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हिन्दू हाथों में इस्लाम की तलवार

कश्मीर में जो नरसंहार हुआ उसका अपराधी केवल यासीन मलिक नहीं है। इसके साथ वे सैंकड़ों बौध्दिक आतंकी हैं जिन्हें दुनिया एक्टिविस्ट कहती है। ये सब लोग आराम का जीवन जी रहे हैं। इनको शायद ही कभी कोई सजा मिले।

JNU के टुकड़े टुकड़े गैंग जब बोलता है कि मकबूल ने मांगी आजादी तब वे संविधान का मजाक उड़ाते हैं। जब आतंकवादी के लिए आधी रात को कोर्ट खुलता है तो लगता है कि न्याय व्यवस्था इनकी रखैल है।

बादशाह अकबर के समय मुहावरा शुरू हुआ: ‘हिन्दू हाथों में इस्लाम की तलवार’। तब जब अकबर ने राजपूतों से समझौता कर अपने साम्राज्य के बड़े पदों पर रखना शुरू किया। जिन राजपूतों ने चाहे-अनचाहे पद लिए, उन्हें अकबर की ओर से हिन्दू राजाओं के विरुद्ध भी लड़ने जाना ही होता था। सो, जिस इस्लामी साम्राज्यवाद के विरुद्ध हिन्दू पिछली आठ सदियों से लड़ते रहे थे, उस में पहली बार विडंबना तब जुड़ी जब इस्लाम की ओर से लड़ने का काम कुछ हिन्दुओं ने भी उठा लिया।

वह परंपरा अभी तक चल रही है, बल्कि मजबूत भी हुई है। आम गाँधी-नेहरूवादी, सेक्यूलर, वामपंथी हिन्दू वही करते हैं। इतनी सफलता से कि आज इस मुहावरे का प्रयोग भी वर्जित-सा है! मीडिया व बौद्धिक जगत तीन चौथाई हिन्दुओं से भरा होकर भी हिन्दू धर्म-समाज को मनमाने लांछित, अपमानित करता है। किन्तु इस्लामी मतवाद या समाज के विरुद्ध एक शब्द बोलने की अनुमति नहीं देता। इस रूप में, हिन्दू धर्म के प्रति जो बौद्धिक-राजनीतिक रुख पाकिस्तान, बंगलादेश में है, वही भारत में है।
जब कश्मीर के एक बेहद खतरनाक आतंकी जिसे सुरक्षाबलों ने मारा था तमाम वामपंथी तमाम मुस्लिम और तमाम तथाकथित बुद्धिजीवी जिसमें प्रशांत भूषण और अरुंधति राय थे उन्होंने यह ट्वीट किया था इसे सेना के जवान ने पिटाई किया था जिसकी वजह से यह आतंकी बनाI
यह संयोग नहीं, कि सांप्रदायिक दंगे गंभीरतम विषय होते हुए भी यहाँ इस पर शोध, तथ्यवार विवरण, आदि नहीं मिलते! इस के पीछे सचाई छिपाने की सुविचारित मंशा है। खोजने पर एक विदेशी विद्वान डॉ. कोएनराड एल्स्ट की पुस्तक ‘कम्युनल वायोलेंस एंड प्रोपेगंडा’’ (वॉयस ऑफ इंडिया, 2014) मिलती है, जिस में यहाँ सांप्रदायिक दंगों का एक सरसरी हिसाब है। यह पुस्तक भारत में गत छः-सात दशक के दंगों की समीक्षा है। कायदे से ऐसी पुस्तक सेक्यूलर-वामपंथी प्रोफेसरों, पत्रकारों को लिखनी चाहिए थी जो सांप्रदायिकता का रोना रोते रहे हैं! पर उन्होंने जान-बूझ कर नहीं लिखा।
यदि कोएनराड की पुस्तक को डॉ. अंबेदकर की ‘पाकिस्तान ऑर पार्टीशन ऑफ इंडिया’ (1940) के साथ मिला कर पढ़ें, तो दंगों की असलियत दिखेगी। दंगों के हिसाब में पाकिस्तान और बंगलादेश वाली भारत-भूमि के आँकड़े भी जोड़ने जरूरी हैं। उन दोनों देशों में इधर सैकड़ों मंदिरों के विध्वंस का ‘मूल कारण’ यहाँ बाबरी-मस्जिद गिराने को बताया गया था। अर्थात्, तीन देश हो जाने के बाद भी हिन्दू-मुस्लिम खून में आपसी संबंध है। अतः तमाम हिन्दू हानियाँ जोड़नी होगी। बाबरी-मस्जिद गिरने से पहले, केवल 1989 ई. में, बंगला देश में बेहिसाब मंदिर तोड़े गए थे। उस से भी पहले वहाँ लाखों हिन्दू निरीह कत्ल हुए थे।
सच यह है कि 1947 से 1989 ई. तक भारत में जितने मुसलमान मरे, उतने हिन्दू पूर्वी पाकिस्तान (बंगलादेश) में केवल 1950 ई. के कुछ महीनों में ही मारे जा चुके थे। आगे भी सिर्फ 1970-71 ई. के दो वर्ष में वहाँ कम से कम दस लाख हिन्दुओं का संहार हुआ। विश्व-प्रसिद्ध पत्रकार ओरियाना फलासी ने अपनी पुस्तकों ‘रेज एंड प्राइड’ (पृ. 101-02) तथा ‘फोर्स ऑफ रीजन’ (पृ. 129-30) में ढाका में हिन्दुओं के सामूहिक संहार का एक लोमहर्षक प्रत्यक्षदर्शी विवरण दिया है। पूर्वी पाकिस्तान में हुआ नरसंहार गत आधी सदी में दुनिया का सब से बड़ा था! उस के मुख्य शिकार हिन्दू थे, यह पश्चिमी प्रेस में तो आया, पर भारत में छिपाया गया।
पूरा हिसाब करें, तो केवल 1947 ई. के बाद हुई सांप्रदायिक हिंसा में अब तक मुसलमानों की तुलना में नौ गुना हिन्दू मारे गए हैं! पर यहाँ इस्लाम की तलवार थामे बौद्धिक ही प्रभावशाली हैं।

04 जनवरी 1990 को कश्मीर के एक स्थानीय अखबार ‘आफ़ताब’ ने हिज्बुल मुजाहिदीन द्वारा जारी एक विज्ञप्ति प्रकाशित की। इसमें सभी हिंदुओं को कश्मीर छोड़ने के लिये कहा गया था। एक और स्थानीय अखबार ‘अल-सफा’ में भी यही विज्ञप्ति प्रकाशित हुई।

आतंकियों के फरमान से जुड़ी खबरें प्रकाशित होने के बाद कश्मीर घाटी में अफरा-तफरी मच गयी। सड़कों पर बंदूकधारी आतंकी और कट्टरपंथी क़त्ल-ए-आम करते और भारत-विरोधी नारे लगाते खुलेआम घूमते रहे। अमन और ख़ूबसूरती की मिसाल कश्मीर घाटी जल उठी। जगह-जगह धमाके हो रहे थे, मस्जिदों से अज़ान की जगह भड़काऊ भाषण गूंज रहे थे। दीवारें पोस्टरों से भर गयीं,

कश्मीरी हिन्दुओं के मकानों, दुकानों तथा अन्य प्रतिष्ठानों को चिह्नित कर उस पर नोटिस चस्पा कर दिया गया। नोटिसों में लिखा था कि वे या तो 24 घंटे के भीतर कश्मीर छोड़ दें या फिर मरने के लिये तैयार रहें। आतंकियों ने कश्मीरी हिन्दुओं को प्रताड़ित करने के लिए मानवता की सारी हदें पार कर दीं। यहां तक कि अंग-विच्छेदन जैसे हृदयविदारक तरीके भी अपनाए गये। संवेदनहीनता की पराकाष्ठा यह थी कि किसी को मारने के बाद ये आतंकी जश्न मनाते थे। कई शवों का समुचित दाह-संस्कार भी नहीं करने दिया गया।

19 जनवरी की रात निराशा और अवसाद से जूझते लाखों कश्मीरी हिन्दुओं का साहस टूट गया। उन्होंने अपनी जान बचाने के लिये अपने घर-बार तथा खेती-बाड़ी को छोड़ अपने जन्मस्थान से पलायन का निर्णय लिया। इस प्रकार लगभग 3,50,000 कश्मीरी हिन्दू विस्थापित हो गये।

विस्थापन के पांच वर्ष बाद तक कश्मीरी हिंदुओं में से लगभग 5500 लोग विभिन्न शिविरों तथा अन्य स्थानों पर काल का ग्रास बन गये। इनमें से लगभग एक हजार से ज्यादा की मृत्यु ‘सनस्ट्रोक’ की वजह से हुई; क्योंकि कश्मीर की सर्द जलवायु के अभ्यस्त ये लोग देश में अन्य स्थानों पर पड़ने वाली भीषण गर्मी सहन नहीं कर सके। क़ई अन्य दुर्घटनाओं तथा हृदयाघात का शिकार हुए।

– एक स्थानीय उर्दू अखबार, हिज्ब – उल – मुजाहिदीन की तरफ से एक प्रेस विज्ञप्ति जारी की- ‘सभी हिंदू अपना सामान बांधें और कश्मीर छोड़ कर चले जाएं’।
– एक अन्य स्थानीय समाचार पत्र, अल सफा, ने इस निष्कासन के आदेश को दोहराया।
-मस्जिदों में भारत एवं हिंदू विरोधी भाषण दिए जाने लगे।
या तो मुस्लिम बन जाओ या कश्मीर छोड़ दो
– कश्मीरी पंडितों के घर के दरवाजों पर नोट लगा दिया, जिसमें लिखा था ‘या तो मुस्लिम बन जाओ या कश्मीर छोड़ दो।
दिसम्बर 19 89 से 10 नवम्बर 1990 तक मुफ़्ती मोहम्मद सईद भारत के गृहमंत्री रहा. उसी के समय में यह काम हुआ. आज यह भुला दिया गया है. पर इतिहास को भूलना मुर्खता है.

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