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हिन्दी की अस्मिता का प्रश्न

सर्वसमावेशी भाषा होना हिन्दी का सबसे बड़ा सौन्दर्य है। हिन्दी ने बड़ी सहजता और सरलता से, समय के साथ चलते हुए कई बाहरी भाषाओं के शब्दों को भी अपने आंचल में समेट लिया है। पहले से ही समृद्ध हिन्दी का शब्द भण्डार और अधिक समृद्ध हो गया है। हिन्दी को कभी भी अन्य भाषाओं के शब्दों से परहेज नहीं रहा। भारतीय भाषाएं तो उसकी अपनी सगी बहनें हैं, उनके साथ तो हिन्दी का लेन-देन स्वाभाविक ही है। लेकिन, हिन्दी ने बाहरी भाषाओं के शब्दों को भी बिना किसी फेरबदल के, उनके स्वाभाविक सौंदर्य के साथ स्वीकार किया है। वास्तव में, हिन्दी जीवंत भाषा है। वह समय के साथ बही है, कहीं ठहरी नहीं। जीवंत भाषाएं शब्दों की छुआछूत नहीं मानती हैं। शब्द जिधर से भी आए, हिन्दी ने आत्मसात कर लिए। शब्दों का आना, हिन्दी के आंचल में जगह पाना, स्वाभाविक और स्वत: था, तब तक तो ठीक था लेकिन, जब से बाहरी भाषाओं के शब्दों को हिन्दी के आंचल में जबरन ठेला जाने लगा है, अस्वाभाविक हो गया है। यह हिन्दी की अस्मिता का प्रश्न बन गया है। ऐसी स्थिति में प्रश्र यह रह ही नहीं जाता है- ‘हिन्दी में अन्य भाषाओं के शब्दों का प्रचलन हिन्दी के लिए आशीर्वाद है या अभिशाप? ‘

विशेष मानसिकता वाले साहित्यकारों, भाषाविदों, संचारकों और प्रशासकों ने सम्भवत: किसी सुनियोजित षड्यंत्र के तहत पहले तो यह हौव्वा खड़ाकर दिया कि हिन्दी ‘क्लिष्ट’ भाषा है। इसके बाद हिन्दी के ‘सरलीकरण’ और ‘आम बोलचाल की भाषा’ के नाम पर उसे ‘हिंग्लिश’ बना दिया है। हिन्दी में अन्य भाषाओं खासकर अंग्रेजी के शब्दों को जबरन ठंूसा जा रहा है। यह भाषा की अस्मिता के साथ खिलवाड़ नहीं तो क्या है? परिणाम देखिए क्या हुआ? आज किसी युवा से बातचीत कीजिए, समझ आ जाएगा। आवश्यकता, शिक्षक, प्रणाम, अनिवार्य जैसे हिन्दी के सरल शब्द सुनकर वह आपकी ओर आश्चर्य से देखने लगेगा। दरअसल, हिन्दी के शब्दों को अपदस्थ करके उसके सामने लम्बे समय से बाहरी भाषाओं के शब्दों को परोसा गया है। यही कारण रहा है हिन्दी के आसान शब्द भी उसके लिए क्लिष्ट हो गए हैं। यह भी देखने में आ रहा है कि दूसरी भाषा और हिन्दी के शब्दों में भी भेद करना उसके लिए कठिन हो गया है। असर, हादसा, खुदकुशी, नजरिया, सुबह, मकसद, ड्रामा, टीचर और टेबल जैसे अनेक बाहरी भाषाओं के शब्द उसे ‘हिन्दी’ ही प्रतीत होते हैं। अनावश्यक रूप से बाहरी भाषाओं के शब्दों के उपयोग से हिन्दी के बहुत से शब्द कहीं गुम हो गए हैं, क्लिष्ट हो गए हैं, अप्रचलित हो गए हैं। प्रश्न उठता है कि हिन्दी में बाहरी भाषाओं के शब्दों का प्रचलन इस तरह ही अनियोजित तरीके से बढ़ता रहा तो क्या इससे हिन्दी ही अप्रचलित नहीं हो जाएगी?

किसी भी भाषा के विकास, उसके जीवित बने रहने और जन सामान्य की भाषा बनी रहने के लिए दूसरी भाषा के शब्दों का योगदान निश्चिततौर पर महत्वपूर्ण होता है। लेकिन, आवश्यकता से अधिक उपयोग से मूल भाषा ही परिवर्तित होने लगती है। यह परिवर्तन उसके अस्तित्व के लिए संकट बन जाता है। हिन्दी के विकास पर नजर डाले तो हम पाएंगे कि हिन्दी के शब्द भण्डार में फारसी के करीब साढ़े तीन हजार, अरबी के ढाई हजार और दूसरी भाषाओं के भी कई हजार शब्द आ गए हैं। स्टेशन, ट्रेन, इंजन, कार, बस, पेट्रोल, डीजल, टेलीविजन, चैनल, कम्पनी, इंजेक्शन, डॉक्टर, नर्स, एम्बुलेंस और कम्प्यूटर जैसे शब्दों के प्रचलन में कोई आपत्ति नहीं हैं। आवश्यकता और तकनीक के अनुसार बाहरी भाषाओं के शब्दों के प्रयोग से प्रत्येक भाषा समृद्ध ही होती है। हिन्दी भी समृद्ध हुई है। लेकिन, जब हिन्दी के सुबोध शब्दों की जगह अकारण या कहें जानबूझकर अंग्रेजी या दूसरी भाषा के शब्दों का प्रयोग किया जाता है, तब पीड़ादायक स्थिति बनती है। धन्यवाद की जगह ‘थैंक्स’, समाचार की जगह ‘न्यूज’, स्वतंत्रता दिवस की जगह ‘इन्डिपेन्डन्स डे’ और मेहमान की जगह ‘गेस्ट’ का प्रचलन हिन्दी प्रेमियों के लिए तो दु:ख का कारण बनता ही है, यह हिन्दी के लिए भी अपमानजनक स्थिति पैदा करता है। क्या यह भाषा की सरलता है? इन्डिपेन्डन्स डे सरल शब्द है या फिर स्वतंतत्रता दिवस? ऐसे में सरल हिन्दी के नाम पर हिन्दी को हिंग्लिश में परिवर्तित करने का जो षड्यंत्र चलाया जा रहा है, उसका विरोध और उस पर लगाम लगाना आवश्यक हो जाता है। हिन्दी का सम्मान, उसकी अस्मिता, उसकी आत्मा को बचाना है तो हिन्दी में बाहरी भाषा के शब्दों के प्रचलन में सावधानी रखने की आवश्यकता है।

हिन्दी के पास भारतीय भाषाओं और बोलियों की अपार संपदा है। भारतीय भाषाओं के शब्द सामथ्र्य का मुकाबला कोई भी बाहरी भाषा नहीं कर सकती। अंग्रेजी में जितने शब्द हैं, उससे कई गुना शब्द अकेली हिन्दी में हैं। फिर, अन्य भारतीय भाषाओं को हिन्दी के साथ मिला लिया जाए तो अंग्रेजी ही क्या, दुनिया की अन्य भाषाएं भी बौनी नजर आएंगी। इस लेख में ‘अन्य भाषा’ की जगह ‘बाहरी भाषा’ शब्द का उपयोग किया गया है। क्योंकि, अन्य में भारतीय भाषाएं भी शामिल कर ली जाएंगी। भारतीय भाषाएं तो हिन्दी की अपनी हैं। हिन्दी में भारतीय भाषाओं के शब्दों के प्रचलन से कोई समस्या नहीं है। इसीलिए यदि हिन्दी के किसी ‘क्लिष्ट शब्द’ के स्थान पर ‘आसान शब्द’ का उपयोग करना हो तो उसके लिए बाहरी भाषा का मुंह क्यों ताकना? इसके लिए सबसे पहले भारतीय भाषाओं और बोलियों के शब्द भण्डार को खंगालना चाहिए। भारतीय संविधान का अनुच्छेद-351 भी हिन्दी के प्रचार-प्रसार-प्रचलन को बढ़ावा देने के साथ हिन्दी को समृद्ध करने की बात करता है। इस अनुच्छेद में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि हिन्दी के विकास के लिए उसकी प्रकृति में हस्तक्षेप किए बिना हिन्दुस्तानी और आठवीं अनुसूची में विनिर्दिष्ट भारत की अन्य भाषाओं (संस्कृत, असमिया, बांग्ला, गुजराती, कन्नड़, कश्मीरी, कोंकणी, मलयालम, मणिपुरी, मराठी, नेपाली, तमिल सहित 18 भाषाएं) के प्रयुक्त रूप, शैली और पदों को आत्मसात किया जा सकता है। हिन्दी का शब्द भण्डार बढ़ाने के लिए मुख्यतया संस्कृत और गौणतया अन्य भाषाओं के शब्द ग्रहण करना चाहिए। हिन्दी और भारतीय भाषाएं हमारा स्वाभिमान हैं। भाषा विद्वानों की इस बात को हमेशा याद रखना चाहिए कि किसी भी भाषा के विकास में हजारों वर्ष की यात्रा लगती है। हम सबकी चिंता होनी चाहिए कि अपनी श्रेष्ठ भाषा में अकारण और अनावश्यक रूप से बाहरी भाषा के शब्दों को ठूंसकर क्यों बर्बाद करें?

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लेखक परिचय : लेखक लोकेन्द्र सिंह माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में सहायक प्राध्यापक हैं। स्वदेश, दैनिक भास्कर, पत्रिका और नईदुनिया जैसे प्रतिष्ठित संस्थान में अपनी सेवाएं दे चुके हैं। उनके राजनीतिक आलेखों का संग्रह ‘देश कठपुतलियों के हाथ में’, ‘हम असहिष्णु लोग’ और काव्य संग्रह ‘मैं भारत हूँ’ काफी चर्चित है।

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