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अयोध्या की दिव्यता और ऐतिहासिकता

सप्त नगरी में गणना :अयोध्या हिन्दुओं के प्राचीन और सात पवित्र स्थानों में से एक है।हिन्दू धर्म में मोक्ष पाने को बेहद महत्व दिया जाता है। हिन्दू पुराणों के अनुसार सात ऐसी पुरियों का निर्माण किया गया है, जहां इंसान को मुक्ति प्राप्त होती है। मोक्ष यानी कि मुक्ति, इंसान को जीवन-मरण के चक्र से मुक्ति देती है।
अयोध्या-मथुरामायाकाशीकांचीत्वन्तिका।
पुरी द्वारावतीचैव सप्तैते मोक्षदायिकाः। ।
ईश्वर का नगर :अयोध्या को अथर्ववेद में ईश्वर का नगर बताया गया है और इसकी सम्पन्नता की तुलना स्वर्ग से की गई है। अथर्ववेद में इसकी तुलना मानव शरीर के आत्म तत्व उस परम पिता परमेश्वर को इंगित करती है।

अष्टचक्रा नवद्वारा देवानां पूरोध्यया !
तस्यां हिरण्यमयः कोशः स्वर्गो ज्योतिषावृतः।
(अथर्व वेद 10.2.31)
परम आत्म तत्व, भौतिक मानव शरीर और आयुर्वेद में एक जैसी रचना व्यवस्था है। आयुर्वेद के अनुसार शरीर में आठ चक्र होते हैं। ये हमारे शरीर से संबंधित तो हैं लेकिन हम इन्हें अपनी इन्द्रियों द्वारा महसूस नहीं कर सकते हैं। इन सारे चक्रों से निकलने वाली उर्जा ही शरीर को जीवन शक्ति देती है। आयुर्वेद में योग, प्राणायाम और साधना की मदद से इन चक्रों को जागृत या सक्रिय करने के तरीकों के बारे में बताया गया है। जिस प्रकार से शरीर में व्यवस्था होती है उसी प्रकार की व्यवस्था अयोध्या पूरी में भी की गयी। मानव शरीर (अष्टचक्राः) आठ चक्र और नौ द्वारों से युक्त (देवानाम्) देवों की (अयोध्या) कभी पराजित न होने वाली (पूः) नगरी है (तस्याम्) इसी पुरी में (ज्योतिषा) ज्योति से (आवृतः) ढका हुआ, परिपूर्ण (हिरण्ययः) हिरण्यमय, स्वर्णमय (कोशः) कोश है यह (स्वर्गः) स्वर्ग है। आत्मिक आनन्द का भण्डार परमात्मा इसी में निहित है।

इस मन्त्र में मानव देह का बहुत ही सुन्दर चित्रण हुआ है। हमारा शरीर आठ चक्रों और नौ द्वारों से युक्त है। इस नगरी में जो हिरण्यमयकोष=हृदय है, वहाँ ज्योति से परिपूर्ण आत्मिक आनन्द का भण्डार परमात्मा विराजमान है। योगी लोग योग-साधना के द्वारा इन चक्रों का भेदन करते हुए उस ज्योतिस्वरूप परमात्मा का दर्शन करते हैं।
अर्थात : ‘अयोध्या’ देवताओं की नगरी है ,जो अष्टचक्रो और नौ द्वारो से घिरी है । इसके मध्य में सोने का खजाना है और यह अपने प्रकाश से स्वर्ग के समान दिखती है।
अष्टचक्रा, नव द्वारा अयोध्या देवानां पूः) आठ चक्र और नौ द्वारों वाली अयोध्या देवों की पुरी है।जो आनन्द और प्रकाश से युक्त है। ये चक्र दस कहे जाते हैं, परन्तु उनमें से मुख्य आठ हैं :-
(1) मूलाधार चक्र – रीढ़ की हड्डी के नीचे गुदा के पास है | इसमें उत्तेजना प्राप्त होने से वीर्य स्थिर होता है और मनुष्य उर्ध्वरेता को प्राप्त करता है | यह चक्र मलद्वार और जननेन्द्रिय के बीच रीढ़ की हड्डी के मूल में सबसे निचले हिस्से से सम्बन्धित है। यह मनुष्य के विचारों से सम्बन्धित है। नकारात्मक विचारों से ध्यान हटाकर सकारात्मक विचार लाने का काम यहीं से शुरु होता है।

(2) स्वाधिष्ठान चक्र – मूलाधार से चार अंगुल ऊपर है | इसके उत्तेजित होने से प्रेम और अहिंसा के भाव जागृत होते हैं | शरीर के रोग और थकावट दूर होकर स्वस्थता लाभ होती है । यह चक्र जननेद्रिय के ठीक पीछे रीढ़ में स्थित है। इसका संबंध मनुष्य के अचेतन मन से होता है।

(3)मणिपूरक चक्र – इसका स्थान रीढ़ की हड्डी में नाभि के ठीक पीछे होता है। | इसमें उत्तेजना आने से शरीर संयत रहता है । हमारे शरीर की पूरी पाचन क्रिया (जठराग्नि) इसी चक्र द्वारा नियंत्रित होती है।

(4) सूर्य चक्र – नाभि से कुछ ऊपर ह्रदय की धुकधुकी के  ठीक पीछे मेरुदण्ड् के दोनो और इसका स्थान है | इसका अधिकार भीतरी सभी अवयवों पर है | प्राण का खजाना यहीं रहता है | इस पर चोट लगने से मनुष्य तत्काल मर जाता है | (पहलवान इसी पर हल्की चोट लगाकर प्रतिद्वन्दी को बलहीन कर देता है) | प्राण के लिए मस्तिष्क को भी इसी का आश्रय लेना पड़ता है | यह पेट का मस्तिष्क ही समझा जाता है |

 
(5) अनाहत चक्र – ह्रदय स्थान में है | ह्रदय के समस्त व्यापार इससे नियमित होते हैं | ह्रदय में बल, प्रेम और भक्ति इसमें हुई उत्तेजना के फल होते हैं |यह चक्र रीढ़ की हड्डी में हृदय के दांयी ओर, सीने के बीच वाले हिस्से के ठीक पीछे मौजूद होता है। हमारे हृदय और फेफड़ों में रक्त का प्रवाह और उनकी सुरक्षा इसी चक्र द्वारा की जाती है। शरीर का पूरा नर्वस सिस्टम भी इसी अनाहत चक्र द्वारा ही नियत्रित होता है।

(6) विशुद्धि चक्र – कण्ठ के मूल में जहाँ दोनों ओर की हड्डियां आती हैं थायरॉयड व पैराथायरॉयड के पीछे रीढ की हड्डी में स्थित है। उनके बीच में अँगुष्ठ मात्रा वाला नरम स्थान इस चक्र का स्थान है | इस पर संयम करने से बाह्य जगत् की विस्मृति और आन्तरिक कार्य का प्रारम्भ होता है। इससे तारुण्य और उत्साह प्राप्‍त होता है |

(7) आज्ञा चक्र – इसका सम्बन्ध दोनों भौहों के बीच वाले हिस्से के ठीक पीछे रीढ़ की हड्डी के ऊपर स्थित पीनियल ग्रन्थि से है। यह चक्र हमारी इच्छाशक्ति व प्रवृत्ति को नियंत्रित करता है। हम जो कुछ भी जानते या सीखते हैं।

उस संपूर्ण ज्ञान का केंद्र यह आज्ञा चक्र ही है। इसमें नाड़ी और नसों में स्वाधीनता आती है और यह अनुभव होने लगता है कि आत्मा की आज्ञा ही से समस्त शरीर व्यापार चल रहा है ।

(8) सहस्त्रार चक्र – तालु के स्थान के ऊपर मस्तिष्क में है और समस्त शक्तियों का केन्द्र है । यह चक्र सभी तरह की आध्यात्मिक शक्तियों का केंद्र है। इसका सम्बन्ध मस्तिष्क व ज्ञान से है। यह चक्र पीयूष ग्रन्थि (पिट्युटरी ग्लैण्ड) से सम्बन्धित है।
         

 इस प्रकार ये आठ चक्र, अर्थात् नस नाड़ियों के विशेष गुच्छे इस शरीर में मज्जातन्तु के केन्द्र रूप है, इन चक्रों में अनंत शक्तियाँ भरी हैं। इस अद्भुत मानव शरीर के अनेक नाम शास्त्रों में वर्णन किये गये हैं, इसे ब्रह्मपुरी ब्रह्मलोक और अयोध्या भी कहते हैं।

 
शरीर के नवद्वार की तरह अयोध्या के भी नवद्वार –
ये नौ द्वार हैं, दो आँख, दो कान, दो नाभि का छिद्र, एक मुख इस प्रकार सिर में सात द्वार हुये आठवाँ गुद्दा द्वारा और नौवाँ मूत्र द्वार है। इन प्रसिद्ध नौ द्वारों वाली होने से इस नगरी का द्वारावती द्वार आदि भी नाम है। ये देवताओं या दिव्य गुण युक्त, आत्माओं के ठहरने का स्थान है। इससे रहने वाले समस्त जड़ और चेतन देवता परस्पर एक दूसरे की भलाई के लिये अपने-अपने स्थान पर हर समय सतर्क व जागरुक हैं। यहां अग्निदेव, नेत्र और जठराग्नि के रूप में पवनदेव श्वाँस-प्रश्वाँस व दस प्राणों के रूप में, वरुण देव जिह्वा और रक्त आदि के रूप में रहते हैं। इसी प्रकार अन्य देव भी शरीर के भिन्न-2 स्थानों में निवास करते है।
एक अन्य मत के अनुसार -अयोध्या का अर्थ है — भौतिक शरीर , जिसके ८ चक्र और ९ द्वार है और जिस पर दशरथ ( १० इन्द्रिया ) का शासन है और जिसकी ३ पत्नी ( जागृत , स्वप्न , सुष्पती ) और ४ पुत्र ( ४ अंतकरण) है ।

चैतन्य देवों में आत्मा और परमात्मा का यही निवास स्थान है। ये समस्त देव इस शरीर में सद्भाव और सहयोग से प्रीतिपूर्वक वर्तते हैं। इनमें परस्पर प्रेम की गंगा बहती है, किसी को किसी अंग से द्वेष नहीं, सबके काम बंटे हुये हैं। अपने-अपने कार्यों को सम्पादन करने में सभी सचेष्ट एवं दक्ष हैं। भुजायें सब शरीर की रक्षा के लिये सूचना मिलते ही दौड़ती है। मानव शरीर परस्पर युद्धों से रहित अयोध्या जैसा ही है। इस शरीर में 72000 नाड़ियाँ हैं, इनमें इग्ला, पिग्ला और सुषुम्ना तीन नाड़ियाँ विशेष हैं, ये तीन नाड़ियाँ मूलाधार चक्र से प्रारम्भ होकर समस्त शरीर में, अपना जाल सा बनाती हैं। जो पुरुष अपनी केन्द्र शक्तियों को जगाना चाहते हैं । जिस पुरुष ने जिस शक्ति को जगाया, उसने उसी से मनोवाँछित आनन्द प्राप्त किया। प्राचीन ऋषि, मुनि और देवताओं ने अधिकाँशतया अपनी अध्यात्म शक्तियों को जगाया था, इसीलिये तीनों काल, अर्थात् भूत, भविष्य व वर्तमान की बातों को जान लेना, अपनी इच्छानुसार शरीर बदल लेना, अपनी आयु को इच्छानुसार बढ़ा लेना तथा मोक्षादि सुख प्राप्त कर लेना उन्हें सब सुलभ होता था।

विभिन्न ऋषि – मुनि परमानंद के अधिकारी:-
महर्षि वाल्मीकि ने हिंसा को त्याग कर शरीर सुषुप्त अहिंसा को जगाया, ऋषियों के उपदेश ने उनकी सुषुप्त हृदय तन्त्री को इस प्रकार झंकृत किया । वाल्मिकी दृढ़ विश्वास और साधना से महर्षि पद प्राप्त किए। महर्षि जमदग्नि का सहस्रबाहु अर्जुन द्वारा कामधेनु गऊ छीनी जाना व आश्रम भ्रष्ट करने से परशुरामजी की सोई हुयी क्षत्र शक्ति जाग्रत हो गई और प्रतिक्षाबद्ध होकर उन्हें 21 बार पृथिवी को क्षत्रियों से रहित करके ब्राह्मण को पृथिवी का दान दिया। राजा विश्वामित्र व ब्रह्मतेज के समक्ष क्षात्र शक्ति देय प्रतीत हुई अतः राज पाट छोड़ कर ब्रह्मत्व प्राप्ति के लिए कठोर तप करके ब्रह्मत्व प्राप्त किया। 

जामवन्त के कहने पर हनुमानजी की सोई हुई शक्तियाँ जाग गईं और समुद्र पार करना उन्हें सहज सुलभ हो गया।संसार में बढ़ती हुई हिंसा प्रवृत्ति को देख कर महात्मा गौतम बुद्ध के हृदय में अहिंसा का उद्घोष हुआ। स्वामी शंकराचार्यजी ने अनेक देवतावाद का विरोध में अपनी आत्मा की आवाज एकेश्वरवाद का जीवन भर प्रचार किया। महर्षि दयानन्द के सच्चे शिव की खोज पर कटिबद्ध करने में जीवन भर आई हुई विघ्न और बाधायें उन्हें अपने दृढ़ निश्चय से डिगा न सकीं। स्वामी रामतीर्थ और श्री विवेकानन्द ने अपनी इच्छित शक्तियों को जगाकर ही करोड़ों मानवों के हृदय में स्थान पाया था। 

 
वाल्मीकि रामायण में अयोध्या का वर्णन :-
अयोध्या नगर के वैभव का वर्णन वाल्मीकि रामायण में विस्तार से आता है। ऋषि वाल्मीकि रामायण के ‘बालकांड’ में अयोध्या का वर्णन करते हुए कहते हैं –
कोसलो नाम मुदितः स्फीतो जनपदो महान् ।
निविष्ट सरयूतीरे प्रभूतधनधान्यवान ।।
अयोध्या नाम नगरी तत्रासील्लोकविश्रुता ।
मनुना मानवेंद्रेण या पुरी निर्मिता स्वयंम् ।।
आयता दश च द्वे च योजनानि महापुरी ।
श्रीमती त्रीणि विस्तीर्णा सुविभक्तमहापथा ।।
अर्थात : सरयू नदी के तट पर एक खुशहाल कोशल राज्य था । वह राज्य धन और धान्य से भरा पूरा था । वहां जगत प्रसिद्ध अयोध्या नगरी है । रामायण के अनुसार इसका निर्माण स्वयं मानवों में इंद्र मनु ने किया था । यह नगरी बारह योजनों में फैली हुई थी । अयोध्या भगवान बैकुण्ठ नाथ की थी | इसे महाराज मनु पृथ्वी के ऊपर अपनी सृष्टि का प्रधान कार्यालय बनाने के लिए भगवान बैकुण्ठनाथ से मांग लाये थे | 

बैकुण्ठ से लाकर मनु ने अयोध्या को पृथ्वी पर अवस्थित किया और फिर सृष्टि की रचना की | उस विमल भूमि की बहुत काल तक सेवा करने के बाद महाराज मनु ने उस अयोध्या को इक्ष्वाकु को दे दिया | वह अयोध्या जहाँ पर साक्षात भगवान ने स्वयं अवतार लिया | सभी तीर्थों में श्रेष्ठ एवं परम मुक्ति धाम है |मुनि लोग विष्णु भगवान के अंगों का वर्णन करते हुए अयोध्यापुरी को भगवान का मस्तक बतलाते हैं ।समस्त लोकों के द्वारा जो वन्दित है, ऐसी अयोध्यापुरी भगवान आनन्दकन्द के समान चिन्मय अनादि है | यह आठ नामों से पुकारी जाती है अर्थात इसके आठ नाम हैं हिरण्या, चिन्मया, जया, अयोध्या, नंदिनी, सत्या, राजिता और अपराजिता । भगवान की यह कल्याणमयी राजधानी साकेतपुरी आनन्दकन्द भगवान श्रीकृष्ण के गोलोक का हृदय है | इस देश में पैदा होने वाले प्राणी अग्रजन्मा कहलाते हैं | जिसके चरित्रों से समस्त पृथ्वी के मनुष्य शिक्षा ग्रहण करते हैं | मानव सृष्टि सर्वप्रथम यहीं पर हुई थी |

        

यह अयोध्यापुरी सभी बैकुण्ठों (ब्रह्मलोक, इन्द्रलोक, विष्णुलोक, गोलोक आदि सभी देवताओं का लोक बैकुण्ठ है) का मूल आधार है | तथा जो मूल प्रकृति है (जिसमें दुनिया पैदा हुई है) उससे भी श्रेष्ठ है | सदरूप जो है वह ब्रह्ममय है सत, रज, तम इन तीनों गुणों में से रजोगुण से रहित है | यह अयोध्यापुरी दिव्य रत्नरूपी खजाने से भरी हुई है और सर्वदा नित्यमेव श्रीसीतारामजी का बिहार स्थल है ।
         

अयोध्या का परिमाप स्कंध पुराण के वैष्णव खंड अयोध्या महात्म्य १ /६४–६५ में कहा गया है कि सहस्रधारा (लक्ष्मण घाट) इसका मध्य भाग है। इससे एक योजन पूर्व,सरयू नदी से एक योजन दक्षिण, समंत से एक योजन पश्चिम तथा तमसा नदी से एक योजन उत्तर तक अयोध्या नगरी रही है।
अयोध्या का मत्स्याकार स्वरूप:-
विष्णोस्ससुदर्शने चक्रेस्थिता पुण्यांकुरा सदा।
यत्र साक्षात् स्वयं देवो विष्णुर्वसति सर्वदा।।
सहस्रधारामारभ्य योजनं पूर्वतो दिशि।
पश्चिमे च यथा देवि योजनं संमतोवधि।।
मत्स्याकृतरियं भद्रे पुरी विष्णो रुदिरिता।
पश्चिमेतस्य मूर्धा तू गोप्रताराश्रता प्रिये।।
पूर्वत: पुच्छभागो हि दक्षिणोत्तर मध्यमा।।
एतत् क्षेत्रस्य संस्थानम् हरेरंतगृहम स्मृतम।
अर्थात अयोध्या में श्रीहरि विष्णु के सुदर्शन चक्र पर स्थित है। यहां सदैव पुण्य का वास रहता है। वह स्वयं सदैव यहां् विराजमान रहते हैं। अयोध्या का निर्धारण करते हुए पुराण में कहा गया है कि सहस्रधारा (लक्ष्मण घाट) इसका मध्य स्थल है। इससे एक योजन पूरब इसका पुच्छ भाग तो एक योजन पश्चिम इसका सिर भाग है। इसकी आकृति मत्स्याकार है। साथ ही इसका मध्य भाग उत्तर से दक्षिण है। भौगोलिक परिवर्तनों के बावजूद अयोध्या आज भी मनु से बसाई गई अयोध्या के स्वरूप में है। पश्चिम में गुप्तारघाट तो पूरब में बिल्वहरिघाट को यहां के लोग सिर व पुच्छ भाग मानते हैं।

 सहस्रधारा आज भी अयोध्या के मध्य भाग में स्थित है। प्राचीन अयोध्या को कोसल साकेत, इच्छवाकु भूमि और रामपुरी आदि के नाम से भी जाना जाता है। इक्ष्वाकु वैवस्वत मनु के सबसे बड़े पुत्र थे। धरती का दूसरा नाम पृथ्वी इस वंश के छठे राजा पृथु के नाम पर पड़ा। गंगा को पृथ्वी पर लाने वाले इसी वंश परंपरा के भगीरथ थे। बाद में अयोध्या का इतिहास रघुवंश के नाम से आगे बढ़ा। अर्थववेद में कोसलदेश की राजधानी को अयोध्या बताया गया है। इसे देवताओं से निर्मित स्वर्ग की भांति समृद्धिशाली कहा गया है। 

अयोध्या का ऐतिहासिक स्वरुप:-
वेदों एवं पुराणों में अयोध्या का वर्णन युग युगान्तर से होता चला आया है । मनु इच्छाकु दिलीप रघु अज दशरथ आदि राजाओं द्वारा पालित इस नगरी में भगवान राम का अवतरण होता है ।नीलमत पुराण अयोध्या में श्रीराम के जन्म की चर्चा इस प्रकार है।
चतुर्विंशतिसंख्याया त्रेतायां रघुनंदनः ।
हरिर्मनुष्यो भविता रामों दशरथात्मजः ।।
अर्थात : “भगवान श्री हरि दशरथ पुत्र श्रीराम के रुप में त्रेतायुग में जन्म लेंगे ।”

 
राम करणामृतम(१/६३-६५) में अयोध्यावास की लालसा
का वर्णन कुछ इस प्रकार किया गया है। यह अयोध्या दर्शन गीताप्रैस के पृष्ठ 111 से उद्धित किया गया है–
कदा वा साकेते विमल सरयू पुनीत पुलिने
समासीन: श्रीमदरघुपतिपदाबजे हृदि भजन।
अये राम स्वामिन जनक तनया बल्लभ विभो
प्रसीदेति क्रोशन्नीमिषमिव नेष्यामि दिवसान।।
सकेतधाम अयोध्या में निर्मल सरयू के बालुकामय तट पर सुख पूर्वक बैठा हुआ और श्रीमान रघुनंदन के चरणारविन्द का अंतःकरण में अनु चिन्तन करता हुआ मैं — ‘ हे राम! हे स्वामिन! हे जनकतनया वल्लभ! हे विभो! आप प्रसन्न होइए ‘ –इस प्रकार कहते हुए , अपने दिनों को कब क्षण के समान व्यतीत करूंगा।

कदा वा साकेते तरुणतुलसीकाननतले
निविष्टस्तम पश्यन्नविहतविशालोर्द्ध तिलकम।
अये सीतानाथ स्मृतजनपते दानवजयिन
प्रसीदेति क्रोशन्नीमिषमिव नेष्यामि दिवसान।।
सकेतधाम अयोध्या में नवनवायमान तुलसी तरुओं के उपवन में बैठा हुआ और अखण्ड, विशाल ऊर्ध्व तिलक से अलंकृत उन (श्री राम) को निहारता हुआ मैं — स्मरण करते हुए अपने भक्त का परित्राण करने वाले और दानवों को जीत लेने वाले हे सीतानाथ! आप प्रसन्न होइए ‘–इस प्रकार कहते हुए , अपने दिनों को कब क्षण के समान व्यतीत करूंगा।
कदा वा साकेते मणिखचितसिंहासनतले
समासीनम रामम जनकतनयालिंगिततनुम।
अये सीताराम त्रुटितहरधनवन रघुपते
प्रसीदेति क्रोशन्नीमिषमिव नेष्यामि दिवसान।।
सकेतधाम अयोध्या मे (बैठा हुआ) मैं जनक नंदिनी सीता जी से शोभायमान वामांग वाले और मणि रत्नाें से जटित सिंहासन पर विराजमान (उन श्रीराम से) –‘ हे सीतापति राम! धनुष को खंडित करने वाले हे रघुनाथ!आप प्रसन्न होइए ‘–इस प्रकार कहते हुए , अपने दिनों को कब क्षण के समान व्यतीत करूंगा।
 दशरथ पुत्र श्रीराम 11000 वर्षों तक जन जन की सेवा करते हुए राम राज का सुशासन चलाते हैं। जब वैकुंठ का संचालन प्रभावित होने लगा तो धर्म राज की प्रेरणा से

श्रीरामचन्द्रजी जब अपनी प्रजा सहित अपने दिव्यधाम को चले गए तो अयोध्या उजाड़ हो गया | लेकिन उनकी भूमि पर बना श्री राम का महल वैसे का वैसा ही था। सम्पूर्ण सम्पति, मठ, मन्दिरादि को सरयू ने अपनी गोद में छिपा लिया | हजारों वर्ष तक यही दशा रही | चारों ओर जंगल ही जंगल हो गया था | कहा जाता है कि राम ने नौ लाख छप्पन हजार साल पहले अयोध्या को स्वर्ग के लिए छोड़ दिया था, अपनी प्रजा को लेकर जो उन्हें बहुत प्यार करता था। भगवान श्रीराम के पुत्र कुश ने एक बार फिर पुन: अयोध्या की अपनी राजधानी के रूप में पुनर्निर्माण का जिम्मा लिया। इस निर्माण के बाद सूर्यवंश की लगभग अगली 44 अलग-अलग दूरी तक इसका अस्तित्व बना रहा, जो महाराजा बृहद्बल के अंतिम समय तक अपने चरम पर था।कौशलराज बृहद्बल की मृत्यु महाभारत युद्ध में अर्जुन पुत्र अभिमन्यु के हाथों हुई अनन्तर पान्ध्वसेन के पुत्र वीर विक्रमादित्य के समय से ही एतिहासिक स्वरूप मिलने लगता है।

अयोध्या की खोज और पुनर्वास :-
अयोध्या के अन्वेषण करने में विक्रमादित्य की यह कथा बड़ी रोचक है । विक्रमादित्य के हृदय में इस प्राचीनतम पुरी के उद्धार करने की प्रेरणा हुई परन्तु बिना किसी दैवी सहायता के लुप्त पुरी का पता लगाना कठिन था | अंत उन्होने अपने मानसरोवर की ओर यहाँ से सरयू के किनारे-किनारे चलते मणि पर्वत स्थित विशाखा नामक वन में पहुँचे |

 भगवान बुद्ध की प्रमुख उपासिका विशाखा ने बुद्ध के सानिध्य में अयोध्या में धम्म की दीक्षा ली थी। इसी के स्मृतिस्वरूप में विशाखा ने अयोध्या में मणि पर्वत के समीप बौद्ध विहार की स्थापना करवाई थी। माना जाता है कि भगवान बुद्ध, अयोध्‍या में 6 साल रूके थे और उन्‍होने मणि पर्वत पर ही अपने शिष्‍यों को धर्म का ज्ञान दिया था। इस पर्वत पर सम्राट अशोक के द्वारा बनवाया एक स्‍तुप है। इस पर्वत के पास में ही प्राचीन बौद्ध मठ भी है। यह भी कहते हैं कि बुद्ध के माहापरिनिर्वाण के बाद इसी विहार में बुद्ध के दांत रखे गए थे।

         

एक दिन प्रातःकाल वह सरयू नदी के किनारे टहल रहे थे कि उन्होने देखा कि श्यामवर्ण पुरुष श्यामवर्ण घोड़े पर सवार होकर दक्षिण दिशा से आया और सरयू कि पुनीत धारा में प्रवेश कर गया और अगाध जल में डुबकी लगाकर जब वह बाहर निकला तब वह भी सफेद हो गया था और उसका घोड़ा भी सफेद हो गया था |
          

विक्रमादित्य इन अदभुत चरित्र को देखकर बहुत ही चकित हुए | उन्होने समझ लिया कि वह कोई साधारण पुरुष नहीं है, बल्कि कोई अलौलिक शक्ति है | अस्तु उन्होने दौड़कर घोड़े कि रास पकड़ ली और निर्भीकतापूर्वक पूछा- ‘भगवन! बताइये आप कौन हैं ?’ अश्वारोही ने मुस्कराकर कहा पुत्र! मैं तीर्थराज प्रयाग हूँ अहनिश पापियों के पाप से मेरा मन कलुषित हो जाता है इसलिए मैं काला हो जाता हूँ | मैं चैत्र रामनवमी को अयोध्या आता हूँ तुम प्राचीन अयोध्यापुरी कि खोज में निकले हो इसलिए मैं तुम्हारे सामने प्रकट रूप से आया हूँ | नहीं तो मैं गुप्त रूप से आता हूँ और स्नान करके चला जाता हूँ | यही अयोध्यापुरी है | तुम इस पवित्र पुरी का उद्धार करो |
          

विक्रमादित्य ने कहा भगवन! कृपा के लिए धन्यवाद! जिस प्रकार आपने इस सेवक को अपने पुण्य दर्शन से सनाथ किया उसी प्रकार इस दिव्यपुरी अवस्थित अनेक दिवि स्थलों का पता भी बताते जायें, जिससे मैं उनका सुचारु रूप से उद्धार करने में समर्थ हो सकूँ | तीर्थराज ने कहा अच्छा तो तुम अपने घोड़े पर सवार होकर मेरे साथ-साथ चलो |
         

विक्रमादित्य ने वैसा ही किया | प्रयागराज दिव्यस्थलों का पता बताते गये और विक्रमादित्य अपने भाले से उन स्थलों पर चिन्ह बनाते गये | फिर वहीं 160 दिव्य स्थलों पर मंदिर निर्माण कराया और अयोध्या महात्मय नामक पुस्तक की संस्कृत में रचना की | इसी अयोध्यापुरी के मंदिर के जीर्णोंद्धार के स्मारक में विक्रम संवत चला जो आज के दिन भी विद्यमान है |
         

जिस प्रकार त्रेतायुग में भगवान राम ने अपने रामकोट (किले) का रूप दिया था उसी प्रकार विक्रमादित्य ने भी स्वनिर्मित रामकोट में अष्टसिंह द्वारा नामकरण किया | राजप्रासाद के मुख्य फाटक पर अंजनी नन्दन पवन पुत्र श्रीहनुमानजी का निवास था | उनके दक्षिण पाशर्व में श्रीसुग्रीवजी प्रतिष्ठित थे इसी दुर्ग से मिला हुआ अंगदजी का दुर्ग था | कोट के दक्षिण द्वार पर नल नील और सुषेण रहते थे | पूर्व दिशा में नवरत्न नामक मन्दिर था | समीप में गवाक्ष और पश्चिम द्वार पर दाघवक प्रतिष्ठित थे |उनके निकट शनबाल और कुछ दूर पर गन्धमर्दन, ऋषभ शरभ विराजमान थे | दुर्ग के उत्तर द्वार पर प्रधान रक्षक का भार विभीषण जी पर था | उनके साथ उनकी स्त्री ‘सरमादेवी’ भी रहा करती थी उनके पूर्व में विघ्नेशवर और पिण्डारक थे | जिनको उत्तर फाटक के पाशर्व स्थापित किया गया | ईशान कोण पर द्विविद और गयन्द नियुक्त थे | दक्षिण दिशा की प्रधान रक्षा का भार जामवंत और केशरीजी पर था | इस प्रकार दुर्ग रामकोट की चतुर्दिक रक्षा होती थी|

महर्षि वाल्मीकि, गोस्वामी तुलसीदास की ही भांति कुछ अन्य कवियों ने अपनी रचना में अयोध्या का वर्णन किया है।साकेत महाकाव्य के प्रणेता मैथिली शरण गुप्त ने अयोध्या के बारे में इन शब्दों में व्यक्त किया है–
एक तरु के विविध सुमनों से खिले,
पौरजन रहते परस्पर हैं मिले।
स्वस्थ, शिक्षित, शिष्ट, उद्योगी सभी,
बाह्यभोगी, आन्तरिक योगी सभी।
व्याधि की बाधा नहीं तन के लिए,
आधि की शंका नहीं मन के लिए।
चोर की चिंता नहीं धन के लिए,
सर्व सुख हैं प्राप्त जीवन के लिए।
एक भी आंगन नहीं ऐसा यहां,
शिशु न करते हों कलित-क्रीड़ा जहां।
कौन है ऐसा अभागा गृह कहो,
साथ जिसके अश्व-गोशाला न हो।
धान्य-धन्य परिपूर्ण सबके धाम हैं,
रंगशाला-से सजे अभिराम हैं।
नागरों की पात्रता, नव नव कला,
क्यों न दे आनन्द लोकोत्तर भला?
ठाठ हैं सर्वत्र घर या हाट है,
लोक-लक्ष्मी की विलक्षण हाट है।
सिक्त, सिंजित-पूर्ण मार्ग अकाट्य हैं,
घर सुघर नेपथ्य, बाहर नाट्य हैं।
अलग रहती हैं सदा ही ईतियां,
भटकती हैं शून्य में ही भीतियां।
नीतियों के साथ रहती रीतियां,
पूर्ण हैं राजा-प्रजा की प्रीतियां।
के.एस. साकेत पी.जी. कालेज के पूर्व आचार्य प्रो. राम अकबाल त्रिपाठी ‘अनजान’ ने अपने साकेत गीत काव्य में इस प्रकार अपने उद्गार व्यक्त किया है —
ज्ञान का केंद्र, कला का धाम, कण-कण में बसते राम, भारती-मन्दिरित लालाम, प्राकृतिक सँवरा है। 

तेसाकेत हमारा है।

अयोध्या सरयू-तट अभिराम, माधुरीयुक्त अवध की शाम, कल्पना ‘राघवदास’ ‘नरेंद्र’, धरा पर स्वर्ग-सितारा है।
 ते साकेत हमारा है।
पुण्य का पाठ,संधन-संम्बंध, कर्म के कुसुम, धर्म की गंध, आर्य-स्वाकृति का उच्चादर्श, साधना का गुरुद्वीप।
ते साकेत हमारा है।
उर-अनुराग, अमर-अभिलाषा, विमल-विराग, दीप से दीप जले अवराम, उद्दिष्ट-गुरू गुरु न्यायरा है।

ते साकेत हमारा है।

(लेखक अध्यात्मिक व धार्मिक विषयों पर लिखते हैं)