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क्या भविष्य है पुस्तकों और समाचार पत्रों का?

कई महीनों तक खिंचे लंबे लॉकडाउन के कारण दुनिया भर में समाचार पत्र-पत्रिकाओं का प्रसार और कारोबार बुरी तरह प्रभावित हुआ है। अब सुबह की चाय के साथ अखबार या सप्ताहांत पर पत्रिकाओं या पुस्तकों का सहारा पहले जैसे नहीं मिल पा रहा। समाचार पत्र और पत्रिकाएं केवल घरों तक होने वाली आपूर्ति के भरोसे नहीं हैं बल्कि उनके लिए दुकानें और स्टॉल भी उतने ही महत्त्वपूर्ण हैं जहां से लोग इन्हें खरीदते हैं। इसके अलावा कई श्रेणियों में विज्ञापनदाता मसलन यात्रा क्षेत्र के विज्ञापनदाताओं को खुद राजस्व संकट से जूझना पड़ रहा है। ऐसे में उन्होंने विज्ञापन देने बंद कर दिए हैं। ये विज्ञापन हर प्रकार के मीडिया के लिए लेकिन समाचार पत्रों और पत्रिकाओं के लिए खासतौर पर महत्त्वपूर्ण हैं।

क्या सन 1990 के दशक के आखिर में इंटरनेट के आगमन के बाद से चला आ रहा प्रिंट मीडिया का कष्टप्रद सफर अब अपने अंत की ओर है? सन 1960 के दशक के आरंभ में जब नायलॉन और पॉलिएस्टर के कपड़ों का आगमन हुआ था और लोगों में पॉलिएस्टर की पैंट और नायलॉन की साडिय़ां खरीदने की होड़ मची थी तब ऐसा लगा था मानो पहनने के कपड़ों में कॉटन का इस्तेमाल अब समाप्त हो जाएगा लेकिन अब लोग दोबारा कॉटन की ओर लौट रहे हैं। नायलॉन की साड़ी और पॉलिएस्टर के कपड़े अब गंवई होने की निशानी माने जाते हैं।

तमाम तकनीकी नवाचारों को आधुनिकता और प्रगति का उदाहरण माना जाता है जो कभी पीछे नहीं पलटते लेकिन इतिहास पर करीबी नजर डालें तो पता चलता है कि यह बात हमेशा सही नहीं होती। कीटनाशकों, खासतौर पर डीडीटी का इस्तेमाल भी ऐसा ही एक आधुनिकीकरण था जो शुरू हुआ, दशकों तक फला-फूला और उसके बाद उसका पराभव हुआ।

स्विटजरलैंड के एक केमिस्ट पॉल हर्मन मुलर ने दूसरे विश्वयुद्ध से ऐन पहले डीडीटी का अविष्कार किया था। उस वक्त इसे टाइफस और मलेरिया जैसी घातक और जानलेवा बीमारियों का प्रसार रोकने वाला माना जाता था। युद्ध के बाद इसे जादुई रसायन कहकर पुकारा जाने लगा। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद 20 वर्ष की अवधि में लाखों टन डीडीटी का उत्पादन हुआ और दुनिया भर में इसका इस्तेमाल कृषि क्षेत्र के कीटों पर नियंत्रण करने में किया गया। इसके बाद विश्व स्वास्थ्य संगठन ने डीडीटी को दुनिया भर में मलेरिया उन्मूलन के लिए अपनाया और यह अनुशंसा भी की कि मामूली मात्रा में डीडीटी लोगों के घरों में इस्तेमाल करने से उन मच्छरों से निजात मिलेगी जो मलेरिया पैरासाइट के वाहक होते हैं।

भारत में जब यह अभियान शुरू हुआ तब हर वर्ष मलेरिया से करीब 5 लाख लोगों की मौत हो जाती थी। अगले 10 वर्ष में देश में मलेरिया से होने वाली मौतों का सिलसिला थम सा गया। इसके बाद तो कृत्रिम कीटनाशकों और रसायनों के इस्तेमाल को वैज्ञानिक प्रगति की तरह देखा जाने लगा।

इसके बाद आई रेचल कार्सन की पुस्तक साइलेंट स्प्रिंग। इस पुस्तक ने बताया कि कैसे एक बार डीडीटी का छिड़काव किए जाने के बाद यह पर्यावरण में बना रहता है और कैसे खाद्य शृंखला में यह एक प्रजाति से दूसरी प्रजाति में पहुंचता हुआ उन्हें नष्ट करने का काम करता है। इस पुस्तक को पर्यावरण आंदोलन की शुरुआत करने का श्रेय दिया जाता है। इसके चलते अमेरिका तथा अन्य सरकारों ने सन 1972 में डीडीटी पर प्रतिबंध लगा दिया। डीडीटी का इस्तेमाल खत्म होने पर मलेरिया ने फिर से वापसी की और एक बार फिर लाखों लोग इसकी वजह से मरने लगे। इनमें ज्यादातर अफ्रीकी देशों के बच्चे थे। डीडीटी और ऐसे ही अन्य कृत्रिम रसायन दोबारा इस्तेमाल होने लगे हैं लेकिन कार्सन के आंदोलन ने पर्यावरण आंदोलन को गति प्रदान कर दी थी और यही कारण था आने वाले दिनों में जैविक खानपान का उदय हुआ। जैसा कि हम देख सकते हैं जटिल तकनीकी और सामाजिक प्रक्रिया भी नई तकनीक के उदय और उसके पराभव में अपनी भूमिका निभाती है।

इससे सबक सीखते हुए यह आवश्यक है कि हम उन सामाजिक प्रक्रियाओं की पड़ताल करें जिनके माध्यम से प्रिंट मीडिया संघर्ष करता हुआ आगे बढ़ा है।

प्रिंट मीडिया को पहला झटका सन 2000 के दशक के आरंभ में लगा था जब इंटरनेट अपनी राह बना रहा था। उस वक्त इंटरनेट वेबसाइट वैवाहिक विज्ञापन, नौकरी, यात्रा और किराये के मकानों के विज्ञापन नि:शुल्क दे रही थीं। इससे अखबारों और पत्रिकाओं के वर्गीकृत विज्ञापन कम होने लगे जो उनकी आय का कम से कम आधा हिस्सा प्रदान कर रहे थे। चूंकि वेबसाइट ये विज्ञापन नि:शुल्क दिखा रही थीं इसलिए जल्दी ही इन्हें ग्राहक भी मिले और इसके साथ ही ऐसे वेंचर कैपिटल फंड सामने आए जो इन इंटरनेट मीडिया वेंचर को होने वाले नुकसान की भरपाई करने के लिए तैयार थे। यह सिलसिला आज तक जारी है।

दुनिया भर में समाचार पत्र-पत्रिकाओं का स्वामित्व और प्रबंधन उनके मालिकों के परिवार की तीसरी पीढ़ी के हाथ में है जिनके पास ऐसी तकनीकी काबिलियत नहीं है कि वे कुछ नवाचार कर सकें।

वे कौन सी सामाजिक शक्तियां हैं जो शून्य लागत वाली पूंजी तैयार करती हैं और जिसे दुनिया भर में लगाया जाता है? यकीनन इसका मूल स्रोत अमेरिका है जहां अत्यधिक प्रभावशाली वित्तीय सेवा समुदाय लॉबीइंग करता है और इस दलील के साथ करीब शून्य ब्याज दर वाली व्यवस्था कायम करता है कि इस ब्याज दर पर कारोबारों को पूंजी सस्ती मिलती है और नए रोजगार तैयार होते हैं। यह बात सच्चाई से दूर है। छोटे कारोबारों के मालिकों को कभी बैंक से पूंजी नहीं मिलती। उन्हें पूंजी किसी पूंजीवादी से मिलती है जो बदले में उनके कारोबार में हिस्सेदारी लेगा।

यह अवधारणा इंटरनेट को एकदम अलग दिशा में ले गई और इसने उसे वित्तीय समुदाय के हाथ का खिलौना बना दिया जिससे वे मनचाहे ढंग से खेलने लगे।

बहरहाल, एक मौजूदा अवधारणा जो मुझे चकित करती है वह है कंप्यूटर प्रोग्रामिंग की पुस्तकों और वेबसाइटों का रुख। मैं इन दोनों का ग्राहक हूं। जब एक नई प्रोग्रामिंग तकनीक उभरती है तो उन्हें बनाने वाले अपनी तथा अन्य वेबसाइटों पर कुछ उसके बारे में कुछ ललचाने वाली जानकारी डाल देते हैं। उनकी पूरी जानकारी आपको तभी मिलेगी जब आप सलाहकार के रूप में उनकी सेवा लेंगे या भुगतान करके उनके प्रशिक्षण कार्यक्रम में ऑनलाइन या ऑफलाइन शामिल होंगे। या फिर उनके द्वारा लिखी गई किताब खरीदनी होगी जिसका मूल्य कम से कम 35 डॉलर तो होता ही है।

तो क्या प्रिंट मीडिया जगत को अपने लिए किसी रेचल कार्सन की प्रतीक्षा है? या फिर वह किसी ऐसे नए उद्यमी की प्रतीक्षा में है जो इस उद्योग में नवाचार लाएगा?

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