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हम वनवासी आखातीज के पहले आम नहीं खाते!

वनवासी कल्याण आश्रम के राष्ट्रीय अध्यक्ष जगदेव राम जी उरांव अचानक हमें छोड़कर चले गए। लेकिन जाते जाते बहुत बड़ी विरासत हमारे लिए छोड़ गए हैं।

वर्ष 1995 में आश्रम के संस्थापक अध्यक्ष वनयोगी बालासाहब देशपाण्डे जी के स्वर्गवास के उपरांत जगदेवराम जी पर कल्याण आश्रम का नेतृत्व करने का गुरुतर दायित्व आ गया था। कल्याण आश्रम में जगदेव राम जी का प्रवेश 1968 में आश्रम द्वारा संचालित विद्यालय में शिक्षक के रूप में हुआ था.

कल्याण आश्रम के विविध कार्यक्रमों को सफल बनाने हेतु उन्होंने आगे रहकर नेतृत्व किया. जनजाति समाज के संदर्भ में ‘दृष्टि नीति पत्र’ को तैयार करने और प्रकाशित करने में उनकी सराहनीय भूमिका रही. जनजाति युवाओं के लिये खेल महोत्सव और खेल प्रतियोगिता का आयोजन प्रति वर्ष करने हेतु वे सतत प्रेरणा देते रहे. शबरी कुंभ, प्रयाग कुंभ और उज्जैन के सिंहस्थ कुंभ के दौरान आयोजित जनजाति सांस्कृतिक नृत्य का कार्यक्र हो या झाबुआ में 2003 में हुई विशाल वनवासी सम्मेलन, भोपाल के माखनलाल चतुर्वेदी विश्वविद्यालय के सहयोग से “जनजाति प्रतिमा एवं वास्तविकता” इस विषय पर आयोजित सेमिनार आदि उनके कार्यकाल में हुई विशेष उल्लेखनीय कार्यक्रम है।

विद्यार्थी परिषद के अखिल भारतीय सह-संगठन मंत्री, प्रफुल्ल आकांत जी, कुछ वर्ष छत्तीसगढ़ के संगठन मंत्री रहे। उन्हें जगदेव राम जी के साथ काम करने का अवसर मिला था। वे कहते हैं-छत्तीसगढ़ में एक बार जगदेव राम जी, कल्याण आश्रम के कुछ कार्यकर्ताओं के साथ, जीप में प्रवास पर जा रहे थे। रास्ते में कार्यकर्ताओं को किनारे पर लगा, एक आम का पेड़ दिखा। यह कच्चे आमों से लदा पड़ा था। गंतव्य स्थान पर जाने की कुछ जल्दी नहीं थी। इसलिए कार्यकर्ताओं ने जीप रोकी। पेड़ से कुछ कच्चे आम तोड़े। उन्हें काटा और जगदेव राम जी को देने लगे। जगदेव राम जी ने विनम्रतापूर्वक नकार दिया। कार्यकर्ताओं ने पूछा, “आपका परहेज है क्या, आम से…?”

जगदेव राम जी ने थोड़ा हँसते हुए कहा, “नहीं। पर हम वनवासी आखा तीज (अक्षय तृतीया) से पहले आम नहीं खाते।”

“ऐसा क्यूँ….?” एक कार्यकर्ता ने पूछा।

“आखा तीज के पहले आम में गुठली नहीं बनती। हम वनवासी जब उस ऋतु में आम खाते हैं, तो सबसे पहले आम की गुठली जमीन में गाड़ते हैं। हमारा मानना है, उस गुठली से आने वाले पीढ़ी को आम मिलेंगे। चूंकि आखा तीज के पहले आम में गुठली नहीं बनती, इसलिए ऐसे आम को खाना माने उस आम की भ्रूणहत्या करना, ऐसा हम लोग मानते हैं। इसलिए, वनवासी आखा तीज के बाद ही आम खाते हैं…!”

उरांव जनजाति के आस्था का केन्द्र रोहतासगढ़ के इतिहास को पुनर्जागरण करने और देश भर के उरांव जनजाति को एक सूत्र में बांधने का प्रयास भी जगदेवराम जी के नेतृत्व में हुआ। जनजाति समाज का सरना पर्व को सामूहिक रूप से मनाते हुए जनजाति समाज का स्वाभिमान जगाने के कार्य में भी वे अग्रणी थे और अंतिम समय तक इस कार्य में वे जुटे रहे.

उनके नेतृत्व में कई सेवा कार्य और राहत कार्य करने में कल्याण आश्रम सफल रहा है. अभी कल्याण आश्रम का कार्य देश के लगभग 500 जनजाति समूह तक व्याप्त हुआ है. आश्रम के कार्य की पहुंच 50,000 से अधिक गाँवों तक है. वर्तमान समय में प्रकल्पों की संख्या 20,000 से अधिक है और देश के लगभग सभी प्रांतों के 14,000 गावों में अपना नियमित कार्य चल रहा है. सब कार्यों का मुख्य श्रेय जगदेवरामजी को जाता है।

सादगी,निरहंकार, मन की निर्मलता, परिश्रम, समर्पणभाव, सहज स्नेह यह वह विरासत है, जिसको साथलेकर उन्होंने अपना जीवन जीया। एक विचारधारा आधारित संगठन के लिए जिन गुणों की आवश्यकता होती है, उन सभी गुणों का जीवंत प्रतीक थे हमारे जगदेव राम जी। वैसे तो छत्तीसगढ़ के कोमडो नाम के एक छोटे से जनजाति गाँव से उनकी जीवनयात्रा प्रांरभ हुई। वे अगर अपने ही गाँव में एक आम व्यक्ति की तरह जीवन जी लेते तो तो शायद उनके व्यक्तित्व में इतने आयाम नहीं जुड़ते।

लेकिन नियती ने शायद जगदेव राम जी के बारे में कुछ और ही सोचा होगा। क्योंकि, उनकी यात्रा इतनी विहंगम हो गई कि वे ना अपने परिवार के रहे, ना अपने गाँव के, उन्होने तो संपूर्ण देश को ही अपना परिवार बना लिया। उन्होंने कल्याण आश्रम के हजारों परिवारों का परिवार खड़ा कर दिया।

एक राष्ट्रव्यापी संगठन के अध्यक्ष होते हुए इस पद का जरा भी बड़प्पन उनको कभी छू नही पाया। स्वभाव में इतनी सहजता और व्यवहार में इतनी सादगी की, उनके स्नेहपूर्ण व्यवहार से सहज रूप में वे किसी भी परिवार से घुलमिल जाते थे। इन परिवारों में माता-पिता, बहन-भाभी, भाँजा-भतीजा का सहज स्नेह उन्होंने प्राप्त किया। इस स्नेह प्राप्ति में सबसे बड़ा योगदान जगदेव राम जी की सादगी और सहजता का ही था। अपने निर्मल व्यवहार से इन परिवारों में उन्होने जो स्थान निर्माण किया, उससे देशभर के सैकड़ों कार्यकर्ताओं का उत्साह और इस कार्य में परिवार के सदस्यों का सहयोग बढ़ाने में काफी मदद हुई।

उनके सादगीपूर्ण जीवन के अनुभव तो देशभर के कई कार्यकर्ता सुना सकते है। सादगीपूर्ण जीवन उनके लिए दिखावे का या सिखाने का विषय नही था, तो उनके जीवन का ही एक हिस्सा था।

अभी पिछले साल कुछ दिन के लिए नासिक आए तो एक बार कहा, ‘जरा चप्पल ठीक करनी है।’ श्याम को उनको लेकर मोची को ढुंढने निकले। जुते की अवस्था देखकर कहाँ, ‘जगदेव राम जी, चप्पल काफी खराब हुई है, यह फेंक देंगे और नई लेंगे!’। कहने लगे ‘अभी ठीक करने से और पाँच-छः महिने तो चलेगी, बाद मेंं देखेंगे। चार साल उसने साथ दिया है, उसको ऐसे ही कैसे फेंकें?’

उनका यह उत्तर सुनकर दंग रह गया। अपना जीवन चक्र चलाने के लिए जूते जैसी निर्जीव वस्तु का भी सहयोग होता है, इस बात की एक नई जीवन दृष्टि का अनुभव उस दिन हुआ। यकीन मानिए, पिछले तीन चार महिने से टूटी चप्पल की जगह नई चप्पल खरीदने का जब भी विचार करता हूँ, तो जगदेव राम जी का वह जीवन दृष्टि प्रदान करनेवाला विचार सहज ही सामने आ जाता है।

जगदेव राम जी पिछले पच्चीस साल से कल्याण आश्रम के अध्यक्ष थे। लेकिन इस पद से होने वाले अहंकार और महिमा मण्डन को उन्होंने कभी भी अपने पास फटकने ही नहीं दिया। अपने सरल एवं स्नेहपूर्ण स्वभाव से उन्होने इस पद की गरिमा को इतनी ऊँचाई तक पहुंचाया कि कल्याण आश्रम के संस्थापक स्व. बालासाहब देशपांडे जी ने जिस विश्वास के साथ संगठन की बागडोर उनके हाथ में सौंपी थी, उस पर वे पूरी तरह से खरे उतरे।

जगदेव राम जी ने भारत के लगभग सभी जनजाति क्षेत्र में प्रवास किया। जहाँ – जहाँ प्रवास रहता उस क्षेत्र की जनजातियाँ, उनकी परंपरा, संस्कृति इसके बारें में उनका अध्ययन और निरीक्षण अद्भूत था। विभिन्न सम्मेलनों, अभ्यास वर्गों में दिए हुए भाषणों में वे इन अनुभवों को सामने लाते थे। अपने सादगीपूर्ण जीवन के कारण जगदेव राम जी का प्रवास और उनका सहवास कार्यकर्ताओं के लिए हमेशा प्रेरणादायी रहता। प्रवास में अपने कारण अन्य किसी भी कार्यकर्ता को कम से कम कष्ट पहुंचे ऐसा उनका सतत प्रयास रहता। अपने कारण किसी को तकलीफ पहुँचाना, या कष्ट देना उनके स्वभाव में ही नहीं था।

अपना जनजाति समाज एक भोलाभाला,निष्कपट, प्रामाणिक एवं सरल स्वभाव का समाज माना जाता है। कल्याण आश्रम के कार्यकर्ताओं को ये अनुभव होता ही रहता है शायद जनजाति समाज का यही स्वभाव देशभर के अपने हजारों कार्यकर्ताओं का एक प्रमुख प्रेरणास्त्रोत रहा है। एक जनजाति परिवार में जन्म लेने के कारण जगदेव राम जी में भी यह गुण कूटकूटकर भरे थे। लेकीन अध्यक्ष पद और अपने कार्य के बोझ के तले उन्होने अपने इन गुणों को कभी भी निस्तेज नही होने दिया। जीवन के अंतिम क्षण तक कार्यकर्ताओं ने वही जगदेव राम जी अनुभव किए, चेहरे पर शिशु जैसे भाववाले भोले भाले,निष्कपट और निर्मल स्नेह का अमृत पान करानेवाले भोले शंकर!

कितने कष्ट सहकर कार्य करते थे हमारे जगदेव राम जी! उनके शरीर ने पिछले कुछ सालों से तो उनके साथ असहयोग का आंदोलन छेडड रखा था। विभिन्न पीड़ाओं ने उनके शरीर में मानो अपना घर बना लिया था। बी.पी.,शुगर, किडनी, हृदयविकार से वे काफी त्रस्त थे। उनका उपचार कर रहे डॉक्टर के अनुसार वे ‘बोनस’ की जिंदगी जी रहे थे। लेकिन जगदेव राम जी इतने सहनशील थे कि उन्होंने ना कभी अपनी वेदनाओं को प्रकट किया , ना अपने कार्य की गति को अवरूद्ध किया। अध्यक्ष होने के कारण मन्च पर बैठकर लंबे समय तक अन्य वक्ताओँ के भाषण सुनना कितना कष्टदायक काम है? लेकिन वे बिना किसी शिकायत के वेदनाओं को सहते हुए यह कठिन काम करते रहें। जशपुर में एक अभ्यास वर्ग के दौरान उनका रक्तचाप काफी बढ़ा हुआ था। मन्च पर उनके चेहरे पर अस्वस्थता स्पष्ट रूप से दिख रही थी। उनको कहा, ‘जगदेव राम जी, जरा आराम कीजिए। कहने लगे, ‘काहेका आराम! बीपी, शुगर अपना काम कर रहा है, मुझे भी अपना काम करना चाहिए!’ कोई क्या तर्क दे, उनके इस उत्तर पर?

जगदेव राम जी कल्याण आश्रम के केवल अध्यक्ष नही थे, तो संगठन के पिछले लगभग ५२ सालों के इतिहास के वह प्रत्यक्ष साक्षी थे। जनजाति समाज में जन्म लेने के कारण वनवासी समाज की परिस्थितियाँ, उनकी मानसिकता वे भलिभाँती जानते थे। दूसरी ओर कल्याण आश्रम के अध्यक्ष के नाते एक संगठन की भूमिका और उसकी मर्यादाओं को भी वे अच्छी तरह से समझते थे। शायद यही कारण होगा कि उनके भाषण, चर्चा, संवाद में एक अद्भूत संतुलन देखने को मिलता था। विचारों की इतनी स्पष्टता की कार्यकर्ताओं के सारे संभ्रम दूर हो जाते थे।

‘वनवासी’ शब्द को लेकर चल रहे विवाद पर एक बार चर्चा हुई तो उन्होने कहां ‘जो यह विवाद निर्माण कर रहे है उनका आपकी विचारधारा को ही विरोध है, ‘वनवासी’ शब्द तो एक बहाना है, आज यह शब्द है तो कल कोई और विवाद खड़ा करेंगे, आप कब तक भागेंगे?’ एक कार्यकर्ता ने पूछा – ‘ हम इतना कार्य कर रहे हैं, लेकिन जनजाति समाज से कुछ रिस्पॉन्स ही नहीं मिलता?’ तो उनका उत्तर था, ‘ जनजाति समाज अपने स्थान पर खूश है, स्वयं का विकास करने की आकांक्षाही उसमें नहीं है। उसी आकांक्षा को जगाने का काम हमें करना है, उसके लिए समय तो लगेगा ही’ -वे कहते थे की ‘जनजाति समाज प्रकृति के सानिध्य में ही पला और बड़ा हुआ है, शहरों की चकाचौंध में वो अपने आप को खो देगा, इसलिए जहाँ तक हो सके वन क्षेत्र में ही वह रहे इसके लिए हमें प्रयास करने होंगे।’

कार्यकर्ताओं के मन में उठे कई सवालों के जवाब जगदेव राम जी के पास थे। इसी कारण उनका भाषण सुनना एक अद्भूत आनंद का विषय था। कल्याण आश्रम में जनजाति समाज का गौरवशाली इतिहास पहली बार सुना तो वह जगदेव राम जी की वाणी से। कितना प्रेरणादायी इतिहास सुनाते थे वे!

मन में विचार आता कैसे इतना स्पष्ट चिंतन, विचार करते हैं, इतना पढ़ने का समय कहाँ से लाते हैं?

वैसे तो जगदेव राम जी और कल्याण आश्रम कोई अलग थे ही नही। संगठन से वे इतने एकरूप हुए थे की, ‘मेरी व्यक्तिगत राय’ यह शब्द शायद ही उनके मुंह से किसी ने सुना होगा। स्व.बालासाहब देशपांडे जी ने जिस कल्याण आश्रम की नींव रखी वह संगठन आज जगदेव राम जी के नेतृत्त्व में देश का सबसे बडा संगठन बन गया है। कल्याण आश्रम की उपलब्धियों के बारें में जब कभी विचार होगा तब जगदेव राम जी जैसे उत्तुंग नेतृत्त्व का निर्माण यह सबसे प्रमुख उपलब्धि मानी जाएगी। एक छात्र से लेकर संगठन के राष्ट्रीय अध्यक्ष तक का उनका जीवन प्रवास हमेशा सबके लिए प्रेरणादायी रहेगा।

जनजाति समाज में तो वैसे अनेक संत-महंत, महापुरूष निर्माण हुए, लेकिन सन्यस्त वृत्ति धारण कर अपने समाज की सर्वांगीण उन्नति के लिए, समाज में ही रहकर जिन्होने संपूर्ण जीवन जनजाति समाज के लिए समर्पित किया ऐसे जगदेव राम जी देश के शायद एकमात्र सामाजिक कार्यकर्ता होंगे।

अभी तक जिस वट वृक्ष के नीचे कार्यकर्ता स्वयं को सुरक्षित महसूस करते थे वह आधार ही जगदेव राम जी के जाने से चला गया है। लेकिन जाने से पहले आचार-विचार और व्यवहार की एक अनोखी विरासत वे हमारे लिए छोड़कर गए है। यह बात सही है की जगदेव राम जी जैसा तपस्वी नेतृत्त्व बार बार निर्माण नहीं होता। लेकिन उनके रूप में ऐसा देव दुर्लभ नेतृत्व कल्याण आश्रम को प्राप्त हुआ और उनके मार्गदर्शन में कार्य करने का सौभाग्य देश के हजारों कार्यकर्ताओं को मिला।