Thursday, March 28, 2024
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टाईम्स ऑफ इंडिया और हिन्दुस्तान टाईम्स की लड़ाई या आँकड़ों की बाजीगरी?

द टाइम्स ऑफ इंडिया और हिंदुस्तान टाइम्स के बीच छिड़ी ई-मेल जंग को अगर दुखद न माना जाए तो यह हास्यास्पद अवश्य थी। दो बड़े और रसूखदार समाचार पत्रों को 'तुमने यह किया, उसने वह किया' जैसी बालसुलभ लड़ाई में उलझे देख हंसी आती है। दुख इसलिए क्योंकि विज्ञापनदाता, उद्योग जगत के संगठन, अन्य प्रकाशक और यहां तक कि पाठकों तक को इसकी कोई परवाह नहीं। इन सबकी बेपरवाही इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि अंग्रेजी प्रिंट माध्यम विज्ञापनदाताओं के लिए किस कदर महत्त्वहीन हो चुके हैं। जिन लोगों ने पिछले आलेख न पढ़े हों उनको बता दूं कि अधिकांश प्रकाशक जो पाठकों के आंकड़े जारी करने वाली संस्था मीडिया रिसर्च यूजर्स काउंसिल (एमआरयूसी) से जुड़े हैं, उन्होंने दो साल पहले आए पाठक सर्वेक्षण के नए तरीके से अपना विरोध जताया था। इस पूरे प्रकरण को अंकेक्षण और पुनप्र्रमाणन के जरिये निपटाया जा सका था और आखिर में इस वर्ष अप्रैल में एमआरयूसी ने अपने नमूने के आकार में बढ़ोतरी की थी। हालांकि अभी तक यह स्पष्ट नहीं है कि इसकी लागत का बोझ कौन वहन करेगा।
 
हालांकि अधिकांश प्रकाशक अभी भी सालाना रैंकिंग में कहीं न कहीं अपनी जगह गंवाने को लेकर दुखी और खीझे हुए हैं। इस बीच, विज्ञापनदाताओं ने आंकड़ों की अनुपस्थिति में टेलीविजन, डिजिटल तथा अन्य माध्यमों का रुख कर लिया है। इस व्यवस्था में शामिल तकरीबन सभी पक्षों का कहना है कि दिक्कत प्रकाशकों के अहं और अल्पकालिक लक्ष्यों को लेकर बने सोच से पैदा हुई है। आखिरी स्वीकार्य पाठक सर्वेक्षण ने अंग्रेजी प्रिंट माध्यमों में ठहराव के संकेत दिए थे। पूरी दुनिया में मुद्रित माध्यमों में गिरावट देखने को मिल रही है वह भारत के अपेक्षाकृत मुनाफे भरे बढ़ते बाजार में भी नजर आने लगी। मौजूदा आंकड़ों के अभाव में विज्ञापक पुराने आंकड़ों का इस्तेमाल करते हैं। पाठक सर्वेक्षण के रुक जाने से प्रकाशक रैंकिंग में भी यथास्थिति बनाए हुए हैं। 
 
टीवी का प्रदर्शन प्रिंट की तुलना में मामूली रूप से बेहतर है। अधिकांश प्र्रसारक परिणामों का प्रचार कर रहे हैं और टेलीविजन रेटिंग सर्विस में सुधार को लेकर प्रसन्नता अनुभव कर रहे हैं। ऐसा तब है जबकि ब्रॉडकास्ट ऑडिएंस काउंसिल रिसर्च (बार्क) द्वारा घोषित आंकड़े टैम मीडिया रिसर्च सर्विस द्वारा पहले जारी किये जाने वाले आंंकड़ों से कोई खास अलग नहीं हैं। हां, उनके आंकड़े जुटाने के तौर तरीके जरूर अलग हैं।  लेकिन बार्क का उपभोक्ताओं से संपर्क का तरीका जरूर अलग रहा। टैम के अंाकड़ों के साथ दिक्कत यह थी कि उनका नमूना बहुत सीमित था। उसने संगीत या अंग्रेजी समाचार चैनलों में एक खास समूह को तवज्जो दी। वहीं दर्शक रेटिंग में गिरावट के चलते यहां से वहां खिसकते रहे। ऐसा तब हुआ जबकि टैम की ओर से जारी की गई सलाह में कहा गया कि खास वर्ग के लिए व्यापक रुझानों पर नजर रखनी चाहिए।
 
इससे निजात पाने के लिए बार्क ने हिंदी सामान्य मनोरंजन, अंग्रेजी समाचार चैनल, हिंदी समाचार चैनल जैसे समूहों का प्रयोग किया। हकीकत तो यह है कि भारतीय दर्शक जितनी देर टेलीविजन देखते हैं उसमें अंग्रेजी समाचार चैनलों का हिस्सा 0.1 फीसदी से ज्यादा नहीं है। समाचार चैनलों में हिंदी और तेलुगू चैनलों का दबदबा है। प्रासंगिक क्लस्टर में यह वितरण प्रसारकों के अहं की तुष्टि के लिहाज से बढिय़ा है। जैसा कि एक अंदरूनी व्यक्ति ने बताया कि बार्क ने सबको संतुष्ट करने की दिशा में बहुत सही अंदाज में काम किया है।
 
बार्क और एमआरयूसी के बीच का विरोधाभास खासा रोचक है। यह इस बात पर भी एक दुखद टिप्पणी है कि देश के शीर्ष मीडिया संस्थान आंकड़ों को किस तरह देखते हैं। ऑनलाइन मीडिया पर एक नजर डालने से पता चलता है कि वह किस कदर उपयोगी साबित हो सकता है। वह विषयवस्तु, वितरण और उत्पाद के डिजाइन तीनों ही मामलों में बेहतर है। कोई भी डिजिटल सामग्री मुहैया कराने वाला स्रोत अपनी वेबसाइट पर आने वाले लोगों के आंकड़े जानने के लिए नियमित रूप से गूगल एनालिटिकल डैशबोर्ड का रुख करता है। इससे उसे यह पता चलता है कि लोग क्या पढ़ अथवा देख रहे हैं और वेबसाइट पर कितने मिनट ठहर रहे हैं आदि आदि। 
 
वे गूगल सर्च में बेहतर प्रदर्शन के लिए लगातार अपने डिजाइन और अपनी सामग्री में बदलाव करते रहते हैं। इस कोशिश की एक वजह यह भी होती है कि अधिक से अधिक लोग उनकी वेबसाइट पर आएं। साफ कहा जाए तो कई मनोरंजन प्रसारक इनका इस्तेमाल दर्शकों की आवाजाही जानने तथा चैनलों के आइडिया जानने के लिए भी करते हैं। लेकिन मोटे तौर पर देखा जाए तो पिं्रंट और टीवी में मामला केवल रैंकिंग तक सिमट कर रह गया है। वहां अब मामला केवल इस होड़ का रह गया है कि कौन नंबर एक पर है और कौन नंबर दो पर। वहीं दूसरी ओर मीडिया में एक कायदा यह है कि शीर्ष दो ब्रांड को विज्ञापन राजस्व में उच्च भागीदारी मिलती है। पिं्रट और टेलीविजन की विज्ञापन दरें डिजिटल माध्यमों के मुकाबले बहुत अधिक हैं। यह बात पूरी दुनिया में लागू होती है। तो क्या यह माना जाए कि इन दोनों प्रसार माध्यमों ने व्यवस्था को बेहतर समझा है? 

साभार- बिज़नेस स्टैंडर्ड से 

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