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उज्जैन के सिंहस्थ में आने वाले प्रमुख अखाड़े और उनका गौरवशाली इतिहास

भारतीय साधना के प्रारम्भिक विकास से नवीं शताब्दी तक हिन्दू धर्म का प्रचार-प्रसार पूर्णत: व्यक्तिगत रूप से मनीषियों द्वारा होता रहा। सर्वप्रथम स्वामी शंकराचार्य ने अपने अनुयायियों में एकता बनाये रखकर अपने सिद्धांतों के प्रचलन हेतु साधुओं का संगठन बनाया। एक मत यह भी है कि आचार्य शंकर का जीवन व्याख्यान, शास्त्रार्थ, लेखन कार्य आदि के कारण इतना व्यस्त था कि इनके द्वारा संतों का संगठन स्थापित करना संभव नहीं था। वे इस संगठन के प्रेरणा-स्रोत थे। दशनामी विद्वान संतों के संगठन का श्रेय श्रंगेरी-मठ के तीसरे उत्तराधिकारी सुरेश्वराचार्य को देते हैं, जो साधुओं को केन्द्रित, नियमित, नियंत्रित एवं अनुशासित करने के जटिल कार्य में सफल हुए।

दशनामी अखाड़े:-

आचार्य शंकर ने शैव सम्प्रदाय के अद्वैतवाद की न केवल पुन: प्रतिष्ठा की, अपितु इस मत की दस शाखाओं को भी संगठित किया। इन संघों में दीक्षा के अनन्तर संन्यासियों द्वारा जो नाम ग्रहण किये जाते हैं तथा उनके साथ जो दस शब्द जोड़े जाते हैं, उन्हीं के कारण दशनाम का नाम प्रचलित हुआ। इसे योग पट्ट भी कहा जाता है। नाम के साथ जोड़े जाने वाले शब्द हैं : गिरि, पुरी, भारती, वन, अरण्य, पर्वत, सागर, तीर्थ, आश्रम और सरस्वती।

आचार्य शंकर ने अद्वैत मत के निरन्तर प्रचार-प्रसार-अभिवृद्धि के लिये देश के चारों कोनों पर एक-एक मठ स्थापित किया तथा अद्वैत मत के दसों संघ इन मठों से सम्बद्ध किये गये, जो इस प्रकार हैं : (1) श्रंगेरी-मठ (दक्षिण) से पुरी, भारती एवं सरस्वती संघ से सम्बद्ध है। (2) गोवर्धन मठ (पूर्व : जगन्नाथपुरी) से वन एवं अरण्य संघ से सम्बद्ध हैं। (3)जोशी मठ (उत्तर : बद्रीनाथ) से गिरि, पर्वत एवं सागर संघ से सम्बद्ध है। (4) शारदा मठ (पश्चिम : द्वारका) से तीर्थ एवं आश्रम संघ से सम्बद्ध है। इनके अतिरिक्त कांची में कामकोटि पीठ की स्थापना भी आचार्य ने की।

आचार्य शंकर ने मठाधीशों की व्यवस्था के संबंध में मठाम्नाय नामक विशिष्ट ग्रंथ की रचना की।

मठाम्नाय के अनुसार अद्वैत मत के 7 आम्नाय हैं। आम्नाय का अपभ्रंश अखाड़ा है। भारतवर्ष में वर्तमान में 7 अखाड़े एवं 52 मढ़िया हैं। प्रमुख अखाड़ों के नाम हैं : निर्वाणी, निरंजनी, जूना, अटल, आवाहन, अग्नि तथा आनन्द। जो 52 मढ़िया हैं उनके नाम किसी पराक्रमी नेता, सन्त या प्रसिद्ध स्थान के नाम पर रखे गये हैं। ये मढ़िया दावों के अधीन आती है। एक अखाड़े में 8 दावे होते हैं, जिनको गिरी एवं पुरी दावों के रूप में बाँटा गया है। पर्वत एवं सागर को लेकर गिरि दावे हैं, जिनमें 27 मढ़िया हैं। भारती, सरस्वती, तीर्थ, आश्रम, वन एवं अरण्य को लेकर पुरी दावे भी 4 हैं, जिनके अधीन 25 मढ़ियां हैं। रामदत्ती ऋद्धिनाथी, चारमढ़ी, दस मढ़ी, वैकुण्ठी, सहजावत, दरियाव तथा भारती ये 8 दावों के नाम हैं।

दशनामी संघ के हर संघ में सन्यासी अपनी आध्यात्मिक उन्नति एवं उच्चता के अनुसार 4 श्रेणियों में विभक्त हैं। ये हैं- (1) कुठिचक्र, (2) बहुदक, (3) हंस एवं (4) परमहंस। इनमें से प्रथम दो त्रि-दंडी उपाधि धारण करते हैं, अर्थात् तीन दण्ड धारण करते हैं, जो वाणी, विचार एवं कर्म पर नियंत्रण की प्रतिज्ञा के प्रतीक हैं। शेष दो एक-दण्डी कहलाते हैं अथवा एक-दण्ड धारण करते हैं।

दशनामियों के जो 7 आम्नाय (अखाड़े) हैं, उनके अपने स्वतंत्र संगठन हैं। उनका अपना निजी लवाजमा होता है, जिसमें डंका, भगवा निशान, भाला, छड़ी, वाद्य, घोड़े, ऊँट आदि होते हैं। इन अखाड़ों की सम्पत्ति का प्रबंध श्री पंच द्वारा निर्वाचित 8 थानापति महंतों तथा 8 कारबारी सेक्रेटरियों द्वारा होता है तथा इन्हीं को सारी व्यवस्था का अधिकार रहता है। इन अखाड़ों का पृथक्-पृथक् परिचय इस प्रकार है:-

(1) जूना अखाड़ा : बहुत पूर्व स्थापित इस अखाड़े की विधिवत् स्थापना कार्तिक शुक्ल दसमी संवत् 1202 वि. को कर्णप्रयाग में भैरव अखाड़ा के नाम से हुई। इसके संस्थापकों में मोटवान गिरि, सुन्दर गिरि, मौनी दिगम्बर दलपति गिरि, नागा लक्ष्मण गिरि, प्रतापी रघुनाथपुरी, कोतवाल, प्रयाग भारती, भण्डारी, महाभारती, नीलकण्ठ भारती धजवेद (ध्वजा के रक्षक), शंकरपुरी अवधूत, वेनीपुरी अवधूत, मौनी देववनपुरी एवं बैकुण्ठ पुरी आदि हैं।

इसके इष्टदेव रुद्रावतार दत्तात्रय महाराज हैं। इसकी विशेषता यह है कि इसके नीचे अवधूतनियों का संगठन भी है। इसका अखाड़ों में तीसरा स्थान है। इसका केन्द्र काशी है तथा उज्जैन में दत्त अखाड़ा होने के साथ ही प्रयाग, हरिद्वार, ओंकार आदि में शाखाएँ भी हैं। वर्तमान में दत्त अखाड़ा उज्जैन के महन्त पीर स्वामी अमरपुरी जी महाराज हैं।

(2) निर्वाणी अखाड़ा : इसकी स्थापना अगहन शुक्ल दशमी सं. 805 वि. को बिहार के अंतर्गत झारखण्ड वैद्यनाथ धाम की ओर हुई। इसके संस्थापकों में रूपगिरि सिद्ध, उत्तमगिरि सिद्ध, रामस्वरूपगिरि सिद्ध, शंकरपुरी मौनी, दिगम्बर ओंकार, भारती तपेश्वरी, पूर्णानन्द भारती, अग्निहोत्री आदि हैं।

unnamed (41)इसके इष्ट देव सगर पुत्रों को भस्म करने वाले कपिल मुनि हैं। इस अखाड़े में बड़े-बड़े महापुरुष हुए, जिससे अखाड़ों में इसका प्रथम स्थान है। इसका केन्द्र कनखल में है तथा प्रयाग, ओंकार, काशी, त्र्यंबक एवं उज्जैन में शाखाएँ हैं।

(3) निरंजनी अखाड़ा : इसकी कृष्ण पक्ष अष्टमी सं. 960 वि. को कच्छ (गुजरात) के माण्डवी नामक स्थान पर स्थापना हुई। इसके संस्थापकों में अभिमानी सिद्ध, सरजूनाथ, पुरषोत्तम गिरि, हरिशंकर गिरि जंगघाटील, श्रीपति गिरि पौहारी, बटुक गिरि नागा, जगन्नाथ गिरि दिगम्बर, जयकरण गिरि भण्डारी, रणछोड़ भारती, जगजीवन भारती (पाटम्बरी), अर्जुन भारती(डंकेश्वरी), गुमान भारती, जगन्नाथपुरी फलाहारी, स्वभावपुरी कैलाशपुरी, टुकटुकिया खंग नारायणपुरी, बख्तावर पुरी उधव भाऊ, उचितपुरी नागा उदुम्बरी एवं भीमवन कोतवाल हैं।

इसके इष्टदेव कार्तिक स्वामी हैं। इसका केन्द्र प्रयाग है तथा शाखाएँ हरिद्वार, काशी, त्र्यंबक, ओंकार, उज्जैन, ज्वालामुखी आदि में है।

unnamed (42)(4) अटल अखाड़ा : इसकी स्थापना मार्ग शीष शुक्ल चतुर्थी सं. 703 वि. को गोंडवाना में हुई। इसके संस्थापकों में वनखण्ड भारती, सागर भारती जहरी, शिवचरण भारती (अथवा जोगधारी), अयोध्यापुरी, अटल निर्माण, दत्तपुरी, त्रिभुवनपुरी ऊधव भाऊ, छोटे रणजीतपुरी, श्रवणगिरि अलोनी, दयालगिरि मौनी, महेश गिरि नक्खी, वेनी महेश गिरि वनखण्डी, हिमाचल वन, प्रतीत वन, पौहरी फलाहारी आदि थे।

इसके इष्टदेव गणेश (गजानन) हैं। इसका विशेष सम्बन्ध निर्वाणी अखाड़े से है। इसका केन्द्र काशी में तथा शाखाएँ प्रयाग, बड़ोदा, हरिद्वार, त्र्यंबक, उज्जैन आदि में है।

(5) आवाहन अखाड़ा : इसकी स्थापना ज्येष्ठ कृष्ण नवमी सं. 603 वि. को हुई। इसके संस्थापकों में हरद्वार भारती, गणपति भारती, सिद्ध गुदरबल भारती, हीरा भारती आदि हैं।

इसके इष्टदेव दत्तात्रय गजानन हैं। यह जूना अखाड़ा के साथ रहता है। इसका केन्द्र काशी में है।

(6) आनन्द अखाड़ा : इसकी स्थापना ज्येष्ठ शुक्ल चतुर्थी सं. 912 वि. को बरारदेश में हुई। इसके संस्थापकों में कंथागिरि, हरिहर गिरि, राजेश्वरागिरि, खालसा पठान गिरि, सवाई बौद्धों, देवदत्त भारती चौताल, हरिहर भारती, शिव श्यामपुरी, खेमादल पत्तक गोपाल भारती, हेमवन कंवरी, श्रवणपुरी फलाहारी, गंगेश्वर भारती सुरती हैं।

इसके इष्ट देवता सूर्य हैं। यह निरंजनी अखाड़े के साथ रहता है।

(7) अग्नि अखाड़ा : इसमें कोई नागा संन्यासी नहीं है अपितु यह चारों पीठ के ब्रह्मचारियों का संगठन है।

इसका इष्टदेव अग्नि है। इसका केन्द्र काशी में है।

नई व्यवस्था : उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में हिन्दू धर्म पर आये गम्भीर संकट के मुकाबले हेतु दशनामी साधु नेताओं ने न केवल साधु-संगठन को संगठित करने का प्रयास किया, अपितु संन्यासियों की कार्यशीलता के लिये एक नया मार्ग भी खोला। निश्चय किया गया कि ऐसे विद्वान व्याख्याताओं को देश के विभिन्न भागों में भेजा जाये जो हिन्दू धर्म विरोधी प्रचार एवं चिन्तन के आक्रमण का उत्तर दे सकें। साथ ही शिष्यों को उच्च शास्त्रीय ज्ञान देकर हिन्दू धर्म के प्रचार-प्रसार हेतु तैयार कर सकें। इस प्रकार साधु चरित्र तथा शास्त्रीय पाण्डित्य के पद स्थापित किये गये। प्राचीन काल में ये परमहंस कहे जाते थे किन्तु 1800 ई. से इनका नामकरण मण्डलेश्वर कर दिया गया। दशनामी सातों अखाड़ों में से सर्वोच्च विद्वत्ता एवं पाण्डित्य के धनी साधु को मण्डलेश्वर चुना जाता है।

अब इन मण्डलेश्वरों में से अनेक ने मूल अखाड़ों में से नवीन मठ स्थापित कर लिये हैं, जहाँ स्वतंत्र अध्ययन-अध्यापन चलता है। ये मठ गुरु-शिष्याश्रम कहे जाते हैं।

वैष्णव अखाड़ा:-

विष्णु के 24 अवतार हुए, जिनमें प्रधानता राम एवं कृष्ण को मिली तथा विष्णु की पूजा के बाद कृष्ण और फिर राम की पूजा प्रचलित हुई। वैष्णव धर्म को सारे देश में फैलाने का श्रेय आलवार सन्तों, विष्णु स्वामी, यमुनाचार्य, माधवाचार्य, रामानन्द स्वामी, वल्लभाचार्य, निम्बार्काचार्य, चैतन्य, तुलसी, सूर आदि को है। कालान्तर में वैष्णव धर्म आचार्यों के नाम से निम्बार्क, माध्व, विष्णुस्वामी, रामानन्दी आदि सम्प्रदायों में बँट गया।

श्री बालनन्दजी ने वैष्णव सम्प्रदाय के अखाड़े की स्थापना सन् 1729 में निम्बार्क, माध्व, विष्णु, स्वामी एवं रामानन्दियों को मिलाकर की तथा वे ही इसके प्रथम आचार्य चुने गये। इसके पहिले वैष्णवों का कोई अखाड़ा नहीं था। वैष्णवों का बड़ा स्थान दारागंज में है, जिसके संस्थापक माध्व मुरारीजी थे। इनका वैष्णव सम्प्रदाय में आज भी सर्वोच्च स्थान माना जाता है।

उदासीन अखाड़ा:-

इस सम्प्रदाय के आद्योपदेष्टा स्वयं भगवान् माने जाते हैं, जिन्होंने सनक, सनन्दन, सनातन एवं सनतकुमार को इस धर्म की दीक्षा दी। गुरु एवं शिष्य परम्परा का आरम्भ यहीं से माना जाता है। श्री श्रीचन्द्र महाराज ने न केवल इस सनातन धर्म को पुनर्जीवित किया अपितु इस सम्प्रदाय को पुनर्गठित भी किया। इस सम्प्रदाय में दो अखाड़े हैं : बड़े उदासीन अखाड़े एवं छोटे उदासीन अखाड़े।

उदासीन बड़ा पंचायती अखाड़ा : उदासीन महात्मा निर्वाणी श्री प्रीतमदास जी के मन में सम्प्रदाय को संगठित करने का विचार आया। उनके मन में योजना आयी कि प्रथम समस्त उदासीनों की एक पंचायत बनायी जाये, जिसकी आवाज सभी की आवाज हो। इसके लिये नेपाल स्थित सद्गुरु बनखंडी महाराज के समीप रह कर उन्होंने 12 वर्ष तपस्या की ओर गुरुजी से आशीर्वाद लेकर उदासीन साधुओं की जमात के साथ देश भ्रमण पर निकल पड़े। उन्होंने चारों धाम की यात्रा की। दक्षिण में हैदराबाद पहुँचे तो वहाँ के राजा चन्दूलाल आपके सेवक बन गये। चन्दूलाल के चाचा नानकचन्द ने निर्वाणीजी को इस कार्य के लिये पर्याप्त धन दिया।

निर्वाणी श्री प्रीतमदासजी ने प्रयाग पहुँचकर उदासीन सम्प्रदाय के सभी साधु-सन्त और महन्तों की सलाह से उदासीन पंचायती बड़ा अखाड़ा स्थापित किया। मुंशी नवलराम वजीर नवाब ने अखाड़ा बनाने के लिये जमीन दी। निर्वाणीजी ने संस्था को सुरक्षित रखने के लिये सर्व उदासीन सम्प्रदाय को मिलाकर देश में फैले 42 महन्तों के हस्ताक्षर से अश्विन बदी 9 सं. 1844 वि. को इकरारनामा लिखवाया। प्रयाग में सं. 1845 वि. में उन्होंने अखाड़े का भवन बनवाया। इसकी शाखाएँ भदैनी, कनखल, साहबगंज, मुल्तानगंज, असरगंज, टांडा, हरदोई, गोपीगंज, बलिया, वृन्दावन, सुधारस, कुरुक्षेत्र, उज्जैन, त्र्यंबक, हैदराबाद दक्षिण, गुन्टूर, मद्रास में हैं। नेपाल में भी इसकी शाखा है।

उदासीन नया अखाड़ा : उदासीन महात्माओं में वैमनस्य पैदा हो जाने के कारण कई महन्तों ने मिलकर प्रयागराज बांध के महात्मा सूरदासजी के नेतृत्व में सन् 1902 में अलग संगठन बनाया तथा उसका नाम उदासीन नया अखाड़ा रखा गया। इसके मुख्य स्थान हरिद्वार, प्रयाग, गया, काशी, कुरुक्षेत्र एवं उज्जैन आदि में हैं।

निर्मल अखाड़ा:-

गुरु नानकदेव ने जो पंथ चलाया, उसकी बाद में अनेक शाखाएँ उत्पन्न हुईं। उनमें से निर्मल पंथ एक है, जिसकी स्थापना गुरु गोविन्दसिंह के सहयोगी वीरसिंह द्वारा उन्हीं की आज्ञा से की थी। आचरण की पवित्रता एवं आत्मशुद्धि इनका मूलमंत्र है। ये ब्रह्मचारी होते हैं, श्वेत वस्त्र धारण करते हैं, जटा रखते हैं तथा शरीर पर भस्म नहीं लगाते हैं।

इसका केन्द्र कनखल में तथा शाखाएँ काशी, प्रयाग, त्र्यंबक, छछरोली, उज्जैन, ऋषिकेश और कुरुक्षेत्र में हैं।

उपर्युक्त अखाड़ों के अतिरिक्त सिंहस्थ पर्व पर नाथ पंथ तथा दादू पंथ, कबीर पंथ आदि के साधु भी उज्जैन आते हैं।

नाथ पंथ:-

योग शास्त्र के प्रवर्तकों की मान्यता है कि योग के प्रवर्तक भगवान शिव हैं। इस ज्ञान के सर्वप्रथम गुरु मछीन्द्रनाथ, गुरु गोरखनाथ थे। उन्होंने सारे देश का भ्रमण कर अनेक स्थानों पर केन्द्र स्थापित किये, जिनमें 12 केन्द्र आज भी प्रसिद्ध हैं।

नाथ-परम्परा में 9 नाथ तथा 84 सिद्ध माने जाते हैं। इनकी 12 शाखाएँ हैं, जिनमें से एक रावलपिंडी (पाकिस्तान) में अवस्थित है। नाथपंथियों में मुसलमान योगी भी पाये जाते हैं तथा इनमें अघोरपंथी और औघड़पंथी भी होते हैं। इनके अधिक प्रसिद्ध योगियों में उज्जैन के भर्तृहरि हुए हैं। इस पंथ के साधु कान में स्फटिक या सींग के कुण्डल पहिनते हैं तथा गले में ऊन का बटा हुआ डोरा में सींग पिरोकर पहनते हैं।

दादू पंथ:-

इस पंथ के प्रवर्तक महात्मा दादू हैं। इनके हजारों शिष्य थे। प्रमुख शिष्य 152 थे, जिनमें से 100 शिष्य विरत हो गये तथा उन्होंने कोई मठ नहीं बनाया। 52 शिष्य महन्त कहलाये।

दादू के प्रधान शिष्यों के निधन के बाद यह पंथ खालसा, नागा, विरत एवं खाकी उप-सम्प्रदायों में विभक्त हो गया।

दादू पंथियों का एक उप-सम्प्रदाय खालसा भी है, जिसका केन्द्र नराने में है।

कबीर पंथ:-

महात्मा कबीर इस पंथ के प्रवर्तक हैं। कबीर पंथी वैष्णवों की तरह तिलक लगाते हैं, श्वेत वस्त्र पहिनते हैं और तुलसी की माला धारण करते हैं।

साभार- http://www.simhasthujjain.in/ से