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वनमालाः उज्जैन में जन्मी वो अभिनेत्री जो 20 साल का फिल्मी कैरियर छोड़कर संन्यासिनी बन गई

(जन्म : 23 मई 1915, उज्जैन- निधन: 29 मई 2007, ग्वालियर)

बीते जमाने की सफलतम और बेहद खूबसूरत अभिनेत्री वनमाला को लेकर अगर आज की पीढ़ी से पूछा जाए तो शायद ही कोई उनके बारे में कुछ बता पाए। लेकिन मध्य प्रदेश और मालवा वासियों को ये जानकर हैरानी और गर्व होगा कि उज्जैन में जन्मी सुशीला पवार ने एक जमाने में फिल्मी परदे पर अपनी ऐसी धाक जमाई थी कि उस जमाने के पृथ्वीराज कपूर से लेकर सोहराब मोदी, मोतीलाल जैसे दिग्गज अभिनेता उनके साथ काम करना अपना सौभाग्य समझते थे। वी शांताराम जैसे दिग्गज फिल्मकार ने उनको लेकर मराठी और हिंदी की सफलतम फिल्में बनाई।

सिंधिया राज्य के समय उज्जैन के कलेक्टर रहे बापूराव पवार के घर जन्मी वनमाला के बचपन के कुछ दिन तो उज्जैन में बीते फिर उनके पिता का स्थानांतरण ग्वालियर होने के बाद उनकी शिक्षा ग्वालियर में हुई। इनकी माताजी का नाम सीता देवी था। उनकी चार बहनें और दो भाई थे। बापूराव पवार सिंधिया राज्य के एक रौबदार अधिकारी थे और उन्हें सिंधिया राज्य की ओर से कर्नल व राव बहादुर की उपाधि दी गई थी। उनके ही परिवार के आनंद राव पवार 2006 में मध्य प्रदेश में पुलिस महानिदेशक बने और इसी पद से सेवा निवृत्त हुए। श्री आनंद राव पवार वनमाला के भतीजे हैं।

वे जीवन के हर क्षण में अपने शहर उज्जैन को गर्व से याद करती रही। वनमाला उस उज्जैन में अपना जन्म होना सौभाग्य मानती थी जिस अवंतिका नगरी में कालिदास जैसा महान कवि हुआ। उन्होंने अपना नाम सुशीला देवी से बदलकर वनमाला रख लिया था और वे एक समर्थ, सशक्त, लोकप्रियता की तमाम उँचाईयाँ छूने के बाद साध्वी बनकर वृंदावन चली गई। फिर उन्होंने अपने अँतिम दिन ग्वालियर में बिताए। लम्बे समय तक कैंसर से पीड़ित वनमाला का निधन 92 वर्ष की आयु में 29 मई, 2007 को ग्वालियर में हो गया। 29 मई, 1971 को उनके प्रिय अभिनेता पृथ्वीराज कपूर का भी निधन हुआ था। जीवन के अंतिम समय तक वे कृष्ण भक्ति में डूबी रहीं और नाथद्वारा के श्रीनाथजी की प्रतिमा पर लगने वाले चंदन को सूँघकर अपने दिन की शुरुआत करती थी।

वनमाला के अभिनय से लेकर उनके अभिनेत्री बनने के कई किस्से हैं। ये वह दौर था जब भारतीय फिल्मों में लड़कियों का काम करना हेय दृष्टि से देखा जता था। उस दौर में खूबसूरती के तमाम आयामों के शिखर को छूने वाली वनमाला एक ताजी हवा के झोंके की तरह चमकदार फिल्मी परदे पर उभरी। दर्शकों को हँसाती रुलाती और गुदगुदाती भी रही और झोकझोरते हुए अपने अभिनय से अपना दीवाना बनाती रही।

वनमाला की पहली ब्लॉक बस्टर ऐतिहासिक फिल्म सिकन्दर (1941) थी। मिनर्वा मूवीटोन के बैनर तले बनी इस फिल्म में उनके साथ सोहराब मोदी और पृथ्वीराज कपूर थे। सोहराब मोदी ने इस फिल्म में पोरस की और पृथ्वीराज कपूर ने अलेक्जेंडर की भूमिका निभाई थी। फिल्म में ईरानी सुंदरी रूख्साना की भूमिका में वनमाला ने ऐसी जान डाल दी थी कि फिल्म में दो दिग्गज कलाकारों सोहराब मोदी और पृथ्वीराज कपूर के होने के बाद भी सबसे ज्यादा चर्चा वनमाला के अभिनय और सौंदर्य की ही हुई। उस दौर की ये भव्यतम फिल्म थी जिसके युध्द दृश्यों की वजह से इसे भारत में ब्रिटिश कैंटोनमेंट क्षेत्रों में प्रदर्शन के लिए प्रतिबंधित कर दिया गया था।

1941 में आई फिल्म “चरणों की दासी’ में दुर्गा खोटे जिन्होंने मुगले आज़म में जोधा बाई की भूमिका की थी उसमें वे सास बनीं थी और वनमाला ने क्रूर सास के सामने सास के सामने एक विनम्र मगर विद्रोही पुत्रवधू की भूमिका निभा कर अपनी ज़बर्दस्त छाप छोड़ी थी। इस फिल्म की लोकप्रियता का ये हाल था कि सिनेमाघर के बाहर वनमाला के बैनर और पोस्टर देखने के लिए लोगों की भीड़ लग जाती थी।

पृथ्वीराज अपनी डायना (वनमाला) को चंद्रमा की देवी कहते थे। ये वनमाला की जादुई व नशीली आँखें ही थी कि उन्हें सिकंदर में रुख्साना की भूमिका मिली और वनमाला को “सिकंदर” की सफलता के साथ भारतीय फिल्म सितारों की अग्रिम पंक्ति में खड़ा कर दिया। पहाड़ी सान्याल उसे “माला” कहते थे। मोतीलाल उसे इस भूलोक की अनुपम सुंदरी और फिल्मी दुनिया की सबसे ज्यादा पढ़ी लिखी कलाकार कहते थे।

वनमाला ने 1936 से फिल्मों में काम करना शुरु किया और 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन शुरु हो चुका था। वनमाला ने स्वाधीनता सेनानी अरुणा आसफ अली, अच्युत पटवर्धन और आचार्य नरेंद्र देव को अपने घर में छिपाकर रखा जब ब्रितानी पुलिस उन्हें गिरफ्तार करने के लिए चारों ओर खोज रही थी।

वनमाला ग्वालियर के विक्टोरिया कॉलेज से बीए करने वाली पहली छात्रा थी। इसके बाद वे 1936 में पुणे में अपनी मौसी के पास चली गई। वहाँ वनमाला आचार्य अत्रे के साथ आगरकर विद्यालय में पढ़ाने लगी। वह उस समय की पहली महिला थी जिसने दो विषयों में एमए किया था। आचार्य अत्रे उस दौर के मराठी के जाने माने नाटककार थे और उनके पास उस जमाने के दिग्गज फिल्म निर्देशक बाबूराव पेंढारकर मास्टर विनायक और वी शांताराम आते रहते थे। मास्टर विनायक और बाबूराव पेंढारकर ने नवयुग चित्रपट कंपनी बनाई थी। इस कंपनी ने मराठी फिल्म लपंडाव फिल्म का निर्माण किया जो हिंदी में आँखमिचौली के नाम से बनी।

वनमाला का फिल्मी सफर इन्हीं फिल्मों से शुरु हुआ। उन्होंने मराठी फिल्म लपंडाव और हिंदी में बनाई इसी फिल्म आँख मिचौली में अभिनय किया। फिल्मी दुनिया की नकली जिंदगी उनकी अध्यात्मिक जीवन शैली को रास नहीं आई और एक दिन उन्होंने फिल्मी कैरियर को तिलाजलि देकर संन्यासिनी का चोला ओढ़ लिया। 1965 में उनका मन फिल्म जगत से उचट गया और वे वृंदावन जाकर साध्वी जैसा जीवन व्यतीत करने लगी। वृंदावन में उन्होंने नई पीढ़ी को भारतीय कला और संगीत से परिचित कराने के लिए हरिदास कला संस्थान की स्थापना की। संन्यासिनी जीवन में उन्होंने अपना फिल्मी नाम छोड़कर वापस अपने बचपन का नाम सुशीला रख लिया।

मुंबई की फिल्मी दुनिया में ये किस्सा आज भी सुनाया जाता है। कि वनमाला के पिता बाबूराव पवार जब ग्वालियर के रीगल सिनेमा में फिल्म देखने गए तो परदे पर अपनी बेटी को देखते ही आपा खो बैठे और परदे पर ही गोली चला दी। गोली चलते ही सिनेमा हाल में भगदड़ मच गई। इस किस्से को कोई हकीकत बताता है तो कोई कपोल कल्पना। वनमाला के भतीजे और मध्य प्रदेश के पूर्व पुलिस महानिदेशक रहे श्री आनंदराव पवार इसे काल्पनिक बताते हैं तो उनकी भांजी श्रीमती मोहिनी माथुर इस किस्से को लेकर कहती है कि उन्होंने भी ऐसा कई लोगों के मुँह से सुना है। जब वनमाला जी के जीवन पर डॉक्यूमेंट्री बना रहे फिल्म निर्माता स्व. जे के निर्मल ने जब मुझे स्क्रिप्ट लिखने का काम दिया था तो ये किस्सा उन्होंने खुद ही सुनाया था।

वनमाला ने नृत्य की शिक्षा पं. लच्छू महाराज और संगीत की पं. सदाशिव राव, अमृत फुले, छम्मन खां से ली। उन्होंने 1941 से लेकर 1954 के समय कई हिंदी और मराठी फिल्में की। उनके बेहतर अभिनय के लिए शांताराम अवॉर्ड मिला। वर्ष 2004 में देश का सर्वोच्च सम्मान दादा साहेब फालके अवॉर्ड से भी नवाजा गया। घुड़सवारी और तीरंदाजी वनमाला के शौक थे तो उन्होंने कथक, कथकली और मणिपुरी जैसे शास्त्रीय नृत्यों में भी महारत हासिल की थी ।

वनमाला ने अपने फिल्मी कैरियर में एक से एक सफल फिल्मों से अपने अभिनय की छाप छोड़ी। महाकवि कालिदास, कादंबरी, मुस्कराहट, शहंशाह अकबर, राजा रानी, वसंत सेना जैसी फिल्मों से लेकर चरणों की दासी (1941), वसंतसेना (1942), दिल की बात (1944), परबत पे अपना डेरा (1944) आरती (1945), शरबती आंखें (1945), खानदानी (1947) बीते दिन (1947 ), पहला प्यार (1947 ), हातिमताई (1947) बैचलर हसबेंड (1950) , आजादी की राह पर (1948), चन्द्रहास (1947), खानदानी (1947), हातिमताई (1947), बीते दिन (1947), अंगारे (1954), भक्त पुराण (1952 ), बैचलर हसबैंड (1950), श्रीराम भरत मिलाप (1965), पायाची दासी और मराठी फिल्म मोरूची मावशी। वसंत सेना फिल्म के निर्माण में भी उनकी प्रमुख भूमिका थी।

हिन्दी, अंग्रेजी और मराठी तीनों भाषाओं में समान अधिकार रखने वाली वनमाला को मराठी फिल्म श्याम ची आई (1953) में अविस्मरणीय भूमिका के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का राष्ट्रपति द्वारा प्रदत्त स्वर्ण कमल पुरस्कार दिया गया। इस तरह वनमाला भारत की पहली अभिनेत्री थी जिन्हें ये प्रतिष्ठित पुरस्कार दिया गया था। इस फिल्म का निर्देशन आचार्य प्रह्लाद केशव अत्रे ने किया था, जिसकी कहानी स्वतंत्रता सेनानी और प्रसिद्ध मराठी रचनाकार साने गुरुजी के आत्मकथात्मक उपन्यास पर आधारित है।

साने गुरुजी (1899 – 1950) द्वारा लिखा गया उपन्यास श्याम ची आई 20 वीं शताब्दी (1935) के सबसे प्रभावशाली मराठी उपन्यासों में से एक है। जेल में लिखा गया ये उपन्यास में श्याम कोंकण में रहने वाले घोर गरीबी में जीने वाले श्याम नामक युवा की कहानी है जो अपनी माँ के धार्मिक और व्यावहारिक संस्कारों के साथ जीता है।

वनमाला जी ने जब पहली बार साने गुरूजी का ये उपन्यास पढ़ा तो उसे पढ़कर उनकी आँखों से आँसुओँ का झरना बह निकला। उन्होंने तत्काल साने गुरुजी से संपर्क क पाँच सौ रुपये देकर इस उपन्यास पर फिल्म बनाने के अधिकार हासिल कर लिए। उन्होंने खुद इस फिल्म का निर्माण भी किया और शानदार अभिनय भी किया। इस फिल्म में वनमाला ने ऐसी माँ की भूमिका की थी जिसका पति एक बेटा छोड़कर मर जाता है। घरेलू काम कर वह अपने बेटे को पढ़ाती-लिखाती है और उसे बड़ा आदमी बनाती है। इस फिल्म में माँ की अविस्मरणीय भूमिका के लिए ही उन्हें राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत किया गया था।

उज्जैन शहर में जन्मी होने के कारण वे चाहती थी कि उनके अपने शहर की किसी कहानी पर कोई फिल्म बने और वे इसमें अभिनय भी करें। इसके लिए उन्होंने प्राचीन उज्जयिनी के लेखक शूद्रक के नाटक मृच्छकटिकम की नायिका वसंतसेना में मुख्य नायिका की भूमिका कर अपनी इच्छा पूरी की।

उन्होंने भारतीय परंपराओं और संस्कृति को बढ़ावा देने वृन्दावन में शास्त्रीय नृत्य एवं गायन के लिए हरिदास कला संस्थान नाम से विद्या केंद्र स्थापित किया। वनमाला कई सामाजिक गतिविधियों से गहराई से जुड़ी थीं। वे छत्रपति शिवाजी नेशनल मेमोरियल कमेटी की सदस्य थी।