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गुलामी से मुक्त होना है तो दसवीं तक मातृभाषा में शिक्षा अनिवार्य करें

मानव संसाधन मंत्रालय ने सुझाव मांगे हैं कि उसकी भाषा-नीति क्या हो? मेरा सबसे पहला सुझाव यह है कि इस मंत्रालय का नाम बदलिए। इस मंत्रालय का नाम शिक्षा मंत्रालय से बदलकर मानव-संसाधन मंत्रालय किसने रखा था? क्या आपको कुछ याद पड़ता है? यह नाम बदला था, राजीव गांधी की सरकार ने! बेचारे राजीव से यह आशा करना कि वे इस फर्क को समझ पाए होंगे, यह उनके साथ ज्यादती ही होगी। वे खुद सिर्फ मैट्रिक पास थे और उन्होंने हमारे एक साथी पत्रकार को दी भेंट-वार्ता में खुद स्वीकार किया था कि मेट्रिक पास करने के बाद उन्होंने एक भी किताब कभी नहीं पढ़ी थी।

इस मत्रांलय का नाम भ्रष्ट करके इसका पहला मंत्री किसे बनाया गया था? पीवी नरसिंहराव को, जो सबसे ज्यादा पढ़े-लिखे मंत्री थे। जब उनसे पूछा कि आप इसका विरोध क्यों नहीं करते तो उन्होंने कहा यह हमारी (कांग्रेसी) संस्कृति के खिलाफ है। मनुष्य को साधन बनाने वाला मत्रांलय भारतीय तो हो ही नहीं सकता। भारत में तो मनुष्य साध्य है, साधन नहीं। नरेंद्र मोदी तो राष्ट्रवाद का झंडा उठाए हुए हैं। अगर वे इसका नाम बदलकर शिक्षा मंत्रालय नहीं रखेंगे तो कौन रखेगा? सिर्फ नाम बदलने से भारत की शिक्षा-नीति पटरी पर नहीं आएगी। उसके लिए जरुरी है कि नीति भी बदली जाए। भाषा-नीति सबसे पहले बदलें।

देश के सभी बच्चों को मातृभाषा 10 वीं कक्षा तक अनिवार्य रुप से पढ़ाई जाए। सभी विषयों की पढ़ाई का माध्यम भी मातृभाषाएं ही हों। जो स्कूल विदेशी भाषा के माध्यम से पढ़ाएं, उनकी मान्यता समाप्त की जाए और उन्हें कठोर सजा दी जाए। 10 वीं कक्षा तक देश के सभी बच्चों को राष्ट्रभाषा (हिंदी) भी अनिवार्य रुप से पढ़ाई जाए। जिनकी मातृभाषा हिंदी है, उन बच्चों को कोई भी एक अन्य भारतीय भाषा भी अनिवार्य रुप से पढ़ाई जाए। 10 वीं कक्षा तक किसी भी बच्चे पर कोई भी विदेशी भाषा थोपी नहीं जाए। यह हुआ द्विभाषा-सूत्र!

अब आता है, त्रिभाषा-सूत्र! 10 वीं के बाद छात्र-छात्राओं को विदेशी भाषाओं के पढ़ने की छूट होनी चाहिए। वे अपनी इच्छा से जो भी भाषा पढ़ना चाहें, पढ़ें। चीनी, रुसी, अंग्रेजी, जर्मन, फ्रांसीसी, हिस्पानी, जापानी आदि। कोई एक विदेशी भाषा को एक विषय के तौर पर पढ़ें। उसका पढ़ना भी अनिवार्य कतई नहीं होना चाहिए। जिसको जिस देश से व्यवहार करना हो, वह उसकी भाषा पढ़े। कोई एक विदेशी भाषा सभी छात्रों पर क्यों लादी जाए?

यह तभी संभव है जबकि भारत के राज-काज और घर-द्वार-बाजार से अंग्रेजी हटे। यदि इन स्थानों पर से आप अंग्रेजी नहीं हटाएंगे तो शिक्षा में वह लदी रहेगी, जैसे कि वह पिछले 68 साल से लदी हुई है। और तब शिक्षा मंत्रालय मानव संसाधन मंत्रालय ही बना रहेगा।

(ये लेखक के निजी विचार हैं)

साभार- नया इंडिया

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