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ये संदिग्ध माओवादी और इनका साथ देने वाले

देश में अजीब किस्म का माहौल बना है। पुणे पुलिस द्वारा माओवादियों के साथ मिलीभगत के आरोप में गिरफ्तार किए गए पांच लोगों के पक्ष में जिस तरह कुछ विख्यात लोग उच्चतम न्यायालय गए और उनके पक्ष में जितने नामी-गिरामी वकील खड़े हुए उससे आम आदमी भौचक्क है। खैर, उच्चतम न्यायालय ने उन पांचों को पूरी तरह मुक्त तो नहीं किया लेकिन पुलिस की ट्रांजिट रिमांड की जगह उन्हें नजरबंद रखने का आदेश दे दिया है। अब हमारी नजर 6 सितंबर को होनेवाली अगली सुनवाई पर है। किंतु यह सोचने की बात है कि आखिर इनकी कितनी बड़ी हैसियत है कि इतिहासकार रोमिला थापर, अर्थशास्त्री प्रभात पटनायक, माजा दारूवाला, देवकी जैन और सतीश देशपांडे जैसे व्यक्तित्व इनके पक्ष में याचिका लेकर उच्चतम न्यायालय पहुंच गए? न्यायालय ने उसे स्वीकार कर सुनवाई भी कर दी। इनके लिए न्यायालय में जिरह करने राजू रामचंद्रन, राजीव धवन, इंदिरा जयसिंह, अभिषेक मनु सिंघवी, प्रशांत भूषण जैसे अनेक नामी वकील भी खड़े हो गए। ऐसे लोगों की जिरह एकदम निष्फल तो नहीं हो सकती। इनके सामने केवल अतिरिक्त सौलिसिटर जनरल तुषार मेहता थे। इससे पता चलता है कि महाराष्ट्र सरकार और केन्द्र सरकार इस स्थिति के लिए तैयार नहीं थी। पता नहीं ये इसका पूर्वानुमान क्यों नहीं लगा सके कि जिनको ये पकड़ने जा रहे हैं उनकी अपनी दुनिया में इतनी पकड़ और धाक है कि उनको बचाने के लिए कानून के हर पहलू को आजमाया जाएगा?

जिनको पुणे पुलिस ने गिरफ्तार करने की कोशिश की वे सब जानी मानी हस्ती हैं। वकील सुधा भारद्वाज, पत्रकार और मानवाधिकारवादी गौतम नवलखा, तेलुगु कवि वरवरा राव, प्रोफेसर वेरनॉन गोंजाल्विस और वकील अरुण फरेरा सभी मानवाधिकारवादी और समाजसेवी माने जाते हैं। इन सबके पास संगठन है और इनका संबंध देश से विदेश तक है। यह स्वीकार नहीं किया जा सकता कि नरेन्द्र मोदी और देवेन्द्र फडणवीस की सरकार दूसरी विचाधारा के लोगों को उत्पीड़ित कर रही है ताकि उसके खिलाफ कोई मुंह न खोले। सरकार के विरुद्ध लिखने वाले, बोलने वाले, सड़कों पर उतरने वाले, जनहित याचिका के माध्यम से कानूनी लड़ाई लड़ने वाले भारी संख्या में सक्रिय हैं उनको कहीं से परेशानी नहीं हो रही। क्या इन पांचों को अंदर करने से सरकार के विरोध की आवाज बंद हो जाएगी?

इनकी गिरफ्तारी इस वर्ष के आरंभ में हुई भीमा कोरेगांव से फैली हिंसा के संदर्भ में करने की कोशिश की गई है। पुलिस लंबी जांच के बाद इस निष्कर्ष पर पहुंची कि उसके पीछे मुख्य भूमिका माओवादियों की थी। इस सिलसिले में दिल्ली से रोना जैकब विल्सन, नागपुर के सुरेंद्र गडलिंग (वकील), शोमा सेन (प्रोफेसर) और महेश राऊत (एक्टिविस्ट) तथा मुंबई के सुधीर ढवले (पत्रकार) को 8 जून को गिरफ्तार किया गया। पुणे के कोरेगांव भीमा, पबल और शिकारपुर गांव से आरंभ हिंसा पूरे प्रदेश में फैली तथा राजधानी मुंबई तक भी इसकी चपेट में आ गए थे। उस समय इसे जातीय दंगा कहा गया। 1 जनवरी 2018 को भीमा कोरेगांव युद्ध की 200 वीं सालगिरह पर हुए कार्यक्रम में जिग्नेश मेवानी तथा उमर खालिद की तरह एकत्रित कई नेताओं ने उत्तेजक भाषण दिए थे। उससे स्वाभाविक यह माना गया कि इससे जो उत्तेजना पैदा हुई वही हिंसा का कारण थी। आरोप लगाया जा रहा है कि उस हिंसा में स्थानीय हिन्दू नेताओं का हाथ था जिसे सरकार बचा नहीं है। सच इसके विपरीत है। हिंदू नेता भीड़े गुरूजी के शिवराज प्रतिष्ठान और मिलिंद एकबोटे के समस्त हिंदू एकता अघाड़ी पर पुणे के पिंपरी पुलिस स्टेशन में मामला भी दर्ज किया गया। पुलिस ने मिलिंद एकबोटे को गिरफ्तार भी किया था। जांच में इनके खिलाफ कुछ नहीं मिला। जांच के दौरान ही धीरे-धीरे इसके तार उन लोगों से जुड़ने लगे जो थे तो माओवादी लेकिन छद्म तरीके से शहरों में दूसरी गतिविधियां करते थे।

पहले कबीर कला मंच संगठन के कार्यकर्ताओं के घर पर छापेमारी हुई। वहां से प्राप्त दस्तावेजों और सबूतों की जांच के आधार पर पुलिस उन पांचों तक पहुंची थ। भीमा-कोरेगांव हिंसा से ठीक एक दिन पहले 31 दिसंबर 2017 को यलगार परिषद ने कार्यक्रम आयोजित किया था। पता चला कि इसके पीछे भी माओवादी ही थे। पुलिस का निष्कर्ष यही है कि ये दोनों संगठन माओवादियों का ही शहरी मुखौटा है। यह भी कहना गलत है कि इनको आनन-फानन में गिरफ्तार किया गया। पुलिस ने 19 अप्रैल को रोना विल्सन समेत 14 संदिग्धों के घर पर छापा मारकर उनके लैपटॉप, पेन ड्राइव,हार्ड डिस्क, मेमरी कार्ड, मोबाईल फोन आदि जब्त कर लिया था। इनकी गिरफ्तारी हुई इसके 18 दिनों बाद और वह भी केवल पांच की। यह साफ हो रहा है कि रोना विल्सन जीएन साईं बाबा की गिरफ्तारी के बाद अर्बन माओइस्ट फ्रंट संभाल रहा था। अन्य चार लोग रोना के सहयोगी थे और दलित आंदोलन के नाम से समाज में तनाव और हिंसा पैदा करने में लगे हुए थे।

पुलिस को इनके मेल आदि की जांच से पांच पत्र मिले। इसी में से एक है, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की हत्या की साजिश वाला पत्र। वैसे महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेन्द्र फडणवीस और उनके परिवार को मारने की धमकी वाला पत्र भी इसमें है। इसमें गढ़चिरौली में सुरक्षा बलों की कार्रवाई का बदला लेने की बात की गई है। अप्रैल महीने में गढ़चिरौली में सुरक्षा बलों की कार्रवाई में 39 माओवादी मारे गए थे। विल्सन के घर से बरामद एक पत्र सीपीआई (एम) से ही जुड़े मिलिंद तेलतुम्बडे ने भेजा था। मिलिंद के सिर पर सरकार ने 50 लाख रुपये का इनाम रखा हुआ है। इस पत्र में लिखा है कि भीमा-कोरेगांव आंदोलन बेहद प्रभावी रहा। इसके अनुसार कॉमरेड मंगलू और कॉमरेड दीपू भीमा कोरेगांव कार्यक्रम में दो महीने से कॉमरेड सुधीर के साथ काम कर रहे थे। पत्र में इस बात इशारा है कि एक राष्ट्रीय पार्टी और अंबेडकर आंदोलन से संबद्ध प्रख्यात नेता भी जुड़े हुए थे। कोई इस पत्र को ही झूठा बता दे तो उसे हम कैसे स्वीकार कर लें? पुणे पुलिए की विल्सन से क्या दुश्मनी हो सकती है? जाहिर है, ये केवल पांच ही नहीं हो सकते। इनको वित्त सहित कई प्रकार का सहयोग कहीं से मिल रहा होगा।

बहरहाल, एक पत्र में भाजपा की विजय की चर्चा करते हुए कहा गया है कि यदि ऐसा ही रहा तो सभी मोर्चों पर पार्टी के लिए दिक्कत खड़ी हो जाएगी। … कॉमरेड किसन और कुछ अन्य सीनियर कॉमरेड्स ने मोदी राज को खत्म करने के लिए कुछ मजबूत कदम सुझाए हैं। हम सभी राजीव गांधी जैसे हत्याकांड पर विचार कर रहे हैं। यह आत्मघाती जैसा मालूम होता है और इसकी भी अधिक संभावनाएं हैं कि हम असफल हो जाएं, लेकिन हमें लगता है कि पार्टी हमारे प्रस्ताव पर विचार करे। उन्हें रोड शो में टारगेट करना एक असरदार रणनीति हो सकती है। हमें लगता है कि पार्टी का अस्तित्व किसी भी त्याग से ऊपर है। न्यायालय में वकील सरकारी वकील ने तीन पत्रों का हवाला दिया। इसमे एक में राउत और सेन का नाम लेते हुए हथियार खरीदने की बात लिखी है। लिखा है कि डी-4 रायफल और हथियार खरीदने के लिए आठ करोड़ रुपये की जरूरत है। दूसरे में एक इंस्टीच्यूट के दो लड़कों को प्रशिक्षण देने की बात है। तीसरे पत्र कें माओवादियों की योजना का विवरण है। क्या ये सारे पत्र पुलिस ने गढ़ लिए? जांच इनके आधार पर ही आगे बढ़ी और फिर पुलिस इन पांचों तक पहुंची है। कांग्रेस आज इस मामले में सरकार के खिलाफ आग उगल रही है।

कांग्रेस नेतृत्व वाली यूपीए सरकार ने दिसंबर 2012 में माओवादियों से संबंध रखने वाले 128 संगठनों के नामों का खुलासा किया था। राज्य सरकारों को इनके सदस्यों के खिलाफ कार्रवाई करने के कहा गया था। गिरफ्तार सुरेंद्र गाडलिंग और रोना विल्सन इन संगठनों से जुड़े थे। फरेरा और गोंजाल्विस को 2007 में भी पकड़ा गया था। वरवर राव को तेलंगाना और आंध्र पुलिस कई बार गिरफ्तार कर चुकी है। गोंजाल्विस को पांच वर्ष की सजा भी हो चुकी है। पता नहीं राहुल गांधी सरकार पर हमला करते समय ये सारे तथ्य क्यों भूल गए? शहरी माओवादी शब्द भी उसी दौरान प्रयोग हुआ था। इस तरह कांग्रेस यदि आज इन आरोपियों के साथ खड़ी है तो इसे दुर्भाग्य ही कहा जाएगा।

हम किसी को अपनी ओर से दोषी करार नहीं दे सकते। किंतु पुलिस छानबीन से उन तक पहुंची है तो उसे काम करने दिया जाए। आखिर जीएन साईबाबा को भी इसी तरह निर्दोष बताया गया था, लेकिन उन्हें आजीवन कारावास की सजा हुई। माओवादी चाहे हथियार लेकर संघर्ष कर रहे हों, या फिर सामाजिक-सांस्कृतिक-मानवाधिकार संगठन या अन्य रुप में, देश के लिए कितने खतरनाक हैं यह बताने की आवश्यकता नहीं। मोदी सरकार ने संघर्षरत माओवादियों को 150 जिलों से 50 जिलों तक सिमटा दिया है, मुखौटे एनजीओ का गला दबाया है, लेकिन छद्म वेश में काम कर रहे सक्रियतावादियों के खिलाफ नियोजित कार्रवाई नहीं हुई है। पूरी घटना का निष्कर्ष यही है कि इनके खिलाफ पूरी ताकत एवं तैयारी से टूट पड़ने की आवश्यकता है। इसमें उन चेहरों को भी पहचानना आवश्यक है जो इनके पक्ष में खड़े हो रहे हैं। इनके खिलाफ जनता को भी संघर्ष करना होगा।

अवधेश कुमार, ईः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092,