Friday, March 29, 2024
spot_img
Homeश्रद्धांजलिगरिमामयी पत्रकारिता का पितामह चला गया

गरिमामयी पत्रकारिता का पितामह चला गया

काशीनाथ चतुर्वेदीजी नहीं रहे। मध्य प्रदेश में पत्रकारिता की आज की पीढ़ी के लिए यह नाम अनजाना हो सकता है, लेकिन मध्य प्रदेश में यदि पत्रकारिता का इतिहास लिखा जाए तो वह काशीनाथजी के योगदान के उल्लेख के बिना अधूरा रहेगा। बगैर आक्रामक या हिंसक हुए और बगैर शब्दों के निकृष्ट इस्तेमाल के भी पत्रकारिता में कैसे धार लाई जा सकती है यह काशीनाथजी से सीखा जा सकता था।

मैं खुद को बहुत भाग्यशाली मानता हूं कि मुझे 90 के दशक में ग्वालियर यूएनआई में उनके साथ काम करने का अवसर मिला। उन्होंने न तो किसी खुर्राट शिक्षक की भांति डांट डपट की और न ही किसी दंभी प्रवचनकार की तरह पत्रकारिता में शुचिता के व्याख्यान दिए, लेकिन फिर भी उन्होंने जो सिखाया वह आज के कई स्वनामधन्य पत्रकार सोच भी नहीं सकते। दरअसल पत्रकारिता ही उनका अनुलोम विलोम थी, वही उनका प्राणयाम और वही उनका पद्मासन। न तो उन्होंने कभी शीर्षासन किया न ही वे कभी दंडवत दिखे।

उनके जीवन और व्यवहार में पत्रकारिता सहज ही खेलती कूदती नजर आती थी। दुबली पतली काया, वही धोती कुर्ते का परंपरागत पहनावा और बिना किसी वाहन के उपयोग के हर जगह पैदल ही जाना। लेकिन चाहे तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुनसिंह हों या उस समय के उभरते धूमकेतु माधवराव सिंधिया, श्रीमती विजयाराजे सिंधिया हों या नारायणकृष्ण शेजवलकर, माकपा के तत्कालीन युवा नेता शैलेंद्र शैली हों या बादल सरोज हरेक के मन में उनके प्रति सम्मान भाव था। और सम्मान भाव न भी रहा हो तो भी उनका व्यक्तित्व इतना प्रकाशित था कि कोई उनके प्रति असम्मान की बात सोच भी नहीं सकता था। उनके निकट रहकर, देखकर ही बहुत कुछ सीखा जा सकता था। दुर्भाग्य है कि काशीनाथजी जैसे पत्रकारों के बारे में संचार के आधुनिक मंचों पर कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है। मैंने उनका चित्र खोजने के लिए गूगल देव की मदद ली तो मुझे वहां वे कहीं नहीं दिखे।(मेरी इस पोस्ट के साथ संलग्न काशीनाथजी का फोटो मैंने साथी राकेश अचल की फेसबुक वॉल से उधार लिया है)

आज ग्वालियर से निकले कई पत्रकार इस बात को स्वीकार करेंगे कि काशीनाथजी ने अपने जीवन और रहन-सहन से ही उस समय की नई पीढ़ी को पत्रकारिता के संस्कार दे दिए थे। विचार की दृष्टि से कहूं तो वे समाजवादी और गांधीवादी विचारधारा के मिश्रण थे। लेकिन उन्होंने कभी किसी अन्य विचारधारा का अपमान नहीं किया और न ही नए विचारों का विरोध। इस लिहाज से उन्हें आधुनिकतावादी समाजवादी कहा जा सकता है। इसका अंदाज आप इसी बात से लगा सकते हैं कि पिछले दिनों 92 वर्ष की आयु में उन्‍होंने परिवारजनों की असहमति के बावजूद देहदान का संकल्प लिया था। आज जब वे नहीं हैं तो कई स्मृतियां जिंदा हो उठी हैं। हालांकि वे होते तो इससे कतई असहमत होते लेकिन मेरा सुझाव है कि उनकी स्मृति में कोई सम्मान स्थापित किया जाना चाहिए। ग्वालियर के पत्रकार व अन्य साथी यदि इस काम के लिए आगे आएं तो और भी अच्छा होगा। काशीनाथजी की स्मृति को सादर, सश्रद्ध नमन!

गिरीश उपाध्याय के फेसबुक पेज से साभार

image_print

एक निवेदन

ये साईट भारतीय जीवन मूल्यों और संस्कृति को समर्पित है। हिंदी के विद्वान लेखक अपने शोधपूर्ण लेखों से इसे समृध्द करते हैं। जिन विषयों पर देश का मैन लाईन मीडिया मौन रहता है, हम उन मुद्दों को देश के सामने लाते हैं। इस साईट के संचालन में हमारा कोई आर्थिक व कारोबारी आधार नहीं है। ये साईट भारतीयता की सोच रखने वाले स्नेही जनों के सहयोग से चल रही है। यदि आप अपनी ओर से कोई सहयोग देना चाहें तो आपका स्वागत है। आपका छोटा सा सहयोग भी हमें इस साईट को और समृध्द करने और भारतीय जीवन मूल्यों को प्रचारित-प्रसारित करने के लिए प्रेरित करेगा।

RELATED ARTICLES
- Advertisment -spot_img

लोकप्रिय

उपभोक्ता मंच

- Advertisment -spot_img

वार त्यौहार