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वीर माता द्वारका बाई (चापेकर बंधुओं की माता)

एक माता ने तीन सुपूत पैदा किये और यह तीनों ही देश की स्वाधीनता के लिए विदेशी अंग्रेज सरकार के कोप का भाजन बनते हुए बलिदान हो गए| आप क्या सोचते होंगे कि उस माता का, जिसने अपनी पूरी की पूरी सन्तानों के बलिदान पर उसका क्या हाल हुआ होगा? वह क्या सोचटी होगी और उस की व्यथा कैसी होगी? आओ इस माता से मिल कर जानने का प्रयास करें|

माता द्वारकाबाई पंडित हरीपन्त जी की पत्नी थी, जो मूलत: कोंकण (महाराष्ट्र के रहने वाले थे, किन्तु इनके पूर्वज मोरया गोसावी संस्थान में आये और जब से इधर आये तब से ही पूना नगर महाराष्ट्र के निकट स्थित चिंचवड में स्थाई रूप से रहने लगे| इस कारण यह चिचवडवाले कहलाने लगे| इन के यहाँ क्रमश: माता ने तीन बार गर्भ धारण करते हुए तीन पुत्रों को जन्म दिया| इनके नाम इस प्रकार थे| दामोदर, बालकृष्ण, (जिसे बापूराव भी कहते थे) और सबसे छोटे का नाम वासुदेव था| यह तीनों बालक देश को आजाद करवाने के लिए क्रान्ति पथ के पथिक बने और देश पर बलिदान हो गए| इन का बलिदान भी एक साथ ही हुआ| एक ही समय में घर के तीनों दीपक बुझ गए| अपनी संतान की अवस्था क्या रही होगी, इसे हम इस घटना से स्पष्ट करने का प्रयास करते हैं, जिसे वह स्वयं ही बखान कर रही हैं:-

मुझे अब भी याद आते हैं वे क्षण, जिस एक शाम को मैं स्तोत्र बोल रही थी और स्वामी विवेकानंद जी की शिष्या भगिनी निवेदिता मुझ से मिलने आई थीं- मेरे तीनों बेटे देश के लिए फांसी पर चढ़ गए, घर में विधवा बहुएं, नाते पोते… कैसी मन:स्थिति होगी मेरी? इतना बोलकर माता इस बात को एक बार यहीं छोड़ कर अब अपने परिवार का परिचय देने लगती है|

बलिदानी तीनों बंधुओं के पिता श्री हरिपन्त अपने क्षेत्र के जाने माने सुविख्यात कीर्तन्कार थे| वह जहाँ भी कीर्तन के लिए जाते, उनका बड़ा बेटा दामोदर भी उनके साथ हारमोनियम लेकर जाता और कीर्तन के समय गाये जा रहे भजनों के साथ वह हारमोनियम बजाते हुए एक नई प्रकार का आनन्द पैदा कर देता था| इनका दूसरा बेटा भी जब पिताजी कीर्तन के लिए कहीं जाते तो वह भी उनके साथ होता था| इसका नाम बालकृष्ण था और घर में इसे बापूराव के नाम से बुलाया जाता था| जब पिताजी कीर्तन करते तो यह स्वरमंडल बजाते हुए उनका साथ देता था| सब से छोटा बेटा वासुदेव भी कीर्तन के समय अपने पिता की किसी न किसी प्रकार से सहायता किया करता था| इस प्रकार यह तीनों बालक पूरे मन से अपने पिता के काम में हाथ बंटाया करते थे किन्तु तीनों साथ होते हुए भी सब की प्रवृति अलग अलग थी| हां! यह हजार के लगभग दंड-बैठक, इससे कहीं अधिक बार सूर्य नमस्कार प्रतिदिन किया करते थे| इसके अतिरिक्त कुँए में कितना समय तैरते थे, इसका तो कोई हिसाब ही नहीं था| इस प्रकार घर पर रहते हुए यह तीनों बालक किसी न किसी काम में सदा व्यस्त रहते थे, कभी निठल्ला नहीं बैठते थे| इस सब कारण से वह बलिष्ठ थे| यह सब होते हुए भी यदि वह कभी घर पर देरी से आते तो उनके पिताजी इसे सहन नहीं करते थे और उनसे गुस्सा होते थे| इसके अतिरिक्त कभी रात के समय देरी से आते तो उनकी पत्नियां इसे अपने ससुर से छुपाने का प्रयास करते हुए बड़ी सवाधानी के साथ धीरे से दरवाजा खोलती और तीनों को घर में प्रवेश करवा देतीं|

जब पिता हरिपंत कीर्तन करते थे तो हरबा पंडित पखावज पर उनका साठ दिया करते थे| अनेक बार कोई छोटी सी घटना बहुत बड़ा रूप ले लिया करती है| एसा ही एक बार इनके साथ भी हो गया| एक समय की बात है कि दामोदर और बापुराव हरबा पंडित के साथ खडकी पुल पर घूमने निकल गए| वहां पर कुछ अंग्रेज सिपाही शराब के नशे में धुत हो कर घूम रहे थे| इन्हें देख कर वह हरबा पंडित की पगड़ी का मजाक उड़ाने लगे| दामोदर उनकी इस हरकत को सहन न कर सका और उसने इन सिपाहियों की बुरी तरह से पिटाई कर दी| उन्हें पीटने के बाद इन बेसुद्ध अंग्रेज सिपाहियों को वहीँ पर ही छोड़कर हरबा के साथ घर लौट आये|

इस प्रकार की ही एक अन्य घटना भी सामने आती है| इस घटना के अंतर्गत बापुराव ने बताया कि मुंबई के प्रो. वेलिनकर के सर पर लोहे का सरिया इस प्रकार दे मारा कि… बस| इस पर जब माता ने पूछा कि उसे क्यों मारा? उस ने तुम्हारा क्या बिगाडा था? तो दामोदर ने कहा कि वह स्वधर्म छोड़कर ब्रिटिश के धर्म में गया अर्थात ईसाई हो गया था| यह जो अंग्रेज लोग होते हैं, यह आस्तीन के सांप के समान होते हैं, इनका कुछ भी नहीं पता चल पाता कि यह कब पलटी मारें और काट खाए| इस पर वासुदेव ने कहा कि यह तो उनके लिए एक साधारण सा प्रायश्चित मात्र ही था| इतना कुछ करके हम कोल्हापुर के लिए रवाना हो गए|

इन तीनों बच्चों का लालन पालन कुछ इस प्रकार के वातावरण में हुआ था कि तीनों ही अंग्रेज के नाम से चिढते थे| माता ने आगे बताते हुए कहा कि मुंबई कोर्ट में अत्यधिक सुरक्षा के बीच रानी का पुतला था किन्तु इस सुरक्षा को भी भेदते हुए उस पुतले पर डामर पॉट कर और फिर उसके गले में जुते की मला पहना दी गई| वीरता का यह कार्य करने वाले भी कोई और नहीं उसके पुत्र दामोदर और बापूराव ही थे| हाँ! इस सत्य के समबन्ध में कोई नहीं जानता केवल वह दोनों ही जानते हैं और तीसरी माता क्योंकि जो कुछ भी वह करते थे माता को आ कर बता दिया करते थे| माता का आशीर्वाद उन्हें मिलता ही रहता था|

पूना के अन्दर प्लेग की महामारी फैली तो मानो अंग्रेज के लिए तो लाटरी ही खुल गई हो| अंग्रेज के सैनिक बिना किसी झिझक के जूतों सहित किसी के भी घर में घुस जाते| घर में स्थित मंदिर में भी वह जूतों सहित चले जाते और घर के अन्दर जो कुछ भी उन्हें अच्छा लगता बिना किसी से पूछे लूट कर ले जाते| यह अन्याय और लूट अंग्रेज सिपाही प्लेग के नाम पर करने लगे थे| इस सब से ही उन्हें शांती नहीं मिलती थी, वह घर के लोगों के कपडे तक उतरवा कर तलाशी लेते थे| जब इस प्रकार की घटनाओं का तीनों भाइयो को पता चलता तो वह अंग्रेज सिपाहियों के विरोध में गुस्से से कांपने लगते थे|

माता ने शिवाजी जयंती की एक घटना बताते हुए अपने बच्चों के लिए अत्याधिक गर्व का अनुभव किया| उसने बताया कि एक बार की बात है कि शिवाजी जयंती का अवसर था| इस अवसर पर दामोदर और बापुराव ने अपने सिरों पर भगवे रंग का कपड़ा बाँध लिया और हाथों में डंडा ले लिया| इस प्रकार का रूप बना कर शिवाजी जयंति स्थल पर दोनों और खड़े हो गए और लगे जमीन पर डंडा पटकने डंडा पटकते हुए बोल रहे थे:-
अरे मूर्खो, क्यों मर्द बने हो
इतनी बड़ी बड़ी मूछों पर ताव दे रहे हो?
आती नहीं शर्म तुम्हें इस दासता को भोगते हो,
जान जाने कुछ और उपाय करो|

उनकी मराठों के लिए इस ललकार को सुनकर माता को न केवल आनंद का ही अनुभव होता अपितु उनका उत्साह बढाते हुए कहती “ बहुत अच्छा, बहुत अच्छा, करो करो! जान जाने का उपाय करो! इन अंग्रेजों को अच्छा पाठ पढाओ| अपनी पत्नी के इन शब्दों को सुनकर उसके पति उसे कहते – देखो द्वारकाबाई इसी शिक्षा से तो बच्चों को बिगाडोगी|”

इस प्रकार की घटनाएँ प्राय: होती ही रहती थी| फिर वह दिन भी आया जब द्वारकाबाई ने सुना कि अंग्रेज अधिकारी मिस्टर रैंड और आयर्स्ट नाम के यह दोनों अधिकारी रानी (इंग्लैण्ड की महारानी) का जन्मदिन मना कर लोट रहे थे कि मार्ग में उनको मार दिया गया| इस पर देश की दीवानी इस माता ने कहा कि “यह काम तो मेरे लाडलों के सिवा और किसी का हो भी नहीं सकता| मुझे पूरा पूरा यकीन था | मेरे बेटों ने अपना शौर्य दिखा दिया|”

उन सस्ते दिनों में एक सौ रुपये की छोटी सी रकम भी आज के हजारों रुपये के बराबर होती थी और जब बड़ी रकम का लालच मिले तो कौन क्या करेगा?, इसका अनुमान सरलता से लगाया जा सकता है| हुआ भी कुछ इस परकर का ही| अंग्रेज अधिकारी रैंड की ह्त्या करने वाले का पता लगाने वाले को बीस हजार के पुरस्कार की घोषणा कर दी| माता का मानना है कि उनके बच्चों के लिए यहाँ पर ही गड़बड़ हो गई| रैंड की हत्या की छानबीन ब्रुइन कर रहे थे| उसने बड़ी चतुराई से द्रविड़ बन्धुओं को अपने साथ ले लिया|

इस प्रकर सबसे पहले दामोदर पकड़ा गया| पकडे जाते ही उसने बडी वीरता दिखाते हुए यह सब स्वीकार कर लिया| इसके पश्चात रानडे, साठे और बालकृष्ण भी पकडे गए| इतना ही नहीं चापेकर के दोनों भाईयों के पकडे जाने के बाद उनका सबसे छोटा भाई, इसकी आयु उस समय मात्र उन्नीस वर्ष ही थी, भी पकड लिया गया| यह सब होने पर स्वयं के पकडे जाने से पहले ही बालकृष्ण चापेकर तथा वासुदेव चापेकर ने एक अदभुत कार्य कर दिया| दोनों ने स्वयं को ब्रुइन का नौकर बता कर उस देशद्रोही तक पानी पहुंच बना ली और अवसर मिलते ही उस देशद्रोही को भी मार दिया , जो लालच में आकर देशद्रोह कर अंग्रेज का साथ दे रहा था|

१९ अप्रैल को सबसे बड़े भाई दामोदर चापेकर को फांसी दी गई| इस के नो दिन बाद अर्थात ९ मई को उसके दूसरे भाई वासुदेव चापेकर को फांसी दी गई और फिर १० मई को बालकृष्ण चापेकर के साथ रानडे को भी फांसी पर चढ़ा दिया गया| इस समय छोटा भाई और मझला भाई चाहते थे कि उन दोनों को साथ साथ फांसी दी जावे| यह उनकी अंतिम इच्छा थी किन्तु अंग्रेज ने फांसी पर चढने वाले उसके बेटों की अंतिम इच्छा भी पूरी नहीं की|

बलिदानियों की माता ने यह सब कथा भगिनी निवेदिता को बताई और अंत में कहा एक पुरानी कथा एक वाक्य में इस प्रकार सुनाई- “अपने तीन पुत्रों का युद्ध में अंत होने पर एक वृद्धा ने छत्रपति शिवाजी महाराज से कहा था- राजा मेरे चौथा बेटा होता तो उसे भी मैं आपके सुपुर्द कर देती|”

इस कथा को सुना कर माता द्वारिकाबाई ने भगिनी निवेदिता को इस प्रकर कहा, “ मैं क्यों दु:ख करूं? मेरे तो तीनों राजहंस मातृभूमि की गोद में चिरनिद्रा में सो रहे हैं| ऐसे देशभक्तों की मां बनने का सौभाग्य भगवान ने मुझे दिया| मेरा जीवन सार्थक हो गया|”

cउनके बलिदान पर रोती नहीं अपितु छाती फुला कर गर्व करती है| जब तक इस देश में इस प्रकार की माताएं रहेंगी, तब तक देश निरंतर उन्नति करता ही रहेगा|

डॉ. अशोक आर्य
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