Friday, March 29, 2024
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Homeदुनिया मेरे आगेफटी जींस की फटा-फट डॉ. कविता वाचक्नवी

फटी जींस की फटा-फट डॉ. कविता वाचक्नवी

वर्ष 2002 में पण्डित विद्यानिवास मिश्र जी के साथ लगभग 2 घण्टे से अधिक समय मैंने बहुत गम्भीर बातचीत करते हुए बिताया था, जिसे पश्चात् ‘हिन्दुस्तानी एकेडमी, प्रयागराज’ ने विद्यानिवास जी पर केन्द्रित एक विशेषाङ्क में प्रकाशित भी किया। उनका एक वाक्य था – “स्कर्ट पहन कर भी दकियानूसी हो सकते हैं और साड़ी पहन कर भी मॉड”। इसका अर्थ स्वतः स्पष्ट है कि व्यक्ति की सोच व चरित्र केवल पहनने वाले के वस्त्रों से नहीं आँके जा सकते।

वस्तुतः स्थान, ऋतु व क्षेत्र के अनुसार तो वस्त्र तय होते ही हैं, देखा-देखी भी होते हैं और नवीनता व अलग दिखने का आकर्षण भी इसमें भूमिका निभाता है। कुछ लोगों का पहरावा भेष व भूषा इतने भयंकर या कभी-कभी कुत्सित- विकृत होते हैं कि भय या घिन आती है। किसी की दाढ़ी ऐसी, किसी की मूँछें वैसी, कोई दुकान पर तोंद निकाले बैठा है, कोई केवल गमछा बाँधे, कोई बोरे जैसा लबादा मुँह-सिर सहित सब ओर लपेटे। सब अपनी इच्छा के स्वामी। किसी को सामाजिक शिष्टाचार या सामाजिकता की चिन्ता नहीं। खुले में लघुशंका, मूत्र-विसर्जन आदि की वीभत्स कुचेष्टाओं व अश्लीलता की जघन्य नग्नता के तो कहने ही क्या। किन्तु कभी किसी स्त्री का चरित्र, गली, मोहल्ले, दुकान, बाज़ार आदि में अधनंगे, उघड़े को देख कर, नहीं डोला व न किसी को किसी पुरुष के इस भौण्डे व नंगेपन पर प्रतिरोध व अभियान चलाने की आक्रामकता सूझी। आज तक कभी यह विचार का विषय तक नहीं बन पाया। समाज में ऐसा भद्दापन व नग्नता एकदम जैसे सहज स्वीकार्य रही है। अस्वीकार व अंकुश लगाने का काम केवल एक वर्ग का अधिकार है। आश्चर्य !!

रही फटी-छिली जींस की बात, तो वह भी केवल बच्चियाँ/ युवतियाँ ही नहीं पहनतीं, बच्चे/युवक भी पहनते हैं। तो ऐसे में सारा दोष युवतियों का ही क्यों? जिस समाज में फैशन व आधुनिक दिखने के लिए सिगरेट, शराब, माँसाहार व ड्रग्स तक लेने प्रारम्भ कर दिए जाते हैं, उस समाज में छिली-खुरची जींस तो केवल एक छोटा-सा, कुछ दिन का शौक होता है बच्चों का, जिसका उनके मन, विचार व स्वास्थ्य पर कोई दुष्प्रभाव भी नहीं होता; अतः यह कोई विषय नहीं होना चाहिए।

समस्या यह है कि अधिकांशतः समाज में युवकों, पुरुषों को संस्कारित नहीं किया जाता और वे स्त्री की देह की झलक देखते ही कामुक हो उठते हैं और परिणामस्वरूप या तो स्खलित अथवा आक्रामक।

युवतियों को ऐसों की आक्रामकता से बचाने के दो ढंग हैं। एक तो उन्हें नख-शिर तक लपेट कर रखा जाए, व दूसरा है कि समाज इतना संस्कारित हो कि नग्न देह देख कर भी विचलित न हो। आर्यसमाज के संस्थापक महर्षि दयानन्द सरस्वती के जीवन में एक घटना आती है, जब वे एक मन्दिर के सामने से जा रहे होते हैं तो एक पूर्णतः नग्न बच्ची उन्हें दिखाई दे जाती है, और वे दोनों हाथ जोड़ मस्तक झुका आगे बढ़ जाते हैं। पूछने पर कहते हैं कि उस बालिका में निहित मातृत्व को प्रणाम किया।

तो यह सारा खेल वस्तुतः संस्कारों का है। माना, कि समाज में सब कोई संस्कारित नहीं है व संस्कारित होना एक-दो दिन में नहीं हो सकता, ऐसे में बच्चियों की सुरक्षा का क्या हो। इसलिए सरल समाधान के रूप में हम अपनी बच्चियों पर ही अंकुश लगाते हैं क्योंकि दुष्टों से व दुश्चरित्रों से, उन पुरुषों से चरित्र की आशा तो करना व्यर्थ है। स्त्रियोँ को सेक्स का उपादान घोषित कर दना-दन लेख-पर-लेख लिख दे मारने वालों में से न किसी में ऐसा साहस है, न धैर्य, न कर्मठता, न ही बल व न ही इतनी समझ कि वे उस समाज के चरित्र-निर्माण की कुछ पहल कर सकें, इसलिए तथाकथित लेखक व विचारक बाजार से लेकर समाज तक, पश्चिम से लेकर अपने दिग्भ्रमित युवाओं व नयी पीढ़ी तक को कोस रहे हैं, स्त्री विमर्श से लेकर भटकी हुई युवतियों तक को धिक्कार रहे हैं। और ऐसा करने वाले ये अधिकांश लोग 40 से ऊपर की आयु के भयभीत या कुण्ठित पुरुष हैं। किसी में लेशमात्र बड़प्पन नहीं कि जिन बच्चियों को आप सेक्स की मारी, भड़काऊ आदि कह रहे हो, वे आपकी बेटियों सरीखी हैं।

मैंने कुछ दिन पूर्व भी लिखा था कि बच्चे ऐसा बचपना, शौक व गधा-पचीसी करते रहते हैं। अपनी युवावस्था में हम सब ने समाज व परिवार को आपत्तिजनक लगने वाली ऐसी बहुत-सी चूकें की हुई हैं; किन्तु दो-चार-छह वर्ष बाद जैसे-जैसे आयु व दायित्व बढ़ते हैं, अधिकांश लोग स्वयं अपने बचपन व मूर्खता पर हँसते व उसे त्याग देते हैं। उनके बचपने पर मुस्कुराइये व यथासम्भव सुरक्षा आदि विषयों पर खुल कर बातचीत कीजिये। बच्चे मूर्ख नहीं होते। कोसने, दोष देने व धिक्कारने, डपटने व लज्जित करने से आप ही की विफलता प्रकट होती है।

और यदि फटी जींस घटिया फैशन है, फटेहाली का प्रतीक हैं तो केवल बच्चियों के लिए ही क्यों, युवक भी तो फटी जींस पहन रहे हैं। वे तो इसके साथ ही कूल्हे पर टिके अन्तर्वस्त्रों से भी नीचे की ओर उतरी हुई या उतरती हुई जींस पहनते हैं। किसी मर्यादा का झण्डा उठाए पिता को अब तक उनके ऐसे भौण्डे देह-प्रदर्शन पर आदर्श व समाज व चरित्र की स्मृति नहीं आई। उनके गालियाँ बकने, बलात्कार करने, छेड़ाखानी करने, गुण्डागर्दी करने पर आप विचलित नहीं हुए। उलटे “लडकों से गलतियाँ हो जाती हैं” कह कर उनकी निकृष्टता पर उन की पीठ ठोकी जाने की परम्परा रही है, भले ही राजनीति हो या घर-परिवार।

यहाँ विदेशों में लड़कियाँ तों क्या, महिलाएँ तक शार्ट स्कर्ट, या शॉर्ट्स पहन कर भी रहती हैं, किन्तु फिर भी बहुत शालीन व सम्माननीय दीखती हैं। कभी नहीं लगता कि वे घटिया, बिकाऊ या सस्तेपन की मारी हैं या कम सम्माननीय हैं। जिस प्रकार पुरुष केवल अपना अधोभाग ढक कर स्वयं पर लज्जित नहीं होता, तैसे ही स्त्री भी मात्र यदि अपना अधोभाग व वक्ष का सामने का उतना भाग ढकी हुई हो तो लज्जित अनुभव नहीं करवाई जानी चाहिए।

आश्चर्य की बात है कि स्त्री सुरक्षा के अभाव व पुरुषों की दैहिक आक्रामकता पर विचा करने व लेख लिखने की अपेक्षा सब संस्कारशील दिखने की होड़ में लगे लेखक, युवतियों को हड़काने व लज्जित करने व उन्हें सुधारने के लिए डण्डे लेकर जुटे हुए हैं।

सारी भारतीयता व संस्कार इन्हें साड़ी में ही दिखाई देते हैं। जब कि वर्तमान साड़ी मूलतः भारतीय परिधान है ही नहीं। उसके सहयोगी दोनों वस्त्र (पेटीकोट व ब्लाउज़) पश्चिम से आयातित परिधान हैं। साड़ी सदा से अब तक सब से अधिक ‘ग्लैमरस’ परिधान है। साड़ी पहन कर वक्ष का एक ओर बाहर उघाड़ रखने वाली फिल्में और नुकीले स्तनों के उभार तो पचास वर्ष पूर्व से फैशन में रहे हैं। उस फैशन के लिए क्या किसी ने कोई सामाजिक अभियान चलाया?

अपने घरों में अपने बेटों को शिक्षा दो कि स्त्री की देह कोई माँस का टुकड़ा नहीं है कि उस के खुले में आते ही, उड़ते गिद्ध, चील व कौए नोंच खाएँ। बच्चियों को भी प्रेम से सामाजिक आक्रमण के यथार्थ से परिचित करवाएँ। वही लोग चीख-चीख बाहर आदर्शों पर पन्ने काले करते हैं, जिनके अपने परिवारों में सीधे घर वालों, विशेषतः बच्चों से खुल कर बात नहीं होती, या बात करनी नहीं आती; अतः उन्हें अन्य विभिन्न माध्यमों के दबाव द्वारा शिक्षा देना चाहते हैं।

बच्चे कभी भी धिक्कारने, डाँटने, डपटने, कोसने, लज्जित करने आदि से नहीं सीखते। और तब तो कतई नहीं सीखते जब आप ‘डबल स्टैण्डर्ड’ वाले होते हैं। ऐसे में तो वे आपको और भी मजा सिखा देने पर तुल जाते हैं। जितना व जो भी वे सीखते हैं, वह मात्र प्यार से, स्नेह व आत्मीयता से व उस से भी बढ़कर स्पष्टता, एकरूपता व तर्क एवं तथ्य से बात करने पर।

निर्णय व चयन आपका है, कि क्या आप बच्चों से इस प्रकार बात कर पाने में समर्थ व योग्य हैं भी अथवा नहीं। अन्यथा तो जो आप कर रहे है, वैसा कर आप हास्यास्पद ही अधिक बन रहे हैं।
#KavitaVachaknavee

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