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फिल्म बाजार में तैयार होती संपूर्ण सिनेमा की संस्कृति

दीपक शर्मा का वृत्तचित्र ‘ब्लैक इज ब्यूटीफुल’ उन 11 दृष्टिबाधित बच्चों के बारे में है जो रंगमंच से जुड़े हुए हैं। फिल्म बनकर तैयार है लेकिन उसे प्रोडक्शन के बाद के लिए रकम और प्रिंट-प्रचार की लागत के लिए धन की आवश्यकता है। चंद्रशेखर रेड्डी की फिल्म ‘फायरफ्लाइज इन द एबीज’ के बारे में भी यही सच है। रेड्डïी की फिल्म पूर्वोत्तर की जयंतिया हिल्स में कोयला खदानों में बच्चों का इस्तेमाल किए जाने पर आधारित है। उसके बाद जिक्र कर सकते हैं मेहरान अमरोही की फिल्म ‘चिडिय़ा’ का। यह फिल्म दो बच्चों और उनके सपनों के बारे में है। ये फिल्में उन 31 फिल्मों में शमिल हैं (21 फीचर फिल्म और 10 वृत्तचित्र) जिनमें धन लगाने के लिए निवेशकों से अनुशंसा की गई। यह अनुशंसा राष्ट्रीय फिल्म विकास निगम (एनएफडीसी) द्वारा हाल में गोवा में आयोजित फिल्म बाजार में हुई। वह दृश्य दिल को छू लेने वाला था जहां नए शौकिया निर्देशक सेल्स एजेंट, फेस्टिवल क्यूरेटर, निर्माता, निवेशकों और प्रसारकों आदि से भरे कमरों से निकलकर मंच पर धन जुटाने की कवायद कर रहे थे।

एनएफडीसी ने 90 मिनट के सत्र की मेजबानी की। फिल्मों को पेशेवर खरीदारों के समक्ष प्रदर्शित किया गया और उसके बाद एक बड़े सम्मेलन कक्ष में चर्चा का आयोजन हुआ। यह पूरी प्रक्रिया हमको दो बातों से अवगत कराती है। पहली, देश में एक बड़े फिल्म उद्योग के निर्माण की बुनियाद तैयार हो रही है और दूसरा, दुनिया अब इस बात पर ध्यान दे रही है। चर्चा करते हैं पहली बात की। चूंकि वर्ष 2000 में कंपनीकरण की शुरुआत हुई जिसने भारतीय फिल्म उद्योग के विकास में मदद की है और यह बढ़कर 13,000 करोड़ रुपये का हो गया है। लेकिन प्रतिभा की कमी अभी भी दिक्कत की वजह बनी हुई है। लेखन, निर्देशन, निर्माण और तकनीकी क्षेत्रों समेत कई जगह अच्छी प्रतिभाएं नहीं हैं। हालांकि कंपनीकरण ने इस उद्योग को संगठित करने में मदद की है लेकिन आगे के विकास के लिए इस उद्योग के पास समुचित संसाधन नहीं हैं।

यही वह जगह है जहां एनएफडीसी की जरूरत है। फिल्म बाजार एक ऐसा आयोजन है जहां सह निर्माण और वितरण के अवसरों को केंद्र में रखा जाता है। इसकी शुरुआत वर्ष 2007 में की गई थी यानी कार्पोरेटीकरण के 7 साल बाद। यह आयोजन हर वर्ष गोवा में होने वाले अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह के साथ-साथ होता है और दक्षिण एशियाई सिनेमा के लिए बहुत अहम बन चुका है। वर्ष 2014 में सह निर्माण बाजार में 32 फिल्में प्रदर्शित की गईं। आयोजन में 12 नए पटकथा लेखक आए और 110 नई फिल्में प्रदर्शित की गईं। लोकार्नो अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह में दो पुरस्कार हासिल करने वाली फिल्म तिथि और वेनिस फिल्म समारोह में पुरस्कृत होने वाली फिल्म आईलैंड सिटी आदि कुछ ऐसी पटकथाओं पर आधारित हैं जिनका जन्म एनएफडसीसी में ही हुआ और जिन्हें वर्ष 2014 में फिल्म बाजार में पेश किया गया। गत वर्ष फिल्म बाजार में करीब 1,042 प्रतिनिधि शामिल हुए।

परंतु इस पूरी श्रृंखला में कठिन काम भी हैं। उदाहरण के लिए पटकथा लेखन- यह एक लंबी, कष्टप्रद और लंबी प्रक्रिया है। इसे शायद ही कभी फंड मिलता हो। इससे पता चलता है कि अच्छे लेखक सामने क्यों नहीं आते? एनएफडसीसी की पटकथा लेखनशाला फिल्मों की पटकथा के संक्षिप्त विचार आमंत्रित करती है। इस वर्ष 442 ऐसे विचार आए। एक जूरी ने इन्हें छांटकर छह कर दिया। इन मसौदों को लेखक उन सभी फिल्म समारोह में ले गए जिनके साथ एनएफडीसी का गठजोड़ था। इस वर्ष सारायेवो का नंबर था। फिल्म बाजार के चार दिन पहले इसे एक ज्यूरी के सामने पेश किया गया। उसके बाद बाजार ने इन पटकथाओं को फिल्म निर्माण समूहों या फिल्म बोर्ड के सामने पेश किया। एनएफडीसी ने तमाम बैठकों का भी आयोजन किया।

साल बीतने के साथ एनएफडीसी सेवा प्रदाता, पथ प्रदर्शक, सह निर्माता आदि की भूमिका भी निभाता है। द शिप ऑफ थिसियस, मिस लवली, मुंबई चा राजा, बी ए पास, ताशेर देश और गंगूबाई आदि ऐसी ही फिल्में हैं। इसके अलावा द लन्च बॉक्स और शांघाई का विपणन और वितरण मुख्य धारा के स्टूडियो से कराया गया। इस तरह निजी-सार्वजनिक भागीदारी सामने आई जो देश में मुख्य धारा के सिनेमा की दशा ठीक करने में मददगार है।

इसके बाद दूसरी बात आती है यानी इस पोषण के फायदे। इससे हिंदुस्तानी सिनेमा के बारे में धारणा बनती है और मुख्य धारा के सिनेमा यानी हिंदी, तमिल और तेलुगू फिल्मों के अलावा अन्य सिनेमा को लेकर सकारात्मक भावना सामने आती है। कान, बुसान और हॉन्गकॉन्ग आदि देशों के फिल्म समारोहों के बड़े निदेशक हर साल गोवा आते हैं। उनके लिए भारतीय सिनेमा का अर्थ है वे फिल्में जो जर्मनी, पोलैंड और चीन में दर्शकों को अपने साथ जोड़ सकें। उनकी कहानी और किस्सागोई ऐसी होनी चाहिए जो दर्शकों को बांध सके।

इसमें एक अहम पहलू और जोड़ लें। भारतीय फिल्म उद्योग दुनिया के उन चुनिंदा उद्योगों में से एक है जो स्वतंत्रतापूर्वक काम कर रहे हैं। यहां विदेशी फिल्मों के आगमन की कोई सीमा तय नहीं है। इसके बावजूद बॉलीवुड की हिस्सेदारी सालों से 5-7 प्रतिशत पर स्थगित है। प्रतिभा और विचार की इस दूरी को वाणिज्यिक बाजार से पाटना एक बेहतरीन काम है। इसकी मदद से सरकार एक ऐसा माहौल बनाने का प्रयास कर रही है जिसमें रचनात्मकता और वाणिज्यिक रूप से मजबूत भारतीय फिल्म उद्योग एकमेक हो सकेंगे।

(लेखिका एनएफडीसी के आमंत्रण और उसके खर्च पर गोवा में आयोजित फिल्म बाजार में शामिल हुईं। उन्होंने वहां संबोधन भी दिया। )

साभार- बिज़नेस स्टैंडर्ड से

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