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कबीर का चिंतन आज भी रोमांचित करता है

(5 जून, कबीर-जयंती पर विशेष )

कबीर अपने समय और समाज के अद्भुत चितेरे ही नहीं, अपितु कालजयी युगद्रष्टा थे| दूसरे शब्दों में कहूँ तो कालजयी अवधूत थे| कालजयी अवधूत वही होता है, जिस पर बाहरी परिस्थितियों को कोई प्रभाव नहीं पड़े, जो आठों याम फकीराना मस्ती और मौज में मस्त रहे| जो प्रतिकूल-से-परिस्थितियों में भी अपने अंतर से जीवन-रस खींचकर प्रकृति-परिवेश को अपनी सौरभ-संपदा की सौगात दे| वे पलाश की तरह थोड़े समय के लिए खिलकर मुरझा जाने वाले को अच्छा नहीं मानते थे, वे तो हमेशा प्रफुल्लित रखने वाली अंतश्चेतना की जागृति के पैरोकार थे| इसलिए उन्होंने कहा कि-
”दिन दस फूला फूलि के खंखड़ भया पलाश|”

कबीर का समग्र दर्शन संसार की नश्वरता और आत्मा की अमरता का गौरव-गान है| वह चित्त को बहिर्जगत से अंतर्जगत के पथ की ओर मोड़ता है| कबीर का आखर-आखर जीवंत भास्वर है| उनका शब्द-शब्द जीवनदायी मंत्र है| उनका हर दोहा युगों-युगों के संचित अनुभवों का सार-संक्षेप है| उपादेयता और सार्वकालिक, महत संदेशों की तुला पर सैकड़ों पृष्ठों के औपन्यासिक ग्रंथ पर उनका छोटा-सा दोहा भारी पड़ता है| यों ही नहीं उन्होंने कहा कि ”जग कहता कागद की लेखी, मैं कहता हूँ आँखिन देखी|” उनके जैसा निर्भीक और फक्कड़ कवि ही ‘आँखिन देखी’ सच्चाई और स्वानुभूति को कागज़ पर उकेर सकता है|

वे भाव और शिल्प पर समान अधिकार रखते थे| सच है कि भाषा उनकी गुलामी-सी करती प्रतीत होती है| उन्होंने जब जैसा चाहा, भाषा का वैसा प्रयोग किया| वे लिखते भले हैं- ” मसि कागद छुयो नहि, कलम गहि नहीं हाथ”- पर उनके लिखे दोहों, पदों, उलटबाँसियों, कुंडलियों की व्याख्या करने में अच्छे-अच्छे विद्वानों के पसीने छूट जाते हैं| अपने समय में प्रचलित सभी शब्द-रूपों व भाषाओं का उनके साहित्य में प्रयोग मिलता है|

वे सच्चे अर्थों में धर्मनिरपेक्ष थे| उन्होंने हिंदू-मुसलमानों के बाह्याडंबरों पर समान रूप से प्रहार किया| यदि उन्होंने हिंदुओं से कहा कि-
पत्थर पूजै हरि मिलै, तो मैं पूजूँ पहाड़|
तासे तो चक्की भली, पीस खाए संसार||” तो मुसलमानों से भी यह कहने में संकोच नहीं किया कि-
” कंकड़ पत्थर जोड़ि के, मस्जिद लियो बनाय|
ता पर मुल्ला बांग दे, क्या बहरा हुआ खुदाय||”

मत भूलिए कि वे यह दोहा तब कह रहे थे, जब इस मुल्क पर इस्लामिक सत्ता क़ायम थी| उन्हें मिली व्यापक जन-स्वीकृति उनकी इसी निर्भीकता, सत्यनिष्ठा और ईमानदारी का परिणाम थी|

ध्यान रहे कि कबीर के एकेश्वरवाद को इस्लाम से प्रेरित-प्रभावित बताने वाले आलोचक-इतिहासकार जान-बूझकर इस सत्य को गौण कर जाते हैं कि कबीर एक निर्गुण-वैष्णव संत थे| वे उपनिषद और शंकर के अद्वैत के अधिक निकट जान पड़ते हैं| उनका रहस्यवाद, कुंडलिनी-जागरण, अनहदनाद आदि नाथों और सिद्धों की साधना-पद्धत्ति के अधिक निकट था| गुरु-महिमा, नाम-स्मरण, सृष्टि के कण-कण में ईश्वर के दर्शन उन्हें सनातन का उद्घोषक सिद्ध करता है, न कि किसी इस्लामिक दर्शन या सुफिज्म का अनुयायी| विघटकारी शक्तियाँ हिंदू-समाज को दुर्बल और विभाजित करने के उद्देश्य से कबीरपंथियों की भी गणना पृथक करती हैं| संप्रदाय और धर्म की भिन्नता को समझना समय की माँग है| कैसी विडंबना है कि समस्त सृष्टि में समष्टिगत चेतना व एकत्व को देखने वाले महापुरुष को भी कथित आधुनिक विद्वान-आलोचक विभेदकारी दृष्टि से देखते हैं! परंपराओं से तोड़ते और आक्रांताओं से जोड़ते हैं|

सत्य यह है कि कबीर ने युगीन यथार्थ का रेशा-रेशा उधेड़ कर रख दिया| उनकी बेलौस सच्चाई उनके बाद के कवियों-साहित्यकारों में कम ही देखने को मिलती है| कबीर के पथ का अनुगमन सरल नहीं था, इसलिए तो उन्होंने कहा-
कबिरा खड़ा बजार में, लिए लुकाठी हाथ|
जो घर फूँके आपणो, चले हमारे साथ||” पर अपना घर जलाकर संसार को उजाला देने वाले विरले ही होते हैं| बल्कि यों कहें कि ”कबीर” ही होते हैं| उन्हें केवल एक कवि मानना उनके विराट व्यक्तित्व के साथ सरासर अन्याय होगा| वे सही मायने में एक समाजसुधारक, युगद्रष्टा संत थे| अपितु ‘संत’ शब्द को उन्होंने ऐसी ऊँचाई और निस्पृहता प्रदान की, जिसे छू और जी पाना आधुनिक संतों के लिए संतत्व की उच्चतम-आदर्श कसौटी है|

धन्य है यह भारत-भूमि जिसने देह पर आत्मा, भौतिकता पर आध्यात्मिकता और सांसारिकता पर सार्वकालिक अमरता को प्रश्रय दिया| धन्य है यह भारत-भूमि जहाँ झोंपड़ियों की फ़कीरी ठाठ पर महलों का सुख न्यौछावर किया जाता रहा है| धन्य हैं कबीर जो हरेक की ज़मीर को जिंदा रखने के लिए मशाल बनकर अहर्निश-अनवरत जलना स्वीकार करते हैं|

प्रणय कुमार
गोटन, राजस्थान
9588225950