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महान् दार्शनिक पं. गंगा प्रसाद उपाध्याय

महान् दार्शनिक, लेखक, वक्ता एवं आर्य जगत् के महान् नेता पंडित गंगाप्रसाद उपाध्याय का नाम आर्य जगत् में ही नहीं विश्व के प्रत्येक बुद्धिजीवी क्षेत्र में सुविख्यात् है| उतर प्रदेश के एटा जिला के अंतर्गत नदरई नामक गाँव आता है| इस गाँव में ही दिनाक ६ सितम्बर सन् १८८१ ईस्वी में उनका जन्म हुआ| पंडित जी के पिता का नाम पंडित कुञ्ज बिहारी लाल था| आपने मैट्रिक की परीक्षा पास की और बिजनौर में अध्यापक के पद पर आसीन हुए|

अध्यापक बनने पर आपने अपना ज्ञान बढ़ाना बंद नहीं किया अपितु इसे ज्ञानार्जन का एक साधन बनाते हुए आपने अपने स्वाध्याय के क्रम को टूटने के स्थान पर और भी बढ़ा दिया| अत: अपने इस स्वाध्याय और शिक्षानुराग के कारण १९०८ ईस्वी में बी. ए. की परीक्षा भी उत्तीर्ण कर ली| इतना ही नहीं आपने फिर एम.ए. अंग्रेजी सहित्य तथा दर्शन विषय के साथ की| दर्शन तो एक ऐसा विषय है, जिसे बहुत कम लोग ही कर पाते हैं| अत: यह आपके दीर्घ स्वाध्याय को दर्शाता है|

कुछ समय पश्चात् आपने “टीचर्स ट्रेनिंग कालेज” इलाहाबाद में प्रवेश लिया और यहाँ से अध्यापन व्यवसाय का प्रशिक्षण प्राप्त किया| इस समय मुंशी प्रेम चाँद जी, जो हिंदी के जाने माने उपन्यास तथा कहानीकार हैं, भी आपके सहपाठी थे| मुंशी जी पहले से हि आर्य समाजी थे किन्तु आपके सहवास से मुंशी जी पर भी आर्य समाज का प्रभाव और भी बढ़| उपाध्याय जी ने अपना सारा जीवन आर्य समाज के लिए खपा दिया और इस मध्य उन्होंने जो कार्य तथा जो कुछ उत्तराधिकार में आर्य समाज को दिया, वह सदा के लिए अविस्मरणीय बन गया है|

अब आपने डी.वी.हाई स्कूल प्रयाग में अध्यापनार्थ प्रवेश किया और सन् १९१८ ईस्वी से लेकर १९३६ ईस्वी तक निरंतर १८ वर्ष तक इस विद्यालय में मुख्य अध्यापक स्वरूप कार्य करते रहे| आर्य समाज से अनुराग तो आरम्भ से ही था| आर्य समाज के विभिन्न पदों पर कार्य भी किया किन्तु आपकी सेवा और श्रद्धाभाव को देखते हुए आपको सन् १९४१ ईस्वी में आर्य प्रतिनिधि सभा उत्तरप्रदेश का प्रधान चुन लिया गया| आप चार वर्ष तक निरंतर इस पद पर रहते हए उत्तरप्रदेश में आर्य समाज को बढाने तथा इस के सिद्धांतो के विस्तार करने का कार्य करते रहे|

इसके पश्चात् सार्वदेशिक प्रतिनिधि सभा ने सन् १९४६ ईस्वी को आपको अपनी सभा में मंत्री चुन लिया| सन् १९५१ तक निरंतर पांच वर्ष तक आप इस सभा के मंत्री पद को सुशोभित करते हुए आर्य समाज के विस्तार तथा प्रचार के लिए अनेक योजनायें लेकर आये| इस मध्य ही ११ सितम्बर १९५० ईस्वी को आपको दक्षिण अफ्रिका में आर्य समाज का प्रचार करने के लिए आमंत्रण मिला| इसके अगले ही वर्ष सन् १९५१ ईस्वी को बर्मा,सिंगापुर तथा थाईलैंड आदि देशों में वेद प्रचार करने के लिए चले गए| आपके वहां जो व्याख्यान् हुए, उनसे प्रवासी भारतीयों में वैदिक धर्म के लिए श्रद्धा पहले से भी बढ़ा दी|

सन् १९५९ ईस्वी में मथुरा में ऋषि दयानंद सरस्वती जी की दीक्षा शताब्दी का आयोजन हुआ| इस समय तक आपकी साहित्यिक सेवाओं की चर्चा सर्वत्र बड़े गर्व से हो रही थी| इन सेवाओं को देखते हुए इस शताब्दी समारोह में आपका सार्वजनिक अभिनन्दन किया गया| इस अमारोह की अध्यक्षता उस समय के राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद जी कर रहे थे| उन्हीं के हाथों आपको एक अभिनन्दन ग्रन्थ भी भेंट किया गया|

पंडित गंगाप्रसाद जी ने जो साहित्य आर्य समाज के विपुल साहित्यक भण्डार में जोड़ा, उसके लिए वह सदा अविस्मरणीय रहेंगे|

मैं जब कालेज में पढ़ता था और आर्य युवक समाज, डी.ए.वी. कालेज अबोहर का पुस्ताकायाध्यक्ष था, उन दिनों आप का सब साहित्य मंगवा कर हम बांटा और बेचा करते थे| उन दिनों में मैंने देखा कि सोलह सोलह पृष्ट के आपके बहुत अधिक मात्रा में ट्रेक्ट मिलते थे, जिन्हें हमने जिल्द करके कालेज के पुस्तकालय में भी रखा था| एक जिल्द में मेरे अनुमान से कम से कम १२०० प्रष्ट तो अवश्य ही रहे होंगे| इनकी अनुमानित संख्या १२० या इससे भी ऊपर रही होगी| इस के अतिरिक्त अनेक बड़े बड़े ग्रन्थ भी आपके लिखे हुए पुस्तकालय में रखे गए थे| सबसे बड़ी बात यह कि इन ग्रन्थों में एक छोटी से आकार की पुस्तक भी थी| इस पुस्तक के सम्बन्ध में आज तो यह सुविख्यात् हो चुका है कि विश्व हिंदी साहित्य में ही नहीं अपितु विश्व की किसी भी भाषा में किसी विद्वान् द्वारा अपनी पत्नी की जीवनी के रूप में लिखी और प्रकाशित हुई यह प्रथम पुस्तक है| इस पुस्तक को उन्होंने अपनी धर्म पत्नी श्रीमती कलावती को समर्पित किया है|

उनकी इस्लाम के दीपक पुस्तक उनके गहन इस्लामिक अध्ययन को दर्शाता है| अद्वैतवाद, आस्तिकवाद,जीवात्मा, शंकर भाष्यालोचन आदि उनके दार्शनिक विषयों पर लिखे ग्रन्थ है, जिनकी मांग आज भी निरंतर बनी हुई है| पंडित जी ने जो साहित्य लिखा ,वो इतनी विभिन्नता रखता है कि साधारण पढे लिखे से लेकर उच्चकोटि के विद्वान् तक भी इसका लाभ उठा रहे हैं| हिंदी साहित्य सम्मलेन प्रयाग ने आस्तिकवाद पुस्तक पर उन्हें मंगलाप्रसाद पुरस्कार दिया| इन ससब पुस्तकों के अतिरिक्त भी उनकी हिंदी, उर्दू तथा अंग्रेजी मे लिखी अनेक पुस्तके मिलती है| आपकी अनेक पुस्तकों के अनेक भाषाओं में अनुवाद भी हो चुके हैं, इनसे आपकी लेखन शक्ति का पता चलता है । आपने अपनी आत्मकथा भी लिखी, जिसका साहित्यिक दृष्टि से आत्यधिक महत्त्व है|

विद्यार्थी काल में ही आपके आर्य समाज की सेवा के इतने गहरे विचार थे कि इससे अंग्रेज कुपित हो गए और आपको स्कूल से निकाल दिया गया| आपकी शिक्षा सुचारू रूप से चल सके, इस कारण आपकी शिक्षा के लिए अलीगढ में दयानंद आश्रम नाम से एक गुरुकुल आरम्भ किया गया, जिस पर आजकल अवैध रूप से कुछ लोगों ने बड़े भाग पर कब्जा कर रखा है जबकि कुछ भाग पर आर्य समाज का कार्य तथा साप्ताहिक और दैनिक यज्ञ चल रहा है|

बिजनौर में अध्यापक के रूप में जो प्रथम नियुक्ति मिली थी, तब से ही आपने बिजनौर को ही अपना केंद्र बना लिया था| आप आर्य समाज में ही निवास करते थे और आपके दो ज्येष्ठ पुत्रों का जन्म भी इस समाज में ही हुआ था| इनमें से ज्येष्ठ डा, सत्यप्रकाश जी जी का जन्म २४ अगस्त १९०५ ईस्वी में इस समाज में रहते हुए हुआ, जिन्होंने दिनांक १० मई १९७१ ईस्वी में इलाहाबाद विश्वविद्यालय के परिसर में ही संन्यास लिया था और नयानाम स्वामी सत्यप्रकाश जी सरस्वति हुआ| इस संन्यास दीक्षा समारोह में मुझे भी जाने का अवसर मिला था| संन्यास के पश्चात् आपका नाम स्वामी सत्यप्रकाश सरस्वती हुआ| संन्यास के कुछ दिनों पश्चात् हमारे विशेष आग्रह पर आप अबोहर आये और एक महिना हमारे यहाँ रहते हुए आप ने वेद सम्बन्धी अंग्रेजी में दो पुस्तकें लिखीं( Enachaanted island, Lighat Within), जिनका आर्य युवक समाज अबोहर ने प्रकाशन किया| इस समय मैं आर्य युवक समाज अबोहर का प्रकाशन मंत्री था और हम सब कार्य प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी की देखरेख में करते थे| मुझे इस समय आपकी सेवा का पूरा अवसर मिला| इन्हीं स्वामी सत्यप्रकाश जी ने आर्य समाज चेम्बूर मुंबई में रहकर चारों वेदों का अंग्रेजी भाष्य भी तैयार किया|

इस प्रकार आजीवन आर्य समाज के लिए प्रचार करते हुए, प्रसार करते हुए और लिखते हुए पंडित गंगाप्रसाद उपाध्याय जी दिनांक २९ अगस्त १९६८ ईस्वी को ८७ वर्ष की आयु में इस संसार से सदा सदा के लिए विदा हो गए|

डॉ.अशोक आर्य
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