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स्वावलंबी भारत का सपना हम ऐसे पूरा करेंगे

आत्मनिर्भरता का तात्पर्य स्वनिर्भरता या स्वावलम्बन होता है।अगर हम आत्मनिर्भर होने की बात करें तो पहले तीन बातें स्पष्ट होनी चाहिये। हमारी आवश्यकताएँ क्या हैं, उनको पूरा करने के साधन या संसाधन हमारे पास क्या हैं और हमारा लक्ष्य क्या है।

हमारी प्राथमिक आवश्यकता को समझना आसान होता है। हम एक व्यक्ति अथवा एक समाज अथवा राष्ट्र के रूप में अपनी आवश्यकता को देश काल और परिस्थिति के आधार पर तय कर सकते हैं। अतः हमारे गाँव में रहने वाले और शहर में रहने वालों की आवश्यकता, मौसम और ऋतु के आधार पर तय की जा सकती है। पहाड़, समुद्र, स्थल, जंगल के नज़दीक अथवा वहाँ रहने वालों की आवश्यकता अलग अलग होगी।

बुनियादी आवश्यकताओं को अगर लिया जाये तो भोजन, आवास, बिजली, पानी, शिक्षा, चिकित्सा जैसी महत्वपूर्ण बातों को प्राथमिक दृष्टि से देखना ज़रूरी है। आज सरकार २० करोड़ परिवारों के ८० करोड़ लोगों को प्रतिमाह ५ किलो चावल या गेहूं और १ किलो दाल दे रही है, यानि ८० करोड़ लोग गरीब हैं जिनकी आय इतनी कम है कि वे आत्म निर्भर नहीं हैं।

पहला सवाल है कि क्या व्यक्ति को आत्म निर्भर बनाये बिना भारत आत्म निर्भर बन सकता है? करोना संकट की बात अलग हो सकती है किंतु यह प्रश्न साधारण परिस्थितियों में भी कमोबेश रहता है। बेरोज़गारी और ग़रीबी इसके मूल में है। आत्मनिर्भर भारत का संकल्प स्वदेशी आधारित ग्रामीण और स्थानीय वस्तुओं का निर्माण और उनके विपणन की व्यवस्था व्यक्ति को भी आत्मनिर्भर बनाने में मददगार हो सकती है। आर्थिक प्रगति और आर्थिक विकास दोनों पर सम्यक् दृष्टि से देखना ज़रूरी है। अगर हम ५ ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था के बारे में सोच सकते हैं और भारत को विश्व की एक मज़बूत अर्थव्यवस्था के रूप में देखना चाहते हैं तो भले ही हम विश्व की तीसरी सबसे बड़ी आर्थिक श्रेणी में आएँ किंतु हमें प्रति व्यक्ति आय की दृष्टि में १४२ वें स्थान से भी बेहतर श्रेणी में आना होगा नहीं तो धनी और गरीब के बीच की खाई गहरी होती जाएगी।

हमारा ग्रामीण किसान और मज़दूर इसका भागीदार नहीं बन सकेगा। प्रादेशिक और क्षेत्रीय विषमता को दूर करना भी आत्मनिर्भर भारत का उद्देश्य होना चाहिये।

दूसरी बात साधन एवं संसाधनों के आत्मविश्लेषण से सम्बन्धित है। तीन प्रकार के आर्थिक संसाधन होते हैं। प्राकृतिक, पूँजीगत एवम् मानव संसाधन। आज के ज्ञान और तकनीक पर आधारित अर्थ व्यवस्था में मानव एवम् बौद्धिक सम्पदा का महत्व सबसे ज़्यादा है। आज जो राष्ट्र जितना बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं तकनीक के क्षेत्र में आगे है वह उतना ही आर्थिक दृष्टि से समृद्धिशील है। आज अमेरिका की राष्ट्रीय आय दुनिया में सबसे ज़्यादा है और चीन दूसरे स्थान पर है। जापान और जर्मनी क्रमशः तीसरे और चौथे स्थान पर हैं। भारत पाँचवे स्थान पर है।

अमेरिका की राष्ट्रीय आय २१ ट्रिलियन डॉलर है। चीन की लगभग १५, जापान की ५.५, जर्मनी की ४.५ और भारत की सिर्फ़ ३ ट्रिलियन डॉलर है। अमेरिका लगभग ६ ट्रिलिटन डॉलर सिर्फ़ बौद्धिक सम्पदा के रॉयल्टी आदि जो उसके पैटेंट्स, कॉपी राइट्स और ब्रांड्स से कमा लेता है जो कि भारत की कुल राष्ट्रीय आय से भी दुगुना है। भारत में कुल ५०००० पैटेंट्स सालाना फ़ाइल होते हैं। चीन में १३.५ लाख, अमेरिका और जापान मेन लगभग ३.५ लाख। अमेरिका में अपनी कुल राष्ट्रीय आय का लगभग ३% और चीन में २.५ % और भारत में सिर्फ़ ०.६७% रिसर्च में खर्च होता है। यही मूल कारण है कि हमारा मैन्युफ़ैक्चरिंग सेक्टर दिन प्रतिदिन कमजोर होता जा रहा है और जहां चीन में इसकी भागीदारी उनकी कुल राष्ट्रीय आय का ५२% है वही हमारी राष्ट्रीय आय का सिर्फ़ २५% ही है। यही वजह रही की चीन का सस्ता उत्पाद भारतीय बाज़ार में छा गया।

अब चीनी बहिष्कार और स्वदेशी स्वीकार की मुहिम के द्वारा और आत्मनिर्भर भारत की संकल्प से आने वाले समय में हम गुणवत्ता वाले वोकल फ़ोर लोकल के नारे और सम्बन्धित जानकारी तथा आर्थिक नीतियों मे बदलाव लाकर नए रोज़गार पैदा कर सकेंगे। हमारा स्वदेशी उत्पाद सस्ता यानि प्रतियोगात्मक भी होगा और अच्छी गुणवत्ता वाला भी होगा इसमें कोई संदेह नहीं। इसमें समय जरुर लगेगा। दिशा सही रही और गति सही रही तो हम छोटे और मँझले तथा लघु उद्योगों के आधार पर दुनिया का मैन्युफ़ैक्चरिंग केंद्र बन सकते हैं।

हमारे मोरवी, तिरुपुर, शिवकाशी तथा अन्य औद्योगिक क्लस्टर के आधार पर सरकार ने कई नये क्लस्टर की घोषणा की है, जैसे बिहार में मखाना, कश्मीर में केसर। ऐसे लगभग ७०० क्लस्टर भारत में हैं तथा और बहुत से बन सकते हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात है कि हम नये अविष्कारों और नवीन तकनीक द्वारा स्वदेशी उत्पाद सस्ते, सुंदर और टिकाऊ बनाएँ तथा हमारे देश की माँग और देशी बाज़ार का सम्पूर्ण लाभ उठाएँ। स्वदेशी बाज़ार, स्वदेशी तकनीक और स्वदेशी पूँजी ही दीर्घकालीन आत्मनिर्भरता का आधार बन सकता है। सरकार ने लघु उद्योगों के लिये ३ लाख करोड़ रुपये के ऋण की व्यवस्था की है। यह सही कदम है। ब्याज की दरों में कटौती की गई है। बिना कोलैटरल सिक्युरिटी और बिना गारंटी के २५ अक्टूबर तक अतिरिक्त ऋण की व्यवस्था जिसमें से लगभग १.१५ लाख करोड़ दिये जा चुके हैं, बहुत ही सराहनीय कदम है। इसके अलावा भी बहुत सी रियायतें लघु उद्योगों को दी गई हैं। लघु उद्योग देश के आर्थिक विकास में बड़ी भूमिका निभाता है। रोज़गार सृजन का प्रश्न हो या निर्यात में भारत की भागीदारी, सभी प्रकार से लघु उद्योग देश के आर्थिक विकास में अग्रणी है।

इधर अब देश में चीनी वस्तुओं के बहिष्कार का तेजी से असर हो रहा है। मोरवी में तथा अन्य कई स्थानों पर खिलौने बनने लगे हैं। उसी तरह ५९ चीनी मोबाइल एप बंद कर देने से स्थानीय प्रतिभाओँ द्वारा विकसित एप भी बाज़ार में आने लगे हैं। आने वाले दिनों में हम अपनी बौद्धिक सम्पदा के बारे में ज़्यादा से ज़्यादा प्रचार और जानकारी उपलब्ध कराने का काम करना होगा। हमारे वैज्ञानिकों को प्रोत्साहित करना होगा ताकि वे हमारे देश में ही रहकर आविष्कार करें और आधुनिक तकनीकों के आधार पर आर्थिक विकास में सहभागी बनें। आत्मनिर्भर भारत बनाने की हमारी सामूहिक ज़िम्मेदारी है। समाज, शासन और प्रशासन सभी के सहयोग और संकल्प से हम अपने उद्देश्य को प्राप्त कर लेंगे। इससे विदेशी आयात घटेगा , हमारा व्यापार घाटा कम होगा। हमारी विदेशी पूँजी पर निर्भरता घटेगी और इससे आगे चलकर हमारे रुपये की विदेशी मुद्राओं की तुलना में मज़बूती बढ़ेगी। हमारी आर्थिक संप्रभुता भी बढ़ेगी और भारत पुनः एक शक्तिशाली और वैभवशाली राष्ट्र बनेगा।

कृषि क्षेत्र भारत की अर्थ व्यवस्था का मेरु दंड है। दुर्भाग्य का विषय है कि पिछले ३० वर्षों में कृषि का अनुपात हमारी राष्ट्रीय आय में १९९१ के ३५% से घटकर सिर्फ़ १५% के आसपास रह गया है और उसमें पशु पालन तथा मत्स्य व्यवसाय भी जुड़ा हुआ है। कृषि क्षेत्र में कई नये बदलाव लाए जा रहे हैं। बुनियादी ढाँचे में भी परिवर्तन लाकर किसानों की आय २०२२ तक दोगुना करने का प्रयास पिछले २-३ वर्षों से किया जा रहा है। गाँवों में बिजली, मनरेगा द्वारा खेतहीन मज़दूरों की मज़दूरी में २०२ रुपए की बढ़ोतरी, प्रवासी मज़दूरों के लिये १२५ दिनों की मज़दूर कल्याण योजना आदि प्रकल्पों के माध्यम से सरकार करोना संकट को अवसर में बदलना चाहती है ताकि गांव का विकास हो और लोगों की क्रय क्षमता बढ़े। जैविक कृषि का संरक्षण और समवर्धन भी सरकार का लक्ष्य है। जी एम फ़ूड की विषाक्तता से बचने के लिये सरकार को ठोस नीतिगत फ़ैसले लेने चाहिये। कृषि बचेगी तो देश बचेगा।विश्व व्यापार संगठन की बैठकों में खाद्य सुरक्षा पर राष्ट्र हित में कड़ा और स्पष्ट रुख़ होना चाहिये और किसी भी दबाव के बग़ैर हमारे बीजों की मौलिकता की रक्षा की जानी चाहिये।

तीसरी बात है कि हम अपना लक्ष्य निर्धारित करें। विकास का मॉडल कैसा होना चाहिये। विकास मंगलमय हो जिसमें सबका मंगल हो सभी का विकास हो, सर्वांगीण विकास हो। स्व. पंडित दीनदयाल उपाध्याय का एकात्म मानवदर्शन का सिद्धांत मनुष्य को सिर्फ़ एक भौतिक इकाई नहीं समझता बल्कि उसके बौद्धिक, मानसिक और आत्मिक विकास के बारे में चिंतन करता है। राष्ट्र को सिर्फ़ एक भौगोलिक इकाई नहीं वरण उसकी चेती अर्थात् उसकी सांस्कृतिक धरोहर की रक्षा और संवर्धन की बात पर विचार करता है। हमारे पुरुषार्थ चतुष्टय में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की बात कही गई है। इसके द्वारा समग्र समाज के भीतर धर्म और संस्कृति की नींव पर आधारित जीवन प्रणाली की सोच है।

हमारी इच्छाएँ और आवश्यकताएँ संयमित होंगी तो फिर हम अपने संसाधनों का उपयोग भी आर्थिक विकास के लिए कर सकेंगे, जिनमें सामंजस्य भी बना रहेगा और अंतर्विरोध भी कम से कम होगा।

राष्ट्रऋषि दत्तोपंत ठेंगडी जी का थर्ड वे या साम्यवाद और पूंजीवाद की असफलताओं के परिणाम में जो रुग्णता समाज में आई है, उसका एक ही विकल्प है जो एकात्म मानवदर्शन में बताया गया है। उसने युगानुकूल परिवर्तन किया जा सकता है, किंतु मौलिक दृष्टि तो वही रहनी चाहिये कि पहले धर्म और फिर अर्थ। काम की मनाही नहीं है परंतु वह उच्छृंखल नहीं बल्कि धर्मानुकुल और मर्यादा में होना चाहिए। अभी तक के भूमंडलीकरण और वैश्वीकरण के सभी मॉडल शोषण और उपभोक्तावाद के आधार पर होने के कारण विफल रहे हैं।

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद ब्रिटेनवुड संस्थाओं के रूप में विश्व बैंक, आईएमएफ़, और विश्व व्यापार संगठन आदि जितने भी नियम बनाए गए, सभी ग़रीबों के शोषण और आर्थिक विषमता को बढ़ाने के ही बनाए गए। भारतीय संस्कृति वसुधैव कुटुम्बकम और सर्वे भवंतु सुखिन: के सिद्धांत को मानकर चलने वाली रही है।

आत्मनिर्भर भारत और स्वदेशी पर आधारित आर्थिक नीति यही संदेश देती है और यह संकल्प सिर्फ़ भारत को ही नहीं वरन सारे विश्व को अपनाना पड़ेगा। इसका कोई विकल्प नहीं है। इसके मूल में जो विचार है उसकी प्रतिध्वनि हमें तभी महसूस होगी जब हम देख पाएँगे कि गाँवों का विकास हो रहा है, गरीब व्यक्ति का जीवन स्तर सुधर रहा है, बेरोज़गारी ख़त्म हो रही है, परिवेश संतुलित है यानि शुद्ध हवा और पानी लोगों को मिल रहा है। यह तभी सम्भव होगा जब विकेंद्रित अर्थव्यवस्था बनेगी और उसका आधार धर्म और संस्कृति होगा। और जब ऐसा होगा तो इसे हम सिर्फ़ आर्थिक प्रगति नहीं वरन आर्थिक विकास, मंगलमय विकास कह पाएँगे। उपनिषदों में हमारे ऋषि मुनियों ने इसे ही नि:श्रेयस अभ्युदय कहा है।

इससे विदेशी पूँजी पर निर्भरता घटेगी और इससे आगे चलकर हमारे रुपये की विदेशी मुद्राओं की तुलना में मज़बूती बढ़ेगी। हमारी आर्थिक संप्रभुता भी बढ़ेगी और भारत पुनः एक शक्तिशाली और वैभवशाली राष्ट्र बनेगा।

(लेखक देश के जाने माने कर एवँ वित्तीय सलाहकार हैं व चार्टर्ड एकाउंटेंट हैं और स्वदेशी अभियान से जुड़े हैं। )