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आदिवासियों का अनोखा शब्दकोश, हर शब्द के निकलते हैं दिलचस्प अर्थ

भोपाल. ऐसी कई वजहें हैं जिससे प्रदेश की जनजातीय बोलियों का प्रयोग निरंतर कम होता जा रहा है। जनजातियों की नई पीढ़ी का अपनी भाषा से संपर्क भी टूट रहा है। आदिवासी भाषाओं की संस्कृति और सभ्यता को सहेजने के लिए भोपाल स्थित ट्राइबल रिसर्च एंड डेवलपमेंट इंस्टीट्यूट ने गोंडी-हिंदी, भीली-हिंदी और कोरकू-हिंदी की डिक्शनरी तैयार की है।
साथ ही बैगानी डिक्शनरी पर भी काम चल रहा है। डिक्शनरी में लगभग 5 हजार शब्दों को संजोया गया है। इन्हें संकलित करने का तरीका भी काफी रोचक है। संस्थान की एक रिसर्च टीम आदिवासी बाहुल्य इलाकों में जाकर वहां के बुजुर्गों से संपर्क करती है और उन्हें भोपाल लेकर आती है। एक बार में लगभग 20 आदिवासियों को संस्थान में लाया जाता है। फिर हफ्तेभर चार से पांच ग्रुप्स में अनुसंधान अधिकारी उनके साथ काम करते हैं। विभिन्न ग्रुप "त्यौहार', "जंगल', "रिश्ते', "खानपान' जैसे विषयों के तहत निकले शब्दों को डिक्शनरी के लिए संकलित किया जाता है।
इसके बाद यह शब्द मूल शब्द हैं या नहीं इसकी जांच करने भाषा के तकनीकी विशेषज्ञों की मदद ली जाती है। तकनीकी पक्ष भारतीय भाषा संस्थान, मैसूर के सेवानिवृत उपनिदेशक जगदीश चंद्र शर्मा और ट्राइबल इंस्टीट्यूट के सहायक अनुसंधान अधिकारी लक्ष्मी नारायण पयोधि इन डिक्शनरीज़ का संपादन करते हैं।
अनोखी व्याकरण भी
सहायक अनुसंधान अधिकारी पयोधि बताते हैं, इन भाषाओं की व्याकरण भी तैयार कर ली गई है, ताकि इसके इस्तेमाल को आने वाली पीढ़ी समझ सकें। जनजातियों का यूं तो कोई निश्चित इतिहास नहीं है, लेकिन रामायण से लेकर महाभारत तक में आदिवासी किरदार नज़र आते हैं।
भोपाल स्थित संस्थान की इस पहल से प्रभावित होकर भारत सरकार ने पिछले साल से देश के सभी 18 राज्यों में स्थित ट्राइबल रिसर्च एंड डेवलपमेंट इंस्टीट्यूट को अपने-अपने राज्यों में निवास कर रहीं जनजातियों की डिक्शनरी बनाने को कहा है। प्रदेश की आबादी में लगभग 21 प्रतिशत जनजाति हैं। जिसमें भीलों की आबादी सबसे ज्यादा है।

साभार-दैनिक भास्कर से