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बर्बर हूणों का नामोनिशान मिटा देने वाले स्कंद गुप्त की शौर्य गाथा

वाराणसी से गोरखपुर जाइए तो सड़क के रास्ते या रेल के रास्ते वाराणसी से करीब 30 किलोमीटर दूर स्थित औडि़हार जंक्शन पर हर ट्रेन और बस ठहरती है। भारतीय इतिहास के वीर प्रवाह को समझने के लिए यह स्थान बेहद महत्वपूर्ण है। बिल्कुल गंगा के किनारे बसा यह छोटा सा गांव मध्य एशिया के बर्बर हूणों के समूल विनाश का साक्षी है। गंगा की कलकल धारा के किनारे सदियों पहले यह वीरान गांव आज भी आबादी के लिहाज से बहुत ही छोटा है, किन्तु यहां के क्षत्रियों समेत चारों वर्णों की कीर्ति पताका पूर्वांचल के इलाके में सबसे अधिक चर्चित रहती है। पता नहीं कि यहां बसी आबादी के लोग ये जानते हैं कि नहीं कि उनके गांव का नाम औडि़हार क्यों पड़ा लेकिन इतिहास साक्षी है और औडि़हार के पास सैदपुर-भितरी नामक गांव में मौजूद स्कन्दगुप्त की लाट गवाही देती है कि यह औडि़हार वही स्थान है जहां बर्बर हूणों की फौज को स्कन्दगुप्त ने अपने बाहुबल से प्रबल टक्कर दी, ऐसी चोट पहुंचाई थी हूणों को कि इस जगह का नाम ही हूणिहार या हुणिआरि पड़ गया। मतलब वह जगह जहां हूणों की हार हुई, जहां हूणों की पराजय का इतिहास लिखा गया, जो भूमि दुर्दांत हूणों के लिए अरि यानी शत्रु समान खड़ी हो गई, वह जगह ही आज अपभ्रंश रूप में औडि़हार के रूप में मौजूद है।

1600 साल पहले की यह महान क्रांति गाथा है। औडि़हार के बिल्कुल बगल से बहने वाली मां गंगा की धारा में ही तब स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य के विक्रम ने नई लहर उठाई थी जिसमें हूणों का कहर सदा के लिए विलीन हुआ था। गंगा की लहरों पर जब पहली बार हूणों की बर्बरता की काली छाया पड़ी थी, तब से लेकर आजतक कितना पानी बह गया किन्तु प्रयाग से पाटलीपुत्र के मध्य काशी और बलिया तक के हजारों गांव और करोड़ों लोगों के मन से उस खौफनाक अध्याय की स्मृतियां आजतक मिट नहीं सकीं। यहां के गांवों के नाम हूणों की पराजय के नाम से बसे, औडि़हार, मुडिय़ार, हौणहीं, तैतारपुर ऐसे दर्जनों गांव हैं, जहां बसे लोगों के पुरखों ने स्कन्दगुप्त की महासेना के सैनिक और कमांडर के रूप में इस महायुद्ध में हिस्सा लिया था। अब ये इलाका गाजीपुर जनपद का हिस्सा है। बनारस की भूमि से सटकर बहने वाली गोमती और गंगा के संगम के तीर्थ कैथी मारकण्डेय महादेव से बिल्कुल ही सटा हुआ। हूणों से निपटने के लिए इस जगह का चुनाव स्कन्दगुप्त ने सोच-समझकर किया था।

मौर्य काल से ही भीतरी का इलाका गंगा के इस पार पश्चिमी दिशा में पाटलीपुत्र की सुरक्षा के लिए अभेद्य रक्षा कवच था, यहां पर जो सैनिक छावनी कौटिल्य और चंद्रगुप्त मौर्य के समय निर्मित हुई वह गुप्त साम्राज्य के समय में भी सुगठित ढंग से संचालित होती रही थी। आज भी इस इलाके के युवाओं का डीएनए सबसे पहले भारत की सेना में ही करियर खोजता है, आंकड़े गवाही देते हैं कि भारत की फौजों में गाजीपुर के हर गांव से युवकों की टोलियां तब से ही भर्ती होती चली आ रही हैं, देश की रक्षा के लिए लहू बहा देने और अपना सब कुछ लुटा देने का यह पाठ उनके दिलो-दिमाग में स्कन्दगुप्त जैसे महानायकों की छाया में और प्रबलित हुआ था। हूणों से जो टक्कर तब हुई थी, आजतक उसकी स्मृति यहां के जन-जीवन के मन से मिटती नहीं। सैकड़ों साल से काली अंधेरी रातों में माताएं अनजाने ही सही इस भूभाग में बसे गांवों में अपने बच्चों को सुलाते समय यह कथा दोहराती आ रही हैं कि ‘बचवा सुत जा नाहीं त हूणार आ जाई।Ó अर्थात, बेटा सो जा नहीं तो हूण आ जाएगा।

उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल में आज भी यह संवाद गांव-गांव प्रचलित है कि बचवा सुत जा, नाहीं त हुणार आ जाई। अब तक लोग इस प्रचलित शब्द हुणार को कोई जंगली जानवर मानते आए हैं जो बच्चों को उठा ले जाता है, जैसे कोई लकड़सुंघवा या कोई लकड़बघ्घा। लेकिन इतिहास की गुफाओं में प्रो. आरसी मजूमदार, जयशंकर प्रसाद और आचार्य वासुदेवशरण अग्रवाल जैसे कुछ यशस्वी लेखक-विद्वान जब पहुंचे तो पता चला पूर्वांचल के लोक-मन में यह जो हूणार शब्द है, यह किसी असल सियार, लकड़सुंघवा, लकड़बग्घे या किसी भेडिय़े का नाम नहीं बल्कि भेडिय़े के रूप में उन्हीं भयानक हूणों का मन के किसी कोने अंतरे में छिपा वह खौफ है जिसे भेडिय़े की तरह पशुवत् हिंसक जीवन को अपनाकर ही हूणों ने विश्व इतिहास का सबसे बर्बर अध्याय लिखा और आज से 2000 साल पहले भारत की धरती पर भी अपनी तलवारों से मानवता के विरूद्ध अत्याचार और अपराध को सबसे भयावह रक्तरंजना दी थी।

किन्तु हूणों को तब शायद यह नहीं पता था कि जिस यूनान, मिस्र और रोम को वह मटियामेट कर अपनी अतृप्त लुटेरी पिपासा लिए भारत की बरबादी, लूट, हत्या, बलात्कार और डकैती का खौफ लिखने गंगा-यमुना की लहरों पर चढ़े चले आ रहे हैं, उसके जर्रे जर्रे में भारत की उठती जवानी उनकी ही मौत का इतिहास लिखेगी। इसीलिए स्कन्दगुप्त की महागाथा आज भी हमारे मन और दिलों में बार बार उठती है। जब-जब धरती पर अत्याचार और बर्बरता का रौरव नरक बरसेगा तब-तब यह देश अमरता की अपनी उस महायात्रा को पुनर्जीवित करेगा जिसमें से स्कन्दगुप्त जैसे वीर नायक जन्म लेते हैं, इस देश के अमर संजीवन प्रवाह से शक्ति प्राप्त करते हैं और फिर अपना सब कुछ मातृभूमि की सेवा और सुरक्षा में लुटाकर चुपचाप धराधाम से विदा हो जाते हैं। जिनके कारण हमारा आपका अस्तित्व यूनान-रोम-मिस्र जैसी सभ्यताओं के मिट जाने के बाद भी संसार की छाती पर अपना ध्वज गाड़कर युग युग से जीवंत है, आज उसी महाप्रतापी वीर योद्धा महा सेनानी हुणारि विक्रमादित्य स्कन्द गुप्त की सत्य इतिहास गाथा आपको सुनाने जा रहा हूं मैं।

स्कन्द गुप्त को महान इतिहासकार प्रो. आरसी मजुमदार ने ‘द सेवियर ऑफ इंडिया की उपाधि यूं ही नहीं दी है। सेवियर ऑफ इंडिया अर्थात भारत का रक्षक, भारत का त्राता, भारत को बचानेवाला। इतिहास में हूणों की दुर्दांत सेनाओं को अपने बाहुबल से स्कन्द गुप्त ने ही सबसे बड़ी टक्कर दी, इस हद तक टक्कर दी कि मध्य एशिया में हूणों के ठिकानों में विधवाएं ही विधवाएं बचीं और उन इलाकों में पुरूषों का मानो अकाल ही पड़ गया।

स्रोतों से जो जानकारी मिलती है, उसके आकलन के अनुसार, कम से कम दो लाख हूणों की अश्वबल से सम्पन्न सेना में सबके मारे जाने की सूचना देने के लिए मु_ीभर ही बचे जो सुरक्षित मध्य एशिया के अपने उन वीरान ठिकानों तक पहुंच सके जहां से हूण जत्थे दनादन निकले थे। ये सोचकर कि भारत के सुन्दर बसे समृद्ध ऐश्वर्यशाली स्वावलंबी और प्रचुर धन-संपदा से सम्पन्न गांवों और आबाद लोगों को लूटकर वह सदा के लिए मालामाल हो जाएंगे। किन्तु वीर स्कन्दगुप्त और उसकी महासेना के पराक्रम के सामने हूणों का सारा अभियान ही धरा रह गया। आए तो थे गरजती-लपलपाती तलवारों को झनझनाते हुए, भारत के लोकजीवन को डराते-मारते-लूटते लेकिन स्कन्द गुप्त की कुशल व्यूह रचना के कारण गंगा-यमुना-गोमती आदि नदियों के प्रवाह में ऐसे फंसे कि भागने के लिए भी जगह नहीं बची। जिन कुछ हूण-टुकडिय़ों को स्कन्दगुप्त ने क्षमादान दिया भी तो पश्चिम की ओर जाने वाले उत्तरापथ से जुड़े गणराज्यों यौध्देय, मालव, क्षुद्रक के वीरों ने मार-मारकर यमलोक पहुंचा डाला।

हूणों पर स्कन्दगुप्त की यह ऐतिहासिक विजय इतनी आसान नहीं थी जितनी कि हम आप कुछ पंक्तियों के जरिए इसे समझ पा रहे हैं। गुप्तचरों ने जब पहली बार हूणों की टक्कर से तबाह हुए पुरु और कुरु, गंधार आदि गणराज्यों का हाल तब के केंद्रीय साम्राज्य पाटलिपुत्र (पटना) पहुंचाना प्रारंभ किया तो लगभग 60 वर्ष की उम्र पारकर बुढ़ापे की दहलीज पर खड़े सम्राट कुमार गुप्त की छाती भी धक्क कर गई। सम्राट कुमार गुप्त महेंद्रादित्य ने चालीस वर्ष तक कुशलतापूर्वक भारत को केंद्रीय नेतृत्व प्रदान किया था जिनके अमर पुरखों के पराक्रम से सजी-धजी राजधानी पाटलीपुत्र के ऐश्वर्य की कहानियां सारे संसार को तब चकित और स्तंभित कर देती थी।

परम भागवत महाराजाधिराज चक्रवर्ती सम्राट समुद्रगुप्त विक्रमादित्य और उनके अजेय बलशाली पुत्र चक्रवर्ती सम्राट चंद्रगुप्त विक्रमादित्य द्वितीय के द्वारा खड़े किए गए साम्राज्य की सेवा में कुमार गुप्त ने कोई कमी नहीं रख छोड़ी। यूनान और रोमन साम्राज्य या तब के रंक यूरोप के हिस्से तो भारत की समृद्धि के सम्मुख कहीं खड़े तक नहीं होते थे। राम-कृष्ण जैसे महान धुरंधरों को जन्म देने वाली जगत जननी मातृभूमि भारत की पताका तब पश्चिम में गांधार के पार यूनानी-ग्रीक राज्यों तक फहर रही थी तो पूरब में आज का जो मलेशिया, इंडोनेशिया, बाली आदि अनेक द्वीपसमूह हैं, सबके सब भारत के चक्रवर्ती साम्राज्य के अभिन्न अंग थे।

भारत में लोकतंत्र तब शिखर पर था, सैकड़ों जनपद और गणराज्य अपने केंद्रीय चक्रवती साम्राज्य की देख-रेख में प्रत्येक ग्राम और पुर तक, स्वायत्त शासन और ग्रामीण स्वावलंबन की बेमिसाल गाथा लिख चुके थे। हर जीव-जानवर और चौपाए के लिए तब भारत के कुशल शिल्पियों ने म्यूजिक सिस्टम विकसित किया था, बैलों के गले में घंटिया थीं, और घोड़े-गधे और सवारी ढोने वाले पशुओं के पैरों में भी घुंघरू थे। घर-गांव-कृषि और मानवता के प्रति दुधारु गाय की सेवाओं को देखते हुए तब पशुओं की सूची से इसे बाहर निकालकर इस देश ने माता का रूप दे दिया था, अहिंसा-करुणा से भरी इस भूमि का जीवों के प्रति दया-भाव की सचमुच पराकाष्ठा का पुनीत पावन यह इतिहास।

भारत ने मनुष्य-मनोविज्ञान तो छोडि़ए, पशु-विज्ञान के शिखर तक को छू लिया था कि मानव समुदाय को स्वयं सुखी रहने के लिए अपने पालतू पशुओं के साथ किस तरह दयापूर्वक व्यवहार करना चाहिए ताकि उनका पूरा सदुपयोग हो सके। उस दौर में कोई पशु नहीं था जिसके लिए भारत ने संगीत संगत विकसित नहीं किया। आज भी बंदरों को मदारी डमरू सुनाते हैं, सांपों को सपेरे बीन की संगीत पर नचाते हैं, कोयल और पक्षियों के कलरव की नकल कर वैसा ही संगीत सुनाने वाले और उनकी आवाज सुनकर उनकी बातचीत तक का पता लगाने वाले विशेषज्ञ भारत के वन्य प्रदेशों में शिक्षित-प्रशिक्षित थे। हाथी और घोड़े ढोल-नगाड़े की आवाज सुनकर और मुख से लेकर पैरों तक सोने-चांदी के साथ अपने महावत के संकेत मात्र को समझकर सज-धजकर शान दिखाते यूं खड़े हो जाते थे मानो सारे संसार का ऐश्वर्य भारत के चरणों में आ गिरा हो।

वह भारत आज केवल हम कहानियों और किस्सों में ही देख पाते हैं जिसे तब हमारे पुरखों ने अपने परिश्रम और प्रताप से इतना सुन्दर बनाया था कि संसार इसे सोने की चिडिय़ा कहता था तो कोई सोने के अंडे देने वाली मुर्गी बता—बताकर दुनिया को भारत पर कब्जे के लिए उकसाता था। उसी भारत की बुनियाद पर जो गुप्त साम्राज्य खड़ा हुआ था, उसे संसार की सबसे बर्बर हूण सेनाओं से मुकाबले की जब चुनौती मिली तो वीरों की भुजाएं फड़क उठीं, तनी छाती प्रतिकार के लिए धड़क उठी, तलवारें रक्तपान को मचल गईं किन्तु देश के सामने नेतृत्व का संकट खड़ा था कि रणभूमि में सेना की कमान संभालेगा कौन?

देश के लिए मृत्यु बन खड़े इस विकराल संकट को ललकारेगा कौन? सम्राट कुमार गुप्त का स्वास्थ्य इस स्थिति में नहीं था कि वह स्वयं सेनाओं का नेतृत्व कर रणभूमि में हूणों को ललकारने उतर पड़ते। सबके मन में प्रश्न था तो स्वयं सम्राट नेतृत्व नहीं करेंगे तो कौन? राजपुत्रों में उत्तराधिकार तय नहीं था और प्रश्न यह भी कि हूणों के साथ सैन्य संर्घर्ष में जीवित बचकर लौट आने की गारंटी नहीं। तब कांपती भुजाओं वाले उस पिता कुमार गुप्त के सबसे युवा पुत्र स्कन्दगुप्त ने स्वयं ही आगे बढ़कर पिता का धर्म संकट दूर करते हुए भरे दरबार में सिंह गर्जना के साथ हूणों के मुंडों की माला से भारत जननी के श्रृंगार का संकल्प लिया।

हुणैर्यस्य समागतस्य समरे दोभ्र्यां धरा कम्पिता भीमावर्त करस्य…। भितरी के शिलालेख में लिखी उपर्युक्त पंक्ति का अर्थ लिखते हुए कलम भी रोमांचित हो उठती है। उस महाप्रतापी के बल-विक्रम का स्मरण भारत के अपराजेय स्वरूप का ध्यान दिलाने लगता है। इन पंक्तियों में लिखा है कि Óसमरभूमि में हूणों के सामने आने पर दोनों हाथों में तलवार लिए स्कन्दगुप्त और उसके सैन्यबल ने अपने प्रबल बाहुबल से जो पराक्रम प्रकट किया, उसे देख सुनकर बर्बरता का पर्याय बने हूणों का ह्रदय ही नहीं बल्कि समस्त भूमंडल का अत्याचारी वर्ग मानो कंपित हो उठा।’

अश्व पर सवार होकर वह बाहुबली महावीर स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य दोनों भुजाओं से अपनी तलवारें नचाता हुआ जिधर से भी निकलता था कि उधर ही उधर रक्त से सने हूणों के नरमुंडो से पृथ्वी पट गई। भितरी के पास जो मुडिय़ार गांव है, वहां स्कन्दगुप्त और उसकी महासेना ने हूणों के मुंडो का पहाड़ खड़ा किया, हौणहीं गांव में हूणों की लाशों से कितने ही गड्ढे-गड़ही पाट दिए, औंडि़हार में उस महाप्रतापी ने हूणों के खिलाफ संगर प्रारंभ करने का जो शंखनाद किया, इस संगर ने ही उसे इतिहास में सदा के लिए अमर कर दिया।

भितरी शिलालेख स्कन्दगुप्त के संपूर्ण जीवन चरित्र और हूणों के साथ हुए महायुद्ध पर सूत्रों में गंभीर प्रकाश डालता है। इसकी एक पंक्ति में औडि़हार अर्थात हूणिआरि या अवनिहार का संकेत में वर्णन आता है। इसमें लिखा है – स्वैर्दण्डै:..बाहुभ्याम अवनिं विजित्य हि जितेष्वात्र्तेषु कृत्वा दयाम्…। इस पंक्ति में अवनि अर्थात पृथ्वी पर उसके द्वारा शत्रुओं (हूणों) को हराने का सीधा वर्णन है। अवनि पर विजय अर्थात अवनि-हार या हूणिआरि शब्द यहां पर प्रतिध्वनित होता दिखाई देता है। पूरी पंक्ति का जो भाव निकलता है उसके अनुसार, ‘अपने बाहुबल से उसने (स्कन्दगुप्त ने) पृथ्वी (अवनि) पर अर्थात शत्रुओं पर विजय प्राप्त की, (पराजित हूणों में) जिन आर्तजनों ने उससे दया की भीख मांगी और प्राणों की गुहार लगाई उन्हें स्कन्दगुप्त ने छोड़ दिया लेकिन ऐसा करते समय उसमें रंचमात्र भी अहंकार नहीं आया और ना ही उसके चेहरे पर किसी प्रकार का क्षुब्धभाव ही दिखाई पड़ा।’

अनेक इतिहासकार भितरी अभिलेख में गंगा नदी के वर्णन के आधार पर भी मानते हैं कि हूणों से स्कन्दगुप्त का आमना-सामना औडि़हार के गंगा तट के समीप ही कहीं हुआ था। भितरी अभिलेख में एक पंक्ति में लिखा है-शत्रुषु शरा…विरचितं प्रख्यापितो दीप्तिदा न द्योति…नभीषु..लक्ष्यत इव श्रोत्रेषु गाङ्र्गध्वनि:(गंगध्वनि:) ।। अर्थात शत्रुओं के बाणों..के प्रत्युत्तर में जब स्कन्दगुप्त के धनुर्यंत्रों से बाणों की बौछार निकलती थी तो…आसमान पर बाणों का भंवर छा जाता था…शत्रुओं के कानों में तीखे बाणों की सनसनाती बौछार इस तरह सुनाई पड़ती थी जैसे कानों में गंगा की कलकल ध्वनि सुनाई पड़ रही हो।

गाजीपुर-भितरी से स्कन्दगुप्त का कैसा गहरा रिश्ता था, यह तथ्य इतिहास में सिद्ध है। स्कन्दगुप्त की लाट और उसका शिलालेख और उसके द्वारा वहां स्थापित विशाल विष्णु मंदिर के भग्नावशेष सारी कहानी खुद ही बयां कर देते हैं। किन्तु स्कन्दगुप्त का रिश्ता तो संपूर्ण भारत-भुवन की रक्षा के प्रश्न से कहीं गहरे जुड़ा था, उसने भितरी और औंडि़हार की भूमि से हूणों के विरुद्ध जिस महायुद्ध का प्रारंभ किया उसके बारे में इतिहास के स्रोत और लोकमन की स्मृतियों के जरिए हम अनेक कथाएं सुनते हैं। इतिहासकारों की कलम से, पुरातत्व के द्वारा सामने लाई गई जानकारी से और लोकस्मृतियों से छनकर आने वाली कथात्मक जानकारी, इन सबको मिलाकर ही स्कन्दगुप्त की सही तस्वीर आधुनिक भारत के सम्मुख रखी जा सकती है।

(लेखक बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में व्याख्याता हैं)