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वैदिक सूत्र हमें आत्म समृध्द करते हैं

वैदिक सूक्त हमें आत्म-समृद्ध करते हैं। आत्म-समृद्धि के बिना अम्भ के प्रसंग में वाक् सूक्त की ऋषिका अम्भृणी का स्मरण नहीं हो सकता!

जब अम्भृणी का स्मरण नहीं होगा, तो हम वाक् सत्ता को नहीं समझ पाएंगे, राष्ट्र को नहीं जान पाएंगे! और न ही अम्भ से निकली गंगा की पावन धारा का महात्म्य समझ सकेंगे!

वैदिक सूक्त बताते हैं- राष्ट्र है क्या? राष्ट्र कैसे बनता है? वाक् स्वयं को राष्ट्री क्यों बताती है, वह स्वयं को सगमनी क्यों कहती है?

राष्ट्र होने के लिए परस्पर वाचिक संबंध होना चाहिए, वाचिक संबंध से संवाद, सहमति, सौहार्द, आत्मीयता बनती है।

अंग्रेजों ने भारतीय भाषाओं को एक-दूसरे से पराया बनाने, अलग करने का प्रयास किया था। भारतीय भाषाओं की एकसूत्रता को खंडित करने का प्रयत्न किया गया, उस शास्त्रीय आधार को विस्मृत करने की कोशिश हुई, जहां सभी भाषाओं की एकात्मता निर्णीत होती है।

भाषा विभेद से अंतराल बनाकर अंग्रेजी के लिए स्थान बनाया गया, आधुनिक शिक्षा, विकास और उपभोग पर एकाधिकार कर आर्थिक चक्र की दासता स्थापित की गई है। इसी पृष्ठभूमि में आज भी वर्चस्व और धर्मान्तरण का खेल चल रहा है।

विगत शताब्दियों से अँग्रेजी राज और अँग्रेजी भाषा ने भारतीय भाषाओं की एकात्मता को खण्डित कर भारत के राष्ट्र बोध को विस्मृत करने का प्रयास किया है। हम अँग्रेजी को भी स्थान दे सकते हैं, वह हमारी वार्णिक और व्याकरणिक व्यवस्था में रह सकती है, भारतीय लिपियों में लिखी जा सकती है।

इतिहास साक्षी है कि विश्व की किसी भी भाषा को हमने उपेक्षित नहीं किया, क्योंकि ऋषियों के वेद वचन हमें आदेश हैं कि सब मिलकर रहो तभी सुखी और समृद्ध रहोगे!

जैसे एक घर में विविध भाषाओं और स्वधर्मों के लोग साथ रहते हैं वैसे ही पृथ्वी पर विविध भाषा और धर्म के लोग आपस में मिल-जुलकर रहें। इसी से सुख-समृद्धि की सहस्त्रों धाराएं फूटती हैं, जो
कामधेनु की भांति मनुष्य की इच्छाएं पूर्ण करती हैं।

जनं बिभ्रति बहुधा विवाचसं नाना धर्माणं पृथिवी यथैकसम्।
सहस्रं धारा द्रविणस्य मे दुहां ध्रुवेव धेनुरनपस्फुरन्ती।‌। ४५।।
-अथर्ववेद, काण्ड- १२, भूमि सूक्त-१

भाषाओं से कनेक्टिविटी होती है, कनेक्टिविटी से व्यवसाय होता है, और समृद्धि मिलती है। हमारी ज्ञान-विज्ञान की वैदिक परंपरा सभी वार्णिक ध्वनियां और व्याकरणिक व्यवस्था को सूर्य मंडल से प्रसूत मानती है। अर्थात वर्णमातृका और दिक्काल ॐकार से उद्भुत हुआ है।

इसी तथ्य का निरूपण महामुनि पाणिनि ने नटराज के डमरू नाद में किया है। भारत राष्ट्र और राष्ट्र बोध की स्थापना के लिए वाक् तत्त्व को स्थापित करना होगा।

अम्भ = जल !
सामान्य जल नहीं, ज्योतिर्जल।

पृथ्वी के जल को ‘मर’ कहते हैं। अंतरिक्ष के जल को ‘मरीची’। मरीची से भी सूक्ष्म जल है ‘अम्भ’! अम्भ सूर्य मण्डल के ऊपर सोम मण्डल में परमाणु रूप में व्याप्त है। इससे सृष्टि आरंभ होती है। यह अमृत-तुल्य है।

गंगा मैया ‘अम्भ’ से निकली हैं। शिव की जटा से अर्थात सूर्य मण्डल की ज्वालाओं से!

शिव ताण्डव स्तोत्रम का स्मरण कीजिए-
जटा कटाह संभ्रम भ्रमन् निलिम्प निर्झरी विलोल वीचि वल्लरी…

शिव की जटा कैसी है? खौलते हुए कड़ाह के सदृश्य।
उसमें गंगा की चंचल लहरें घूमती हुई भँवर बना रही हैं और उसमें से निर्झरी बनकर झर रही हैं। यह सूर्य मण्डल में घूमते अम्भ का वर्णन है। गंगा की अमृतधारा अम्भ से उतरी है।

आख्यानिक भाषा में यह भी कहा जाता है कि गंगा विष्णु की चरणामृत हैं और ब्रह्मा के कमण्ल से निकली हैं। पौराणिक आख्यानों को वेद विज्ञान से समझा जाता है।

जल के चार भेद हैं-
अम्भ, मरीची, मर और अप् ।

अप् भूगर्भीय जल है।
मर नदी, तालाब का जल।

आप जानते हैं- पंचतत्त्वों में एक तत्त्व ‘जल’ है।

शास्त्र में जल तत्त्व का गंभीर परिचय मिलता है। गंगा जी का यह परिचय कथा-मिथ नहीं है, विज्ञान है!

(एक सुधी पाठक द्वारा भेजा गया आलेख )