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नागरिकता धर्म निभाने का वक्त

नागरिकता संशोधन-2019 का मकसद भारत के कुल नागरिक संख्या अनुपात में हिंदू प्रतिशत बढ़ाना, मुसलिम प्रतिशत को नियंत्रित करना हो सकता है। तीन देशों पर फोकस करने का मकसद, अखण्ड हिंदू भारत के एजेण्डे की तरफ बढ़ना हो सकता है। हालांकि यह संशोधन मेघालय, असम, अरुणाचल प्रदेश और मेघालय के उन इलाकों में लागू नहीं होता, जहां इनर लाइन परमिट का प्रावधान है; फिर भी इसका एक मकसद, पूर्वोत्तर में हुए राजनीतिक नुक़सान की पूर्ति भी हो सकता है।

यह सच है कि नागरिकता संशोधन-2019 से भारत में रह रहे कई धर्मी अवैध शरणार्थियों की नागरिकता संघर्ष अवधि घटेगी। किंतु यह सच नहीं कि नागरिकता संशोधन-2019 क़ानून पड़ोस में पीड़ित सभी गैर मुसलिम अल्पसंख्यकों को राहत देता है। यह पाकिस्तान में उत्पीड़ित अहमदिया-हजारा, बांग्ला देश में बिहारी मुसलमान और दुनिया के सबसे प्रताड़ित अल्पसंख्यक के रूप में शुमार रोहिंग्याओं को कोई राहत नहीं देता। चूंकि यह संशोधन, अवैध शरणार्थियों के मामले में सिर्फ तीन देश – पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश तक सीमित है, अतः श्रीलंका और मयांमार के गै़रबौद्धों को स्थानीय उग्र बौद्ध हमलों से बचकर भारत शरण को प्रोत्साहित नहीं करता। इससे तिब्बत में प्रताड़ित बौद्धों को कोई राहत नहीं मिलती। कई दशक पहले से तमिलनाडु के शिविरों में रह रहे 65 हज़ार श्रीलंकाई हिंदू-मुसलिम तमिल शरणार्थियों को भी यह निराश ही करता है।

लक्षित भेदभाव

निस्संदेह, विरोध की मूल वजह, संशोधन का धर्म और मुल्क आधारित धार्मिक विभेद है। दुनिया का कोई देश इसकी तारीफ नहीं कर रहा। इसकी प्रतिक्रिया अंतरराष्ट्रीय स्तर पर और अधिक भेदभाव बढ़ाने वाली हो सकती है। अभी इजरायल, उत्तरी व दक्षिण कोरिया समेत चंद देश अपने मूल धार्मिक समुदायों को छोड़कर अन्य को दोयम दर्जा देते है। भविष्य में पाकिस्तान, बांग्ला देश, अफगानिस्तान समर्थक अन्य मुसलिम बहुल देश, गैर-मुसलिमों अवैध शरणार्थियों के साथ वही व्यवहार नीति तय कर सकते हैं, जो कि संशोधन ने भारत के लिए तय की है।

स्वाभाविक आशंका

खुद भारतीय आशंकित हैं कि भारतीय मूल के ‘ओवरसीज सिटीजन ऑफ इण्डिया’ कार्डधारकों को उनके धर्म के उल्लेख की बाध्यता, उल्लिखित तीन देशों की मुसलिम लड़कियों से विवाह करने से रोकेगी। जो कर चुके, उनके जीवन में दुश्वारियां पैदा करेगी। क़ानून उल्लंघन का मामूली मामला होने पर भी ओईसी कार्ड रदद् करने का प्रावधान, अप्रवासी भारतीयों की भारत रिहाइश को हतोत्साहित करेगा; उनके अध्ययन व कार्य को असमय में बाधित करेगा। संसद को पुनर्विचार कर, इस प्रावधान को कुछ खास संवेदनशील अपराधिक कानूनों तक सीमित करना चाहिए। ओईसी कार्ड में धर्म उल्लेख की बाध्यता हटानी चाहिए।

सुखद है कि बांग्ला देश ने उसके देश से आए सभी धर्मी शरणार्थियों की सूची मांगी है। वह, उन्हे वापस लेने को तैयार है। पाकिस्तान-अफगानिस्तान को भी यही करना चाहिए। किंतु क्या जो है, क्या वे सभी अपराधी हैं ? हमें धर्म से खतरा है या अपराध से ? बेहतर हो कि वापसी का आधार धर्म को न बनाकर, प्रमाणिक आपराधिक पृष्ठभूमि व भारत विरोधी गतिविधियों को बनाया जाए।

कटु अनुभव

पूर्वाेत्तर में पहले हुए विरोध का कारण, राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर में नाम दर्ज कराने में आई कठिनाइयों के अनुभव थे। राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर में 19 लाख, 06 हज़ार, 657 लोग की नामदर्जगी न होने पाने का कारण, उनका शरणार्थी होना नहीं था। इसका कारण, उचित दस्तावेज प्रस्तुत न कर पाना था। लोग आशंकित हैं कि यह दिक्कत शेष भारतीय नागरिकों को भी हो सकती है; खासकर, भूमिहीन गऱीबों को। जन्म-विवाह-मृत्यु पंजीकरण प्रमाणपत्र, स्कूल रिकाॅर्ड, परिवार रजिस्टर, राशन कार्ड, मतदाता पहचान पत्र, आधार कार्ड, पैन कार्ड और अब यह राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर ! लोग अपने ही देश में पहचान व नागरिकता प्रमाणित करने के कई-कई दस्तावेजों से परेशान होते हैं। इनमें दर्ज विवरण में भिन्नता के कारण दिक्कतें होंगी। किंतु क्या संशोधन बन जाने मात्र से सभी मार्ग बंद हो गए हैं ? नहीं; सुप्रीम कोर्ट में 54 याचिकाएं मौजूद हैं। पुनर्विचार के लिए संसद मौजूद है। संसद का आपातकालीन सत्र बुलाकर इन तमाम दिक्कतों और आशंकाओं का प्रमाणिक व प्रभावी निराकरण करना चाहिए।

भरोसा बहाली ज़रूरी

समुदाय विशेष को दोयम दर्र्जे का एहसास कराने की वर्षोंं पुरानी कोशिशों, बढ़ती बेरोज़गारी और अमीर-ग़रीब में लगातार बढ़ती खाइयों ने लोकतांत्रिक के बुनियादी स्तंभों के प्रति भरोसा तोड़ा है। शांति अपील की ज़रूरत के ऐसे वक्त में कपड़ों से पहचान और शहरी नक्सली जैसे शब्द उल्लेख, प्रधानमंत्री पद को शोभा नहीं देते। ज़रूरत सिर्फ भरोसा बहाली की है। शासन, प्रशासन न्यायालय, कारेपोरट, मीडिया, नागरिक-धार्मिक संगठनों को पूरी निर्मलता के साथ भरोसा बहाल करने में लगना चाहिए। सभी पर इसका दबाव बनाना चाहिए। पूरी दुनिया को साथ आना चाहिए। खुद पर भी भरोसा रखिए। सरकार को कदम वापस खींचने ही पडे़ंगे। किंतु यह करते हुए किसी को कदापि नहीं भूलना चाहिए कि यदि संशोधन, विभेदकारी व भारतीय संविधान की मूल भावना के विपरीत है, तो हिंसक विरोध और उस पर हिंसक व विभेदकारी कार्रवाई भी संविधान की मूल भावना के विपरीत ही है।

प्रेरित हों हम

हम बंटवारे के बाद भी एक-एक कड़ियों को जोड़ने में जुटे रहे गांधी और पटेल के देश हैं। समुदाय की हमारी भारतीय परिकल्पना दो सांस्कृतिक बुनियादों पर टिकी हैं: सहजीवन और सह-अस्तित्व यानी साथ रहना है और एक-दूसरे का अस्तित्व मिटाए बगैर। इसके पांच सूत्र हैं: संवाद, सहमति, सहयोग, सहभाग और सहकार। राज और समाज द्वारा इन सूत्रों की अनदेखी का नतीजा है, वर्तमान अशांति। आइए, अतीत से आगे बढ़ें। अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के समक्ष पर्यावरणीय चिंता को खम्भ ठोकर पेश कर चुकी नन्ही ग्रेटा थनबर्ग और उसकी भारतीय संस्करण लिसीप्रिया कंगुजम से प्रेरित हों।

मूल कारण, स्थाई निवारण

हम गौर करें कि पूर्वाेत्तर में उपजे ताजा विरोध का कारण हिंदू बनाम मुसलमान नहीं, बल्कि संशोधन का त्रिुपरा समझौता व 1985 के उस असम समझौते का उल्लंघन है, जो कि मार्च, 1971 के बाद बांग्ला देश से आए अवैध हिंदू प्रवासियों को नागरिकता से वंचित करता है; परिणामस्वरूप, स्थानीय अस्मिता और कम उपलब्ध संसाधनों में अधिक आबादी के अस्तित्व के संघर्ष बढ़ाता है।

क्या हम इसकी अनदेखी करें ? नहीं। वैश्विक परिदृश्य यह है कि सीरिया-तुर्की, फिलस्तीन-इज़रायल द्वंद और मध्य एशिया से लेकर अफ्रीका तक के करीब 40 देशों से विस्थापन के मूल में, पानी जैसे जीवन जीने के मूल प्राकृतिक संसाधनों की कमी और उन पर कब्जे की तनातनी ही है। यूरोप समेत दुनिया के कई देश चिंतित हैं कि उनके नगरों और संसाधनों का क्या होगा ? हमारी आबादी अधिक है। हम भी संसाधनों की कमी और उन पर कब्जे का शिकार बनते देश हैं। ऐसे में अधिक आबादी को आमंत्रण ? भारत, सरदार सरोवर के कुछ लाख अपने ही विस्थापितों का अपने ही देश में ठीक से पुनर्वास नहीं कर पाया है। किसानों, आदिवासियों को बांधों में डुबोकर भी हम बांधों पर विराम लगाने के बारे में सरकार आज भी संजीदा नहीं है। ऐसे में तीन करोड़ बाहरी विस्थापितों के पुनर्वास के लिए सरकार की चिंता को क्या वाकई चिंता ही है ? मूल सवाल यह है और समस्या का स्थाई समाधान भी इसी में मौजूद है।

नागरिकता धर्म निभायें हम

हम हमेशा याद रखें कि प्राकृतिक और नैतिक समृद्धि अकेली नहीं आती; सेहत, रोज़गार, समता, समरसता, संसाधन, खुशहाली और अतिथि देवो भवः के भाव को साथ लाती हैं।…तब हम शरणागत् को सामने पाकर गुस्सा नहीं होते; शरण देकर गौरवान्वित होते हैं। आइए, अनुच्छेद 51-क निर्देशित कर्तव्य पथ पर चलें। नागरिकता के संवैधानिक धर्म की पूर्ति भी इसी पथ से संभव है और संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा लक्षित 17 सतत् विकास के लक्षयों की प्राप्ति भी।
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बाॅक्स 01
मूल क़ानून बनाम संशोधन

1. मूल नागरिकता कानून-1955 का आधार धर्म, जाति, वर्ण या वर्ग नहीं है। तद्नुसार नागरिकता हासिल करने के मात्र पांच आधार हैं: जन्म, वंशानुगत क्रम, पंजीकरण, नैसर्गिक कायदा एवम् आवेदक के मूल निवास वाले देश के भारत में विलय होने पर।
संशोधन, भारत में रह रहे अवैध शरणार्थियों में से सिर्फ मुसलमानों से धर्म व मुल्क के आधार पर विभेद करता है। शरणार्थियों के मामले में यह संशोधन, स्वयं को पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्ला देश – तीन देशों पर केन्द्रित करता है। वह इन तीन देशों के हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी व ईसाइयों को नागरिकता देने की राह आसान करता है, किंतु वहां से भारत पहुंचे मुसलिम अवैध शरणार्थियों को वापस अपने देश जाने पर विवश करता है।

2. गत् वर्ष गृह मंत्रालय द्वारा नागरिकता नियम 2009 की अनुसूची – 01 में बदलाव के अनुसार, भारतीय मूल के किसी भी नागरिक को निम्न स्थितियों में अपने धर्म की घोषणा अनिवार्य होगी: भारतीय नागरिक से विवाह करने पर; भारतीय नागरिकों के ऐसे बच्चे को, जिसका जन्म विदेश में हुआ हो; ऐसे व्यक्ति को जिसके माता-पिता में से कोई एक जो स्वतंत्र भारत का नागरिक रहा हो।

3. अवैध शरणार्थी वह है, जिसके पास नागरिकता का वैध दस्तावेज़ नही है। मूल क़ानून में भारत में रह रहे अवैध शरणार्थियों को नागरिकता आवेदन पंजीकरण की अनुमति तभी थी, जब वह आवेदन करने से पूर्व के अंतिम 12 महीने से पहले से भारत में रह रहा हो और पिछले 14 वर्षों में कम से कम 11 वर्ष भारत में रहा हो।
संशोधित क़ानून ने इस न्यूनतम प्रवास अवधि को घटाकर 06 वर्ष कर दिया है। आवेदन से पहले 12 महीने की जगह, 31 दिसम्बर, 2014 की एक सुनिश्चित तिथि को कर दिया है।

4. भारतीय संविधान की धारा 09 के अनुसार, भारतीय मूल का व्यक्ति, स्वेच्छा से दूसरे देश की नागरिकता ले लेने के बाद भारतीय नागरिक नहीं रह जाता। 26 जनवरी, 1950 से लेकर 10 दिसम्बर, 1992 की अवधि में विदेश में जन्मा भारतीय, भारतीय नागरिकता के लिए तभी आवेदन कर सकता है, जबकि उसका पिता उसके जन्म के समय भारतीय नागरिक रहा हो। मूल नागरिकता क़ानून भारत के पूर्व नागरिकों, उनके वंशजों व भारतीय मूल के दम्पत्ति को ‘ओवरसीज सिटीजन ऑफ इण्डिया’ के रूप में पंजीकरण कराके भारत में आने, अध्ययन व काम करने जैसे लाभ के लिए अधिकृत करता है।
संशोधित क़ानून, ऐसे पंजीकृतों द्वारा भारत के किसी भी क़ानून का उल्लंघन करने पर अधिकृत प्राधिकार को पंजीकरण रद्द करने का अधिकार देता है।
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अरुण तिवारी
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