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आन पर मर मिटने वाली बुंदेलखंड की सारन्धा

वीर प्रस्विनी भारत भूमि ने अनेक वीरों को जन्म दिया । यह वीर बिना किसी भय या मोह के मातृभूमि की रक्षा के लिए स्वयं को बलिदान कर भारतीय इतिहास का चमकता हुआ सितारा बन गये। देश के एसे ही दीवानों में बुन्देल खण्ड के एक छोटे से राजा अनिरूद्ध सिंह भी एक थे । इस समय देश में मुगल बादशाह शाहजहां का शासन था । टेकड़ी का यह छोटा सा वीर राजा सदा ही मुगलों से लोहा लेता ही रहता था । इन युद्धों में मुगलों को सदा नीचा ही दिखाता था। वह अपने देश की, अपने राज्य की स्वाधीनता का सच्चा रक्षक था ।

वह अपनी स्वाधीनता की रक्षा करना परम कर्तव्य समझता था । इस कारण मुगलों से युद्ध ही इसके जीवन का मुख्य उद्देश्य और कार्य बन गया था । इस राजा अनिरुद्ध सिंह की पत्नी शीतला तथा बहिन सारन्धा भी युद्ध कला में खूब निपुन्न थीं ।ज्यों – ज्यों सारन्धा जवानी की ओर बढ रही थी त्यों – त्यों राजा अनिरुद्ध की चिन्ताएं भी उसके भविष्य को लेकर बढती ही जा रहीं थीं । इन दिनों ओरछा के स्वाभिमानी तथा वीरता की प्रतिमूर्ति चम्पतराय राजा थे । इस चम्पतराय का नाम उस समय के वीरों में प्रमुखता से लिया जाता था । उनकी वीरता की कथाएं देश भर में सर्वत्र चर्चित थीं ।

राजकुमारी सारन्धा की हार्दिक इच्छा थी कि उसका पति वीरता में अद्वितीय हो । इस कारण ही चम्पतराय से विवाह होने पर वह बहुत प्रसन्न थी क्योंकि इस विवाह से ही उसकी मनोकामना पूर्ण हुई थी । यह सारन्धा की सूझ – बूझ तथा वीरता व अनुराग का ही परिणाम था कि अपनी अन्य रानियों की अपेक्षा चम्पतराय ने सारन्धा को कहीं अधिक प्यार व स्नेह दिया । सारन्धा के प्यार से राजा और भी अधिक साहसी , वीर व योद्धा बन गया । इसके साथ ही साथ दोनों में प्रीति भी निरन्तर बढती ही चली गयी ।

चम्पतराय वीर योद्धा होने के कारण पराधीन रहना तो जानता ही न था किन्तु यह लघु राज्य एक विशाल मुगल राज्य का मुकाबला न कर पाने के कारण स्वाधीन न रह सका तथा मुगल राज्य के आधीन हो गया । मुगलों के आधीन रहते हुए भी राजा चम्पतराय ने अपनी स्वाधीनता की लड़ाई निरन्तर जारी रखी तथा अनेक लडाईयों में मुगलों को पराजित कर स्वाधीन हो गया । पराजित होने पर भी मुगलों की विशाल सेना ने उसका पीछा न छोड़ा और कुछ समय में ही पुन: मुगलों के आधीन हो गया । इस कारण ओरछा का प्रबन्ध अपने भाई को सौंप कर चम्पतराय स्वयं मुगल बादशाह को मिलने दिल्ली चल दिए । मुगल बादशाह इस वीर योद्धा की वीरता से भली प्रकार परिचित था । इस कारण दिल्ली दरबार में इस वीर योद्धा का अभूत्पूर्व स्वागत हुआ । इस स्वागत के साथ ही साथ नौ लाख रुपए की आय वाली जागीर उन्हें बादशाह की और से भेंट की गई ।

धन का आधिक्य मनुष्य को आलसी और निकम्मा कर देता है । चम्पतराय के साथ भी कुछ एसा ही हुआ तथा वह भी विलासिता में डूब गया। जब वह दिल्ली में अपना जीवन आमोद- प्रमोद के साथ बिताने लगे तो सारन्धा भी बेहद दु:खी रहने लगी । जिस सारन्धा ने जन्म से ही स्वाधीनता का सपना देखा था, जिस राजकुमारी ने स्वाधीनता को ही सदा उत्तम समझा था, उसे अपने पति व राजा कि यह स्थिति किंचित भी सहन न हो पा रही थी । उसे सब प्रकार का वैभव दिल्ली में रहते हुए प्राप्त हो रहा था किन्तु फ़िर भी वह स्वाधीनता के लिए तड़प रही थी । स्वाधीनता की ही सोच में वह अपने दिन काट रही थी ।

मानव जब जिस प्रकार का उत्तम विचार रखता है, विधि भी उसे उस प्रकार का ही उत्तम फ़ल देती है । संयोगवश हुआ भी कुछ ऐसा ही । इन्हीं दिनों शाहजहां का चहेता पुत्र दारा किन्हीं कारणों से चम्पतराय से नाराज हो गया । यह तो सब जानते ही हैं कि शाही लोगों की प्रसन्नता जहां सुख का कारण होती है, वहीं नाराजगी अनेक समस्याओं का कारण बनती है। हुआ भी कुछ ऐसा ही । बादशाह द्वारा दी गई जागीर उसने वापिस ले ली तथा उसके पति चम्पतराय ओरछा लौट गए ।

उन्होंने कुछ समय तो ओरछा में इस प्रकार ही बिताया । इस मध्य ही एक अन्य आश्चर्यजनक घटना ने सब को चौंका दिया । इस घटना से इस राजा चम्पतराय को पुन: सम्मान मिलने लगा । इस घटना से रानी सारन्धा का साहस , उसकी वीरता तथा उसके आत्म – सम्मान ने खूब रंग दिखाया । इस प्रकार सारन्धा ने एक बहुत ही अनुकरणीय तथा ऊँचा उदाहरण देश के सामने रखा। हुआ यह कि इन दिनों मुगल बादशाह शाहजहां बीमार हो गया । अपने पिता को रोगग्रस्त देख कर उसके पुत्रों में गद्दी के लिए मोह जाग उठा तथा इस गद्दी को पाने के लिए वह आपस में लड़ने लगे । औरंगजेब जानता था कि चम्पतराय एक वीर योद्धा है । इसलिए उसने दारा के प्रतिरोध के लिए इस चम्पतराय से सहायता मांगी । चम्पतराय की दारा से पहले से ही बदले की भावना थी , वह अपमान का उत्तर उसे देना चाहते थे । इसलिए उसके लिए यह उससे बदला लेने का उत्तम अवसर था । अत: उसने तत्काल औरंगजेब की प्रार्थना को स्वीकार किया तथा इसके अनुरूप चम्पतराय ने दारा के विरोध में जंग आरम्भ कर दी । ओरछा की सेना अपने वीर सेनापति राजा चम्पतराय के नेतृत्व में बडी वीरता से दारा की सेनाओं का मुकाबला कर रही थी किन्तु दारा की विशाल सेना के समने वह स्वयं को असहाय सी ही अनुभव कर रही थी। अपार वीरता दिखाने के बाद भी वह मुगल सेना का कुछ भी बिगाड़ न पा रहे थे ।

ओरछा की इस वीर सेना ने जब अपने आप को असहाय सा पाया तो अकस्मात् ही सब ने एक चमत्कार होते हुए देखा । हुआ यह कि अकस्मात् रानी सारन्धा एक विशाल सेना के साथ युद्धभूमि में आ उतरी । युद्धभूमि में आते ही रानी सारन्धा ने दारा शिकोह की सेनाओं पर बड़ी भयंकरता के साथ आक्रमण कर दिया । इस अकस्मात् हुए भयंकर आक्रमण से दारा की सेनाएं घबरा गईं तथा इन सेनाओं का साहस टूट गया , इस सेना के पांव उखड़ गए । सारन्धा के इस सूझ – पूर्वक किये गये आक्रमण से जहां चम्पतराय प्रसन्न हुए वहां औरंग्जेब भी सारन्धा की प्रशंसा किये बिना न रह सका तथा रानी की प्रशंसा में गीत गाने लगा । अभी वह रानी सारन्धा की प्रशंसा में लगा ही था कि एक अन्य आश्चर्य से भरी घटना घट गयी । रानी सारन्धा के साथ हुए दारा की सेनाओं के इस युद्ध में दारा का मुख्य सेनापति बुरी तरह से घायल हो कर समरांगण में गिर पड़ा । इस प्रकार से घायल हो कर भूमि पर घायल पड़े इस सेनापति के घावों पर मक्खियां मंडराने लगीं किन्तु उसमें इतनी भी शक्ति नहीं थी कि वह अपने आप को इन मक्खियों से बचा सके । अपने मालिक को इस अवस्था में देख उसका घोडा सहन न कर सका तथा उसके पास खडे होकर उसका घोडा उस पर बैठने वाली मक्खियों को अपनी पूंछ की सहायता से उड़ाने लगा । जब रानी सारन्धा ने इस स्वामी – भक्त घोड़े को देखा तो उसे यह घोडा पसन्द आ गया तथा उसने तत्काल इस घोड़े को पकड़ कर अपने हाथ में लिया तथा फ़िर इसे युद्ध – विजयी होने के चिन्ह स्वरुप अपने पति चम्पतराय को भेंट कर दिया ।

युद्ध में विजयी होने पर औरंगजेब ने चम्पतराय की इस सेवा के बदले उसे एक बहुत बड़ी जागीर पुरस्कार स्वरुप दे दी । यह तो सब जानते ही हैं कि औरंगजेब मुसलमान शासकों में सर्वाधिक कट्टर प्रकार का शासक माना गया है । जब दारा का वह घायल सेनापति उपचार के पश्चात् ठीक हो गया तो उसे अपने पास सेनापति का पद दे दिया । यह सेनापति अपने घोड़ा छिनने की घटना को अभी भूला न था तथा किसी भी प्रकार अपने उस घोड़े को वापस लेना चाहता था । अकस्मात् एक दिन सारन्धा का बेटा तथा ओरछा का राजकुमार इसी घोड़े पर सवार हो बाहर निकला कि इस सेनापति की नजर घोड़े पर पड़ी तथा उसने राजकुमार से यह घोड़ा बलात् छीन लिया । बालक ने रोते हुए इसकी शिकायत माता सारन्धा से की ।

बालक की बात सुनकर रानी क्रोध से लाल पीली हो गई तथा वह क्रोध में बोली कि तूं बिना घोड़े के लौट कैसे आया , उस सेनापति को मारकर क्यों नहीं आया ? यह कहते हुए रानी आग बबूला हो , हाथ में तलवार ले कर सेनापति के घर गयी , पता चला वह घर पर नहीं है , दरबार में गया है | इस पर सारन्धा नंगी तलवार हाथ में लिये ललकारते हुए बादशाह के दरबार में जा पहुंची । उसे देखते ही सेनापति ने भय से कांपते हुए कहा कि वह घोडा तो मेरा था , मैंने ले लिया । रानी ने तुरन्त उत्तर देते हुए कहा कि जिस घोड़े को तूं युद्ध में हार चुका है ,वह तेरा कैसे हो गया ? इस पर सेनापति ने समझौते के भाव में कहा कि वह इस घोड़े को तो नहीं देगा किन्तु हां वह इस घोड़े के भार के बराबर रत्न दे कर इस की भरपाई करने को तैयार है । रानी ने प्रत्युतर दिया कि यह हमारी आन का प्रश्न है । वह अपना जीता हुआ घोड़ा किसी कीमत पर भी नहीं छोड़ेगी । इस घोड़े के बदले वह अपना सब कुछ यहां तक कि जागीर भी छोड़ने को तैयार है ।

इस प्रकार अपनी आन पर अड़ी इस रानी ने अपनी जागीर का त्याग कर , इस घोड़े के बदले अपना सब कुछ बलिदान कर घोड़ा ले लिया । वह इस घोड़े को ले कर चल पड़ी । चम्पतराय , जो इस समय तक गुलामों का जीवन जीने वाला बन चुका था , को रानी का यह व्यवहार अच्छा तो न लगा किन्तु उसमें इतना साहस भी न था जो सारन्धा के निर्णय का विरोध कर पाता । राज दरबार में उपस्थित सब दरबारी भौंचक थे । औरंगजेब तो था ही मुसलमानों का पक्षपाती । वह जानते हुए भी , कि सेनापति ने गलती की है , रानी के इस अभिमान को सहन न कर सका तथा इसे चूर – चूर करने की उसने ठान ली ।

बादशाह ने तत्काल कुशल सेनापतियों के नेतृत्व में एक विशाल सेना ओरछा पर आक्रमण करने के लिए भेज दी । ओरछा की मुठ्ठी भर सेना ने इस टिड्डी दल की सी सेना से खूब लोहा लिया तथा इसे भागने पर बाध्य कर दिया । इस पर मुगलों की इस पराजित सेना के साथ और सेना जोड़कर बादशाह ने पुन: आक्रमण के लिए भेजा । अनेक सैनिकों के शहीद हो जाने के कारण अब ओरछा की रानी के पास कुछ गिने – चुने सैनिक ही बचे थे । चम्पतराय अपने एक जमींदार मित्र के पास सहायता के लिए गये , मित्र भी एसा था जो संकटकाल में काम आने वाला था , मित्र के लिए जान देने वाला था । अत; उसने अपने मित्र के लिए अपना सब कुछ त्यागने का निश्चय कर लिया । उसने सहायता तो की किन्तु मुगलों को इस सब का पता चल गया । अत: मुगलों द्वारा उसका किला घेर लिया गया । भयंकर युद्ध हुआ । इस युद्ध में जमींदार अपनी सेना सहित शहीद हो गया ।

इधर किले में भोजन समाप्त हो चुका था तथा राजा चम्पतराय बीमार पडा था , इस अवस्था में रानी के पास किले को छोडना ही एक मात्र उपाय बचा था , सो यही किया गया । रानी के इस निर्णय की भनक भी मुगलों को लग गई । मुगलों ने रानी सारन्धा के काफ़िले का पीछा किया । कुछ ही देर में उन्होंने इन के इस काफ़िले को घेर लिया । रानी ने भयंकर युद्ध किया । इस युद्ध में जो चन्द सैनिक उसके साथ थे, वह सब भी शहीद हो गये । इस पर डोली में लेटे बीमार चम्पतराय से न रहा गया तथा वह कूद कर डोली से बाहर आया तथा तलवार निकाल दुश्मन को ललकारने लगा किन्तु रोग की कमजोरी के कारण उसके हाथ इस तलवार को सम्भाल न पा रहे थे । जब उसने देखा कि मुगल सेना निकट आ रही है तो उसने रानी को कहा कि वह मुगल की कैद में रहने से मर जाना ही उत्तम समझता है , इस लिए वह उसे मार दे । भारतीय नारी कभी अपने पति का वध नहीं कर सकती ? किन्तु ज्यों ही मुगल सेना उसके पास आयी तो उसके पास अन्य कोई उपाय बचा भी न था । अत: उसने तत्काल अपने पति की छाती में तलवार घौंप कर उसे वीर गति दे दी।

यह सब दृश्य देख मुगल सेना के सब सैनिक स्तब्ध रह गये । इसे देख सब ने कहा की रानी हम सब आप के दास हैं । सारंधा ने कहा कि ” यदि हमारे पुत्रों में से कोई जीवित हो तो हमारा शव उन्हीं को दे देना । यही हमारी सब से बड़ी सेवा है ।” इतना कह कर उसने भी उसी तलवार से अपना ह्रदय भी छलनी कर लिया तथा आन की रक्षा करते हुए अपनी जागीर , अपना राज्य, अपना पति और यहां तक कि अपने आप को भी बलिदान कर दिया । ऐसी थी भारतीय वीरों की आन ओर भारतीय नारी की शान ।

डा.अशोक आर्य
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