Friday, April 19, 2024
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ब्रांड बनने के चक्कर में मोदीजी जनता के सपनों को भूल गए

नेता तब अपनी कब्र खोदता है जब वह ब्रांड की फितरत में होता है। व्यक्ति अपने विचार, जमीन, मेहनत, भाग्य, परिस्थितियों से सत्ता पाता है और सत्ता उसे मुगालते में डालती है। उसे ब्रांड के फेरे में फंसाती है। नेहरू अपने इंडिया के आईडिया हो जाते हैं! इंदिरा वही इंडिया हो जाती हैं तो वाजपेयी शाईनिंग इंडिया वाले बनते हैं! सत्ता ज्यों-ज्यों बड़ा आकार लेती है, मुगालता बढ़ता है। यह नरेंद्र मोदी के साथ हुआ है, हो रहा है। कभी नरेंद्र मोदी पांच करोड़ गुजरातियों की बात करते थे। आज सवा अरब लोगों का हुंकारा मारते हैं। अपने को सुपर वैश्विक ब्रांड हुआ मान रहे हैं। इसमें भी हर्ज नहीं है लेकिन इस ब्रांड एप्रोच में दिक्कत यह है कि सब प्रायोजित याकि नकली हो जाता है। जमीन जुड़ाव टूट जाता है। नेता को पता नहीं पड़ता कि कब उसकी कमाई पुण्यता चूक गई है। वह कैसे नकली जीवन, नकली नारों, नकली उपलब्धियों में जी रहा है! हर तरह से नकली परिवेश, नकली लोग, नकली प्रबंधक, नकली मंत्रियों में घिरा हुआ एक ब्रांड!
नरेंद्र मोदी का आज का मुकाम मंझधार से कुछ पहले का है। अभी पीछे ओरिजनल गुजरात ब्रांड की तरफ लौटने की कुछ गुंजाइश है लेकिन दिल्ली के चेहरों, परिवेश और सिस्टम ने सुपर ब्रांड बनने की उनमें जो धुन पैदा की है उससे मुक्ति, पीछे हो सकना आसान नहीं है। वे अपने सुपर ब्रांड की वेल्यू सवा अरब लोग कूत रहे हैं। वे अपनी ब्रांड एंबेसडरी से अऱबों-खरबों डालर भारत आता देख रहे हैं। वे नित दिन लोक-लुभावन शो, उत्सव कर रहे हैं। उन्होंने और उनके प्रबंधकों ने 2019 तक के रोड शो, उत्सव, झांकियों, घोषणाओं, भाषणों, वैश्विक नेताओं से मुलाकातों, शिखर वार्ताओं, उद्यमियों-कारोबारियों के जमावड़ों की लंबी चौड़ी सूची बना ली है। सबकुछ भव्यता, ऊंचाईयां लिए हुए होगा जिसमें आकर्षण के नंबर एक सुपर ब्रांड होंगे-नरेंद्र मोदी!
सोचें कितना रूपहला, मनमोहक, धुनी महासंकल्प है यह! लेकिन यह सब मायावी है। इसलिए कि जनता को ब्रांड नहीं चाहिए। उसे अपने मध्य का अपने जैसा, अपनापन बताने वाला नेता चाहिए। उसे दाल चाहिए। उसे टमाटर चाहिए। उसे बिजनेस आसान नहीं जीना आसान चाहिए। यह बहुत गलत बात है, गलत थ्योरी है कि नरेंद्र मोदी से जनता को बड़ी-बड़ी उम्मीदें हैं। बड़ा विकास चाहिए। ऐसा कतई नहीं है। इस बात को यदि माइक्रो याकि मोदी-भाजपा को मिले 17 करोड़ मतदाताओं पर कसें तो उम्मीदों का पैमाना बहुत मामूली बनेगा। ये 17 करोड़ वोट हिंदुओं के थे। इन हिंदुओं में एक वर्ग उन नौजवानों का भी था जो भ्रष्टाचार के खिलाफ खदबदाया था। फिर वे लोग थे जो एक चाय वाले, अपने जैसे हिंदीभाषी चेहरे के अपनेपन में जुड़े थे। यह मैं पहले लिख चुका हूं कि यह जुड़ाव परिस्थितिजन्य था न कि मोदी के निज ब्रांड पर।
इन सबकी नरेंद्र मोदी से यह मामूली अपेक्षा थी और है कि वे उनका जीना आसान बनाएंगे। ये सब चाहते हैं कि वह सब न हो जो कांग्रेस के राज में होता है या जातिवादी क्षत्रपों की कमान में हुआ करता है। मतलब मनमानी, भ्रष्टाचार और तुष्टीकरण नहीं हो। इसमें भी नंबर एक बात भ्रष्टाचार मिटने की चाह थी। लेकिन नरेंद्र मोदी ने सत्ता संभालने के बाद निज आत्ममुग्धता में यह ख्याल पाला कि वे खाते नहीं हैं तो पंचायत में मनरेगा की मजदूरी भी नहीं खाई जा रही होगी। जाहिर है ऐसा सोचना और उस अंतिम व्यक्ति पर पड़ रही भ्रष्टाचार की मार को भूला बैठना ही मोदी के नकली परिवेश, नकली ख्याल, नकली ग्लैमर का नंबर एक प्रमाण है।
मोदी की पहली जरूरत सवा अरब लोगों, सबका साथ-सबका विकास की नहीं बल्कि भाजपा को मिले 16 करोड़ वोटों की करनी चाहिए। मगर वे सुपर ब्रांड बनने के फेर में अपनी ब्रांड वेल्यू में सवा अरब लोगों व बड़े नारों में खोए हुए हैं। इसी सुपर ब्रांड की फितरत में उन्होंने उलटे आसमानी उम्मीदें पैदा की हैं। जिन 17 करोड़ लोगों ने वोट दे कर उन्हें छप्पर फाड़ जीताया था उन्होंने स्वच्छ भारत, मेक इन इंडिया, डिजिटल इंडिया नहीं चाहा। इन्होंने इतना भर चाहा कि मर्द हिंदूवादी ऐसी रीति-नीति, ऐसे तेवर में बना रहे कि राष्ट्र विरोधी डरें। आंखें न दिखाएं। नौजवानों ने इतना भर चाहा कि उन्हें छोटा ही सही कुछ काम मिले। इनका मन छोटी नौकरी या छोटे बेरोजगारी भत्ते से भी उछलने लगता। मई 2014 में परिवर्तन की ट्रेन में जो संघी, भाजपाई, हिंदूवादी, राष्ट्रवादी बैठे थे वे सिर्फ वैचारिक खुराक का संतोष चाहते हैं। भाजपा-संघ प्रचारकों,पदाधिकारियों, कार्यकर्ताओं को मोदी से कोई गुरु दक्षिणा नहीं चाहिए थी। इन्हें इतना भर चाहिए था कि प्रधानमंत्री, मंत्रियों के निवास के दरवाजे-खिड़की उनके लिए खुले रहें। इन्होंने प्लेटफार्म से लौटा देने का सदमा नहीं सोचा था। इन्होंने सहज यह उम्मीद बनाई थी कि यदि अपनी सरकार आई है तो उन्हें वह मौका मिलेगा, वह मान-सम्मान मिलेगा, वे पद मिलेंगे, वे नई संस्थाएं, नए सत्ता टापू बनेंगे जो नेहरू के आईडिया ऑफ इंडिया के प्रतिस्थापन की नींव, उनके ख्यालों के भारत की तस्वीर-तकदीर बना सके।
लेकिन निज ब्रांड, निज ख्याल, नकली परिवेश, नकली चेहरे जमीन पर नहीं रहा करते। वे मंच पर अभिनय करते हैं। ड्राइंग रूम में होते हैं और दिल्ली के इनसाइडर में रमे होते हैं। सो लाख टके का सवाल है कि नकली दुनिया से बाहर निकल नरेंद्र मोदी पीछे लौट मोहन भागवत के साथ क्या विचार करेंगे? 17 करोड़ वोटों की सुध लेंगे या सवा अरब के अपने ब्रांड में डूबे रहेंगे?

साभार-http://www.nayaindia.com/ से

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