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जंगल से नाता टूटा तो मजदूरी करके पेट भर रहे हैं आदिवासी, दूर से पहचान लेते थे जड़ी बूटियां

मध्यप्रदेश के विन्ध्य क्षेत्र के जंगल सैकड़ों प्रजाति के जंगली जीवों के साथ असाध्य बीमारियों के इलाज में कारगार हजारों जड़ी बूटियों से भी लैस है। इन जड़ी बूटियों की पहचान काफी मुश्किल होती है, लेकिन जंगलों में निवास करने वाले मवासी आदिवासियों के पास इन्हें पहचानने में महारत हासिल है। सतना जिले के मझगवां ब्लॉक में तकरीबन 40 गावों में ये आदिवासी रहते हैं। जंगल के बिल्कुल सटे गावों में रहने वाले इन आदिवासियों के लिए कभी जड़ी बूटी इकट्ठा करना मूल काम में शामिल होता था, लेकिन आज ये जंगल से दूर होते जा रहे हैं। बेरोजगारी की वजह से जंगल में रहने वाले आदिवासी मजदूरी का काम करने को मजबूर है। यहां के युवा गांव छोड़कर दिल्ली और महाराष्ट्र के शहरों में काम के लिए जाते हैं। इस तरह वे अपनी परंपरा को भूलते जा रहे और साथ ही जड़ी बूटी का अनमोल खजाना भी उनकी पहुंच से दूर होता जा रहा है।

इंटरनेशनल जर्नल ऑफ बायोलाजी रिसर्च के एक शोध के मुताबिक मवासी समुदाय के लोग 32 तरह की जड़ी बूटियों का इस्तेमाल कई तरह के रोगों के इलाज के लिए करते हैं। यहां के आदिवासियों की माने तो जंगल में 100 से अधिक प्रकार की जड़ी बूटी मिलती है, लेकिन इनमें से अब कुछ की पहचान ही वो कर पाते हैं। शोध के मुताबिक आदिवासी सांस की बीमारी जैसे अस्थमा, सर्दी खांसी, सांप के काटने का उपचार काला सिरिस नाम की जड़ी से करते हैं। धवा नाम के पौधे से कैंसर, जले का इलाज तक संभव है। इन जंगल में डायबिटीज, त्वचा रोग, हृदय रोग सहित कई बीमारियों के इलाज के लिए जड़ी बूटियां मिलती है।

मलगौसा गांव के निवासी राजाराम मवासी का कहना है कि उनके दादा बहुत सारे पौधों की पहचान रखते थे और हड्डी टूटने से लेकर कई असाध्य बीमारियों के इलाज के लिए वे जंगल से जड़ी बूटियां लाते हैं। राजा राम ने अपने पूर्वजों की परंपरा कायम रखी है और मुफ्त में गांव वालों और उनके मवेशियों का इलाज उन जड़ी बूटियों से करते हैं। वे बताते हैं कि जंगल से उन्हें अभी चरवा, तेंदू, चिरौंजी के अलावा फेनी, करिहारी, पाढ़ी, काले सुर, शतावर, सफेद मुसली सहित कई दवाइयां मिल जाती है। राजा राम की उम्र 60 वर्ष के करीब होगी, लेकिन उनके अलावा गांव में कोई और उन बूटियों की पहचान नहीं रखता।

लगतार हो रही जंगल कटाई और जंगल के एक बड़े हिस्से पर आदिवासियों के अधिकार खत्म होने की वजह से इन्हें रोजगार के दूसरे माध्यम खोजने पड़े रहे हैं। मलगौसा गांव के युवा रज्जन मवासी (22) बताते हैं कि उन्होंने पांचवी तक ही पढ़ाई की है और वे बचपन से ही मजदूरी के काम में लग गए। रज्जन ने बताया कि जड़ी बूटी इकट्ठा करने में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं। इससे पेट नहीं भर सकता है। अब जंगल उतना घना नहीं रहा और लगातार कम होता जा रहा है। इस काम को सीखने में समय बर्बाद करने से अच्छा है कि हाथ में फावड़ा पकड़कर कुछ पैसा कमाया जाए। रज्जन अपने साथी श्यामलाल मवासी के साथ रोज मझगवां काम की तलाश में जाते हैं। गांव के दूसरे युवा भी इस काम को नहीं अपनाना चाहते।

गांव वालों को वन विभाग के गार्ड से भी डर लगता है। पुतरी चुवा गांव के निवासी श्याम सुंदर मवासी बताते हैं कि एक बार उन्हें जंगल से कुछ जड़ी बूटी लाते समय कुछ वन विभाग के कर्मचारियों ने रोक लिया था और उनका सारा सामान छीन लिया। उनके ऊपर जुर्माने की कार्रवाई भी हुई। उसके बाद से गांव के लोग जंगल जाने से डरते हैं। वहां का कोई सामान बाजार में बेचने में भी डर लगता है।

श्याम लाल बताते हैं कि जंगल से कई पेड़ पौधे खत्म हो रहे हैं। वर्षों पहले जब वे अपने पिता के साथ जंगल जाते थे कई तरह की बूटियां और फल मिलते थे। इसी गांव के श्रीपाल मवासी का कहना है कि सूखे की वजह से जंगल में अब पहले की तरह भाजी (हरी सब्जियां या पत्ते) नहीं मिलते। वे लोग बचपन में अनाज नहीं खरीदते थे, बल्कि जंगल की घास से निकलने वाले अनाज की रोटी खाते थे। अब उस तरह के घास जंगल में नहीं दिखते हैं।

फॉरेस्ट राइट एक्ट यानि जंगल पर जंगल में रहने वाले लोगों को अधिकार दिलाने के लिए बने कानून का पालन इस जिले में ठीक से नहीं किया गया। मवासी आदिवासी बहुत जिले सतना में आदिवासियों के 8466 दावों में से 6398 दावे यानी 75.6 प्रतिशत दावे निरस्त कर दिए गए। इस तरह आदिवासी अपनी जमीन और सामुदायिक उपयोग के लिए इस्तेमाल होने वाले जंगलों से दूर हो गए है।

साभार- https://www.downtoearth.org.in/ से