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लॉक डाउन ने श्रमिकों के सवाल भी उठाए और जवाब भी दिए

भारत जैसे विशाल भू-भाग वाले देश में आज के काल में भी छोटी मोटी मनुष्य बसाहटों में स्थानीय स्तर पर सतत रोजगार की उपलब्धता या अवसरों को बढ़ाने जैसे मूलभूत सवालों को लेकर कोई समग्र दृष्टि और पहल ही मौजूद नहीं है। शरीर श्रम पर जिन्दा मनुष्य किसी तरह जिन्दा रहने के लिये अपनी बसाहट, अपना गांव परिवार छोड़कर या साथ लेकर लम्बे समय से महा,बड़े,मझोले या छोटे शहरों , कस्बों में पीढ़ी दर पीढ़ी से आता जाता और किसी तरह जीता रहा है।शहरी ज़िन्दगी को संवारने,विकसित और संचालित करने में ऐसे करोड़ो मेहनतकश या श्रमनिष्ठ लोगों की बहुत बड़ी भूमिका है।

श्रमनिष्ठ मनुष्यों का सबसे बड़ा गुण यह है कि वेतन और मन की ताकत के साथ कहीं भी और कभी भी केवल श्रम के विनिमय से ही अपना जीवन चलाना जानते हैं। करोना महामारी के इस काल में श्रमनिष्ठ लोग इस लिये चर्चा में आये की लाक डाउन में वे महानगरों,शहरों से अपने घर गांव जा रहे हैं ।सौ दो सौ नहीं हजार दो हजार किलोमीटर की दूरी पैदल चल घर गांव पहुंचने निकल पड़े हैं ।वो भी एक दो नहीं हजारों लाखों लोग चल पड़े हैं पैरों की ताकत और मन की हिम्मत के बल पर और राजकाज और शहरी समाज के लोग भौंचक अरे ये कैसे संभव हैं?पर श्रमनिष्ठ चल पड़ा अपने गांव घर जीनेऔर जीते रहने के लिये अपने मन में जीने की ताकत लिये।

जो जीने के लिये जान पर खेल भूख प्यास और भौगोलिक दूरी से घबराये बिना अपने गांव घर को किसी तरह बड़ी संख्या में पहुँचने में सफल हो गये है और अगले कुछ समय में बड़ी संख्या में पहुँचेगे उन सबके मन में तत्काल यह संतोष तो हुआ की चलोअपने घर गांव तो पहुंच गये।पर कुछ ही दिनों में उन सबके पास आजीविका का सवाल बड़े सवाल के रुप में खड़ा होगा जिसका हल केन्द्र और राज्य सरकारों की प्राथमिक जवाबदारी है।

ऐसे लोग हजारों लाखों नहीं करोड़ों में हैं जो आंशिक रूप से और स्थायी रूप से रोजगार की प्रत्याशा में अपनी श्रम शक्ति का विनिमय करने देश भर के बड़े छोटे शहरों में जाते रहे हैं। यह गंभीर सवाल है जिससे शहरी और गांव के लोग बड़ी संख्या में प्रभावित है।शहरी क्षेत्रों में श्रमिको के अभाव का दौर प्रारम्भ होगा और गांवों में आजीविका का संकट जो आम बात है और इसी कारण से गांवों से शहर की और रोजगार के लिये पलायन की महायात्रा भारतीय ग्रामीण समाज में स्थायी रूप से विस्तार पाती रहीं।

भारतीय गांवों में पैदल चलना जीवन का बहुत पुराना क्रम है।खेती किसानी और पशुपालन पर आधारित ज़िन्दगी सुबह से रात तक अपने जीवन भर पैदल चलते और हाड़ तोड़ मेहनत करते हुए ही गुजरती है।अपने पैरो की ताकत से लम्बी दूरी तय करना यह गांव के अधिकांश लोगों के लिये बड़ी समस्या नहीं है।गांव के जीवन का सबसे बड़ा सवाल या समस्या यह हैं कि पूरे गांव की बसाहट के पास वर्ष भर खाने कमाने के संसाधन और अवसर ही नहीं है।इसी कारण भारतीय गांव में रोजगार या आजीविका के लिये पलायन का क्रम हर वर्ष बढ़ता ही जा रहा है।करोना काल में शहरों से गांवों की और हुए जीवन रक्षा पलायन ने देश के सामने जो मनुष्य जीवन की गरिमा को लेकर जो बुनियादी सवाल खड़े किये हैं उन्हे अभी तक की तरह टालते रहना देश के श्रमनिष्ठ नागरिकों के साथ ही नहीं भारत के नागरिक के प्रति संवैधानिक उत्तरदायित्व को अनदेखा करना हैं।यहां एक सवाल हमारी भाषा और हमारे नागरिक के प्रति संबोधन को लेकर भी उभरा हैं।हमारे देश का नागरिक हमारे देश में ही प्रवासी कैसे हो गया?संविधान के मूल अधिकार में जो बराबरी का मूल अधिकार हैं उसको हम जमीन पर तभी उतार सकेंगे जब हम नागरिकों के प्रति संबोधन में सहज मानवीय सभ्यता का ध्यान रखें।

भारत में गांवों के रोजगार केअवसरों को बढ़ाने के बजाय प्रतिदिन शहरों के विस्तारित होते रहने का एजेंडा रोजगार पलायन का मुख्य कारक है, महानगरीय या शहरी विस्तार की एकांगी और अन्धी अवधारणा के समक्ष करोना महामारी से निपटने में जो चुनौतियां राज्य समाज और स्थानिय प्रशासन के सामने आयी हैं,उसे लेकर हमें हमारी सोच समझ में मूलभूत बदलाव करना होगा।

करोना महामारी ने भीड़ भरी शहरी सभ्यता या बसाहटों में आज के लोकजीवन की रोजमर्रा की सुरक्षा की सुनिश्चितता पर ही गहरे और बुनियादी सवाल खडें किये है उन सवालों के सुरक्षित समाधान कारी उत्तर खोजना हम सबकी पहली प्राथमिकता हो गया है।महानगरों,शहरों में आबादी का दबाव कम कैसे हो?और गांवों में बारहों महिने रोजगार मूलक साधनो की सुनिश्चिता कैसे स्थायी स्वरूप में विकसित हो।इन दोनों चुनौतियों को प्राथमिकता के साथ पूरा करने में राज,समाज और बाजार तीनों को एकजुटता के साथ पहल करना होना होगी।

आशंकित मन ,सुरक्षित और जीवन्त समाज की रचना नहीं कर सकता।आज की चुनौती कठिन जरूर हैं पर समाधान असंभव नहीं।हमारे लोक जीवन और लोक मानस मेंं हम रहन सहन के स्तर मे बुनियादी समानता की प्राण प्रतिष्ठा ही नहीं कर पाये।मनुष्य जीवन की मूलभूत जरूरतों में संभव समानता हमारा तात्कालिक कार्यक्रम तथा बुनियादी समानता हमारा समयबद्ध मूललक्ष्य निर्धारित कर उसे साकार करना होगा।करोना महामारी ने हमारे रहन सहन के तौर तरिकों से पैदा होने वाली जीवन की असुरक्षा का बोध हम सबको कराया ।मनुष्य के नाते हममें से कोई भी महामारी की चपेट में आसकता है।मनुष्यों के रहने,खाने कमाने के अवसर और तौर तरिकों,आवागमन के साधनों का उपयोग तथा व्यक्तिगत और सामुहिक जीवन में अतिरिकत सतर्कता और शारीरिक दूरी हमारे आगामी समय के लोकशिक्षण और लोक समझ के मुख्य विषय होंगे जो हमारे आगामी शहरी और गांव के जीवन की सुरक्षा और गतीशीलता क़ो निर्धारित करेगे।

लाक डाउन और स्टेहोम, करोना महामारी से निपटने के उपाय के रूप में उभरे। भविष्य में हम शहरी विस्तार को रोके याने लाक डाउन में डाले और गांवो में आजीविका और जीवन यापन के इतने साधन संसाधनों का विस्तार करे की आजीविका जन्य पलायन लगभग रूक जाय और लोक जीवन जहां याने गांवों में रहते है तो वहीं रहने याने स्टे होम को सुरक्षित जीवन का पर्याय समझने लगे।

अनिल त्रिवेदी
त्रिवेदी परिसर,304/2भोलाराम उस्ताद मार्ग,
ग्राम पिपल्या राव,ए बी रोड़,इन्दौर,म प्र
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