Friday, March 29, 2024
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सिंहस्थ-उज्जैनः ऐतिहासिक, पौराणिक, धार्मिक और तंत्र की नगरी उज्जयिनी का गौरवशाली इतिहास

भारतीय संस्कृति की धरोहर, मोक्षदायिनी सप्तपुरियों में एक उज्जयिनी, महाकाल की उपस्थिति से अत्यन्त पावन, महिमा मण्डित, विक्रम के शौर्य-पराक्रम से दिग्-दिगन्त में देदीप्यमान और कवि कुलगुरु कालिदास के काव्यलोक से सम्पूर्ण विश्व में गौरवान्वित नगरी है। स्कन्दपुराण में इसको ’प्रतिकल्पा’ के नाम से सम्बोधित किया है, जो सृष्टि के आरम्भ में उसकी उत्पत्ति का प्रतीक है। वेदों एवं उपनिषदों में भी उज्जयिनी का धार्मिक दृष्टि से सब जगह वर्णन किया गया है।

महाभारत काल में भारतवर्ष जब सौरव्य व उत्कर्ष के शिखर पर पहुँच चुका था। उस समय भी उज्जयिनी का महत्व बहुत बढ़ा हुआ था और उज्जयिनी में एक प्रसिद्ध विद्यापीठ विद्यमान था। उज्जयिनी का वर्णन प्राचीन वाङ्मय के कवि और लेखकों की रचनाओं में भी पाया जाता है जैसे- कालिदास, बाण, व्यास, शूद्रक, भवभूति, विल्हण, अमरसिंह, परिगुप्त आदि। उज्जयिनी के धार्मिक पवित्रता का महत्व प्राप्त होने के निम्न विशेष कारण हैं। इसी तरह मोक्ष देने वाली सप्तपुरियों में से उज्जैन प्रमुख है।

श्मशान ऊर्वर क्षेत्रं पीठं तु वनमेव च।
पञ्चैके न लभ्यंते महाकाल बनाद्रते।।

अर्थात् उज्जैन में (1) श्मशान , यानी भगवान् के रमण करने की जगह (2) उर्वर, यानी जहाँ मृत्यु होने पर मोक्ष मिलता है। (3) क्षेत्र अर्थात् जहॉ सब पापों का विनाश होता है। (4) जहॉ ’पीठ’ है मतलब हरसिद्धि जी व अन्य मातृकाओं का स्थान है। (5) जहाँ महाकाल का निवास स्थान है, ऐसी पाँच महान बातों का योग पृथ्वी पर सिवाय उज्जैन के और कहीं नहीं है। अतः पुष्करराज आदि जितने तीर्थ इस पृथ्वी पर हैं वे सब तीर्थ महाकाल वन अर्थात् अवन्तिकापुरी में विद्यमान हैं। कई लाख वर्ष काशीवास करने से जो फल मिलता है। वह फल वैशाख मास में मात्र पाँच दिन अवन्तिका में वास करने से मिलता है।

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प्राचीन काल से मालवा का ऐतिहासिक, भौगोलिक, आर्थिक एवं सामाजिक दृष्टि से भारतीय इतिहास में प्रसिद्ध एवं महत्वपूर्ण स्थान रहा है।मालवा उन हिन्दू साम्राज्यों की समर भूमि रही है जिसके वीरतापूर्ण कार्यों से भारतीय इतिहास के अनेक पृष्ठ स्वर्णाक्षरों से सुसज्जित हैं। उनमें गर्व, गौरव, समृद्धि एवं महानता के कई उतार-चढ़ाव देखें। मालवा पर प्रारम्भ से ही प्रकृति की अपार कृपा रही है। लेकिन इतिहास एवं भाग्य का उस पर सदैव प्रकोप रहा है। अतएव अब वह सदियों से कई आक्रमणों के थपेड़ों को सहकर शान्ति एवं अपार वैभव के नये युग के द्वार पर खड़ा है।

विंध्याचल एवं सतपुड़ा की श्रेणियों से आच्छादित यह मालवा प्रांत भारतीय इतिहास के पृष्ठों में बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान रखता है कालान्तर में इन पर्वत श्रेणियों के मध्य से दक्षिण को जाने वाले मार्ग मुग़लों ने बना दिये थे, आज भी दक्षिण से उत्तर और उत्तर से दक्षिण को जाने के लिए रेल पथ इन्हीं के मध्य से होकर गुजरता है। इन मार्गों पर प्राचीन काल के जो दुर्ग बने हैं, वे दक्षिण के प्रवेश द्वार कहलाते हैं। इनमें माण्डू, धार एवं असीरगढ़ के दुर्ग थे।

दिल्ली के सुलतान एवं सम्राटों की प्रारंभ से यही नीति रही कि सर्वप्रथम मालवा पर पूर्ण आधिपत्य स्थापित किया जायें ; जिससे दक्षिण में सेना, कुमुद, रसद आदि सामग्री पहुँचाने में आसानी होगी। क्योंकि दक्षिण पहुँचने का एक मात्र सुगम मार्ग मालवा से होकर ही जाता था। इसके अतिरिक्त मालवा की भूमि, उपजाऊ, उर्वरक एवं समशीतोष्ण जलवायु वाली है तथा यहाँ जीविकोपार्जन के साधन सरल एवं सुगम हैं।

उपर्युक्त कारणों से केन्द्रीय मुगल शक्ति और मराठा आक्रमणकारियों ने मालवा को अपने-अपने अधिकार में रखने और यहीं से अपनी सैन्य शक्ति और सत्ता का प्रचार-प्रसार किया तथा आगे चलकर इसी नीति का अनुसरण मराठों ने भी किया और मालवा पर अपना अधिकार जमाकर यहीं से उत्तर भारत में अपनी सत्ता स्थापित करना प्रारम्भ की।

मालवा भूमि इतिहास में अति प्राचीनकाल से प्रसिद्धि रही है। उसकी प्रसिद्धि का एक और कारण यह था कि उसने संसार को सभ्यता का पाठ पढ़ाने का गौरव प्राप्त किया है। आर्यावर्त तथा दक्षिण भारत को जोड़ने वाले मालवा प्रदेश को इस देश के कुछ अद्वितीय स्थानों को सुरक्षित रखने का गौरव भी प्राप्त है।

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भौगोलिक सीमाएँ और स्थिति-

प्राचीन भारत के राजनीतिक तथा सांस्कृतिक इतिहास में मालवा क्षेत्र का महत्वपूर्ण योगदान रहा है प्रकृति की विशिष्ट देन से परिपूर्ण मालवा भारत देश का मणिपूरक क्षेत्र बन गया। प्रकृति ने मालवांचल को जितना निहाल किया है उतना अन्य अंचल दिखाई नहीं देता। नाभि प्रदेश होने से उसका भौगोलिक महत्व बिल्कुल स्पष्ट है। भौगोलिक स्थिति उस क्षेत्र के प्रत्येक पहलू को प्रभावित करती है, चाहे वह सामाजिक हो या राजनीतिक, धार्मिक हो या आर्थिक पहलू। प्राकृतिक संरचना, उपजाऊ काली मिट्टी तथा कल-कल बहती हुई नदियों ने मालवा के प्रत्येक क्षेत्र को प्रभावित किया है। नदी के तटों से ही मानव ने क्रमशः आदिम युग से सभ्यता के युग में प्रवेश किया है। आगे चलकर व्यापारिक और सांस्कृतिक केन्द्रों को स्थापित किया है तथा धार्मिक भावना के वशीभूत होकर मालवा क्षेत्र को प्रकृति ने सभी प्रकार से सुरक्षित रखा है। डॉ. सरकार की यह मान्यता मालवा सीमा सम्बन्धित प्रचलित इन पंक्तियों के अनुरूप है-

इत चम्बल उत बेतवा मालवसीम सुजान,
दक्षिण दिस है नर्मदा, यह पूरी पहचान।’’

उपर्युक्त कथनानुसार मालवा चम्बल, बेतवा तथा नर्मदा नदी के त्रिकोण से निर्मित यह पठार आदिकाल से ही मालवा गतिविधियों का केन्द्र रहा है। यह क्षेत्र 74°240 पूर्व से 78°250 देशान्तर तथा लगभग 220 उत्तर से 26°260 उत्तरी अक्षांश के मध्य में है। जो समुद्री सतह से 450 से 600 मीटर तक अंश है। (1) मालवा का क्षेत्रफल लगभग 76.416 वर्ग किलोमीटर है तथा वर्तमान मध्यप्रदेश के धार, झाबुआ, खरगोन, देवास, इन्दौर, उज्जैन, रतलाम, शाजापुर, सीहोर, भोपाल, विदिशा, मन्दसौर, राजगढ़, रायसेन जिले सम्मिलित हैं। स्थूल रूप से मालवा क्षेत्र को चार भागों में विभाजित किया जा सकता है।

मालवा का मध्य पठार।
उत्तर-पूर्वी पठार
उत्तर-पश्चिमी पठार तथा
नर्मदा घाटी का क्षेत्र
मालवा का मध्य पठार : यह समुद्री सतह से 496 मीटर ऊँचा है। दक्षिण में विन्ध्य श्रेणियाँ इसका आधार है। इस पठार में राजगढ़, शाजापुर, देवास, इन्दौर, उज्जैन, रतलाम और धार जिले सम्मिलित हैं। इस क्षेत्र में चम्बल, कालीसिंध, पार्वती, क्षिप्रा, माही, गम्भीर आदि नदियाँ प्रवाहित रहती हैं। इस परिक्षेत्र में कला एवं स्थापत्य के कई केन्द्र पल्लवित हुए हैं।
उत्तर पूर्वी पठार : प्राचीन आकार या दशार्ण नाम से जाना जाने वाला उत्तर-पूर्वी पठार का क्षेत्र पूर्व, उत्तर एवं दक्षिण में विन्ध्यांचल के गहन जंगलों से युक्त पर्वतीय श्रृंखलाओं से घिरा हुआ तथा बेतवा नदी से सिंचित क्षेत्र है। इस पठार के अन्तर्गत विदिशा, रायसेन, सिहोर, भोपाल जिले समाहित हैं। भोजपुर, उदयपुर, ग्यारसपुर आदि कला के प्रमुख केन्द्र रहे हैं। विन्ध्यांचल की लाल पथरीली पहाड़ियों के कारण पाषाण कालीन उपकरण, चित्रित शैलाश्रय तथा मूर्ति स्थापत्यकला का क्रमिक विकास यहाँ दृष्टांत हैं। इस क्षेत्र का सम्बन्ध पारस्परिक सांस्कृतिक, राजनैतिक एवं धार्मिक भावनाओं से रहा है।
उत्तर-पश्चिमी पठार : यह पठार चुनारी पत्थर की पहाड़ियों से घिरा हुआ है। इसके अन्तर्गत सम्पूर्ण मन्दसौर, तथा रतलाम जिले का कुछ भाग आता है। दशपुर (मन्दसौर) इस क्षेत्र का सबसे महत्वपूर्ण नगर था। शिवना एवं चम्बल यहाँ की प्रमुख नदियाँ हैं।
नर्मदा घाटी : प्राचीन कालीन अनूप जनपद नर्मदा घाटी के क्षेत्रान्तर्गत अवस्थित था। इसके उत्तर में विन्ध्यांचल, दक्षिण में सतपुड़ा की पर्वतमालाएं हैं। वर्तमान समय में यह क्षेत्र सम्पूर्ण निमाड़, धार, इन्दौर एवं देवास जिलों के अनेक क्षेत्रों में व्याप्त है। ऊन इस क्षेत्र का प्रमुख वैभव केन्द्र रहा है। इस क्षेत्र की जलवायु और समृद्धि के कारण ही यह राजनैतिक गतिविधियों का केन्द्र रहा तथा निरन्तर बाह्य आक्रमणों का शिकार बना।
मालवा का पठार अपनी प्राकृतिक, भौगोलिक एवं सांस्कृतिक पृष्ठभूमि के कारण भारत देश में अपना एक विशिष्ट स्थान रखता है। यह पठार सदैव धन-धान्य सम्पन्न रहा है। साधारण तथा मालवावासी अकाल आदि आपदाओं से प्रपीड़ित नहीं रहते आये हैं। इसी कारण-

“देश मालव गहन गंभीर,
डग-डग रोटी, पग-पग नीर”

कहकर कवियों ने इसकी कीर्ति गायी है।

भारत के अतीतकालीन इतिहास को उज्जवल और गरिमामय बनाने में उसके अन्यान्य अंग प्रत्ययों के साथ मालवा ने भी यथेष्ट शक्तिशालीनता प्रकट की है। मालवा की संस्कृति सदैव से ही राजनीतिक हलचलों से प्रभावित होते हुए भी निरन्तर गतिशील हो आगे बढ़ती रही है। प्रत्येक नवीन परिस्थिति से उसने समन्वय कर अपने मार्ग को प्रशस्त किया है।

मालवा की प्राचीनता-

वर्तमान मालवा जिसे प्राचीन काल में अलग-अलग नाम से सम्बोधित किया जाता था। उन नामों में अवन्ति, आकार, दशपूर्ण, अनूप आदि हैं।

अवन्ति-

मत्स्यपुराण की अनुश्रुति के अनुसार हैहयवंशीय कार्तिकेय अर्जुन के पुत्र अवन्ति के नाम पर इस जनपद का नाम अवन्ति हुआ। ऋग्वेदिक यदुओं की हैहय शाखा के द्वारा इस राज्य की स्थापना की। अवन्ति प्राचीन भारत के अत्यंत समृद्धशाली राज्यों और जम्बूद्वीप के षोड़श महाजनपदों में से एक था। प्राचीन साहित्य में अवन्ति का सर्वप्रथम उल्लेख बौद्ध ग्रन्थ दीर्घनिकाय के महागोविन्द सूक्त में है। आदि पुराण के अनुसार यह क्षेत्र प्राचीन काल में अवन्ति जनपद के नाम से पुकारा गया।

प्रसिद्ध व्याकरणाचार्य पाणिनी ने अष्टाध्यायी में भी अवन्ति जनपद का उल्लेख स्त्रीलिंग के अन्तर्गत कुन्ति और करू के साथ किया है। महाभारत में भी अवन्ति का यत्र-तत्र उल्लेख मिलता है। पद्मपुराण मत्स्यपुराण भागवतपुराण में अवन्ति का उल्लेख आया है।
धार्मिक साहित्य ग्रंथो के अतिरिक्त प्राचीन लौकिक साहित्य में भी अवन्ति का विवरण मिलता है। वात्स्यायन के कामसूत्र, वराहमिहिर की वृहतसंहिता, भारत के नाट्यशास्त्र, बाण भट्ट की कादम्बरी, कालीदास के मेघदूत में अवन्ति के सन्दर्भ मिलते हैं।

अभिलेखों में सर्वप्रथम गौतमी बलश्री के नासिक अभिलेख में अवन्ति एवं आकार प्रदेश का उल्लेख साथ-साथ हुआ है। जो कि सातवाहन शासक वासिष्ठी पुत्र पुलभावी के राज्यकाल (ई. सन 130-155) में उत्कीर्ण करवाया गया था। शक नरेश रूद्रदामन के जूनागढ़ अभिलेख में पूर्व एवं अपर आकारवन्ति का उल्लेख है। पूर्व एवं अपद से तात्पर्य पूर्व एवं पश्चिम से रहा होगा। छठवीं शताब्दी के आरम्भ में वाकाटक नरेश हरिषेण के अजन्ता अभिलेख में अवन्ति का प्रदेश सूचक उल्लेख है। नवीं शताब्दी में अवन्ति का एक प्रदेश के रूप में पाल सम्राट धर्मपाल ने खालिमपुर ताम्रपत्रों में उल्लेख किया गया है।

अवन्ति एवं आकार जनपद की निश्चित सीमाएँ बताना कठिन है। इनकी सीमाएँ समयानुसार घटती-बढ़ती रहीं। चण्डप्रद्योत के शासनकाल में पाँचवीं- छठवीं सदी पूर्व में अवन्ति के दक्षिण में माहिष्मती और पूर्व में विदिशा तक का प्रदेश था। नासिक अभिलेख में आकर एवं अवशेष का सन्दर्भ है और जूनागढ़ अभिलेख में जैसा वर्णित है पूर्व एवं अपर आकारवन्ति का उल्लेख है। ऐसा प्रतीत होता है कि अवन्ति दो भागों में विभक्त थी। भण्डारकर महोदय ने इनकी पहचान उत्तरी अवन्ति (राजधानी-उज्जयिनी) तथा दक्षिणी अवन्ति (राजधानी-माहिष्मती) प्रदेश से की है। इस आधार पर हम यह कह सकते हैं कि प्राचीन अवन्ति में पूर्वी (पूर्व) एवं पश्चिमी (अपर) मालवा का एक विस्तृत भू-भाग सम्मिलित था। पालि ग्रन्थों में उज्जयिनी को इसकी राजधानी कहा गया है और कहीं-कहीं पर इसकी राजधानी का नाम माहिष्मती बताया गया है। माहिष्मती का राजनीतिक महत्व क्षीण होने पर उज्जयिनी का महत्व बढ़ गया, क्योंकि अवन्ति जनपद के ये दो ही केन्द्र थे।

आकर-

अवन्ति के साथ-साथ ’आकर’ शब्द का प्रयोग कुछ साहित्यिक ग्रन्थों और अभिलेखों में हुआ है। सम्भवतः दोनों को सम्मिलित रूप से आकरावन्ति कहा गया। कुछ विद्वानों की यह धारणा है कि उज्यायिनी से पूर्व में स्थित विदिशा के आसपास का क्षेत्र आकर कहा जाता था, क्योंकि वहाँ ’आकर’ अर्थात ’खाने’ अधिक थी। विभिन्न ग्रंथों में विदिशा के क्षेत्र को दशार्ण कहा गया है। आकर एवं दशार्ण को अभिन्न मानने का कोई आधार उपलब्ध नहीं है। प्रमाणों के अभाव में असंदिग्ध रूप से आकर के क्षेत्र को पहचानना आज असम्भव सा है।

दशार्ण-

बौद्ध ग्रन्थ ’महावस्तु’ में जम्बूद्वीप के सोलह महाजनपदों में दशार्ण की गयी है। रामायण, महाभारत जातक ग्रन्थों तथा पुराणों में दशार्ण क्षेत्र का उल्लेख मिलता है। कालिदास ने अपने ग्रन्थ मेघदूत में दशार्ण जनपद का मनोरम विवरण दिया है। कौटिल्य ने अपने ग्रन्थ में दशार्ण का उल्लेख किया है। इसी प्रकार मालवा के प्रसिद्ध ज्योतिषाचार्य वराहमिहिर ने भी दशार्ण का उल्लेख एक प्रदेश के रूप में किया है।

उपर्युक्त संदर्भों से यह तो स्पष्ट है कि दशार्ण प्रदेश मालवा सीमा के अन्तर्गत था। कुछ विद्वानों की धारणा है कि विदिशा और उसके आसपास का क्षेत्र दशार्ण था। बी.सी. ला के अनुसार इनमें वर्तमान मध्यप्रदेश के वेदिस या दोनों भागों की परम्पराओं को आत्मसात् ही नहीं किया वरन् सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक क्षेत्र में अपनी विशिष्टताओं के कारण मौलिक देन भी दी। इस मालवा की ऐतिहासिकता का सम्पूर्ण परिचय निम्नानुसार है-

प्रारंभिक इतिहास-

धार्मिक दृष्टि से मोक्ष-दायिनी सप्तपुरियों में उज्जयिनी गिनी जाती है। पुराणों एवं महाभारत के अनुसार इस नगर का अस्तित्व महाभारत युद्धों से भी पूर्व था। पुरातात्विक उत्खनन् इस नगर को लगभग 3000 वर्ष प्राचीन सिद्ध करते हैं। प्राचीन भारतीय साहित्य का सृजन सांस्कृतिक वातावरण में हुआ। भारतीय संस्कृति की प्रशंसा न केवल भारत में अपितु विदेशों में भी मुक्तकण्ठ से की गई है। इस विगत भव्य संस्कृति की झलक प्राचीन साहित्य के प्रत्येक पृष्ठ पर मिलती है। प्राचीन भारतीय संस्कृति के केन्द्रभूत नगरों में उज्जयिनी नगरी का अपना विशिष्ट स्थान है। उज्जयिनी की प्राचीनता महाभारत आदि के वर्णन से, ईसा पूर्व 4000 वर्षों तक मानी जा सकती है। इतनी प्राचीन नगरी अपने परिवर्तित नामों के परिवेश में अनेक ऐतिहासिक उत्थान-पतन के बाद भी अचल रही है। इसके अवन्ति और उज्जयिनी ये दो नाम अधिक प्रयोग में लाये गये। उज्जयिनी नाम का प्रयोग कब से हुआ यह कहना असंभव है। परन्तु पाणिनि की अष्टाध्यायी में इसके प्रयोग से इतना अवश्य निश्चित् है कि ईसा पूर्व पाँचवीं-छठवीं शताब्दी में इस नाम का प्रयोग साहित्य में किया जाने लगा था।

उज्जयिनी अपने नाम के अनुरूप वास्तविक अर्थों में विजयिनी है। संस्कृत, पाली और प्राकृत साहित्य के उल्लेखों का ऐतिहासिक, धार्मिक, शैक्षणिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और व्यापारिक दृष्टिकोण से अध्ययन करने पर प्रतीत होता है कि भारतीय संस्कृति में समाहित भारत के विभिन्न प्रदेशों की संस्कृतियों का यहाँ पर जन्म हुआ था।

उज्जयिनी का इतिहास अनेक राजवंशी के उत्थान-पतन का इतिहास है। इतिहास पूर्व युग में यह नगरी नाग सभ्यता का केन्द्र थी। इसके बाद यह वैदिक यदुवंश की हैहय शाखा के शक्तिशाली राजाओं की राजधानी बन गयी। महाभारत युद्ध में कौरवों को यहाँ के शासक विन्द-अनुविन्द ने सहायता दी थी। इन बलशाली क्षत्रियों की तेजस्विता का वर्णन महाभारत में है।

विश्व को गीता का उपदेश देने वाले श्रीकृष्ण की यह विद्यास्थली रही है। यहाँ पर सान्दीपनि गुरू से पढ़ी हुई विद्या के आधार पर ही वे विश्व को गीता के रूप में कर्म और ज्ञान का उपदेश दे सके थे। सान्दीपनि का आश्रम पुरातनकालीन एक विश्वविद्यालय था जहाँ सभी विषयों की शिक्षा दी जाती थी। छठी शताब्दी ईस्वी पूर्व के उज्जयिनी के ऐतिहासिक परिदृष्य पर दृष्टि डालने से ज्ञात होता है कि उज्जयिनी अवन्ति जनपद की राजधानी के रूप में अस्तित्व में थी। उस समय अवन्ति जनपद दो भागों में विभाजित थी, उत्तरी अवन्ति और दक्षिणी अवन्ति। उत्तरी अवन्ति की राजधानी महिष्मती थी। मलाला शेखर यह उल्लेख करते हैं कि महिष्मती का महत्व घटने पर अवन्ति की राजधानी के रूप में उज्जयिनी का महत्व अधिक हो गया था। समस्त मालवा इसका भाग था।

महाभारत में अवन्ति जनपद और यहाँ के बलशाली शासकों विन्द और अनुविन्द का उल्लेख मिलता है। महाभारत के युद्ध में विन्दानुविन्द ने कौरवों की ओर से युद्ध किया था और वीरगति को प्राप्त हुए। समस्त सेना का पाँचवाँ भाग इन दोनों का था। इससे प्रतीत होता है कि अवन्ति जनपद अत्यन्त शक्तिशाली था।

प्राचीन भरतीय परम्परा मनु’-वैवस्वत को आदि पुरुष मानते हुए उल्लेख करती है कि ययाती के पाँच पुत्र थे- यदु, तुर्वशु, अनु, बुदु, और पुरू। यदु के उत्तराधिकारी हैहेय वंश में कार्तवीर अर्जुन ज्ञात होता है, जिसके पाँच पुत्र में से एक जयध्वज अवन्ति के स्वामी के रूप में ज्ञात होता है। जयध्वज के पुत्र तालजंग के नाम से प्रसिद्ध थे। इनमें वितीहोत्र की बीस पीढ़ियों ने उज्जयिनी में राज्य किया। अंतिम वितीहोत्र शासक रिपुंजय था। इसके अमात्य पुलिन ने इसे मारकर अपने पुत्र प्रद्योत को अवन्ति का शासक बनाया।

प्राकृत और संस्कृत साहित्य में वर्णित चण्डप्रद्योत उज्जयिनी पर शासन करने वाला महत्वाकांक्षी और योग्य प्रशासक था। प्रद्योत से सुसंगठित राज्य स्थापित किया। कथासरत्सिागर के अनुसार यह जयसेन का पुत्र और महेन्द्रवर्मा का नाती था। यह देवी चण्डी का भक्त होने के कारण चण्डमहासेन के नाम से भी प्रसिद्ध है। पाली ग्रन्थों से ज्ञात होता है कि प्रद्योत के मगध शासक बिम्बसार से मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध थे। परन्तु उसके पुत्र अजातशत्रु से इसके सम्बन्ध ठीक प्रतीत नहीं होते हैं जिसने प्रद्योत के आक्रमण के भय से अपनी राजधानी की किलेबन्दी करवायी थी। प्रद्योत ने काम्पित्य के राजा से रत्नजड़ित मुकुट प्राप्त करने के लिए युद्ध किया था। प्रद्योत और कौशाम्बी के राजा सतारिक के युद्ध के विवरण भी जैन साहित्य में मिलते हैं।

प्रद्योत के पास विशाल सेना थी। उसकी सेना में दो लाख हाथी, पाँच सौ घोड़े, दो सौ रथ, तथा सात करोड़ पदाति सैनिक थे। प्रद्योत के विषय में भिन्न-भिन्न विचारधाराएँ मिलती हैं, परन्तु मूल रूप से उसमें सैनिक गुण अधिक थे। प्रद्योत के गोपालक तथा पालक नाम के दो पुत्र तथा वासवदत्ता नामक एक पुत्री थी। पुराणों के अनुसार प्रद्योत ने अवन्ति पर 23 वर्ष राज्य किया। मत्स्य पुराण में इसकी राज्यकाल अवधि 52 वर्ष उल्लेखित है। इसकी 3 पुत्री वासवदत्ता और वत्सराज उदयन की प्रणय गाथा तत्कालीन साहित्य की विषयवस्तु बनी। वासवदत्ता वत्सराज की पटरानी के रूप में उल्लेखित है।

प्रद्योतवंशीय राजाओं ने स्वतंत्र रूप से उज्जयिनी पर शासन किया, परंतु नन्द वंश के उदय ने उज्जयिनी को मगध साम्राज्य का अंग बना दिया। प्रद्योत देवी का उपासक था। बुद्ध का प्रभाव अधिक होने के कारण उसने बुद्ध को उज्जयिनी में निमंत्रित किया। बुद्ध स्वयं तो नहीं आ सके, परन्तु प्रद्योत के पुरोहित कात्यायन को बौद्ध धर्म का अनुयायी बनाकर भेज दिया। इस प्रकार उज्जयिनी में बौद्ध धर्म ने प्रवेश कर लिया। बुद्ध धर्म के आराधकों में यहाँ के भिक्षु महाकात्यायन, सौण, अभय, भद्रकपिलानी, ऋषिदासी, देवी (अशोक की पत्नी), गोपाल माता, गणिका प्रज्ञावती आदि का नाम उल्लेखनीय है। विदेशों में भारतीय संस्कृति के प्रचारक में बुद्धकालीन काश्यप मातंग का नाम स्मरणीय है। ये उज्जयिनी के थे और इन्हें चीन के सम्राट ने निमंत्रित किया था।

नंदों के विशाल साम्राज्य को नष्ट कर चन्द्रगुप्त मौर्य ने भारतीय इतिहास में नये युग का निर्माण किया। संसार का प्रथम साम्राज्यवादी नीतिज्ञ चाणक्य चन्द्रगुप्त का आचार्य सहायक तथा मन्त्री था। चन्द्रगुप्त ने चाणक्य की सहायता से मगध राज्य पर अधिकार किया। चन्द्रगुप्त तथा चाणक्य ने मगध पर अधिकार करने के लिए कूटनीति और युद्धनीति दोनों का सहारा लिया। चन्द्रगुप्त ने भारत के अनेक राष्ट्रों को अपने वश में कर एक साम्राज्य की स्थापना की। चन्द्रगुप्त ने उत्तरी और दक्षिणी भारत को एक शासन सूत्र में बांध-कर राजनैतिक एकता स्थापित की।

चन्द्रगुप्त का साम्राज्य विस्तृत था। अतः शासन व्यवस्थित और सुसंगठित करने के लिए चन्द्रगुप्त ने साम्राज्य को विभिन्न प्रांतों में विभक्त किया था। उन प्रांतों में उज्जयिनी (अवन्ति) महत्वपूर्ण स्थान रखती थी। प्रान्तीय शासक राजवंश से सम्बन्धित होते थे। मगध साम्राज्य के अन्तर्गत अवन्ति प्रान्त अधिक उपजाऊ, सम्पन्न और अधिक कर देने वाला प्रान्त था। अवन्ति प्रान्त से चन्द्रगुप्त को 12 हजार पण आय होती थी। यहाँ की आय प्राप्ति का प्रमुख साधन भूमिकर था। इसके अतिरिक्त आय के अन्य साधन भी थे। इस प्रकार से प्राप्त आय कर्मचारियों विभागों के वेतन तथा सार्वजनिक कल्याण के कार्यों में व्यय की जाती थी। इससे प्रजा चन्द्रगुप्त और अशोक से प्रसन्न थी। अर्थात् मालवा सैनिक, आर्थिक, धार्मिक और शैक्षणिक दृष्टि से सम्पन्न थी। पुराणों के अनुसार चन्द्रगुप्त ने अवन्ति जनपद पर 24 वर्ष राज्य किया। चन्द्रगुप्त ने अवन्ति का शासन अपने पपौत्र अशोक को सौंपा। अशोक के पुत्र महेन्द्र और पुत्री संघमित्रा ने सिंहल देश जाकर बौद्ध धर्म का प्रचार किया। पाली त्रिपिटक को वे अपने साथ ले गये। महेन्द्र का लालन-पालन उज्जयिनी में हुआ था। उनकी भाषा अवन्ति की भाषा थी और उसी भाषा में उन्होंने वहाँ सत्य और अहिंसा का संदेश दिया। स्वयं विश्व के सम्राट अशोक भी अपने यौवन के अति प्रारम्भिक काल से उज्जयिनी के राज्यपाल रहे। उन्होंने कुशल प्रशासन की शिक्षा इसी भूमि से ली। आज विश्व में प्रख्यात् सम्राट के रूप में उनका नाम लिया जाता है। बौद्ध धर्म के प्रचार और प्रसार में अशोक ने महत्वपूर्ण कार्य किए। अशोक स्तम्भ पर चक्र और सिंह मुद्रित है। भारतीय परम्परा में चक्र अध्यात्म भावना, जीवन की प्रगति तथा समदर्शिता का सूचक है। यह चक्रांकित मुद्रा उज्जयिनी की मानी जाती है।

चन्द्रगुप्त के बाद बिन्दुसार एवं उसकी मृत्यु के पश्चात अशोक राजगद्दी पर बैठा। अशोक ने धर्म विजय और शासन विद्या की शिक्षा अवन्ति से प्राप्त की थी। अशोक के जीवन का अधिकांश भाग मालवा में ही बीता था। अशोक की मृत्यु के बाद मौर्य साम्राज्य मगध तथा अवन्ति दो भागों में विभाजित हो गया।

अशोक ने ज्योतिष की शिक्षा के लिए यहाँ एक महाविद्यालय की स्थापना की थी। इस काल की शैक्षणिक प्रगति अशोक के सानिध्य से उन्नति की ओर बढ़ रहीं थी। यहाँ ऋषियों के आश्रम तथा ब्राह्मणों के विद्यालय के साथ ही बौद्ध विहार भी अध्ययनशाला बन गये थे।

अशोक के पश्चात् सम्प्रति यहाँ के राज्यपाल बने। कालान्तर में वे यहाँ के शासक भी बने, उन्होंने उज्जयिनी को अपनी राजधानी बनाया। वे जैन धर्म के अनुयायी थे। उन्होंने जैन धर्म के प्रचार और प्रसार में राजकीय सहायता प्रदान की। जैन समाज द्वारा किये जाने वाले उत्सवों में वे पर्याप्त आर्थिक सहायता देते थे। इस काल में अनेक जैन धर्म के विद्वानों तथा श्रमणों ने यहाँ आकर धर्मोपदेश दिया उनमें सुहस्ति, भद्रबाहु, भद्रगुप्ताचार्य, वज्राचार्य आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। जैन समाज में अर्ध फालक सम्प्रदाय का भेद भी यहीं पर उत्पन्न हुआ। अवन्ति का शासक सम्प्रति बना जो जैन धर्म का अनुयायी था। मौर्य वंश को अंतिम शासक वृहदथ सेनापति पुष्यमित्र ने लगभग 185 ई.पू. में हत्या कर दी तथा उज्जयिनी में एक नवीन वंश की स्थापना की, जिसे शुंगो के नाम से जाना जाता है। मौर्य वंश के शासकों ने 137 वर्ष राज्य किया।

अशोक द्वारा प्रचारित बौद्ध धर्म और सम्प्रति द्वारा प्रचारित जैन धर्म की प्रक्रिया के कारण यहाँ शुंग शासन में ब्राह्मण धर्म को पुनः प्रतिस्थापना मिली। वैदिक यज्ञ- यागां तथा देवताओं की पूजा-अर्चना के लिए शुंग शासकों ने प्रजा को प्रोत्साहित किया। शुंग काल में उज्जयिनी मगध साम्राज्य के द्वितीय श्रेणी के नगरों में परिगणित थी।

शुंगकालीन उज्जयिनी का इतिहास स्पष्ट नहीं है। पुष्यमित्र ने अपना राज्य आठ पुत्रों में बाँट दिया था ऐसा वायुपुराण से स्पष्ट होता है। विदिशा पर उसका पुत्र अग्निमित्र राज्य करता था। सम्भवतः सम्पूर्ण मालवा प्रदेश भी उसके अधिकार में रहा होगा। ऐसा ज्ञात होता है। शुंग वंश का राज्यकाल 186-85 ई.पू. से 75 ई. पूर्व तक रहा। शुंगो के पश्चात कण्व शासक आया और इसी समय दक्षिण की आन्ध्र-सप्तवाहन शक्ति उत्तर की और प्रभावकारी होने लगी। और शीघ्र ही मालवा-मानव जाति के गर्दभिल्ल के नेतृत्व में आ गया। इसी समय मालवा पर शकों का आक्रमण हुआ। शकों की कार्दमक शाखा के चष्टन ने मालवा पर अधिकार कर लिया। चष्टन ने एक राजधानी स्थापित की और साथ ही क्षत्रप वंश स्थापित किया, जो बिना किसी व्यवधान के ईसवी सन् चौथे दशक के आरम्भ तक चलता रहा। मालवा प्रान्त में ऐसी कोई शक्ति नहीं थी जो कार्दमक की प्रभुसत्ता को चुनौती दे सके। शकों ने मालवा, गुजरात, काठियावाड़ तथा पश्चिमी राजपूताना के भागों से मिलकर बने अपने विशाल साम्राज्य पर उज्जैन से शासन किया। रूद्रसिंह तृतीय का उल्लेख अन्तिम शक शासक के रूप में आता है।

राजा गर्दभिल्ल के निरंकुश शासन से प्रजा अप्रसन्न थी। इस काल में राष्ट्र विरोधी भावनाएँ लोगों के हृदय में व्याप्त थी। इसी समय शकों ने उज्जयिनी पर प्रथम आक्रमण किया। युग पुराण, कथासरित्सागर और कालकाचार्य कथा आदि ग्रन्थ इस आक्रमण के प्रमाण हैं। शक शासकों के नामों के विषय में कोई उल्लेख प्राप्त नहीं है। उन्होंने बहुत कम समय तक शासन किया। मालवा के नेता के रूप में गर्दभिल्लवंशीय विक्रमादित्य ने असीम पराक्रम और उत्साह से सैनिक व्यवस्था कर शकों का उन्मूलन कर इस धरती को विदेशी शासकों से मुक्त किया। विक्रमादित्य के इस कार्य का वर्णन अनेक साहित्यिक गुणो में मिलता है। उनसे संबंधित असंख्य लोकगाथाएँ हैं जिनमें विक्रम में दैवीय गुणों का समावेश कर उन्हें एक आदर्श राजा के रूप में चित्रित किया गया है। इसी कारण उनका ऐतिहासिक व्यक्तित्व कतिपय विद्वानों की दृष्टि में शंकास्पद हो गया है।

विक्रमादित्य के काल में शैक्षणिक और साहित्यिक प्रगति चरम सीमा पर थी। इसका स्पष्ट प्रमाण उनके नवरत्न तथा अन्य साहित्यकार हैं। जिनके नाम हैं- धन्वन्तरि, क्षपणक, अमरसिंह, शंकु, बेताल भट्ट, घटपरकर, कालिदास, वराहमिहिर, वररूचि, गुणाढ्य, हरिस्वामी, वात्स्यायन, व्याडि, भर्तृहरि आदि। यहाँ काव्यकारों की परीक्षा का केन्द्र था। उपर्युक्त विद्वानो के ग्रन्थों का अध्ययन करने पर प्रतीत होता है कि यहाँ वेद-वेदांग, धर्मशास्त्र, वैद्यकशास्त्र, दर्शन, काव्य स्मृतिशास्त्र, नाट्यशास्त्र, ज्योतिषशास्त्र, कामशास्त्र, रसायनशास्त्र, आदि का अध्ययन अध्यापन होता था।

सिक्कों के आधार पर स्पष्ट होता है कि सातवाहनों ने भी मालवा पर राज्य किया था। परंतु शकों के भय के कारण मध्य मालवा शकों एवं सातवाहनों के मध्य घात-प्रतिघातों का शिकार होता रहा। गुप्तों ने कई शताब्दी तक मालवा पर राज्य कर अनेक राजवंशों से संघर्ष किया। इस काल में मालवा की बहुत कुछ उन्नति हुई। उनकी राजधानी पाटलिपुत्र थी। उज्जैन उनका व्यापारिक एवं सामाजिक महत्व का केन्द्र था। परंतु इस समय हुणों के बर्बर, आक्रमणों ने मालवा को प्रभावित किया और अंतिम गुप्त शासकों के अथक संघर्ष एवं बलिदानों से मालवा को हूणों से मुक्ति मिली थी।

सातवाहन एवं शक शासको ने भी यहाँ की आर्थिक, धार्मिक और शैक्षणिक उन्नति में योग दिया। ब्राह्मण धर्म की महती प्रतिष्ठा इसी युग में हुई। गुप्त काल में यह धर्म चरम सीमा तक पहुँच गया। शक शासकों में चष्टन, रुद्रदामन् आदि स्वयं संस्कृत भाषा और साहित्य के ज्ञाता थे। उन्होंने विद्वानों को संस्कृत भाषा की उन्नति के लिए प्रेरित किया। इस समय अनेक विदेशियों ने ब्राह्मण धर्म अंगीकार किया।

शकों के दो सौ वर्षों के शासन के पश्चात् मालवा पर गुप्त शासकों का राज्य हो जाता है। गुप्तों के शासनकाल में मालवा एवं अवन्ति जनपद एक महत्वपूर्ण बाजार तथा वाणिज्य का केन्द्र बना रहा, किन्तु उन्होंने उज्जैन को राजधानी नहीं बनाया। स्कन्दगुप्त की मृत्यु के पश्चात् गुप्त साम्राज्य के भाग्य पर ग्रहण लग गया। इसका लाभ वासिम वंश के सर्वाधिक शक्तिशाली वाकाटक राजा हरिषेण ने उठाया। उसका शासन अवन्तिका पर रहा ऐसा प्रतीत होता है कि मालवा पर वाकाटकों की प्रभुसत्ता 570 ईस्वी में हरिषेण की मृत्यु के पश्चात् समाप्त हो गई।

गुप्तों के उदय ने उज्जयिनी को पुनः मगध साम्राज्य का प्रान्त बना दिया। स्वतन्त्र राज्य की राजधानी उज्जयिनी अब प्रान्तीय शासन का केन्द्र बन गई। गुप्त युग में उज्जयिनी का स्थान महत्वपूर्ण था। उज्जयिनी पुरवराधीश के रूप में चन्द्रगुप्त द्वितीय का उल्लेख गुप्त युग में उज्जयिनी की महत्ता को सूचित करता है। गुप्त शासकों के स्वर्ण युग में यहाँ की शासन व्यवस्था अत्यन्त सुसंगठित थी। गुप्तवंशीय निर्बल शासकों के समय में हूण शासक तोरमाण ने आक्रमण कर उज्जयिनी पर अपना आधिपत्य कर लिया। शीघ्र ही यशोधर्मन ने इसे विदेशी आक्रांताओं से मुक्त किया। हरिषेण वाकाटक, कलचुरी के शंकरगण, वल्लभी के शिलादित्य ने भी कुछ समय तक अधिकार रखा। कन्नौज के शासक हर्षवर्धन के काल में उज्जयिनी की भव्यता का उल्लेख कादम्बरी में मिलता है। ह्वेनसांग ने इस काल में यहाँ के प्रान्तीय शासक को ब्राह्मण कहा है।

विसेंट स्मिथ के अनुसार इस समय ’’हिन्दुत्व का दैत्य बौद्ध धर्म और जैन धर्म को धीरे-धीरे निगल रहा था।’’ ब्राह्मण धर्म के नए स्वरूप के कारण एवं राम, विष्णु, आदि की अराधना का प्रकार सहज और सहजगम्य होने से अन्य धर्मों को ग्रहण करने वालों की संख्या कम हो गयी। इस समय यहाँ जैन और बौद्ध धर्मों की उपस्थिति तो थी और उसके अनुयायी भी थे परन्तु जो राजसम्मान सम्प्रति के समय जैन धर्म को एवं अशोक के समय बौद्ध धर्म को प्राप्त था वह इस समय नहीं था। चन्द्रगुप्त आदि गुप्त शासक सब धर्मों के प्रति सहिष्णु थे। गुप्त काल में यहाँ कीक शिक्षा प्रणाली में प्रगति हुई। वराहमिहिर जैसे प्रख्यात ज्योतिषी इस युग के प्रमुख रत्न हैं। नृत्य, संगीत, वाद्य, चित्र करने के लिए विदेश गए। उनमें धर्मरक्ष, उपशून्य, गुणभद्र, गुणराय, परमार्थ, श्रमण आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। इस नगरी की समृद्धि और भव्यता से आकर्षित होकर विदेशी यात्री ह्वेनसांग, फाह्यान, इत्सिंग आदि यहाँ आये।

परमारकालीन मालवा-

पूर्व मध्यकाल में मालवा में परमार एक महत्वपूर्ण शक्ति बनकर उभरे। यद्यपि परमारों की उत्पत्ति के विषय में पर्याप्त मतभेद हैं। अनुश्रुतियाँ उन्होंने आबू के अग्निकुल से उत्पन्न हुआ मानती हैं। तद्युगीन साहित्यकार पद्मगुप्त तथा धनपाल ने भी क्रमशः नवहासांक चरित तथा तिलकमंजरी में परमारों की इस उत्पत्ति का उल्लेख किया है। परमारों की उत्पत्ति का दूसरा मत उन्हें राष्ट्रकूटों की शाखा मानता है। कुछ विद्वान उन्हें गुर्जरों की संतति बताते हैं तो कुछ परमारों को विशिष्ट गोत्र वाले ब्राह्मण मानते हैं।

प्रतिहार साम्राज्य के विघटन के पश्चात् मालवा परमारों के पैतृक शासन के अधीन हो गया। उनका शासन लगभग 400 वर्षों का रहा। प्रारम्भ के परमार शासकों ने राष्ट्रकूट अथवा गुर्जर-परमार के सामन्त के रूप में अपना जीवन प्रारम्भ किया, किन्तु समयान्तर में उन्होंने स्वतंत्र राज्य की स्थापना की। परमार सत्ता के स्थापना के पश्चात ही मालवा को पुनः अपना खोया हुआ गौरव प्राप्त हुआ।

मालवा में परमार वंश का प्रथम ऐतिहासिक पुरुष उपेन्द्र (791-818) था, जो कृष्णराज नाम से भी विख्यात था। उदयपुर प्रशस्ति और नवसाहसांक चरित्र में इसका वर्णन मिलता है। राष्ट्रकूट नरेश गोविंद तृतीय ने प्रतिहार शासक नागभट्ट द्वितीय से मालवा को जीतकर अपने अनुचार उपेन्द्र को प्रतिहार गद्दी पर बैठाया। उसने अपना जीवन राष्ट्रकूट राजवंश के सामन्त के रूप में प्रारम्भ किया। वह महत्वाकांक्षी, वीर, राजनीतिक प्रभुत्व के लिए होने वाली पाल, राष्ट्रकूट और प्रतिहार घुड़दौड़ का मूक दर्शक मात्र होने से संतुष्ट नहीं था।

उपेन्द्र का पुत्र वैरिसिंह प्रथम (818-843) मालवा में उसका उत्तराधिकारी हुआ। प्रतिहार शासक नागभट्ट द्वितीय और मिहिरभोज जैसे शक्तिशाली सम्राटों का समकालीन होते हुए उसे कोई महत्वपूर्ण विजय प्राप्त करने का अवसर नहीं रहा होगा। वैरिसिंह प्रथम के पुत्र और उत्तराधिकारी सीयक प्रथम (843-868 ई.) के शासन की विजयों में कहा जाता है कि उसने अपने बहुसंख्यक शत्रुओं का वध किया। नवसाहंसाकचरित में निर्देश हैं कि सीयक प्रथम के बाद और वाक्पति प्रथम के पूर्व एक उत्तराधिकारी (अज्ञात नामक नरेश) मालवा का शासक हुआ। जिसका शासन काल 25 वर्षों के लगभग रहा।

अगला शासक कृष्णरा (वाक्पति प्रथम) (893-918 ई.) हुआ, जिसे हर्सोल अभिलेख में वप्पयराज कहा गया है। उसे परमभट्टारक महाराजधिराज परमेश्वर की साम्राज्य सूचक उपाधियाँ दी गयी हैं। इसने महेन्द्रपाल द्वितीय (प्रतिहार) के अधीनस्थ विजय अभियान में भाग लिया। प्रतिहार साम्राज्य की भीतरी कमजोरियों का लाभ उठाते हुए परमारों ने प्रतिहारों की अधिसत्ता का बोझ उतार फेंका और वाक्यपति प्रथम स्वतन्त्र परमार शासक हो गया।

वाक्पति प्रथम का पुत्र वैरिसिंह द्वितीय (919-945) सिंहासन पर बैठा। जिसे वज्रट्स्वामी भी कहा गया है। प्रतिहार साम्राज्य की कठिनाइयों से लाभ उठाने का जो उपक्रम वाक्यपति प्रथम ने प्रारम्भ किया था, उसे वैरिसिंह द्वितीय ने जारी रखते हुए धार एवं उज्जयिनी पर अपनी विजय-पताका फहराकर मालवा में परमार सत्ता को शक्तिशाली बनाया। किन्तु पुनः प्रतिहारों ने घात कर अधिकार कर लिया।

मालवा के परमार शासकों ने प्रतिहारों की दासता से अपने को मुक्त कराने का प्रयत्न किया और सीयक द्वितीय (हर्ष) (945-973) ने मालवा पर पुनः प्रतिहार सामंतवाद समाप्त कर परमारों के शासन की स्थापना की। यह वह समय था जब प्रतिहार शासक महेन्द्रपाल द्वितीय की मृत्यु होते ही प्रतिहार साम्राज्य विघटित होने को था और दक्षिण में राष्ट्रकूट शक्ति भी लड़खड़ाने लगी थी। सीयक ने कई छोटे-बड़े शासकों को पराजित किया। सीयक की सबसे महान उपलब्धि राष्ट्रकूट नरेश खोट्टिगदेव को परास्त कर मान्यखेट तक जा पहुँचा। इसने शौर्य का प्रदर्शन करते हुए महाराजाधिराज तथा महामाण्डलिक चूड़ामणि की उपाधि ग्रहण की थी।

गुर्जर प्रतिहार और राष्ट्रकूट साम्राज्य की सीमाएँ चंदेलों और चालुक्यों के क्षेत्र को छूती थी, अतः पारस्परिक संघर्ष में परमारों और उनके बीच संघर्ष की स्थिति आ गयी। सीयक द्वितीय ने हूण राजकुमारों को परास्त कर उनके क्षेत्र को परमार साम्राज्य से मिला लिया। इन उल्लेखों से स्पष्ट है कि लगभग 25-30 वर्षों के अपने शासनकाल के द्वितीय सीयक ने परमार सत्ता को एक स्पष्ट भौगौलिक सीमा प्रदान की। उसकी उपलब्धियों की सुदृढ़ नींव पर ही वाक्पति द्वितीय, मुज्जराज ने परमार साम्राज्य का निर्माण किया। सीयक द्वितीय की मृत्यु पश्चात वाक्पति द्वितीय (मुंजराज) (974-995 ई.) परमार राजगद्दी का उत्तराधिकारी हुआ। एपिग्राफिया इण्डिया, जिल्द 6 के अनुसार वाक्पति अपने समय का एक परमवीर और सुयोग्य राजा था। उसने अपने समय के अनेक राजवंशों से युद्ध किये और परमार राज्य को अभूतपूर्व गौरव प्रदान किया। मुज के अनेक नाम व विरूद जैसे उत्पलराज व मुजराज नवसाहसांक चरित, नागपुर प्रशस्ति में धारण किये। उसने राष्ट्रकूट साम्राज्य के विजेता के उत्तराधिकारी के रूप में अमाधवर्ष, श्री वल्लभ और पृथ्वीवल्लभ जैसी राष्ट्रकूट उपाधियाँ धारण की।

अपने पिता की भाँति मुजराज को भी हूणों से युद्ध करना पड़ा। चालुक्यराज विक्रमादित्य पंचम के कौथेम अभिलेख से प्रमाणित होता है कि मुंज ने हूणों को पराजित किया था। गद्दी पर बैठने के कुछ दिनो उपरांत मुंज ने मेवाड़ के गुहिल शासक शक्तिकुमार को परास्त कर गुहित राज्य के कुछ भाग पर अधिकार कर लिया था। इस युद्ध में गुहिल शासक की और से कोई गुर्जर शासक भी लड़ था, किन्तु उसकी भी शक्तिकुमार जैसी ही दशा हुई।

द्वितीय को अगली सफलता त्रिपुरी के कलचुरी शासक युवराज के खिलाफ मिली। उदयपुर प्रशस्ति में कहा गया कि वाक्यपति ने युवराज को युद्ध में पराजित कर उसकी राजधानी त्रिपुरी पर अधिकार कर लिया। किन्तु कलचुरियों की राजधानी पर वाक्पति का अधिकार थोड़े ही दिनों तक रहा और वाक्पति ने कलयुरियों से संधि कर उनका राज्य लौटा दिया।

क्षिप्रा का महत्व:

क्षिप्रा नदी के तट पर यह नगर बसा होने से विशेष पवित्र माना जाता है। क्षिप्रा का ऐसा महत्व है कि इसके समान पावन करने वाली कोई नदी नहीं है और दूसरा स्थान नहीं है। उज्जयिनी में 12 वर्ष में एक बार सिंहस्थ कुम्भ महापर्व का मेला क्षिप्रा तट पर लगता है। उस समय क्षिप्रा स्नान का विशेष महत्व वर्णित है। क्षिप्रा मालव देश की सुप्रसिद्ध और पवित्र नदी है। तेज बहने वाली नदी होने के कारण इसका नाम क्षिप्रा पड़ा। स्मृतियों पुराणों तथा अन्य ग्रन्थों में तो नारायण शब्द के मूल में जल की स्थिति ही प्रतिपादित की गई है। ऐसी ही शान्ति एवं स्फूर्ति प्रदान करने वाली तथा संस्कृति का इतिहास रचने वाली नदी है ’क्षिप्रा’। जिसके सम्बन्ध में समुचित ही कहा गया है-

क्षिप्रायाश्च कथां पुण्यां पवित्रं पापहारिणीम्।

यह पवित्र नदी वैकुण्ठ में क्षिप्रा, स्वर्ग में ज्वरन्ध्री, यमपुरी में पापाग्नि तथा पाताल में अमृतसम्भवा वराह कल्प में ’धेनुजा’ नाम से विख्यात है।

क्षिप्रा की उत्पत्ति के आख्यान पौराणिक आख्यान-

क्षिप्रा की उत्पत्ति सम्बन्धी कथा का विशद विवेचन स्कन्दपुराण के अवन्ती क्षेत्र माहात्म्य खण्ड में प्राप्त है। अन्य पुराण तो इस सम्बन्ध में प्रायः मौन हैं, केवल मात्र एक दो पुराण में अवश्य ही इस सम्बन्ध में कुछ उल्लेख है, किन्तु वह भी संकेत मात्र है।

स्कन्द पुराण में वर्णित क्षिप्रा उत्पत्ति गाथा को देखने से प्रतीत होता है कि पुराण के रचयिता या सम्पादक ने क्षिप्रा सम्बन्ध तत्युगीन प्रायः सभी प्रचलित मान्यताओं को अपने ग्रन्थ में समाहित कर लिया था। सम्भवतः यही कारण है कि पुराण में क्षिप्रा उत्पत्ति सम्बन्धी आख्यान एक नहीं अनेक हैं। उत्पत्ति सम्बन्धी गाथाओं का संक्षिप्त विवरण निम्न है-

एक समय शिवजी ब्रह्म-कपाल लेकर भिक्षार्थ भगवान विष्णु को अँगुली दिखाते हुए भिक्षा प्रदान की। शंकर यह सहन न कर सके और उन्होंने तत्काल ही अपने त्रिशूल से उस अँगुली पर प्रहार कर दिया, जिससे रक्त धारा प्रवाहित होने लगी। वही धारा क्षिप्रा नदी के रूप में प्रवाहित होने लगी। इस प्रकार त्रैलोक्य पावनी शिप्रा बैकुण्ठ से अद्भुत हो तीनो लोकों में प्रसिद्ध हो गई।

आख्यान से सम्बन्धित पुरातत्वीय चिन्तन-

क्षिप्रा उद्भव सम्बन्धित उपरि-आख्यान के सम्बन्ध में पुरविद् वि.श्री. वाकणकर ने अपने आलेख में ’’पुण्य सलिला क्षिप्रा’’ में पुरातात्विक दृष्टि से चिन्तन कर लिखा है कि – विंध्याचल क्षेत्र की पर्वतश्रेणी में जल अवरूद्ध है। अतः उन्होंने उस पर्वत श्रेणी से छिद्र कर अवरूद्ध जल राशि सोपानाश्म (डेक्कन ट्रैप) की क्षरित लाल मिट्टी पर प्रवाहित होने लगी। फलस्वरूप प्रवाहित जल रक्त वर्णी हो गया। संभावना है कि लेटराइट मिट्टी के कारण उद्गम पर क्षिप्रा जल रक्तवर्णी हुआ है।

साभार- http://www.simhasthujjain.in/ से

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