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विधानसभा चुनाव के परिणामों ने बताया सोया हिंदुत्व जाग चुका है

पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में भाजपा चार (उत्तरप्रदेश, उत्तराखंड, गोवा और मणिपुर) में विजयी रही, तो पंजाब आम आदमी पार्टी के खाते में गया। अपनी पुरानी गलतियों से सबक नहीं सीखने वाली कांग्रेस का इन चुनावों में सुपड़ा साफ हो गया। जो नतीजे आए है, उससे स्पष्ट है कि भारतीय राजनीति नई करवट ले चुका है। उत्तरप्रदेश में समाजवादी पार्टी, तो पंजाब में अकाली दल- विशेषकर सुखबीर सिंह बादल की पराजय बताती है कि उभरते भारत में वंशवाद की राजनीति का स्थान क्षीण होता जा रहा है। चुनावी लाभ के लिए मजहब के नाम पर मुसलमानों को गोलबंद करने और हिंदुओं को जातियों में बांटने का फॉर्मूला अब नहीं चलेगा- उत्तरप्रदेश इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है।

इस बार सबसे दिलचस्प चुनाव उत्तरप्रदेश का रहा। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की पुनर्वापसी ने कई प्रथाओं और मिथकों को भी तोड़ा है। 37 वर्षों बाद प्रदेश में कोई सत्तारुढ़ दल लगातार दूसरी बार अपनी सरकार बनाएगा। इस विजय के साथ मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने उस ‘मनहूस’ संबंधित अंधविश्वास को भी तोड़ दिया, जिसमें कहा जाता था कि प्रदेश का जो भी मुख्यमंत्री नोएडा आता है, वह दोबारा मुख्यमंत्री नहीं बन पाता। आखिर यह सब संभव कैसे हुआ?

विगत आठ वर्षों से भारतीय सनातन संस्कृति की आत्मा भगवान श्रीराम की जन्मस्थली अयोध्या में भव्य मंदिर का पुनर्निर्माण कार्य, वाराणसी में 350 वर्ष बाद काशी विश्वनाथ धाम का विराट कायाकल्प सहित कई अन्य परिवर्तन सकारात्मक संदेश दे रहे है। उत्तरप्रदेश में भाजपा के लिए मोदी-योगी सरकार की जनकल्याणकारी योजना और आधारभूत संरचनाओं का विकास जीत की गारंटी बनकर उभरा है। जो मीडिया समूह या पत्रकार वैचारिक-राजनीतिक कारणों से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी या मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के मुखर आलोचक रहे है, वे भी अपनी ‘ग्राउंड रिपोर्टिंग’ में इसी निष्कर्ष पर पहुंचे है।

एक प्रतिष्ठित अंग्रेजी समाचारपत्र ने इस संबंध में एक वस्तुनिष्ठ रिपोर्ट तैयार की थी, जिसमें उसने तीन लाभार्थियों का विस्तारपूर्वक उल्लेख करके लिखा कि बबीना निवासी गोविंद दास, चरखारी की गीता देवी और चित्रकूटवासी रामशंकर के परिवारों को पिछले पांच वर्षों में कई सरकारी योजनाओं के अंतर्गत क्रमश: लगभग 1.21 लाख रुपये, 1.52 लाख रुपये और 1.54 लाख रुपये सीधे बैंक खाते में प्राप्त हुए है। वास्तव में, वर्ष 2014 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा लागू ‘प्रधानमंत्री जनधन योजना’ ने इसमें अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, जिसने वंचितों तक पहुंचने वाले सरकारी वित्तीय लाभ में लग रहे ‘कट’ और रिश्वतखोरी को समाप्त कर दिया है। पीएम-जेडीवाई के अंतर्गत देश में अबतक लगभग 45 करोड़ लोगों के निशुल्क बैंक खाते खोले गए है, जिसमें सरकार ने अपनी विभिन्न जनयोजनाओं जैसे पीएम-आवास योजना, स्वच्छ भारत मिशन, पीएम-किसान, पीएम-स्वनिधि योजना आदि के अंतर्गत लाभार्थियों के खातों में एक लाख 60 हजार करोड़ रुपये हस्तांतरित किए है।

बात यदि उत्तरप्रदेश की करें, तो यहां साढ़े सात करोड़ से अधिक लोगों के जनधन बैंक खाते में सरकार ने सफलतापूर्वक लगभग 33 हजार करोड़ रुपये जमा किए है, तो पीएम आवास योजना के अंतर्गत 40 लाख घर बनाए हैं और प्रधानमंत्री उज्जवला योजना से 1.67 करोड़ पात्र परिवारों को मुफ्त एलपीजी गैस कनेक्शन दिया है। साथ ही आयुषमान भारत प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना से छह करोड़ से अधिक लोग लाभांवित हुए है। इसके अतिरिक्त, कोरोना महामारी में उत्तरप्रदेश में डेढ़ करोड़ राशन कार्डधारकों और अन्तोदय अन्न योजना के साढ़े 13 करोड़ लाभार्थियों- अर्थात् कुल 15 करोड़ लोगों को अप्रैल 2020 से प्रतिमाह दो-दो बार औसतन 25-35 किलो मुफ्त राशन के साथ एक किलो अरहर दाल, एक लीटर खाद्य तेल और नमक आदि भी प्रति माह भी उपलब्ध करा रही है। यह मात्र कागजी आंकड़े नहीं है। स्वतंत्र भारत में पहली बार लाभार्थियों को बिना किसी मजहबी-जातिगत भेदभाव के पूरी सरकारी सहायता मिल रही है।

ऐसा नहीं कि मई 2014 से ही देश में या फिर मार्च 2017 से उत्तरप्रदेश में गरीबों के लिए किसी सरकार ने कल्याणकारी योजना चलाई है। नीतियां पहले भी बनती थी, किंतु तब भ्रष्टाचार भस्मासुर बना हुआ था। स्वयं तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी भी कह चुके थे कि सरकार द्वारा भेजे 1 रुपये में से लोगों तक केवल 15 पैसा ही पहुंचता हैं। इस स्थिति में वर्ष 2014 के बाद से व्यापक सुधार हुआ है। यह ठीक है कि भ्रष्टाचार रूपी दीमक हमारी व्यवस्था से पूरी तरह समाप्त नहीं हुआ है, किंतु यह भी एक सच है कि बीते आठ वर्षों से मोदी सरकार और पांच वर्षों से उत्तरप्रदेश सरकार का शीर्ष नेतृत्व भ्रष्टाचार और अन्य वित्तीय कदाचारों से मुक्त है।

उत्तरप्रदेश में भाजपा का सीधा मुकाबला उस घोर परिवारवादी दल से था, जिसने वर्षों से ‘समाजवादी’ का मुखौटा पहना हुआ है, जिनका शासनकाल गुंडागर्दी, सांप्रदायिक दंगों, भ्रष्टाचार और आतंकवादियों/जिहादियों के प्रति सहानुभूति जताने से भरा रहा है। मतदान के समय उत्तरप्रदेश की जनता ने इसका भी संज्ञान लिया है। यहां भाजपा को मिले व्यापक जनसमर्थन का एक और बड़ा कारण योगी सरकार की अपराध के प्रति सख्त नीति और शून्य-सहनशीलता भी है। अपराधियों या किसी मामले में आरोपी के खिलाफ विधि सम्मत कानूनी कार्रवाई में उसकी मजहबी-जातिगत पहचान रोड़ा नहीं बन रही है। मंसूर पहलवान, अंसारी बंधु से लेकर पीयूष जैन, विकास दुबे, गोरी यादव आदि इसके प्रत्यक्ष प्रमाण है। इसके परिणामस्वरूप, प्रदेश में आपराधिक मानसिकता के लोगों में भय, तो जनता का शासन-व्यवस्था और कानून के प्रति विश्वास बढ़ा है, साथ ही निवेश के लिए अनुकूल वातावरण भी बना है।

बात यदि उत्तराखंड की करें, तो यहां भाजपा अपनी जनकल्याणकारी नीतियों के दम पर वापसी करने में सफल हुई है। यहां निवर्तमान मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी के अपनी सीट हारने से इस पर्वतीय प्रदेश में आगामी सरकार का मुखिया फिर से बदला जाएगा। यहां बार-बार मुख्यमंत्रियों को बदलना कोई नई बात नहीं है। 11 मुख्यमंत्रियों में केवल दिवंगत कांग्रेसी नेता नारायणदत्त तिवारी ही पांच वर्ष का कार्यकाल पूरा कर पाए थे। गोवा और मणिपुर में भाजपा क्रमश: लगातार तीसरी और दूसरी बार सरकार बनाने में सफल हुई है।

पंजाब में सत्तारुढ़ कांग्रेस के राजनीतिक क्षरण का बड़ा कारण उसका आंतरिक कलह और विभाजनकारी राजनीति है। जिस पार्टी ने प्रदेश में अपने ही मुख्यमंत्री कै.अमरिंदर सिंह के साढ़े चार साल के कार्यकाल को विफल बता दिया और हिंदू होने की वजह से सुनील जाखड़ को मुख्यमंत्री नहीं बनाया, उसपर मतदाताओं का विश्वास डगमगाना स्वाभाविक था- निवर्तमान मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी की अपनी सीटों पर हार इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। भाजपा के साथ कई वर्ष पुराना गठबंधन तोड़ने के बाद अकाली दल पहले से कमजोर हो गई है। भाजपा ने कभी पंजाब में स्वयं को सत्ता का मुख्य दावेदार नहीं माना और इस बार भी वह कै.अमरिंदर सिंह की नई पार्टी से गठबंधन करके मैदान में थी।

वास्तव में, इन पांच राज्यों- विशेषकर उत्तरप्रदेश के चुनाव परिणाम ने फिर से स्पष्ट कर दिया है कि जनता सकारात्मक परिवर्तन को स्वीकार कर रही है और वे अब ‘पुरानी व्यवस्था’ के समर्थकों के साथ ढोंगी सेकुलरवाद के नाम पर विभाजनकारी राजनीति को बिल्कुल भी सहन नहीं करेगी। किंतु विपक्ष जिस प्रकार ईवीएम और चुनाव आयोग पर दोषारोपण कर रहा है, उससे साफ है कि वह जनादेश को समझना ही नहीं चाहता और दशकों पुराने कालबह्यी सांप्रदायिक नारों से युक्त राजनीति से चिपका रहना चाहते है, जिसका ‘नए भारत’ में कोई स्थान नहीं है।

लेखक वरिष्ठ स्तंभकार, पूर्व राज्यसभा सांसद और भारतीय जनता पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय-उपाध्यक्ष हैं।

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