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आदिवासियों के बीच अविस्मरणीय पल….

आदिवासी जन जीवन, संस्कृति, विकास की फैलती रोशनी, जीवन संघर्ष सब कुछ बड़े नजदीक से देखने का सौभाग्य मिला। जीवन की कठिन परिस्थितियों में संघर्ष कर अपनी ही संस्कृति के कई रंगों में नजर आए ये आदिवासी। सरकार की योजनाओं से कुछ बदलाव कर दौर से गुजर रहे थे तो कुछ विकास की रोशनी से कोसो दूर थे। वन और वनोपज, वर्षा पर निर्भर खेती और रेशम कीट पालन,मुर्गी पालन सरिकी योजनाएं आजीविका का आधार थी। नारू रोग के शिकंजे में जकड़ेे आदिवासियों के लिए नारू उन्मूलन परियोजना चलाई जा रही थी। शराब के कुटेव से घिरे थे।
दूरस्थ इलाकों में इनकी मौलिकता बरकरार थी।

आदिवासियों का कुछ ऐसा ही परिवेश देखने को मिला जब 1986-87 में मेरा पदस्थापन उदयपुर के जनजाति क्षेत्रीय विकास विभाग में हुआ। काम करने के लिए न कोई कक्ष था, न मेज़ – कुर्सी, न स्टाफ और तो और न कोई पुराने कार्यों की कोई फाइल थी। एक बार तो किंकर्तव्यविमूढ़ हो आवक रह गया आखिर यहां काम केसे होगा ? खैर सब समस्याएं अतिरिक्त आयुक्त श्री रोहित आर. ब्रांडन को बताई जिनके साथ कोटा में कार्य कर चुका था। उन्होंने मेरे बैठने की व्यवस्था रेशम कीट पालन प्रोजेक्ट कार्यालय में करने के लिए प्रभारी श्री प्रफुल्ल नागर को कहते हुए कहा आयुक्त महोदय के आने पर बात करेंगे। मै प्रफुल्ल जी के साथ उनकी टेबल के दूसरी ओर बैठता रहा। कुछ दिन ऐसे ही विभाग को और इसमें अपनी भूमिका को समझने में निकल गए। जन सम्पर्क अधिकारी के रूप में मेरे लिए दूसरे विभाग में काम करने का नया चैलेंज था।

जब आयुक्त श्री एम.एल.मेहता आए और उनसे मेरी पहली मुलाकात हुई। उन्होंने पहला प्रश्न किया तुम कोटा से आए हो यहां काम करोगे? मैंने कहा सर पूरे एक साल यहां रहूंगा, एक माह में अपने परिवार को ले आऊंगा। कुछ करके दिखा सकूं इसके लिए आपका सहयोग, संसाधन और काम करने की पूरी स्वतंत्रता चाहिए। मेरा सपाट उत्तर शायद उन्हें अच्छा लगा और वह बोले लगता है तुम में काम करने की लग्न और इच्छाशक्ति है। मेरा पूरा सपोर्ट रहेगा और मार्ग दर्शन करते हुए कहा हमने आदिवासियों के कल्याण की कई योजनाएं चलाई हैं तुम्हे इनकी और इनसे आदिवासियों को होने वाले फायदों के बारे में ही मुख्य रूप से पब्लिसिटी करनी है। उन्होंने रेशम कीट पालन प्रोजेक्ट में ही मरे बैठने की व्यवस्था करा कर आधे दिन के लिए एक बाबू और एक चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी की सुविधा उपलब्ध करवा दी। वाहन की तत्काल व्यवस्था नहीं होने से अधिकारियों को कहा क्षेत्रीय भ्रमण पर जाते समय इन्हें भी साथ ले जाएं और फिल्ड में चल रही योजनाओं के बारे में बताए।

मुलाकात के बाद मैंने काम करना शुरू किया। जैसा मुझे ज्ञात हुआ कि प्रेस नोट आयुक्त महोदय के अनुमोदन के बाद ही जारी होता है। यह तो विकट स्थिति थी, आयुक्त जी कभी सात दिन में कभी पंद्रह दिन में आते थे। पहल तो करनी थी सो मैं रोज एक समाचार बना कर उनके पी ए को भिजवाने लगा। करीब दस दिन बाद उनका आना हुआ। उन्होंने जब मेरे बनाए समाचार देखें तो मुझे बुलवाया। उन्होंने कहा समाचार तुमने जारी नहीं किए। जब पुरानी परिपाठी का हवाला दिया तो कहा तुमने बहुत अच्छे समाचार बनाए हैं आगे से अनुमोदन कराने की जरूरत नहीं है, जारी कर दिया करो । बस यही मै तो मै चाहता था और उसका यही तरीका मेरी समझ में आया था।

अगली मुलाकात पर जो कुछ प्रकाशित हुआ था उसकी न्यूजपेपर कटिंग्स देख कर उन्होंने मेरा हौसला बढ़ाया। मैंने उनसे कहा सर पहले विभाग की ” आदिवासी पत्रिका” प्रकाशित होती थी जो बन्द हो गई है, अगर आप उचित समझे तो मै इसे पुनः प्रारम्भ करना चाहता हूं। मुस्कराते हुए उन्होंने कहा तुम ऐसा कर सको तो बहुत अच्छा रहेगा। कुछ इधर – उधर की बात हुई और मै उत्साह के साथ अपने रूम में आ गया।

आयुक्त महोदय के स्पोर्ट और मार्गदर्शन में किया गया कार्य, मेरे सेवा काल के समय का स्वर्णिम काल रहा। परियोजना क्षेत्र में उदयपुर,डूंगरपुर,बांसवाड़ा,सिरोही,चित्तौड़गढ़ जिलों के आदिवासी गांव प्रमुख रूप से आते थे। भीीीी , गरासिया, ढोली भील, डूंगरी भील, डूंगरी गरासिया, मेवासी भील, रावल भील, तड़वी भील, भगालिया, भिलाला, पावरा, वसावा, वसावें, डामोर, डामरिया, कथोडी, आदि जनजातियां निवास करती हैैं। वर्तमान में बारां जिले के सहरिया आदिवासी भी इसी परियोजना का भाग है।

आदिवासी अंचलों में खूब भ्रमण कर नजदीक से उनके जन जीवन, हालतों, परेशानियों, विकास की योजनों से बदलते जीवन, संस्कृति सभी को नजदीक से देखा, जाना, समझा और खूब लिखा। हर दिन कोई न कोई समाचार, फीचर और लेख समाचार पत्रों की सुर्खियों में रहने ल गा। पत्रकारों से भी अच्छा निकट का सम्पर्क हो गया था। वह भी पूरा सहयोग करते थे। उस समय में जनसत्ता, हिंदुस्तान, नवभारत टाइम्स जैसे राष्ट्रीय पत्रों , साप्ताहिक हिंदुस्तान, धर्मयुग और दिनमान जैसी लोकप्रिय पत्रिकाओं में खूब आलेख और फीचर प्रकाशित हुए। कोई दिन ऐसा नहीं रहता था जब आकाशवाणी के शाम के सात बजे के समाचार बुलेटिन में विभाग की न्यूज नहीं हो। उस समय इस समाचार बुलेटिन का पूरे राज्य में जबरदस्त क्रेज था और राज्य की अधिकांश जनता और शासन के लोग इस बुलेटिन को सुनते थे।
कभी आयुक्त महोदय के साथ, कभी किसी टीम के साथ , कभी अधिकारियों के साथ फिल्ड में जा कर योजनाओं को देखना, लाभार्थियों की बातें सुनना, उनके साक्षात्कार लेना , कभी योजनाओं पर कोई फिल्म तैयार करवाना, नारू उन्मूलन परियोजना में आयोजित शिविरों में जा कर कवरेज करना, सफलता की कहानियां लिखना, व्यापक वृक्षारोपण अभियान में सक्रिय भागीदारी के साथ काम करना, जागरूकता शिवरों में दूरस्थ क्षेत्रों में जा कर रात गुजरना जैसे सभी कार्यों में खूब आंनद की अनुभूति हुई। यही नहीं उदयपुर संभाग के समस्त जिलों के दर्शनीय स्थलों, मंदिरों,गुफाओं,ऐतिहासिक स्थल और प्राकृतिक परिवेश, होली का गेर नृत्य, गवरी नृत्य नाटिका का आयोजन, गरासियों का वालर नृत्य आदि सभी कुछ देखने का अच्छा मौका प्राप्त हुआ। बतादें पूरे क्षेत्र में एक से बढ़ कर एक भौगोलिक मनभावन दृश्यावलियां है जो देखते ही बनती हैं। कुछ स्थल तो देश के किसी भी लोकप्रिय प्राकृतिक स्थल से बढ़ कर सुंदरता लिए हुए हैं। हरे भरे पहाड़ों और घाटियों के दृश्य अद्वितीय हैं। किसी फिल्मी दृश्य से कम नहीं।

विकास योजनाओं की प्राथमिकता के साथ – साथ उनकी कला – संस्कृति उनके त्योहार, मेले, नृत्य, संगीत, कला प्रेम, जीवन शैली और दर्शनीय स्थलों पर भी खूब कलम चलाई और पत्र – पत्रिकाओं ने व्यपाक स्थान दे कर प्रकाशित किया। समय – समय पर आयुक्त महोदय ही नहीं विभाग के अधिकारी भी मेरे लेखन की सराहना कर प्रोत्साहित करते थे।

उस दिन तो मेरी खुशी और उत्साह का पारावर नहीं रहा जब आयुक्त महोदय ने विभाग के समस्त्त अधिकारियों और कर्मचारियों के मध्य कहा की यह प्रभात के अथक प्रयासों से की गई पीब्लिसिटी का ही परिणाम है कि मुझे ” इंद्रागांधी प्रियदर्शनी वृक्ष मित्र पुरस्कार प्राप्त हुआ है। सब ने लम्बी करतल ध्वनि से मेरा स्वागत किया। अवसर था आयुक्त महोदय को 19 नवंबर 1986 को मिले इंद्रागांधी प्रियदर्शनी वृक्ष मित्र पुरस्कार के उपलक्ष में विभाग के सभागार में उनका स्वागत और सम्मान का। भाव विभोर हो कर में अपने स्थान से उठ कर गया और उनके चरण स्पर्श किए और बधाई दी। उन्होंने मुझे अपने गले लगा कर स्नेह से नहला दिया। मेरे लिए यह अनमोल पल था जिसकी स्मृतियां मेरे जहन में रहती हैं और मुझे स्पंदित करती रहती हैं।

इसी माह से मैने मासिक “आदिवासी पत्रिका” का भी प्रकाशन भी शुरू कर दिया । विविध रुचि पूर्ण सामग्री के साथ हर अंक विशेषांक होता था। विभाग की यह लोकप्रिय पत्रिका बन गई, जयपुर सचिवालय तक चर्चा में आ गई। पत्रिका का प्रकाशन मेरे स्थानांतरण होने जाने तक जारी रहा। ठीक एक साल बाद 10 अप्रैल 1987 को वहां से रिलीव हो कर मै कोटा पद स्थापन पर आ गया। पूरे सेवा काल में मुझे उदयपुर संभाग में एक साल तक आदिवासियों के बीच कार्य करने का अनुभव और आंनद सदैव के लिए अविस्मरणीय बन गया।