Thursday, March 28, 2024
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इनके खून में राष्ट्रवाद नहीं, जिहाद हिलोरें मारता है

मलयाली लेखक शिवशंकर पिल्लै ने एक घटना का उल्लेख किया है। ताशकंद में हुये किसी साहित्य सम्मलेन में जब वो भाग लेने गये थे तो वहां मौजूद कुछ पाकिस्तानी और बांग्लादेशी लेखकों के सामने उन्होंनें एक सुझाव रखा कि क्यों न हम सब मिलकर एक वक्तव्य जारी करें कि हम सबलोग एक ही विरासत, एक ही संस्कृति और एक ही इतिहास के वाहक हैं, पिल्लै ने ये कहना शुरू ही किया था कि एक पाकिस्तानी लेखक चीख उठे कि आप ऐसा कैसे कह सकते हो? हम पाकिस्तानी हैं और इस नाते हमारी संस्कृति, हमारा इतिहास हिन्दू नहीं है बल्कि हम भी इस्लाम रूपी एक प्राचीन सभ्यता के वाहक हैं।

पिल्लै हतप्रभ हुये पर उन्हें लगा शायद ये दकियानूस ख्याल वाले कोई कट्टर शख्स होंगें पर तब उनके हैरत का ठिकाना न रहा जब उन्हें पता चला कि ये शख्स कोई और नहीं बल्कि मशहूर शायर फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ हैं, जिसे कम्युनिस्ट, प्रगतिशील और आजाद-ख्याल माना जाता है।

जो मानसिकता फैज़ की थी वही मानसिकता इकबाल की भी थी।

जी, उस इकबाल की जिसके तराने को मूर्खतावश भारत के राष्ट्रीय गीतों में शुमार किया गया है और जो यहां की मिलिट्री का प्रयाण गीत भी है। इकबाल के जिस तराने की बात वो रही है उस तराने को इकबाल ने अपने उम्र के 27वें साल में लिखा था।

उस नज्म का नाम था ‘‘तराना-ए-हिंदी’’।

यह तराना 16 अगस्त 1904 को साप्ताहिक पत्रिका ‘‘इत्तिहाद’’ में छपा था जो बाद में इकबाल के नज़्म संग्रह “बाँग-ए-दरा” में शामिल किया गया। इस नज़्म को लेकर बड़ी गलतफहमी है कि ये इकबाल के हिन्द से मुहब्बत का अजीमो-तरीन सबूत है पर हकीकत में ये नज़्म विस्तारवाद और भोगवाद की दुर्गन्ध समेटे हुये है।

इकबाल के इस नज्म को आप उनकी ही एक और रचना ‘तराना-ए-मिल्ली’ से जोड़कर पढ़ें या उसके बिना पढ़ें इसके भाव में कोई अंतर नहीं आता।

इस नज़्म की शुरूआती पंक्तियों को देखिये, इकबाल कह रहें हैं “सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा/ हम बुलबुले हैं इसके, यह गुलसितां हमारा”. क्या मतलब है इसका? हिजाज से जो उन्माद की एक आंधी उठी थी वो नील के साहिर को लूटटे-खसोटते हुये सिंधु और फिर बहुत बाद में गंगा तट तक भी आई थी। वीरान, उजाड़ और बियाबान के अभ्यस्त नर-पशुओं ने जब हमारे भारत को देखा तो इसके वैभव और इसकी विपुल संपदा देखकर उनकी बांछे खिल गई, लगा, यार इससे बेहतर तो कुछ कहीं था ही नहीं, इसी भाव को नज़्म में पिरोते हुये अल्लामा कह उठे कि कई बाग़-बगीचों को नोंचने के बाद हिन्दुस्तान के रूप में जो गुलशन हमें मिला है उससे बेहतर तो कुछ भी नहीं है और शब्द फूट पड़े “हम बुलबुले हैं इसके, यह गुलसितां हमारा।

आप बताइये कि हम सबको जिसे विरासत में इस देश को माँ मानने और कहने का संस्कार मिला है उसे ये पढ़ाया और गवाया जाता है कि हम बुलबुल हैं जो इस नर्गिस की सुंदरता पर मुग्ध होकर इसका भोग करने आयें हैं और लूट-खसोट कर यहाँ से निकल लेंगें। ये बात वो कह सकता है जो इस कलुषित मानसिकता को लेकर इस देश पर हमलावर हुये थे पर दुर्भाग्य है कि ये कलुषित और भोगवादी ख्याल हम पर लाद दिया गया।

आप मेरे बारे में कह सकतें हैं कि मैंने इकबाल की सिर्फ दो पंक्तियों को पकड़ कर अपना फैसला सुना दिया पर ऐसा नहीं है, इस नज़्म की एक पंक्ति है “ऐ आबे-रूदे-गंगा, वो दिन है याद तुझको/ उतरा तेरे किनारे जब कारवां हमारा”. यहाँ “हमारा” से कौन मुराद है इसका चर्चा किसी और पोस्ट में करेंगें पर ये बड़ा स्पष्ट है कि ये उस काफिले की यात्रा के एक पड़ाव का वर्णन है जो अरब से चली थी, इसका प्रमाण उनकी ही एक और नज्म “तराना-ए-मिल्ली” में मिल जाता है जिसमें उन्होंनें इस काफिले के बाक़ी पड़ावों का जिक्र किया है. उनकी पंक्तियाँ हैं, ऐ गुलिस्ताँ-ए-अंदलुस ! वो दिन हैं याद तुझको/ था तेरी डालियों में, जब आशियाँ हमारा/ ऐ मौज-ए-दजला, तू भी पहचानती है हमको/ अब तक है तेरा दरिया, अफ़सानाख़्वाँ हमारा…ये काफिला क्या था इसे बताने में भी इकबाल बेईमानी नहीं करते, वो कहतें हैं, “सालार-ए-कारवाँ है, मीर-ए-हिजाज़ अपना”

दिक्कत इकबाल नहीं थे, बिलकुल भी नहीं।

वो अल-तकिया जैसा भी कुछ नहीं कर रहे थे। दरअसल ये हमारी बेबकूफी थी कि हम उनकी बातों को समझ नहीं पाये. “तराना-ए-हिंदी” के जिस शेर “मजहब नहीं सिखाता…” को पढ़कर आप सेकुलर महफ़िलों में तालियाँ बटोरते हैं और लड़कियों के बीच खुद को बड़ा दिल वाला “इंसान” बताकर रिझाने की कोशिश करतें हैं उस शेर को इकबाल ने हमारे-आपके लिये लिखा ही नहीं था। इस्लाम के अंदर के अलग-अलग फिरकों और “स्कूल ऑफ़ थॉट्स” को भी मजहब ही कहा जाता है, मसलन हनफी मजहब, शाफ़ई मजहब, शिया मजहब वगैरह. अल्लामा अपने उम्मत के भीतर की फिर्काबंदी के नाम पर चल रहे झगड़े से बड़े दु:खी थे और इसी दर्द में उन्होंनें अपने उम्मतियों को समझाया कि ये जो तुम शिया, सुन्नी, हनफी, हंबली के नाम पर लड़ते रहोगे तो हिन्द हाथ से निकल जायेगा। आपने उनकी बातों को अपनी जहालत में नहीं समझा तो इसके जिम्मेदार इकबाल नहीं है।

इकबाल के बारे में मैं अक्सर लिखता हूँ कि उनसे मेरा “हेट-लव” का रिश्ता है पर ये रिश्ता मेरा और इकबाल का है, इस रिश्ते को आप शेरो-शायरी के लिये मेरी अतिशय मुहब्बत से जन्मी दुर्बलता भी कह सकतें हैं पर मेरी व्यक्तिगत दुर्बलता राष्ट्र की दुर्बलता बन जाये ये मुझे गवारा नहीं है। अगर प्रश्न राष्ट्र का हुआ तो मैं अंतिम इंसान होऊँगा जिसे इस शख्स अल्लामा इकबाल से मुहब्बत होगी। इकबाल के विचारों की चीड़-फाड़ से हो सकता है आपको तकलीफ़ हो पर राष्ट्र और हमारे लोग किसी भ्रम में न पड़े ये सबसे जरूरी है क्योंकि आजकल लोग ज्यादा पढ़ तो लेतें हैं पर ज्यादती ये कर बैठतें हैं कि सोचने-समझने के वक़्त को भी पढ़ने में ही समर्पित कर देतें हैं, दिक्कत बिना सोचे-समझे सिर्फ पढ़ लेने वालों की अति-बौद्धिकता से है।

बहरहाल इकबाल और फ़ैज़ जैसे उन तमाम बुलबुलों से कह दो कि वो कोई और चमन ढूंढें, ये भोग भू नहीं है यह मातृभू हमारी……सारे जहाँ से अच्छा…..

साभार – https://www.facebook.com/swarnimhind/ से

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