशज होना हैं क्योंकि की कोई स्वदेशी होकर भी भौतिक जीवन के हर रुप रंग और ढंग से पूरी तरह विदेशी याने परावलम्बी होते हैं।जो विदेशी न होकर स्थानीय हैं,मूल जड़ों के आसपास है,लोक समाज में पले, बढ़ेऔर खड़े हैं वेसब देशी है।देशी रहन सहन खानपान मेलमिलाप, बातचीत सोच विचार ,हर मामले में देशज।जमीन के अंदर जिनकी गहरी जड़ें होती हैं।स्वदेशी कोई उथलीऔर संकीर्ण अवधारणा नहीं हैं।व्यक्ति और समाज के मन और तन की ताकत से पूरी तरह से जुड़ कर निरन्तर हिलमिल कर जीते रहने का नाम हैं स्वदेशीभावना। स्वदेशी का अंकुरण स्वावलम्बन की आधारभूमि पर होता हैं।जिस व्यक्तिऔर समाज का जीवन और आचरण स्वावलम्बन को नहीं मानता तो उसकी स्वदेशी सिर्फ जबानी जमा खर्च के हल्ले से ज्यादा कुछ नहीं हैं। स्वदेशी मेरे तेरे का संकीर्ण दर्शन न होकर सारी दुनिया में स्थानीय समाज का जीवन कौशल हैं।

स्वदेशी का मतलब हर मनुष्य को जहां वह निवास करता हैं,अपने आसपास के क्षेत्र में ही गरिमामय रुप से स्वावलम्बन के साथ बराबरी से जीने के साधन और संसाधनों की उपलब्धता।स्वदेशी का यह संकीर्ण भाष्य माना जायेगा की कोई उत्पाद देश में बना हैं। देश के लोगों के जीवन जीने के साधनों पर मनमाना एकाधिकार कर तथा हाथ से उत्पादन कर जीनेवाले देशज लोगों को रोजगारविहीन बनाकर उत्पादित वस्तु या उत्पाद को स्वदेशी की कसौटी पर खरा नहीं माना जा सकता।स्वदेशी का अर्थ सबको इज्जत़ और सबको काम देना हैं स्थानीय संसाधनों से काम करने वालों के काम के अवसरों को खत्म करना नहीं।इस तरह स्वदेशी के मूल में मानव मात्र को अपने साधनों से स्थानीय आवश्यकतानुसार उत्पादन और वितरण में आजीवन सहभागिता करते रहने का दर्शन हैं।

स्वदेशी की अवधारणा मानव मात्र के कल्याण को लेकर हैं सबको जीवन जीने का अधिकार हैं पर किसी और के जीने के अधिकार को छीने बगैर।याने हम भी गरिमामय रुप से जीवन जीयेंगे और दूसरों को भी उतनी ही गरिमा से जीवन जीने का अवसर देगें ।जो हम हमारे लिये चाहते हैं,वहीं दूसरे को भी उसके देशज प्रयासों से मिले यह हैं स्वदेशी का मूल सिद्धांत, स्वदेशी का अर्थ न्यायपूर्ण स्वावलम्बी जीवन प्रणाली जो एक दूसरे का हर मामले में पूरा पूरा ख्याल रखें।स्थानीय कौशल एक तरह से जैव विविधता की तरह ही हैं।वैसे देखा जावे तो दुनिया का हर इंसान दूसरे से भिन्न होता है।बोलचाल से लेकर स्वभाव और काम करने के ढंग में भी।फिर भी एक स्थानीय समाज में जो विशषतायें होती हैं वे सब मिलकर उस इलाके के लोगों को अभिन्न बनाते हैं,यह अभिन्नता ही देशज होना या स्वदेशी की मूल भावना हैं।भारत में लोकमानस की सामान्यतः धारणा यह हैं कि उनका मूल गांव ही उनका देश हैं।तभी तो लोग अपने गांव जब जाते हैं तो कहते हैं देश जा रहे हैं।देश याने स्थानीय लोगों का मूल गांव।

स्थानीय लोगों के मूल साधन जिससे जीवन यापन का आधार खड़ा हैं । पहला साधन हैं मन और तन की ताकत और मनुष्य और पशु की ताकत से चलने वाले रोजगार मूलक खेती किसानी और स्थानीय हाट बाजार और हस्तशिल्प के साथ ग्रामीण जरूरतों को पूरा करने वाली उत्पादन प्रक्रिया का स्थानीय तंत्र जो स्थानीय समझ और साधनों पर अवलम्बित हो।यह सब कोरी कल्पना नहीं हैं यह सब सारी दुनिया में था,और यह सब दुनिया में कहीं कहीं आज भी मौजूद हैं।

बिजली और डीज़ल पैट्रोल आधारित जीवन तंत्र ने स्वदेशी के ताने बाने को ही उलट पुलट दिया और हमारी स्वदेशी की अवधारणा का स्वावलम्बन और स्थानीय समाज एकाएक बदल गया हैं।आज स्वदेशी मेरे तेरे का विवाद बनती जा रही हैं एक दूसरे का बहिष्कार और तिरस्कार की सुविधानुसार रणनीति होती जा रहीं हैं।स्वदेशी में न तो शोषण को जगह हैं नसंग्रहवृति को बढ़ावा हैं ,आवश्यकता से न तो कम और न ज्यादा स्वदेशी के उत्पादन और वितरण का मूल विचार हैं।

किसी देश में अन्याय,शोषण,लूट और लोगों का बना-बनाया स्वरोजगार समाप्त कर भले ही हमारे ही देश के लोग हमारे ही देश में वह उत्पादन करें तो वह स्वदेशी की मूल अवधारणा से उलट बात होगी।स्वदेशी याने जो विपन्न को उपर उठावे, मतलब रोजगार दे और स्थानीय स्तर पर स्थानीय संसाधनों पर ही जीते रहने का अवसर बनाये रखें।स्वदेशी का यह भाष्य कभी नहीं हो सकता की उत्पादन तो केन्द्रीकृत रुप से देश में ही हो पर नतो लोगों को काम मिले और उनका स्थायी रोजगार भी हमेशा हमेशा के लिये खत्म हो जावे।इस तरह स्वदेशी मूलत:विपन्न से विपन्न व्यक्ति को स्थानीय साधन और प्रयासों से निरन्तर सम्पन्न बनाये रखने का सतत और सरलतम उपाय हैं जिसे स्थानीय समाज हिलमिल कर अपने लोकसमाज और संसाधनों से निरन्तर पूरा करता रहे।स्वदेशी महज आपसी आर्थिक व्यवहार नहीं होकर लोकसमझ और लोकसहयोग से उत्पादन वितरण और आवश्यकता से अधिक का उपयोग न करने की मूल भावना का व्यक्तिश:और सामूहिक आचरण हैं।

स्वदेशी के आध्यात्मिक स्वरूप को समझे तो प्रकृति ने हमसब को जीवन को सहजता से साकार स्वरूप में जीने के लिये जो देह जीवनाधार स्वरूप प्रदान की है वह हमारे जीवनकाल तक का हमारा देश हैं।इस तरह हम सब अपनी भौतिक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये अपने शरीरश्रम से जो भी वस्तु उत्पादित स्वयं अपने या परिवार या समाज के लिये करते हैं वह मूलत:स्वदेशी का साकार स्वरूप हैं।हमने अपनी देह को अपना देश माना तो देह के रक्षण,पालन पोषण,आरोग्य और संवर्द्धन का संपूर्ण प्राथमिक उत्तरदायित्व भी देह का ही होगा।जैसे प्रकृति ने धरती के हर हिस्से में प्राणीमात्र की भोजन की जरूरत की सभी वस्तुओं का प्राकृतिक चक्र धरती में ही साकार कर रखा हैं।धरती के किसी भी प्राणीमात्र की जीवन की जरुरत के लिये किसी अन्य ग्रह से सामग्री नहीं बुलानी होती हैं।वैसे ही अपनी अपने परिवार और समाज की जीवन की जरूरतों को अपनी समझ और अपने शरीर श्रम से पूरा करते रहना स्वदेशी की सहज समझ और आचरण हैं।

हमारी देह हमारा देश हैं और हमारा मन हमारा जगत है।इसी से दार्शनिक और अध्यात्मिक दृष्टि से हमारी बुद्धि,दृष्टि या चिन्तन जागतिक स्वरूप में प्रगट होनी चाहिये।जागतिक चिन्तन और शरीरश्रम आधारित जी्वन ही स्वदेशी की मूल आत्मा हैं।भाषण वाली स्वदेशी और आचरण वाली स्वदेशी के भेद को मन में समझेंगे तो स्वदेशी की जगतिक विराट शक्ति से हम एक रूप होगे।साथ ही तेरे मेरे की संकीर्ण प्रतिस्पर्धा में हम पड़ेगें ही नहीं।देश और विश्व के अनुपात और मात्रा की समझ को जानना चाहिये हैं।जो देशज हैं वहीं विराट स्वरूप में वैश्विक है।जो वैश्विक हैं वह सू‌क्ष्म स्वरूप में देशज हैं।मन और देह की सूक्ष्मता और विराटता में हमारी जीवन की ऊर्जा का सनातन चक्र समाया है जिसे अपने जीवन भर आचरण में निरन्तर जीते रहना ही स्वदेशी का प्राणतत्व हैं।जिसे जानना और प्राणप्रण से मानना ही जीवन जीने का प्राकृतिक, स्वावलम्बी, जीवन्त, सहज, शान्त और आनन्दायी उपाय हैं।

अनिल त्रिवेदी
अभिभाषक और स्वतंत्र लेखक
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