Friday, April 19, 2024
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वीर बालिका ताजकुंवरि

कानपुर के निकट गंगा के तट पर किसोरा नामक राज्य था । इस राज्य के अन्दर वीरों का निवास था । अपनी वीरता के लिए सुप्रसिद्ध इस राज्य के शासक सज्जन सिंह अपने राज्य के लिए निरन्तर संघर्ष करते रहते थे, इस कारण यह राज्य अब तक दिल्ली के शासकों के सम्मुख अपना मस्तक उंचा किए गौरव से स्थिर था । इस राज्य के शासक सज्जन सिंह की पुत्री ताजकुंवरी तथा
२० भारतीय नारियां राजकुमार लक्षमण सिंह भी अपनी – अपनी वीरता के लिए दूर – दूर तक चर्चित थे । एक बार दोनों बहिन – भाई जंगल में आखेट को गये तो घोडों पर बैठे – बैठे ही उनमें एक चर्चा आरम्भ हो गई । इस चर्चा को आरम्भ करते हुए भाई ने कहा कि ” क्यों बहिन ! तूं कहती है कि तूं मुझ से अधिक पठानों को मारेगी, उनका बध करेगी ।”

भाई का वचन सुनकर बहिन ने कहा कि ” निश्चय ही !” दोनों भाई – बहिन उत्तम शस्त्रों से सुसज्जित थे । दोनों की आकृति भी लगभग मिलती सी ही थी तथा दोनों घोडों पर सवार हो अपने शिकार की खोज में थे । इन की बातों को सुनकर झाडी में छुपे एक व्यक्ति ने ललकार कर कहा ” काफ़िर ! जुबान सम्हाल कर बोल !” झाडी में से किसी की इस प्रकार की कर्कष भरी आवाज निकली तथा इस के साथ ही दो बडे – बडे पत्थर आये, जो युवक राजकुमार लक्षमण सिंह के घोडे की गर्दन को स्पर्श करते हुए दूर जा पडे । इस स्वर को , इस लल्कार को सुन कर, इस सुन्सान जंगल में दोनॊ भाई – बहिन चकित से हो इधर – उधर देखने लगे तथा एक दूसरे से बोले कि देखते हैं कि किसकी तलवार अधिक शत्रुओं का वध करती है । उन्हें समझते देर न लगी कि झाडी में कुछ शत्रु छुपे हैं ।

अब कुमार ललकारते हुए झाडी में घोडे सहित यह कहते हुए घुस गया कि राजपूत को काफ़िर कहने वाला तूं कौन है ? सामने आ । अब तक तुम्हारा पाला किसी क्षत्रिय से नहीं पडा । घोडे के झाडी में जाते ही कई पठान सैनिक एक साथ खडे हो गए, वह इस अवसर की ताक में ही छुपे हुए थे । शत्रु को देखते ही राजकुमार की तलवार चमक उठी तथा देखते ही देखते चार – पांच पठानों के सिर धूलि में जा गिरे । अब कुमारी की बारी थी । वह देख रही थी कि उसके भाई ने चार – पांच शत्रुओं को मार गिराया है , इस कारण कहीं वह शत्रु नाश करने मे पिछड न जावे । अत: उसने भी भाले के वार आरम्भ कर दिए । उस के वारों से भी अनेक पठान सैनिक रौद्रनाद करते हुए धरती पर लौटने लगे ,

जबकि दो शत्रु सैनिक इस छोटे से संघर्ष से बच कर भागने में सफ़ल हो गए । इस प्रकार इन दो भाई – बहिनों ने घात लगाकर बैठे इन आक्रमणकारियों के एक समूह को मिण्टों में ही धूलि में लौटने को बाध्य कर दिया तथा उनका संहार कर सफ़लता का सेहरा बांधे अपने राज महल को लौट पड़े । अपने देश पर मर मिटने को तैयार अपने सैनिकों के साहस तथा वीरता के परिणाम स्वरूप किसोरा राज्य के शासक सज्जन सिंह अब तक दिल्ली के मुस्लिम शासक के सम्मुख अपना सिर ऊंचा रखे हुए थे । इस नरेश ने आखेट से लौटे अपने प्रिय राजकुमार लक्षमण सिंह तथा राजकुमारी ताजकुंवरी से उनकी वीरता का समाचार सुना तो उनकी छाती आनन्द से फ़ूल गई । वह इस दिन की ही प्रतीक्षा में थे क्योंकि बडे ही यत्न से उन्होंने अपने राजकुमार पुत्र के साथ ही साथ राजकुमारी को भी शस्त्र चलाने तथा सैन्य संचालन की शिक्षा दी थी , इस में पारंगत किया था अश्वारोहन की भी उत्तम शिक्षा उन्होंने दोनों को दी थी । इस सम्बन्ध में उन्होंने पुत्र व पुत्री में कभी भी कोई भेद न किया था । दोनॊं को एक समान युद्ध विद्या देने पर भी उन्हें अपनी पुत्री के युद्ध कौशल पर गर्व था ।

एक बार तो राजकुमारी ताजकुंवरी ने स्वयं सैन्य संचालन करते हुए मुस्लिम सेना को परास्त कर दिया था । इस युद्द में राजकुमारी के एक हाथ में भाला चमक रहा था तो दूसरे हाथ में रक्त से सनी हुई खड॒ग लिये राजकुमारी खून से सराबोर अपने घोडे पर बडी प्रसन्न किन्तु तेजस्वी मुद्रा में आसीन थी । इस प्रकार विजयी हो उसके नगर द्वार में प्रवेश करते ही अटालिकाओं में खडे नगर के स्त्री – पुरुषों ने इस विजयी बाला पर भारी पुष्प वर्षा करते हुए उसका स्वागत किया । सब मानने लगे कि यह राजकुमारी तो साक्षात् सिंहनी है । दिल्ली के बादशाह की इस युद्ध में बची खुची सेना ने दिल्ली दरबार में जाकर सब समाचार दिये तथा राजकुमारी ताजकुंवरि की वीरता तथा सुन्दरता की कथा सुनाई । बादशाह ने पहले से ही राजकुमारी के सौन्दर्य की कहानियां सुन रखीं थीं तथा उसे पाने का अभिलाषी था । अत: इस अवसर को बादशाह ने खोने न दिया तथा तत्काल किसोरा के शासक सज्जन सिंह को पत्र लिखा । पत्र में उसने लिखा ” तुम्हारी पुत्री ने अकारण ही हमारे अनेक पठान सैनिकों को मारा है , इस लिए उसे दण्ड देने के लिए बिना कोई बहाना किए चुपचाप हमारे हवाले कर दो अन्यथा देखते ही देखते हमारी सेनाएं किसोरा राज्य को धुलि – धुसरित कर देंगी । ”

पत्र को पाते ही महारज सज्जन सिंह का चेहरा लाल हो गया , अन्य सभासदों का खून भी खोलने लगा । उन्होंने तत्काल बाद्शाह को अपने खून से पत्र लिखा कि ” राजपूत अपनी बहू बेटियों को बुरी दृष्टी से देखने वालों की आंखें निकालने के लिए , उनके सिर काटने के लिए सदा तैयार रहते हैं । किसोरा कोई मिठाई नहीं है, जिसे बादशाह गटक लेंगे , वे आवें, हमारे हाथों में भी खड्ग है । आतताईयों के वध में मेरी पुत्री ने कोई अन्याय नहीं किया ॥”

इस पत्र को पा आगबबूला हुए बादशाह ने विशाल सेना की सहायता से किसोरा पर आक्र्मण कर दिया । एक ओर किसोरा की छॊटी सी सेना थी तो दूसरी ओर दिल्ली की टिडी दल के समान विशाल सेना थी | राजपूतों ने बडी वीरता से इस विशाल सेना के साथ लोहा लिया किन्तु यह छोटी सी सेना एक विशाल सेना के साथ कब तक लडती । धीर – धीरे यह सेना ओर भी छोटी होती चली जा रही थी । कुछ समय बाद नगर का द्वार टूट गया । नगर द्वार दूटते ही विशाल शत्रु सेना ने नगर मे प्रवेश किया । इस सीधे युद्ध में राजा सज्जन सिंह शहीद हो गये । पठान सेना पूरे नगर में फ़ैल कर कत्ले आम करने लगी ।

युद्ध में व्यस्त यवन सेनापति ने अकस्मात् देखा कि एक बुर्ज पर खडे दो रजपूत उसकी सेना पर बडी तेजी से बाण वर्षा कर रहे हैं । उसे समझते देर न लगी कि यह युद्ध में लगे हुए दोनों में से एक राजकुमार है तो दूसरी राजकुमारी है । उसने तत्काल अपने सैनिकों को आदेश दिया कि इन दोनों को किसी भी प्रकार जीवित ही पकडा जावे । वह यह आदेश अभी पूरा भी न कर पाया था कि एक तीर उसे भेदता हुआ निकल गया तथा यह निर्दयी शत्रु सेनापति वहीं जमीन पर लुटक गया । यह सर – सन्धान ताजकुंवरी ने उस समय किया था जब उसे इंगित करते हुए वह अपनी सेना को आदेश दे रहा था ।

राजकुमारी के इस कृत्य से पठान सेना अत्यन्त कुपित हो उठी तथा भारी संख्या में इन सैनिकों ने मिलकर उस बुर्ज पर धावा बोल दिया , जहां से यह दोनों भाई – बहिन युद्ध का संचालन कर रहे थे । शत्रु सेना को अपने समीप आते देख ताजकुंवरी समझ गयी कि अब वह स्वयं अपनी रक्षा नहीं कर सकती । इसलिए उसने अपने भाई राजकुमार लक्षमण सिंह को कहा की भाई ! अब बहिन की रक्षा का समय आ गया है । जब भाई ने रोते हुए कहा कि बहिन ! क्या अब रक्षा सम्भव है ? तो बहिन ने फ़िर कहा ! राजपूत होकर रोते हो | मेरे शरीर की रक्षा की अब आवश्यकता नहीं है । अब तो बहिन के धर्म की रक्षा का समय है, जिसे आप बखूबी कर सकते हॊ ।

ताजकुंवरी की झिडकी भरी प्रार्थना को सुनकर भाई ने कहा कि बहिन ! तेरी रक्षा करना मेरा कर्तव्य ही नहीं मेरा धर्म भी है । मैं इसे पूरा अवश्य करूंगा । लक्षमण सिंह , जो अब तक तीरों का ही प्रयोग कर रहा था , ने तत्काल म्यान से अपनी तलवार निकाली तथा यवन सैनिकों के निकट आने से पूर्व ही अपने हाथों उस सुन्दर प्रतिमा को दो भागों में बांट दिया, जिसे वह अपनी बहिन कहता था तथा जिससे वह बेहद प्रेम करता था । बहिन के धर्म की रक्षा करने के पश्चात् राजकुमार ने रौद्र रूप धारण कर लिया । अब अकेले होते हुए भी यवन सेना को गाजर मूली – समझ कर उसे काट रहा था । एक ओर वह अकेला था तो दूसरी ओर शत्रु की भारी सेना थी । कहां तक मुकाबला करता किन्तु जब तक उसके शरीर में रक्त की एक भी बूंद बाकी रही तब तक वह शत्रु सेनाओं को काटता ही चला गया । उसने अकेले ने एसी वीरता दिखाई कि जब वह बुरी तरह से घायल होकर अपनी बुर्ज पर गिरा तब तक शत्रु सेनायें घबरा कर भागती हुई दिखाई दे रही थीं । इस प्रकार अपना बलिदान देकर एक भाई ने अन्त तक अपनी बहिन का , एक महिला का धर्म नष्ट न होने दिया । एसे वीरों के बलिदानों से ही यह भारत भूमि आज तक बची हुई है ।

डॉ. अशोक आर्य
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